Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन संकट ने भारत की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर ज़रूर डाला है. लेकिन, दुनिया की बढ़ती मांग और घरेलू वित्तीय प्रबंधन की मदद से भारत इस झटके से उबर सकता है.

#Indian Economy: भारत को लेकर उम्मीदें बनी हुई हैं!
#Indian Economy: भारत को लेकर उम्मीदें बनी हुई हैं!

भारत बदल चुका है. पहले जिस तरह जनहित को ध्यान में रखते हुए पूरी तरह व्यवहारिक होने में हिचक हुआ करती थी, अब वो दौर बीत चुका है. उपनिवेशवाद की धुंध और शीत युद्ध के दौर का वैचारिक बोझ बिल्कुल उचित ढंग से दूर धकेला जा रहा है. यूक्रेन संकट से निपटने के लिए भारत ने जो स्पष्ट रणनीति बनाई है, उसने देश का मान बढ़ाया है- एक तरफ़ तो भारत, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मध्यस्थता और मानवीय मदद की कोशिशों को लगातार समर्थन दे रहा है. वहीं दूसरी तरफ़ भारत ने न तो इस संकट के लिए किसी को ज़िम्मेदार ठहराया और न ही किसी देश का पक्ष लिया है. इसकी वजह भी साफ़ है. यूरोप के सुरक्षा ढांचे में भारत एक बाहरी देश जो है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के बावजूद, चीन ने इस संकट को लेकर चीन ने अस्पष्ट रुख़ अपनाया है. जबकि, रूस और भारत की लंबे समय से चली आ रही दोस्ती में चीन भी एक पक्ष बन चुका है. ऐसे में भारत ने स्पष्ट रुख़ अपनाया कि जो रवैया चीन के लिए अच्छा है, वो भारत के लिए इतनी बुरी बात भी नहीं है. 

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के बावजूद, चीन ने इस संकट को लेकर चीन ने अस्पष्ट रुख़ अपनाया है. जबकि, रूस और भारत की लंबे समय से चली आ रही दोस्ती में चीन भी एक पक्ष बन चुका है. ऐसे में भारत ने स्पष्ट रुख़ अपनाया कि जो रवैया चीन के लिए अच्छा है, वो भारत के लिए इतनी बुरी बात भी नहीं है. भारत का ये रुख़ काफ़ी हद तक तार्किक भी लगता है. देश के नफ़ा- नुक़सान का ख़याल रखना और कभी कभार, बहुत दुर्लभ मौक़े पर दरियादिली दिखाने वाले एंगेला ‘मर्केल के सिद्धांत’ पर चलना, भारत के लिए काफ़ी हद तक कारगर है.

यूक्रेन का संकट, जो बुनियादी तौर पर यूरोप की समस्या है, उसे लेकर ये सोचा- समझा रवैया अपनाने से न केवल बड़ी भूमिका निभाने की भारत की सीमित क्षमता उजागर होती है. मगर इससे ये भी पता चलता है कि अंतरराष्ट्रीय विवादों में भारत किस स्तर की भूमिका निभाने का इच्छुक है. भारत, बड़ी बड़ी बातें करने वाले देश के तौर पर सामने नहीं आता. इसकी एक वजह तो विश्व की कुल आबादी में उसकी भारी हिस्सेदारी और उसकी तुलना में विश्व अर्थव्यवस्था या व्यापार में उसका बहुत कम योगदान है.

अर्थव्यवस्था के महामारी से उबरने की राह मुश्किल

इन बातों के बावजूद, मौजूदा संकट के वैश्विक आर्थिक प्रभावों की चपेट में भारत भी आया है. जिस तरह से पश्चिमी देशों ने रूस को दंडित और क़ाबू में करने के लिए उस पर सख़्त प्रतिबंध लगाए हैं, उसका भारत की अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक असर पड़ा है. इस संकट से पहले भी भारत, आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण हालात से गुज़र रहा था. महंगाई पहले ही रिज़र्व बैंक द्वार तय की गई सालाना छह प्रतिशत की दर को पार कर चुकी थी. आज अमेरिका में महंगाई की दर फ़ीसद और यूरोपीय संघ में 7.5 प्रतिशत की सीमा को पार कर चुकी है. ऐसे में भारत के मौद्रिक अधिकारियों के पास एक अच्छा मौक़ा ये है कि इन देशों की तुलना में भारत में महंगाई की दर एक प्रतिशत कम ही है, और इस बात की काफ़ी संभावना जताई जा रही है कि चौथी तिहाई में महंगाई दर 6.8 प्रतिशत रहेगी. भारत और अमीर देशों में फ़र्क़ बस इतना है कि उन देशों के पास इस चुनौती से निपटने के लिए वित्तीय संसाधन अधिक हैं. भारत के लिए आयातित ईंधन की महंगी क़ीमत और आपूर्ति की कमी के चलते पैदा हुई महंगाई की चुनौती, अर्थव्यवस्था के महामारी से उबरने की राह मुश्किल बना देगी. इस बात से चिंतित विदेशी निवेशक पहले ही भारत के शेयर बाज़ार में बिक्री करने में सबसे आगे दिख रहे हैं.

भारत और अमीर देशों में फ़र्क़ बस इतना है कि उन देशों के पास इस चुनौती से निपटने के लिए वित्तीय संसाधन अधिक हैं. भारत के लिए आयातित ईंधन की महंगी क़ीमत और आपूर्ति की कमी के चलते पैदा हुई महंगाई की चुनौती, अर्थव्यवस्था के महामारी से उबरने की राह मुश्किल बना देगी.

महंगाई पर क़ाबू पाने और निवेश व विकास को बढ़ावा देने की दो बड़ी आर्थिक चुनौतियों से निपटना, एक असंभव सी दुधारी तलवार पर चलने जैसा है. उम्मीद ये लगाई गई थी कि आपूर्ति श्रृंखलाएं सामान्य होंगी तो, अर्थव्यवस्था की विकास दर रफ़्तार पकड़ेगी और ये कोविड-19 महामारी के शिकंजे से उबर जाएगी. दुनिया में बढ़ती मांग से भारत के निर्यात को भी बढ़ावा मिलेगा. वहीं, घरेलू स्तर पर संयमित वित्तीय प्रबंधन से अर्थव्यवस्था को मज़बूती देने का माहौल बनेगा. केंद्र सरकार ने अपने वित्तीय घाटे को पिछले वित्त वर्ष के 6.9 प्रतिशत से घटाकर इस वित्त वर्ष में 6.4 फ़ीसद करने में कामयाबी हासिल की थी. हालांकि, अभी भी वित्तीय घाटे को अधिकतम चार फ़ीसद के नियम के स्तर पर लाना बहुत दूर की कौड़ी मालूम होता है. इस बीच सरकार पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ रहा है, जिसे चुकाने के चलते, नए और उत्पादकता बढ़ाने वाले ख़र्च में कटौती करनी पड़ेगी.

चुनौती कम करने के तरीक़े

इन चुनौतियों का सामना करने के मामले में भारत अकेला नहीं है. भारत को इन चुनौतियों से निपटने के दौरान कुछ मुश्किलों का सामना तो करना ही पड़ेगा. इन बातों के बावजूद, अगर संकट से निपटने की कोई रणनीति देश से साझा की जाती है, तो इससे काफ़ी मदद मिलेगी.

इनमें से कुछ क़दम तो जाने- पहचाने हैं. जैसे कि वित्तीय घाटे को कम करके 8 प्रतिशत या इससे नीचे (केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा 3 से 4 प्रतिशत और राज्यों का वित्तीय घाटा 4 फ़ीसद तक) लाना. हालांकि, दूरगामी अवधि में ये बात स्पष्ट होनी चाहिए कि वित्तीय घाटा कम करने के लिए, आख़िर सरकारें अपने किस तरह के ख़र्च में कटौती करेंगी. मोदी सरकार के राज में कल्याणकारी योजनाओं का बहुत विस्तार हुआ है. महामारी से निपटने की चुनौती ने जनता की भलाई के लिए किए जाने वाले इस ख़र्च को और बढ़ा दिया है. अगर सरकार सब्सिडी घटाती है, और निवेश व आर्थिक विकास में तेज़ी नहीं आती है, तो इससे ग़रीबी का स्तर बढ़ने की आशंका है. रिज़र्व बैंक का अनुमान है कि चौथी तिमाही में वास्तविक विकास दर घटकर 4 प्रतिशत ही रह जाएगी.

अगर सरकार सब्सिडी घटाती है, और निवेश व आर्थिक विकास में तेज़ी नहीं आती है, तो इससे ग़रीबी का स्तर बढ़ने की आशंका है. रिज़र्व बैंक का अनुमान है कि चौथी तिमाही में वास्तविक विकास दर घटकर 4 प्रतिशत ही रह जाएगी.

वैसे ग़रीबी को लेकर अनुमानों में काफ़ी अंतर देखा गया है. विश्व बैंक के एक पेपर (सिन्हा रॉय और वान डे वीड, अप्रैल 2022) में अनुमान लगाया गया है कि (1.9 डॉलर परचेज़िंग पावर पैरिटी PPP) 2011 के मुक़ाबले 2019 में ग़रीबी का स्तर 22.4 फ़ीसद से घटकर 10.25 प्रतिशत रह गई है. इस पेपर में CMIE के कंज्यूमर पिरैमिड्स हाउसहोल्ड सर्वे के आंकड़ों को 2011 के नेशनल सैंपल सर्वे के डेटा से तुलना की गई है, जिससे अलग अलग समय में बेहतर समानुपात हो. विश्व बैंक के इस मूल्यांकन के  मुताबिक़, शहरी इलाक़ों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी की दर घटने की रफ़्तार ज़्यादा तेज़ रही थी.

रिपोर्ट क्या बताते हैं? 

वहीं, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक हालिया पेपर में भल्ला, भसीन और विरमानी ने दावा किया है कि लोगों द्वारा ख़र्च की जाने वाली नक़दी की खपत के न्यूनतम स्तर से तुलना करने से ग़रीबों की तादाद ज़्यादा दिखती है. 1980 के दशक से ही भारत खान-पान की खपत को सब्सिडी देता आ रहा है. ग़रीबों की खपत में 60 फ़ीसद ख़र्च खान-पान के लिए ही व्यय होता है. 2013 से ही खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत, ग्रामीण क्षेत्र की दो तिहाई आबादी और शहरों की आधी आबादी को ऐसी मदद का लाभ मिलता आ रहा है. खाने को बाज़ार भाव के बजाय सरकार द्वारा मुहैया कराई जाने वाली रियायती दर के आधार पर आंकने से खपत का स्तर नाटकीय रूप से ऊंचा हो जाता है. ऐसे में 2011 में 22.5 फ़ीसद के बजाय ग़रीबी की दर 10.8 प्रतिशत और 2019 में और भी घटकर 0.8 फ़ीसद ही रह जाती है. लेकिन, अगर हम पारंपरिक पैमाने को लागू करते हैं तो 2019 में ग़रीबों की तादाद कुल आबादी का 10.2 प्रतिशत रहती है. ग़रीबी के आकलन के इस तरीक़े से पता चलता है कि 2020 (महामारी वाले साल) में ग़रीबों की संख्या में 0.9 प्रतिशत का मामूली इज़ाफ़ा ही हुआ है. इस बात का श्रेय महामारी के दौरान प्रति व्यक्ति खाने की मदद को दोगुना करने को दिया जाता है. हो सकता है कि खाने की मद में दी गई इस मदद का कुछ हिस्सा अन्य ज़रूरतों के लिए इस्तेमाल किया गया हो. इससे आमदनी के लिए मदद का दायरा और बढ़ जाता है. इस पेपर में ग़रीबी के आकलन के लिए पहले किए गए काम पर भी मुहर लगाई गई है. उस रिसर्च में ये कहा गया था कि भारत द्वारा नक़दी के बजाय ‘सामान के ज़रिए’ लोगों की ‘आमदनी बढ़ाने’ में दी जाने वाली मदद बेहतर भी है और इसे लागू करना सस्ता भी पड़ता है. जबकि पश्चिमी देशों के विद्वान सबको बुनियादी आमदनी कराने के लिए सीधे नक़द पैसे देने की वकालत करते हैं, जो एक महंगा सौदा साबित हो सकता है.

आगे के लिए सबक़ ये है कि विकास के लिए महंगाई दर को स्थिर रखने को तिलांजलि देना बहुत जोखिम भरा फ़ैसला हो सकता है, जिसका ग़रीबों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा.

इससे भी दिलचस्प बात ये है कि इस लेख में ‘महंगाई का सबसे ज़्यादा असर ग़रीबों पर पड़ने’ के मशहूर दावे का सबूत भी पेश किया गया है. पेपर में बताया गया है कि महंगाई घटने की सबसे तेज़ रफ़्तार 2014 से 2019 के बीच रही थी, जबकि उस दौरान विकास की दर महज़ 5.4 प्रतिशत रही थी. इसकी तुलना में 2004 से 2011 के दौरान ग़रीबी घटाने की रफ़्तार कम थी, जबकि इसी दौरान विकास दर औसतन 6.4 प्रतिशत रही थी. इस फ़र्क़ की सबसे बड़ी वजह ये थी कि 2014 से 2019 के बीच महंगाई की दर 3.6 प्रतिशत रही थी, जबकि इससे पहले के दौर में महंगाई दर 8.4 प्रतिशत दर्ज की गई थी. इन बातों से आगे के लिए सबक़ ये है कि विकास के लिए महंगाई दर को स्थिर रखने को तिलांजलि देना बहुत जोखिम भरा फ़ैसला हो सकता है, जिसका ग़रीबों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा.

भारत, कुछ अप्रत्यक्ष करों जैसे कि- कस्टम ड्यूटी, GST, और पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क घटाकर महंगाई पर क़ाबू पा सकता है. 2019 से 2021 के वित्तीय वर्ष में कुल कर राजस्व में अप्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी (केंद्र और राज्यों को मिलाकर) 61 प्रतिशत रही थी. हालांकि, सवाल ये है कि क्या हम अप्रत्यक्ष करों से होने वाली आमदनी की कमी को, प्रत्यक्ष करों और राज्य सरकारों व नगर निगमों के स्तर पर संपत्ति कर की वसूली बढ़ाकर पूरा कर सकते हैं?

परियोजना पर कड़ी निगाह, समय-समय पर समीक्षा और GDP के सही अनुपात में निवेश नहीं किया गया, तो ऐसे निवेश से क़र्ज़ का बोझ बहुत बढ़ जाता है. वहीं, निवेश की तुलना में उत्पादकता कम हो जाती है.

मूलभूत ढांचे के विकास के लिए पूंजी जुटाने के लिए सरकारी संपत्ति की बिक्री के एक निर्णायक कार्यक्रम की सख़्त दरकार है. इसके अलावा हमारे लिए अब अपनी पारंपरिक सैन्य क्षमता और परमाणु शक्ति के विस्तार के लिए सैन्यीकरण के अभियान की अनदेखी करना अब नामुमकिन हो चुका है. सीमा पर चीन कभी नरम और कभी गरम भले हो रहा हो, मगर यूक्रेन युद्ध का सबसे बड़ा सबक़ यही है कि देश की सैन्य तैयारियों में आधुनिक तकनीक को शामिल करने में कोई कटौती नहीं की जा सकती है.

विकास की संभावनाएं बहुत सीमित हैं. हां, ये ज़रूर हो सकता है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में उतार चढ़ाव के बावजूद, 2023 के वित्तीय वर्ष के दौरान, अर्थव्यवस्था में नया उत्साह दिखे. मगर अभी तो दुनिया की विकास दर में सुस्ती, तेज़ महगांई और घरेलू स्तर पर औद्योगिक विकास में स्थिरता जैसी तकलीफ़देह चुनौतियों से निपटने के लिए एक चपल औद्योगिक और वित्तीय नीति की ज़रूरत है. छोटे स्तर पर सरकारी प्रशासन न तो बीजेपी के जीन में है और न ही देश की किसी और पार्टी में. इसके अलावा, सरकारी निवेश से होने वाले फ़ायदों की अनदेखी करके इन पर रोक लगाना आसान भले दिख रहा हो. मगर क्या (जनहित के नाम पर) मूलभूत ढांचे में ऐसा निवेश महज़ इसलिए जारी रखना उचित होगा, क्योंकि ऐसे निर्माण की गतिविधियों से नौकरियां पैदा होंगी. मगर इससे टोल टैक्स से किसी परियोजना से आमदनी नहीं होगी. क्या ये बेहतर नहीं होगा कि हरित वित्त के वैकल्पिक स्रोतों वाले क़र्ज़ का इस्तेमाल करके इस निवेश को उपयोगी बनाएं? 

ये देखा गया है कि बड़े सार्वजनिक निवेश अक्सर बोझ बन जाते हैं. परियोजना पर कड़ी निगाह, समय-समय पर समीक्षा और GDP के सही अनुपात में निवेश नहीं किया गया, तो ऐसे निवेश से क़र्ज़ का बोझ बहुत बढ़ जाता है. वहीं, निवेश की तुलना में उत्पादकता कम हो जाती है. क्योंकि, कार्य प्रगति पर होने और तय समयसीमा के भीतर न पूरा होने से निवेश पर अच्छा रिटर्न नहीं मिल पाता है. यही कारण है कि निजी निर्माण कंपनियां दिवालिया हो जाती हैं. वहीं, सार्वजनिक क्षेत्र की ऐसी परियोजनाएं भविष्य में लाभ की संभावनाएं ख़त्म कर देती हैं.

भारत की व्यवस्था में एक स्थायी अफ़सरशाही है, जो संस्थागत नियमितता के साथ-साथ पेशेवर नेतृत्व प्रदान करती है. इसकी पूरी क्षमता का इस्तेमाल न करना बहुत बड़ी ग़लती होगी. नौकरशाही के संवैधानिक अधिकारों में उपयोगिता और आत्मविश्वास के साथ प्रतिबद्धता भरने से सार्वजनिक प्रशासन में नई जान फूंकी जा सकती है.

भारत की संरचनात्मक संबंधी दिक़्क़तें हाल फिलहाल कम होने की उम्मीद न के बराबर है. जैसे कि अलग अलग बजट वाले अलग विभाग और अधिकारी, नियामक संस्थाओं का जाल और अच्छी सार्वजनिक सेवा के लिए कम आवंटन वग़ैरह. जनहित की सेवाएं देने वाले क्षेत्रों जैसे कि- शिक्षा, स्वास्थ्य, उपयोगिता वाली सेवाएं (बिजली, पानी की आपूर्ति, संचार, सार्वजनिक परिवहन, सुरक्षा और क़ानून के राज- की ख़ामियां हमारे निम्न मध्यम आमदनी वाले देश से उच्च मध्यम आमदनी वाला देश बनने की राह की सबसे बड़ी चुनौतियां हैं.

आगे की राह 

इन दिक़्क़तों को दूर करना मुश्किल भरा और बहुत धैर्य वाला काम है, जो हमारे राजनेताओं में नहीं दिखता. भारत की व्यवस्था में एक स्थायी अफ़सरशाही है, जो संस्थागत नियमितता के साथ-साथ पेशेवर नेतृत्व प्रदान करती है. इसकी पूरी क्षमता का इस्तेमाल न करना बहुत बड़ी ग़लती होगी. नौकरशाही के संवैधानिक अधिकारों में उपयोगिता और आत्मविश्वास के साथ प्रतिबद्धता भरने से सार्वजनिक प्रशासन में नई जान फूंकी जा सकती है. इससे सत्ताधारी पार्टी के बहुमत वाले प्रभुत्व के चलते संसदीय व्यवस्था की लगाम लगाने वाली क्षमता की कमी को भी पूरा किया जा सकेगा. बहुत ईमानदारी वाली राजनीतिक पार्टी पर भी लगाम लगाने की बाहरी व्यवस्था ज़रूरी है, जो राजनीतिक ऊर्जा का उत्पादक तरीक़े से इस्तेमाल कर सके.

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Sanjeev Ahluwalia

Sanjeev Ahluwalia

Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...

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