Published on Jul 06, 2017 Updated 0 Hours ago

वर्ष 2008 से ही निरंतर निष्क्रिय रहने के बाद कर्ज माफी का वायरस अब नए सिरे से पनप रहा है।

ऋण माफी की महामारी की चपेट में भारत

एक राजकोषीय महामारी भारत को निरंतर संक्रमित कर रही है। यह भारत के राजकोष को अंदर से खोखला करती जा रही है। अर्थशास्त्री इसके असली कारण को समझने और नैतिक खतरों का मूल्यांकन करने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं, राजनीतिक वैज्ञानिक यह जानने में जुट गए हैं कि इसका अभिप्राय क्‍या है और यह कितना जायज है। इससे लाभान्वित होने वाले लोग सिलसिलेवार ढंग से विरोध जताने के बाद आम तौर पर संतुष्ट हैं। हालांकि, मुफ्त में मिलने वाली कोई भी चीज कभी भी पर्याप्त नहीं हो सकती है। ऐसे में इसके शिकार लोगों पर आर्थिक दृष्टि से उच्‍च टैक्‍स दरों और महंगाई की भारी मार पड़ेगी। यही नहीं, इसका खमियाजा देश को भी भुगतना पड़ेगा क्‍योंकि बुनियादी ढांचे की बेहतरी के लिए आवंटित संसाधनों का बड़ा सा हिस्‍सा इस वायरस के भरण-पोषण में जाया हो जाएगा। हमें यही लगता था कि तर्कहीन राजनीति से उपजी इस महामारी से भारत अब उबर चुका है और हमारी 2 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था मजबूत राजकोषीय नीतियों के बल पर उच्च आर्थिक विकास के एक नए पथ पर अग्रसर हो चुकी है। हम गलत थे। दरअसल, यह वायरस नौ साल से ऐसी नीतिगत फाइलों में छिप कर बैठा हुआ था जो बेकार तो पड़ी हुई थीं, लेकिन पूरी तरह से खारिज नहीं की गई थीं। यह सही समय पर इन फाइलों से धूल के हटने का इंतजार कर रहा था। वह समय अब आ गया है।

इस बार ऋण माफी यानी ‘वेवराइटिस’ बदले की भावना के साथ वापस आई है।

वर्ष 2008 से ही निरंतर निष्क्रिय रहने के बाद यह वायरस अब नए सिरे से पनप रहा है, जिसे प्रतिस्पर्धी राजनीति का एक नया परितंत्र पनपने के लिए अनुकूल माहौल प्रदान कर रहा है। यह राजकोषीय बैलेंस शीट पर हमला कर रहा है और एक राज्य में अपना प्रकोप दिखाने के बाद दूसरे राज्‍य में बिना किसी अवरोध के कहर ढाता जा रहा है। इस वायरस पर किसी भी राजनैतिक विचारधारा का कोई असर नहीं पड़ रहा है, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। इसने अकेले वित्त वर्ष 2017 की पहली तिमाही में ही पांच राज्यों की राजनीति को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। यह एक अजीब वायरस है जिसका एक राज्य में जो इलाज होता है वही दूसरे राज्‍य में इसके संक्रमण का कारण बन जाता है। इसने महज 78 दिनों में पांच राज्यों की बैलेंस शीट को 1,09,947 करोड़ रुपये का तगड़ा राजकोषीय झटका दिया है जिनमें से दो राज्‍य भाजपा द्वारा, दो राज्‍य कांग्रेस द्वारा और एक राज्‍य एआईएडीएमके द्वारा शासित है। कृषि ऋण उत्तर प्रदेश (यूपी), महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटक और तमिलनाडु में माफ किए गए हैं। तमिलनाडु में प्रति किसान 38,800 रुपये से लेकर पंजाब में प्रति किसान 200,000 रुपये तक के कृषि ऋण माफ किए गए हैं जिनसे इन पांचों राज्‍यों में कुल मिलाकर 16.9 मिलियन किसान लाभान्वित होंगे।

‘ऋण माफी यानी वेवराइटिस 2017’ ने एक ऐसी होड़ शुरू कर दी है जो राजकोष की तलहटी तक पहुंच गई है। विपक्ष द्वारा श्रेय लेने के चलते उन्‍हीं लोगों के बीच एक अजीब प्रतियोगिता शुरू हो गई है जिन पर हमने आर्थिक शासन की जिम्‍मेदारी सौंपी है। जब महाराष्ट्र ने आखिरकार अपने 3.1 मिलियन किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए 30,000 करोड़ रुपये के कृषि ऋणों को माफ करने का निर्णय लिया तो विपक्ष ने इसे और हवा दे दी। ऐसे में देवेंद्र फडणवीस सरकार इस राशि को 13.4 फीसदी बढ़ाकर 34,022 करोड़ रुपये और लाभान्वित होने वाले किसानों की संख्‍या को बढ़ाकर 3.5 मिलियन करने पर विवश हो गई। फडणवीस ने कहा कि इसके परिणामस्‍वरूप प्रमुख परियोजनाओं पर होने वाले सरकारी खर्च में कटौती करनी होगी। दरअसल, फडणवीस ऐसे दुर्लभ मुख्यमंत्री हैं जो कृषि ऋण माफ करने के वित्‍तीय असर से पूरी तरह वाकिफ हैं और इसको लेकर काफी मुखर भी हैं। उन्‍होंने यह बिल्‍कुल सही दलील दी है, ‘वर्ष 2008 में कृषि ऋणों को माफ करने (संप्रग 1 सरकार की ओर से) के बाद वर्ष 2014 तक 16,000 किसानों ने आत्‍महत्‍या की। अत: इससे अब यह साबित हो गया है कि महज ऋणों को माफ करके आप आत्महत्या को नहीं रोक सकते हैं। अत: एक ऐसी व्‍यवस्‍था करने की जरूरत है जिससे कि किसानों की मदद सही अर्थों में हो सके।’

हालांकि, जब ‘वेवराइटिस’ का प्रकोप बढ़ता है तो दलील सुनने की क्षमता समाप्‍त हो जाती है। प्रतिस्पर्धी राजनीति को देखते हुए तर्कसंगत नीति निर्माण की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है।

मतदाताओं को रिझाने या उनका मूड अपने पक्ष में करने के लिए राजनेताओं द्वारा राजकोष का दुरुपयोग करना कोई नई बात नहीं है। तीन दशक पहले के माहौल पर जब आप गौर करेंगे तो सियासी फायदे के लिए एक साधन के रूप में ऋण माफी का उपयोग किए जाने की बात से आप जरूर वाकिफ होंगे। हालांकि, इस तरह की ज्यादतियों पर लगाम लगाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और गुवाहाटी उच्च न्यायालय जैसे संस्थानों को तर्कसंगत एवं नैतिक बल मिला। नवंबर 1987 के दौरान जब हरियाणा के मुख्यमंत्री देवी लाल ने ऋण माफी आदेश पर हस्ताक्षर किए, तो भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर आर. एन. मल्होत्रा ने इस अत्‍यंत प्रभावशाली राजनीतिज्ञ से कहा कि वह वाणिज्यिक बैंकों पर नीतिगत निर्णयों के रूप में हुक्‍म नहीं चला सकते हैं। वहीं, कांग्रेस जब जनवरी 1988 में चुनाव के लिए त्रिपुरा में मतदाताओं को ‘ऋण मेले’ फॉर्म बांट रही थी, तो सीपीआई (एम) ने इसकी राह में अवरोध खड़े कर दिए और जिसके परिणामस्वरूप आखिरकार हिंसक स्थिति उत्‍पन्‍न हो गई। वाम मोर्चा सरकार ने कहा कि ऋण मेले के जरिए कांग्रेस मतदाताओं को रिश्वत देने की कोशिश कर रही है। एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में ऋण मेला फॉर्मों के वितरण की अंतिम तारीख 31 अक्टूबर, 1987 तय कर दी। हालांकि, इसके बावजूद कांग्रेस-टीयूजेएस (त्रिपुरा उपाजाति जुबा समिति) का गठबंधन ही जीता और उसने 59 सीटों में से 31 सीटें अपने नाम कर लीं।

इसके दो दशक बाद ‘वेवराइटिस 2008’ ने भारत पर तब हमला किया जब 2008-09 के अपने बजट में तत्‍कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने 60,000 करोड़ रुपये की ऋण माफी स्कीम का प्रस्‍ताव पेश किया और इसे हरी झंडी दिखा दी (50,000 करोड़ रुपये की ऋण माफी 30 मिलियन किसानों को लाभान्वित करने के लिए और 10,000 करोड़ रुपये का एकमुश्‍त निपटान 10 मिलियन किसानों को लाभान्वित करने के लिए)। इस ‘कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना’ से 30 मिलियन किसानों के ऋण माफी के जरिए लाभान्वित होने और निपटान के जरिए 10 मिलियन किसानों के लाभान्वित होने का अनुमान लगाया गया था। लोकसभा में काफी जोर-जोर से मेजें थपथपा करके इस निर्णय को सराहा गया था। हालांकि, विश्व बैंक के एक पेपर (प्रपत्र) में इस ओर ध्‍यान दिलाया गया कि इस योजना से ‘उत्‍पादकता, मजदूरी अथवा खपत पर कुछ भी सकारात्‍मक प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि इसके बजाय ऋण आवंटन में व्‍यापक बदलाव देखने को मिले और ऋण अदायगी में चूक (डिफॉल्‍ट) बढ़ गई। दरअसल, ऋण अदायगी में डिफॉल्‍ट इस तरह के कार्यक्रम के बाद चुनावी चक्र को देखते हुए और ज्‍यादा बढ़ जाते हैं। इससे उस महत्वपूर्ण चैनल के रूप में ऋण बाजार में भावी हस्‍तक्षेप की संभावनाएं बढ़ जाती हैं जिसके जरिए ऋण अदायगी में नैतिक खतरे तीव्र हो जाते हैं।’

यह बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है: ऋण माफी के निर्णय आसान नहीं होते हैं।

दबाव जब लोगों के एकजुट होने एवं धरना देने से भी आगे बढ़कर सिलसिलेवार आत्‍महत्‍या तक का रूप धारण करने लगता है तो इस ग्रह पर कोई भी सरकार सार्वजनिक वित्त पर घेराबंदी को झेल नहीं सकती है।

जिंदगी इतनी सस्ती हो सकती है और पैसा इतना महंगा, यह एक ऐसा मसला है जिस पर हम सभी को अवश्‍य ही एक राष्‍ट्र के तौर पर आपस में मिल-बैठकर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और इसका उपयुक्‍त हल निकालना चाहिए। राजनेताओं अथवा राजनीतिक नेतृत्व की निंदा करना एक और बात है तथा मौतों पर करीबी नजर रखना एक और बात है। ऋण माफी की आस में मध्य प्रदेश में दो हफ्तों के भीतर ऋण बोझ से लदे 20 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। मध्य प्रदेश से आगे बढ़कर ऋण माफी यानी ‘वेवराइटिस’ अब हरियाणा में फैलने लगी है, जहां के किसान भावनात्‍मक रूप से मजबूत प्रतीत हैं क्‍योंकि यहां अब तक आत्‍महत्‍या का कोई भी मामला सामने नहीं आया है। यह गनीमत की बात है। यहां विरोध जताने के लिए घेराबंदी या नाकेबंदी का अलग तरीका अपनाया जा रहा है। ऐसे आसार नजर आ रहे हैं कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर (दोनों भाजपा के) भी अपने समकक्षों यानी कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया एवं पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह (दोनों कांग्रेस के), महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस एवं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (दोनों भाजपा के) और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री इडापड्डी.के. पलानीस्‍वामी (एआईएडीएमके) के रास्‍ते पर ही चलेंगे और ‘वेवराइटिस 2017’ के स्‍वैच्छिक शिकार बनेंगे तथा इसके साथ ही भारत की राजकोषीय ताकत को और भी कमजोर बना देंगे।

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