श्रीलंका के राजनीतिक- आर्थिक संकटों को लेकर भारत क्या करे और क्या नहीं?
श्रीलंका को रनिल विक्रमसिंघे के रूप में नया प्रधानमंत्री मिल गया है. विक्रमसिंगे ऐसे वक़्त में श्रीलंका के नए प्रधानमंत्री बने हैं, जब कोई भी ये ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहेगा. भारत की जनता चाहे जो भी मानती हो, श्रीलंका में प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारियां, भारत के प्रधानमंत्री के कर्तव्यों से बिल्कुल अलग हैं. जब तक राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे संविधान संशोधन करके एक कार्यकारी राष्ट्रपति की विवादास्पद भूमिका को ख़त्म नहीं करते, और प्रधानमंत्री व उनके मंत्रिमंडल को संसद के ज़रिए सशक्त नहीं बनाते, तब तक श्रीलंका में पिछले कुछ हफ़्तों से चला आ रहा राजनीतिक संकट किसी न किसी रूप में आगे भी जारी रहेगा. एक ताक़तवर राष्ट्रपति के अधिकार सीमित करने को लेकर संवैधानिक बहस में बहुत वक़्त और ऊर्जा लग जाएगी, जिससे आर्थिक रिकवरी की योजना बनाने के काम में और भी देरी होगी.
श्रीलंका में राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक रिकवरी और सामरिक सुरक्षा के लिए, एक दोस्ताना पड़ोसी के तौर पर श्रीलंका के नागरिक भारत से बहुत सी उम्मीदें लगाए बैठे हैं. ये ज़िम्मेदारियां न सिर्फ़ भारत की अपनी ज़रूरतों के लिहाज़ से अहम हैं, बल्कि भारत को अपनी इस चिंता को भी दूर करने के लिए श्रीलंका की मदद करनी होगी कि वो एक ‘नाकाम मुल्क’ न बन जाए.
श्रीलंका में राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक रिकवरी और सामरिक सुरक्षा के लिए, एक दोस्ताना पड़ोसी के तौर पर श्रीलंका के नागरिक भारत से बहुत सी उम्मीदें लगाए बैठे हैं. ये ज़िम्मेदारियां न सिर्फ़ भारत की अपनी ज़रूरतों के लिहाज़ से अहम हैं, बल्कि भारत को अपनी इस चिंता को भी दूर करने के लिए श्रीलंका की मदद करनी होगी कि वो एक ‘नाकाम मुल्क’ न बन जाए. हालांकि अक्सर इसका ग़लत अर्थ लगाया जाता है. भारत के एक और पड़ोसी मुल्क, पाकिस्तान के बारे में अक्सर ‘नाकाम देश’ का जुमला उछाला जाता है. न ही श्रीलंका को ‘बास्केट केस’ बनना चाहिए, जो पश्चिमी देश बांग्लादेश को उसकी आज़ादी के वक़्त ठहरा रहे थे.
सीधी और सपाट बात तो ये है कि श्रीलंका अपनी औक़ात से ज़्यादा ऊंचे दर्जे की ज़िंदगी जी रहा था. इसकी आख़िरी ज़िम्मेदारी तो राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को लेनी होगी. क्योंकि, उन्होंने 25 फ़ीसद कर राजस्व की बलि चढ़ा दी. लाखों की तादाद में करदाताओं को फ़ेहरिस्त से निकाल दिया. ज़रूरी सामान के आयात पर बिना सोचे-समझे प्रतिबंध लगा दिया और रातों-रात बिना कोई सलाह- मशविरा और तैयारी किए हुए ऑर्गेनिक खेती करने का फ़ैसला कर डाला. उन्होंने इसके लिए न तो लोगों को तैयार किया, समझाया बुझाया और न ही खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार ही देश में जमा किया. हालांकि, श्रीलंका का मौजूदा आर्थिक और विदेशी मुद्रा का संकट विरासत में मिला है जिसके लिए श्रीलंका के सभी सत्ताधारी ज़िम्मेदार हैं, ख़ास तौर से 1978 के आर्थिक सुधारों के बाद के शासक.
आनंद मॉडल
नए प्रधानमंत्री के तौर पर रनिल विक्रमसिंघे में इतना साहस होना चाहिए कि वो 1978 में आधे-अधूरे और बेतरतीब ढंग से लागू किए गए आर्थिक सुधारों की ज़िम्मेदारी लें. इस आर्थिक सुधार के कारण, न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया से आए डेयरी उत्पादों ने श्रीलंका के स्थानीय गांव आधारित दुग्ध उद्योग का ख़ात्मा कर दिया था. अब कम से कम इन निर्यातक देशों में इतनी शर्म तो होनी चाहिए कि वो न सिर्फ़ श्रीलंका के पारंपरित डेयरी उद्योग को दोबारा स्थापित करने में मदद करें, बल्कि उसे निर्यात के नए बाज़ार तलाशने में भी सहयोग दें.
भारत के पास डेयरी उद्योग का अपना और बेहद कामयाब ‘आणंद मॉडल’ है, जिसके ज़रिए वो श्रीलंका के डेयरी उद्योग की मदद कर सकता है. इससे बदलते हुए दौर में श्रीलंका की ग्रामीण जनता का विश्वास बहाल करने में बहुत मदद मिलेगी. उनके हाथ में कुछ पैसे आएंगे और इससे शायद इससे श्रीलंका पर आयात का बोझ भी कुछ हद तक कम होगा.
मिसाल के तौर पर भारत के पास डेयरी उद्योग का अपना और बेहद कामयाब ‘आणंद मॉडल’ है, जिसके ज़रिए वो श्रीलंका के डेयरी उद्योग की मदद कर सकता है. इससे बदलते हुए दौर में श्रीलंका की ग्रामीण जनता का विश्वास बहाल करने में बहुत मदद मिलेगी. उनके हाथ में कुछ पैसे आएंगे और इससे शायद इससे श्रीलंका पर आयात का बोझ भी कुछ हद तक कम होगा. भारत और श्रीलंका के बीच साल में दो बार 25 हज़ार दुधारू जानवर देने का समझौता भी हुआ करता था. ये जानवर हाल के दिनों में भारत से श्रीलंका के उत्तरी इलाक़ों में जाकर बसे तमिलों जिन्हें ‘बाग़ानों में रहने वाले तमिल’ कहा जाता है, को दिए जाते थे. भारत जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी इस परियोजना को दोबारा शुरू करके इसे श्रीलंका के सभी क्षेत्रों के नागरिकों के लिए खोल सकता है.
इत्तिफ़ाक़ से चाय भी, इन ‘बागान में रहने वाले तमिलों’ की ज़िंदगी और उनकी रोज़ी-रोटी का अभिन्न हिस्सा है. श्रीलंका से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में से एक चाय भी है, जिसके उद्योग को गोटाबाया की ऑर्गेनिक खेती की योजना से तगड़ा झटका लगा था. आज श्रीलंका के पास दक्षिणी पूर्वी एशिया से कपड़ों के आयात के लिए पैसे नहीं बचे हैं. ऐसे में मौजूदा आर्थिक संकट से, श्रीलंका में तैयार किए जाने वाले कपड़ों के निर्यात को भी झटका लगा है. संकेत इस बात के हैं कि श्रीलंका के हालात का भारत की कंपनियों और ख़ास तौर से दक्षिण भारतीय कंपनियों को फ़ायदा मिला है. अब श्रीलंका की नई सरकार अपने देश के बाज़ार में भरोसा बहाल करने में मदद कर रही है. ऐसे में भारत को अपने उद्योगों के साथ मिलकर ये सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके कारण में श्रीलंका को जो नुक़सान हो चुका है, वो और ज़्यादा न बढ़े. इसके लिए ज़मीनी स्तर पर संवाद करना होगा और कई स्तरों पर तालमेल भी बिठाना होगा.
पर्यटन श्रीलंका के लिए विदेशी मुद्रा की आमदनी का तीसरा और बहुत अहम स्रोत रहा है. इसे सबसे तगड़ा झटका लगा है. पहले तो 2019 में ईस्टर पर हुए सीरियल धमाकों और फिर कोविड-19 के चलते दुनिया भर में लगे लॉकडाउन ने श्रीलंका के पर्यटन उद्योग की कमर तोड़ डाली. ऐसे में विदेशी मुद्रा के संकट, खाने पीने के सामान और ईंधन की क़िल्लत के साथ साथ मौजूदा राजनीतिक स्थिरता ने न केवल मेहमानवाज़ी के उद्योग और परिवहन सेक्टर को नुक़सान पहुंचाया है, बल्कि श्रीलंका के इस आर्थिक संकट से उबरने की राह भी और चुनौतीपूर्ण बना दी है. श्रीलंका के पर्यटन उद्योग की मौजूदा मुश्किल और मालदीव के आर्थिक संकट से उबरने के कामयाब तरीक़े का इस्तेमाल करते हुए भारत के उद्योगों को भी इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वो पर्यटन के केंद्र वाले उस मॉडल को विकसित करें, जो अब तक हासिल नहीं हो सका है. इस काम में आने आगे चलकर भूटान और नेपाल को भी शामिल किया जा सकता है.
भारत ये मदद श्रीलंका की जनता के लिए भेज रहा है और ये इमदाद केवल सत्ता में बैठे लोगों के माध्यम से ही भेजी जा सकती है. अब तक श्रीलंका की सत्ता में केवल राजपक्षे ही थे. लेकिन, अगर श्रीलंका के नए प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे, संसद से विश्वास मत हासिल कर लेते हैं, तो उनको भी भारत से मिल रही मदद (के वितरण) का श्रेय हासिल होगा.
गृह युद्ध के बाद के दौर में तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की सरकार ने भारत के कृषि उद्योग से जुड़े अर्थशास्त्रियों और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की मशहूर हस्तियों को अपने यहां आने का न्यौता दिया था, जिससे वो कृषि उद्योग को दोबारा खड़ा कर सकें और श्रीलंका में सूचना प्रौद्योगिकी और इस पर आधारित उद्योग को स्थानीय और विदेशी बाज़ार के लिए तैयार कर सकें. दक्षिण भारत के तमिल राष्ट्रवादियों की धमकी के चलते, भारतीय उद्यमी इस काम से पीछे हट गए थे. तब गृह युद्ध से तबाह हुए श्रीलंका के इलाक़ों में खेती को दोबारा बहाल करने की ज़िम्मेदारी सरकार को लेनी पड़ी थी. आज भारत यही काम पूरे श्रीलंका में कर सकता है और उसके साथ मिलकर IT सेक्टर के विकास की ज़िम्मेदारी भी उठा सकता है.
राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करना
भारत की तरफ़ से श्रीलंका को लगातार मानवीय आधार पर मदद भेजी जा रही है. श्रीलंका में इसे बहुत से लोग भारत की मदद को शैतानी नज़र से देख रहे हैं और इसे ‘अलोकप्रिय’ राजपक्षे परिवार को सत्ता में बनाए रखने की भारत की कोशिश बता रहे हैं. भारत में कई ज़िम्मेदार वर्गों से इस बात को समर्थन मिला है. जबकि, राजपक्षे के सबसे कट्टर आलोचक भी ये नहीं कहते कि भारत की तरफ़ से क़र्ज़ की अदला बदली जैसी कई तरह की मदद से राजपक्षे को न तो निजी और न ही राजनीतिक तौर पर मज़बूती मिलेगी. जबकि पहले (सिर्फ़) चीन से मिलने वाली मदद का मक़सद ऐसा ही होता था.
सीधी सी सच्चाई ये है कि भारत ये मदद श्रीलंका की जनता के लिए भेज रहा है और ये इमदाद केवल सत्ता में बैठे लोगों के माध्यम से ही भेजी जा सकती है. अब तक श्रीलंका की सत्ता में केवल राजपक्षे ही थे. लेकिन, अगर श्रीलंका के नए प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे, संसद से विश्वास मत हासिल कर लेते हैं, तो उनको भी भारत से मिल रही मदद (के वितरण) का श्रेय हासिल होगा. अगर नए चुनाव होते हैं और कोई नया नेतृत्व उभरता है, तो भारत से ये मदद हासिल करने का श्रेय उसे भी मिलेगा, फिर चाहे सरकार जैसी भी बने.
इन बातों से इतर, भारत में सरकार को सलाह दी जा रही है कि वो श्रीलंका को मौजूदा राजनीतिक संकट दूर करने में मदद करे. जो लोग भारत सरकार को ये मशविरा दे रहे हैं, उन्हें श्रीलंका के इतिहास, उसके समाज और राजनीतिक संस्कृति कि समझ नहीं है. जातीय मतभेद श्रीलंका की पहचान का महज़ एक हिस्सा हैं. वैसे तो मीडिया में इस बात को बहुत नहीं पेश किया जा रहा है. लेकिन, राजपक्षे विरोधी प्रदर्शनों में कई जगह भारत विरोधी नारेबाज़ी भी सुनी गई है. इनमें, कोलंबो में गाल फेस ग्रीन जैसे शहरी इलाक़े में चल रहे विरोध प्रदर्शन भी शामिल हैं, जिसे श्रीलंका की ‘अरब क्रांति’ कहा जा रहा है.
वैसे तो श्रीलंका के ज़्यादातर नागरिक, फिर चाहे वो किसी भी समुदाय के हों, कोई भी भाषा बोलने वाले हों, वो पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान, भारत की तरफ़ से भेजी जा रही मानवीय मदद के लिए शुक्रगुज़ार हैं. लेकिन, श्रीलंका में ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें भारत से भेजी जा रही मदद से फ़ायदा हो रहा है, फिर भी वो अपने पारंपरिक भारत विरोधी रुख़ से बाज़ नहीं आ रहे हैं. जबकि इसकी कोई वाजिब वजह समझ में नहीं आती. जब ये विरोध प्रदर्शन ख़त्म हो जाएंगे, फिर चाहे वो जब भी हों, तो इस बात का आकलन ज़रूर किया जाना चाहिए कि आख़िर ऐसी भारत विरोधी नारेबाज़ी के पीछे की वजह क्या है. फिर जहां ज़रूरी और मुमकिन हो, वहां पर भारत को राजनीतिक और कूटनीतिक क़दम उठाकर ऐसी आशंकाएं दूर करनी चाहिए.
अगर हिंसा और आगज़नी के मामलों की तफ़्तीश लंबे समय तक नहीं की गई, तो इससे आशंकाएं बढ़ सकती हैं और इस तरह की गतिविधियों को भी बढ़ावा मिल सकता है. इन घटनाओं के पीछे पूर्व वामपंथी उग्रवादी संगठन जनता विमुक्ति पेरामुना (JVP) और उससे अलग हो चुके गुट फ्रंटलाइन सोशलिस्ट पार्टी (FSP) का हाथ बताया गया है.
इस पृष्ठभूमि में और मौजूदा हालात की पेचीदगियों को देखते हुए, भारत समेत अन्य सभी देशों को श्रीलंका को ‘समस्या के समाधान’ या ‘संघर्ष के ख़ात्मे’ के अपने ख़ास मॉडल के साथ श्रीलंका की मदद के लिए आगे आने से बचना चाहिए. भारत, नॉर्वे और कुछ हद तक जापान, श्रीलंका की दशकों पुरानी जातीय समस्या को सुलझाने में अपना नुक़सान कर चुके हैं. स्थानीय भागीदारों ने इन देशों पर भेदभाव करने के आरोप लगाए हैं. भारत ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ज़िंदगी के रूप में तो इसकी भारी क़ीमत चुकाई है, जब 1991 में LTTE ने उनकी हत्या कर दी थी. क्योंकि LTTE का मानना था कि श्रीलंका की शांति प्रक्रिया, भारत श्रीलंका समझौते और भारत द्वारा अपनी (IPKF) शांति सेना (1987 में) भेजने में राजीव गांधी ने ग़लत भूमिका निभाई थी. श्रीलंका में शांति अभियान के दौरान 1500 से ज़्यादा भारतीय जवानों ने अपनी जान की क़ुर्बानी दी थी, जबकि ये उनकी ज़िम्मेदारी ही नहीं थी.
ये श्रीलंका की ही ज़िम्मेदारी है
ये एक और मोर्चा है जहां श्रीलंका को अपने अंदरूनी संघर्ष से ख़ुद ही निपटना होगा. क्योंकि अगर मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता इसी तरह बनी रही, तो इस वक़्त इस अंदरूनी टकराव के भयंकर हिंसा में तब्दील होने के सबूत साफ़ तौर पर दिख रहे हैं. महिंदा राजपक्षे के हिंसक समर्थकों की पहचान करना तो आसान है. लेकिन, उसके जवाब में जो हिंसा हुई, उसके पीछे किसका हाथ था, ये ज़िम्मेदारी अभी किसी ने नहीं ली है. जबकि ये पलटवार बहुत सधे हुए और सटीक तरीक़े से किया गया था.
नई सरकार को इन घटनाओं की जांच पर तुरंत ध्यान देना होगा. क्योंकि कैथोलिक चर्च पहले ही इस बात से नाख़ुश है कि ईस्टर धमाकों के केस (2019) की जांच और दोषियों को सज़ा के मामले में जान-बूझकर बहुत ढिलाई बरती जा रही है. जैसा कि श्रीलंका ने भी माना था कि इन धमाकों की आशंका जताने वाली ख़ुफ़िया जानकारी, भारतीय एजेंसियों ने धमाकों से बहुत पहले श्रीलंका के साथ साझा की थी. लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ था. इसके बजाय श्रीलंका में बहुत से लोगों ने तो भारत पर ही इन धमाकों की साज़िश रचने का आरोप लगाया था, और ये कहा था कि धमाकों का मक़सद राजपक्षे परिवार की चुनावी जीत सुनिश्चित करना था. क्योंकि ब्लास्ट के बाद हुए चुनाव में राजपक्षे परिवार की ज़बरदस्त जीत हुई थी.
किसी भी अन्य देश की तरह श्रीलंका के पास भी पेशेवर सेना है, जिसके नेतृत्व ने बार बार ये कहा है कि उनकी वफ़ादारी किसी नेता के प्रति नहीं देश के साथ (जिसका मतलब है कि जो भी राष्ट्रपति या सुप्रीम कमांडर हो, उसके साथ) है. ये बात उस समय स्पष्ट भी हुई थी, जब महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री का पद छोड़ा तो वो बिना किसी सुरक्षा के निकले थे. हालांकि, उसके बाद उन्हें त्रिंकोमाली के नौसैनिक अड्डे पर ठहराने को लेकर रक्षा मंत्रालय सफ़ाई दे चुका है. रक्षा मंत्रालय का कहना है कि देश के मौजूदा हालात को देखते हुए महिंदा को पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते जो सुरक्षा मिलनी चाहिए, वही दी गई है. इसकी कोई और वजह नहीं है.
अगर हिंसा और आगज़नी के मामलों की तफ़्तीश लंबे समय तक नहीं की गई, तो इससे आशंकाएं बढ़ सकती हैं और इस तरह की गतिविधियों को भी बढ़ावा मिल सकता है. इन घटनाओं के पीछे पूर्व वामपंथी उग्रवादी संगठन जनता विमुक्ति पेरामुना (JVP) और उससे अलग हो चुके गुट फ्रंटलाइन सोशलिस्ट पार्टी (FSP) का हाथ बताया गया है. इन आशंकाओं को अगर लंबे समय तक दूर नहीं किया गया तो इससे श्रीलंका में सुरक्षा संबंधी अवधारणाएं और जटि हो सकती हैं. इससे आगे चलकर भारत के लिए भी मुश्किल हो सकती है. क्योंकि भारत में भी वामपंथी उग्रवाद अभी ख़त्म नहीं हुआ है. इस मोर्चे पर दोनों ही देश ख़ुफ़िया और अन्य जानकारियां साझा करके एक दूसरे की मदद कर सकते हैं. भारत के बारे में ये अफ़वाह भी उड़ाई गई थी कि वो अपने सैनिक श्रीलंका भेज रहा है, जबकि श्रीलंका के पास अपनी सेना पर्याप्त मात्रा में है. हालांकि बाद में कोलंबो में भारतीय उच्चायोग ने ऐसी अफ़वाहों का कड़ाई से खंडन कर दिया था.
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