Published on Dec 03, 2020 Updated 0 Hours ago

हमें नए आविष्कारों में निवेश करने और आपसी संवाद बढ़ाने के नए तरीक़े खोजने की ज़रूरत है. ये तरीक़े ऐसे होने चाहिए जिसमें कौशल, संसाधन, मूलभूत ढांचे और विशिष्ट ज्ञान को आपस में साझा करने और एक साथ काम करने के मौक़े निकल सकें.

भारत और ऑस्ट्रेलिया: जैविक विज्ञान में संभावनाओं का लाभ उठाने के प्रयास

अगर कोविड संकट ने हमारी वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं की कमज़ोरियों को उजागर किया है, तो इस महामारी ने ये ज़रूरत भी ज़ाहिर कर दी है कि हमें परस्पर निर्भरता के प्रभावी मॉडल विकसित करने की ज़रूरत है. इस महामारी ने फार्मा क्षेत्र के बिज़नेस मॉडल की सीमाओं को उजागर कर दिया है और कंपनियों को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वो महामारिओं और उपेक्षित बीमारियों की दवाओं की खोज और विकास के नए मॉडल त्वरित रूप से विकसित करें. महामारी से निपटने की तैयारी और उपेक्षित बीमारियों जैसे कि टीबी और मलेरिया की दवाओं की खोज फार्मा कंपनियों के दवाओं के विकास की प्रक्रिया में कभी भी प्राथमिकता नहीं थी. जबकि इन उपेक्षित बीमारियों से हर साल लाखों लोगों की मौत होती है. कोविड महामारी ने हमें सिखाया है कि आज जैविक विज्ञान की तमाम शाखाओं (जहां अनुसंधान एवं विकास की स्टार्टअप, बायोटेक, फार्मा और डिजिटल प्लेटफॉर्म) को एक झंडे तले आने की ज़रूरत है जिससे कि वो ज़रूरी दवाओं को प्रभावी तरीक़े से पहुंचाकर इन बीमारियों की चुनौतियों से असरदार तरीक़े से निपट सकें. हमें नए आविष्कारों में निवेश करने और आपसी संवाद बढ़ाने के नए तरीक़े खोजने की ज़रूरत है. ये तरीक़े ऐसे होने चाहिए जिसमें कौशल, संसाधन, मूलभूत ढांचे और विशिष्ट ज्ञान को आपस में साझा करने और एक साथ काम करने के मौक़े निकल सकें.

हमें नए आविष्कारों में निवेश करने और आपसी संवाद बढ़ाने के नए तरीक़े खोजने की ज़रूरत है. ये तरीक़े ऐसे होने चाहिए जिसमें कौशल, संसाधन, मूलभूत ढांचे और विशिष्ट ज्ञान को आपस में साझा करने और एक साथ काम करने के मौक़े निकल सकें.

इस महामारी के संकट से जो एक सबक़ हम सबने सीखा है, वो ये है कि दवाओं की खोज, क्लिनिकल ट्रायल, बेहद महत्वपूर्ण इलाज की शुरुआत जैसे सभी कामों में समय लगता है और ये प्रक्रिया बेहद लंबी है. जबकि किसी महामारी से निपटने के लिए त्वरित प्रक्रिया की ज़रूरत होती है. इसलिए ज़रूरी हो गया है कि हम उन देशों के साथ साझेदारी की पहचान करें, जो अपनी संबंधित ताक़त के चलते इस सफर के दौरान हमारे असरदार सहयोगी बन सकते हैं. क्यो कोविड के बाद, ऑस्ट्रेलिया और भारत की साझेदारी को इनोवेशन और अनुसंधान के दम पर आगे बढ़ाया जा सकता है. दोनों देश एकीकृत तरीक़े से आगे बढ़ें, जिससे स्वास्थ्य और अच्छी सेहत के क्षेत्र में सहयोग की नई राहें खुलें.

जैविक विज्ञान में सहयोग के विषयों की पहचान

मज़बूत घरेलू दवा उद्योग और वैश्विक निर्यात में अग्रणी होने के चलते आज भारत को ‘दुनिया का दवाखाना’ कहा जाता है. हाल के कोविड संकट के दौरान भारत, 120 देशों को बेहद ज़रूरी दवाओं (जैसे कि हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन) के निर्यात का भरोसेमंद सप्लायर साबित हुआ है. भारत का दवा उद्योग कितना मज़बूत है, इसे इसी बात से समझ सकते हैं कि देश में तीन हज़ार से अधिक दवा कंपनियां हैं, जिनके पास दस हज़ार से अधिक निर्माण की इकाइयां हैं.

भारत आज जेनेरिक दवाओं के 60 से अधिक वर्गों में साठ हज़ार ब्रांड का स्रोत है. दवाओं के निर्माण में अपनी कम लागत (अमेरिका के मुक़ाबले भारत में दवा बनाने का ख़र्च 33 प्रतिशत कम है) के कारण आज भारत दुनिया में वैक्सीन की कुल मांग का पचास प्रतिशत अकेले ही पूरा करता है. अमेरिका में जेनेरिक दवाओं की 40 प्रतिशत मांग और ब्रिटेन में हर तरह की दवा की 25 प्रतिशत मांग की पूर्ति भारत के निर्यात के ज़रिए ही होती है. दवाओं के कुल उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है और मूल्यों के हिसाब से 13वें नंबर पर आता है. दुनिया की टॉप 20 जेनेरिक दवा कंपनियों में से आठ भारत की हैं. देश में एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट (API) और थोक में दवाएं बनाने के लिए भारत सरकार ने 39.4 करोड़ डॉलर से तीन औद्योगिक पार्क विकसित करने की योजना का भी एलान किया है.

वहीं दूसरी ओर, ऑस्ट्रेलिया बायोटेक के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास (R&D) का अग्रणी देश है. बायोटेक क्षेत्र में इनोवेशन की संभावनाओं के आकलन वाले, वर्ष 2016 के साइंटिफिक अमेरिका स्कोरकार्ड में ऑस्ट्रेलिया को विश्व भर में नंबर #5 पर रखा गया था. अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में दुनिया के दस बेहतरीन प्रतिद्वंदी देशों में ऑस्ट्रेलिया को भी शुमार किया जाता है. दुनिया भर की बड़ी दवा कंपनियां ऑस्ट्रेलिया के बायोटेक क्षेत्र में नए आविष्कार की संभावनाएं देखती हैं और वहां निवेश करने में दिलचस्पी रखती हैं. ऑस्ट्रेलिया के बायोटेक क्षेत्र में 69 प्रतिशत हिस्सेदारी बायो-फार्मा की है. इसके अतिरिक्त, मरीन बायोटेक्नोलॉजी, डेयरी बायोटेक्नोलॉजी, पर्यावरण को टिकाऊ बनाने वाला पानी का उपयोग, खेती और औद्योगिक बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी ऑस्ट्रेलिया के बायोटेक क्षेत्र में काफ़ी संभावनाएं दिखती हैं.

ऑस्ट्रेलिया के लिए जैविक विज्ञानों का क्षेत्र सामरिक प्राथमिकता का विषय है. कैंसर, नेत्र विज्ञान, संक्रामक रोगों, वैक्सीन, सांस संबंधी, तंत्रिका विज्ञान और रिजेनेरेटिव दवाओं के क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया ने बेहद प्रतिद्वंदी और नई रिसर्च और खोज की हैं. भारत के लिए, ऑस्ट्रेलिया की ये सफलताएं, उसके साथ अर्थपूर्ण सहयोग बढ़ाने अच्छा अवसर हैं. ऑस्ट्रेलिया के सामने चुनौती इस बात की है कि रिसर्च की इन सफलताओं को वो कारोबारी तरीक़े से कैसे इस्तेमाल करे. उसके सामने सस्ती लागत वाले बाज़ार तलाशने और आयात पर बहुत अधिक निर्भर मेडिकल सप्लाई चेन जैसी चुनौतियां भी हैं.

भारत के लिए, ऑस्ट्रेलिया की ये सफलताएं, उसके साथ अर्थपूर्ण सहयोग बढ़ाने अच्छा अवसर हैं. ऑस्ट्रेलिया के सामने चुनौती इस बात की है कि रिसर्च की इन सफलताओं को वो कारोबारी तरीक़े से कैसे इस्तेमाल करे. उसके सामने सस्ती लागत वाले बाज़ार तलाशने और आयात पर बहुत अधिक निर्भर मेडिकल सप्लाई चेन जैसी चुनौतियां भी हैं. 

ऑस्ट्रेलिया अपनी ज़रूरत की 90 प्रतिशत दवाओं का आयात करता है. वो दुनिया की लंबी आपूर्ति श्रृंखला की आख़िरी और कमज़ोर कड़ी है. ऐसे में अगर दवाओं की आपूर्ति श्रृंखला में खलल पड़ता है, तो उसका सीधा झटका ऑस्ट्रेलिया को लगता है. ऐसे में क्या भारत और ऑस्ट्रेलिया के लिए इस क्षेत्र में सामरिक गठबंधन बनाने के अवसर हैं?

*ऑस्ट्रेलिया और भारत मिलकर नई केमिकल संस्थाएं शुरू कर सकते हैं. पेचीदा जेनेरिक दवाओं की खोज, कई देशों के साथ मिलकर रिसर्च, सामुदायिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवा देने और अनुसंधान व विकास में तेज़ी से इनोवेशन करने में सहयोग कर सकते हैं.

*भारत कम लागत में तकनीक के वाणिज्यिक उपयोग का अवसर प्रदान करता है. इसे भारत की विशाल और विविधतापूर्ण आबादी से सहयोग मिलता है, जो कि सस्ती दरों पर कम समय में दवाओं के ट्रायल और इनके इस्तेमाल के मौक़े मुहैया करा सकती है.

*दोनों देश मिलकर दवाओं के नए उपयोग (यानी मौजूदा दवाओं से नई बीमारियों के इलाज) की रणनीति पर काम कर सकते हैं, और दवाओं के विकास में लगने वाले समय को असरदार तरीक़े से कम कर सकते हैं. इससे प्री-क्लिनिकल ट्रायल का समय भी बचेगा और दवाएं विकसित करने की लागत भी कम हो जाएगी.

*दोनों देश मिलकर ऐसी संक्रामक बीमारियों की पहचान कर सकते हैं, जिनके लिए वैक्सीन बनाने की ज़रूरत है (जैसे कि टीबी), असंक्रामक और लाइफ-स्टाइल संबंधी बीमारियों के इलाज तलाशने पर ध्यान लगा सकते हैं, जानवरों से हासिल होने वाले इलाज के उत्पाद और महत्वपूर्ण इलाजों पर ज़ोर दे सकते हैं.

ऑस्ट्रेलिया का थिरेप्यूटिक गुड्स एडमिनिस्ट्रेशन (TGA), जो आराम देने वाले सामानों जैसे कि, दवाओं, मेडिकल उपकरणों और डायग्नोस्टिक परीक्षणों की नियामक संस्था है, वो एक पारदर्शी और मज़बूत क्लिनिकल पुष्टि की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है. भारत जो ख़ुद का कार्यकारी मॉडल विकसित कर रहा है, वो इससे सीख सकता है.

*बौद्धिक संपदा (IP) पर आधारित ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था भारत के तेज़ी से बढ़ रही बायोरिसर्च सेवा का दायरा बढ़ाते हुए उसे नई रफ़्तार दे सकती है. भारत का ये सेक्टर बायोफार्मा के बाद दूसरा सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला सेक्टर है. भारत की बायो-अर्थव्यवस्था लगातार बड़ रही है. अभी ये 63 अरब अमेरिकी डॉलर की है और वर्ष 2025 में इसका लक्ष्य 100 अरब डॉलर तक पहुंचने का है.

  • भारत कम लागत में इनोवेशन के अवसर प्रदान करता है और यहां नाकामी का जोख़िम भी कम है. क्योंकि यहां विदेशी मुद्रा के बराबर मूल्य की ही क़ीमत मिलती है. ऐसे में ऑस्ट्रेलिया की कंपनियां भारत में इनोवेशन के काम कर सकती हैं, जिन्हें अपने यहां के मज़बूत बौद्धिक संपदा क़ानूनों से मदद मिलेगी. भारत का बाज़ार ऐसे अवसर उपलब्ध कराता है, जिससे मिलकर वैश्विक स्तर पर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है. ऑस्ट्रेलिया की बड़ी कंपनियां जैसे कि CSL (जो बायोथेरेपी में अग्रणी इनोवेशन कंपनी है) और जानवरों के इलाज वाली कंपनियों की भारत में मौजूदगी ही नहीं है.
  • ऑस्ट्रेलिया का विशिष्ट प्रो-सब्सिट्यूशन दृष्टिकोण जो एक जैसी जैविक समानता के लोगों का एक जैसा इलाज करने पर ज़ोर देता है, न कि पहली बार इलाज कराने वाले हर मरीज़ की जैविक संरचना पर ज़ोर दे, उससे प्रो-सब्सिट्यूशन के नज़रिए को बढ़ावा मिलता है. मिसाल के लिए, एंटी-टीएनएफ बायोसिमिलर को चेतावनी वाली श्रेणी में न डालना. जिन दवाओं को बायोसिमिलर माना जाता है, उन्हें ख़रीदने जाने पर अगर फार्मासिस्ट के पास वो दवा नहीं है, तो वो उसी फ़ॉर्मूले की दूसरी दवा मरीज़ को बिना डॉक्टर से पूछे दे सकता है. इस समय ऑस्ट्रेलिया के अलावा कोई भी नियामक देश ऐसे बायोसिमिलर दवाओं को फार्मेसी के स्तर पर बदलने की इजाज़त नहीं देता.
  • ऑस्ट्रेलिया का थिरेप्यूटिक गुड्स एडमिनिस्ट्रेशन (TGA), जो आराम देने वाले सामानों जैसे कि, दवाओं, मेडिकल उपकरणों और डायग्नोस्टिक परीक्षणों की नियामक संस्था है, वो एक पारदर्शी और मज़बूत क्लिनिकल पुष्टि की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है. भारत जो ख़ुद का कार्यकारी मॉडल विकसित कर रहा है, वो इससे सीख सकता है.
  • नई शिक्षा नीति के तहत ऑस्ट्रेलिया, भारत को जैविक विज्ञानों के कामगार तैयार करने में मदद कर सकता है. अपनी फार्मेसी शिक्षा और कौशल विकास के (मेडिकल विशेषज्ञता टेक्निकल शॉर्ट कोर्स और ऑनलाइन मॉड्यूल जैसे) शॉर्ट टर्म पीजी टेक्निकल कोर्स, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फार्मास्यूटिकल एजुकेशन ऐंड रिसर्च (NIPER) जैविक विज्ञान सेक्टर के विकास की बेहद अच्छी बुनियादी संस्था है. भारत, ऑस्ट्रेलिया की दूर दराज़ के इलाक़ों में स्वास्थ्य सेवाएं देने औ भविष्य में स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरतों का आकलन करने वाली डेटा विश्लेषण तकनीकों से भी सीख सकता है.
  • भारतीय संस्थाएं ऑस्ट्रेलिया के अनुसंधान संबंधी इकोसिस्टम से भी सीख ले सकते हैं, जहां पर अकादेमिक व्यवस्था के तहत जैविक विज्ञान को मज़बूती दी जाती है, उद्योग और विश्वविद्यालयों के सहयोग से इस क्षेत्र के विकास को बढ़ावा मिलता है.
  • ऑस्ट्रेलिया और भारत मिलकर रिसर्च के टॉप दस क्षेत्रों (विषाणु विज्ञान, महामारी विज्ञान, न्यूरोसाइंस, स्टेम सेल रिसर्च वग़ैरह) की पहचान भी कर सकते हैं. सरकार से मिलने वाली मदद और उद्योगों से सहयोग लेकर उच्च गुणवत्ता के उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं.

बाधाओं से निपटना-ऑस्ट्रेलिया और भारत

कम क़ीमत, पहुंच और गुणवत्ता भारत के जैविक विज्ञान के विज़न के मूल हैं. आज ज़रूरत है कि:

*ऑस्ट्रेलिया और भारत एक दूसरे की ताक़त को पहचानें और उसका सम्मान करें.

*आपसी सहयोग की संस्थागत और स्थायी व्यवस्था का निर्माण (जैविक विज्ञान के क्षेत्र में ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप की स्थापना) करें. आज इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि सभी साझेदारों को (सरकार, अकादेमिक और उद्योग) को आपस में जोड़ा जाए और नियम बनाने में उनकी राय ली जाए.

*आपसी सहयोग के नए मॉडल का विकास किया जाए, जो पारंपरिक जैविक विज्ञान उद्योग के दायरे से भी आगे जाकर ऐसे नए कारोबारी मॉडल अपनाए, जो डिजिटल तकनीक और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के उपयोग से संचालित हों.

*ऐसे तरीक़ों की खोज की जाए जहां विज्ञान और कारोबार के बीच आपसी सहयोग बढ़े. ऑस्ट्रेलिया के वो सुपरफंड जिन्होंने भारत में निवेश कर रखा है, वो अपने रिस्क फंड के 2-3 प्रतिशत को सहयोगात्मक जैविक विज्ञान सेक्टर के इनोवेशन के लिए आवंटित करने पर विचार कर सकते हैं.

आगे चलकर, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच जैविक विज्ञान के क्षेत्र में साझेदारी की बुनियाद, आपसी सहयोग और अनुसंधान का कॉमर्शियलाइज़ेशन को बनाया जाना चाहिए.

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