19 दिसंबर को दिल्ली में भारत और मध्य एशिया के बीच तीसरा संवाद उस वक़्त हुआ, जब पाकिस्तान (Pakistan) ने इस्लामिक देशों (Islamic Countries) के संगठन (OIC) के विदेश मंत्रियों की बैठक की मेज़बानी की थी. हालांकि, क्षेत्रीय चुनौतियों पर भारत के साथ बेहतर तालमेल दिखाते हुए, पांच मध्य एशियाई देशों के विदेश मंत्रियों ने इस्लामिक देशों के विदेश मंत्रियों की आपातकालीन बैठक के 17वें सत्र को छोड़कर, दिल्ली में हुई बैठक में शिरकत करने का फ़ैसला किया. मध्य एशियाई देशों के विदेश मंत्रियों का पाकिस्तान में हो रही बैठक छोड़कर भारत में हो रहे सम्मेलन में शामिल होने का फ़ैसला, इस बात का संकेत देता है कि मध्य एशिया (CA) और भारत के बीच न केवल आपसी सहयोग के नए क्षेत्रों में समन्वय बढ़ रहा है, बल्कि दोनों पक्ष तालिबान से निपटने में भी बेहतर तालमेल बना रहे हैं.
तीसरा भारत मध्य एशिया संवाद
तीसरे भारत मध्य एशिया संवाद के दौरान, दोनों पक्षों ने द्विपक्षीय संबंधों को और मज़बूत बनाने के तरीक़ों की पड़ताल की गई. इस दौरान सभी पक्षों ने न केवल वाणिज्य, क्षमता के विस्तार और कनेक्टिविटी जैसे सहयोग के पारंपरिक क्षेत्रों पर चर्चा हुई, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के राज से पैदा हुई भू-सामरिक और सुरक्षा संबंधी चिंताओं को लेकर भी बातचीत हुई. सभी देशों के विदेश मंत्रियों ने ‘एक शांतिपूर्ण, सुरक्षित और स्थिर अफ़ग़ानिस्तान के निर्माण के प्रति अपने समर्थन’ को दोहराया. इसके साथ विदेश मंत्रियों ने अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता, एकता और क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ उसके अंदरूनी मामलों में दखलंदाज़ी न करने पर भी ज़ोर दिया.
अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद, भारत और मध्य एशिया को जोड़ने वाली कड़ी है
सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत और मध्य एशिया के बीच के सदियों पुराने सांस्कृतिक और कारोबार रिश्तों में एक बार फिर से नई जान आई और उसमें सामरिक और भू-आर्थिक संबंध भी शामिल हो गए. हालांकि, नए गठित हुए मध्य एशियाई गणराज्यों और भारत के बीच संबंध मज़बूत बनाने में कनेक्टिविटी की कमी एक बड़ी चुनौती बनी हुई थी. लेकिन, 1991 के बाद से भारत ने मध्य एशियाई गणराज्यों के साथ रिश्तों को लेकर ‘सकारात्मक’ रवैया अपनाया. इस लचीले रवैये के तहत, भारत और मध्य एशिया के बीच रिश्ते सिर्फ़ आर्थिक या सुरक्षा के क्षेत्र भर से नहीं जुड़े थे. भारत ने मध्य एशिया से ताल्लुक़ बनाने में भले ही कुछ ख़ास देशों पर ज़ोर दिया था. लेकिन, भारत ने मध्य एशिया के हर देश के साथ उसकी ख़ास पहचान के अनुरूप संवाद क़ायम किया. चूंकि उस वक़्त नए नए स्वतंत्र हुए मध्य एशियाई गणराज्य (CAR) आर्थिक संकटों के बोझ तले दबे हुए थे. इसलिए, भारत ने इस क्षेत्र को 1 से डेढ़ करोड़ डॉलर की मदद दी. उसके बाद, 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उज़्बेकिस्तान और कज़ाख़िस्तान का दौरा किया, और उसके बाद वे 1995 में तुर्कमेनिस्तान और किर्गीज़िस्तान के दौरे पर गए. इसके बाद भारत ने तकनीकी और आर्थिक सहयोग (ITEC) को भी नए सिरे से खड़ा किया जिससे कि वो मध्य एशियाई देशों को स्टडी टूर, प्रशिक्षण के कार्यक्रम और तकनीक देकर वहां क्षमता निर्माण करने में मदद कर सके.
जैसे जैसे दोनों पक्षों के बीच रिश्तों में मज़बूती बढ़ी, वैसे वैसे व्यापार के लिए कनेक्टिविटी, और ख़ास तौर से मध्य एशियाई देशों से क़ुदरती संसाधनों का निर्यात एक बड़ा मसला बन गया. इसका नतीजा ये हुआ कि भारत और मध्य एशिया के बीच सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्ते सीमित हो गए. इन रिश्तों में तब और दूरी आ गई, जब पाकिस्तान ने भारत को मध्य एशिया तक जाने के लिए रास्ता देने में सहयोग देने से इनकार कर दिया. तुर्कमेनिस्तान- अफ़ग़ानिस्तान- पाकिस्तान- भारत (TAPI) गैस पाइपलाइन का काम 2006 से अटका हुआ है. इस चुनौती से निपटने के लिए भारत ने मध्य एशिया तक पहुंच बनाने के लिए ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान सूबे में स्थित चाबहार बंदरगाह का रास्ता निकाला. इसके लिए, दोनों देशों के बीच सहमति पत्र पर 2015 में दस्तख़त किए गए थे. हालांकि, पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी ISI और फ़ौज की मदद से जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा कर लिया, तो उससे चाबहार के रास्ते मध्य एशियाई तक पहुंच बनाने की भारत की मंशा पूरी होने में भी ख़लल पड़ गया. हालांकि, इस रास्ते से भारत अब भी तुर्कमेनिस्तान की राजधानी अश्गाबात तक पहुंच सकता है. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का राज आने से एक बार फिर से भारत और मध्य एशियाई देशों के सामने सुरक्षा संबंधी वैसी ही चुनौतियां फिर से उठ खड़ी हुई हैं, जैसी बीसवीं सदी के आख़िरी दशक में पैदा हुई थीं.
सामरिक और सुरक्षा विशेषज्ञों ने चिंता ज़ाहिर की है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का राज वापस आने से पूरे इलाक़े में इस्लामिक उग्रवादी संगठनों को बढ़ावा मिलेगा, और चूंकि ख़ुद तालिबान भी पाकिस्तान से मदद हासिल करने वाले आतंकी संगठनों के साथ तालमेल से काम करता है, तो आशंका इस बात की भी है कि इसका असर नियंत्रण रेखा के इस पार यानी भारत पर भी पड़ेगा. ऐसी स्थिति से निपटने के लिए भारत ने नियंत्रण रेखा पर चौकसी बढ़ा दी है, और कश्मीर में पाकिस्तान की साज़िशों से निपटने के लिए अपनी तैयारी को भी बेहतर बनाया है. इसी तरह से, मध्य एशियाई देशों पर भी तालिबान राज का असर दिखने का डर है. क्योंकि, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान की 2387 किलोमीटर लंबी सीमा, अफ़ग़ानिस्तान से मिलती है. ये सीमा बहुत सुरक्षित नहीं है और निगरानी की अच्छी व्यवस्था न होने से बड़ी आसानी से इसके ज़रिए घुसपैठ की जा सकती है. जब से तालिबान ने अपना सैन्य अभियान शुरू किया था, तब से अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारों नागरिक और यहां तक कि सैनिकों ने भी भागकर इन देशों में पनाह ली थी. इसके अलावा, इस क्षेत्र में इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान (IMU), इस्लामिक जिहाद यूनियन (IJU), जमात अंसारुल्लाह जैसे संगठन सक्रिय हैं. वहीं, इस क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट के कुछ कट्टरपंथी लड़ाके भी मौजूद हैं, जो अब अलग अलग आतंकी संगठनों में शामिल हो चुके हैं. इन सब ने मिलकर पूरे क्षेत्र की सुरक्षा की चिंता बढ़ा दी है.
पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को समर्थन देने की नीति को लेकर आशंकाओं और सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हितों में कमी आने के कारण, मध्य एशियाई देशों को अपनी क्षेत्रीय रणनीति पर नए सिरे से विचार करने को मजबूर होना पड़ा है. आज भू-सामरिक, आर्थिक और सुरक्षा के मोर्चे पर भारत और मध्य एशिया के विचारों में समानता बढ़ी है. पाकिस्तान को लेकर मध्य एशियाई देशों की बढ़ी हुई चिंता, ताजिकिस्तान में हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भी उजागर हुई थी. ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति इम्मोली रहमोन ने तालिबान की आलोचना करते हुए, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से कहा था कि वो अफ़ग़ानिस्तान में सभी पक्षों को साथ लेकर चलने वाली सरकार बनाने के लिए तालिबान पर और दबाव बढ़ाएं. पाकिस्तान को लेकर मध्य एशियाई देशों का आशंका भरा रुख़ एक बार फिर से तब देखने को मिला, जब इन देशों के विदेश मंत्रियों ने पाकिस्तान की मेज़बानी वाली OIC विदेश मंत्रियों की बैठक छोड़कर, भारत- मध्य एशिया संवाद में शामिल होने को तरज़ीह दी.
बढ़ता आपसी विश्वास
भारत और मध्य एशिया के रिश्तों में कनेक्टिविटी आज भी एक बड़ा मसला है. फिर भी पिछले तीस सालों के दौरान, मध्य एशियाई देशों के बीच भारत की एक भरोसेमंद साझीदार की छवि बनी है. हालांकि, इन रिश्तों को और मज़बूती तब मिली, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में सभी मध्य एशियाई देशों का दौरा किया और 2012 में शुरू की गई, ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया’ नीति को और आगे बढ़ाया. उस दौरे के बाद भारत ने कज़ाख़िस्तान के साथ रक्षा और सैन्य तकनीक के समझौते पर दस्तख़त किए हैं. उज़्बेकिस्तान के साथ आतंकवाद निरोध और सुरक्षा सहयोग के साझा कार्यकारी समूह बनाए हैं. किर्गीज़िस्तान और तुर्कमेनिस्तान के साथ रक्षा सहयोग का समझौता किया है. इसके अलावा भारत ने व्यापार और निवेश के कई अन्य समझौते भी इन देशों के साथ किए हैं. इन समझौतों से ये ज़ाहिर होता है कि भारत और मध्य एशियाई देश अपने आपसी और त्रिपक्षीय संबंधों को और मज़बूती देना चाहते हैं. एक भरोसेमंद साझीदार की भारत की छवि को तब और मज़बूती मिली, जब भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने क्षेत्रीय सुरक्षा का सम्मेलन आयोजित किया. इसमें सभी मध्य एशियाई देशों के साथ-साथ रूस और ईरान भी शामिल हुए. हालांकि, चीन और पाकिस्तान इस बैठक से दूर ही रहे थे. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर, चार महीने के भीतर इस क्षेत्र का तीन बार दौरा कर चुके हैं. भारत ने विकास की परियोजनाओं में सहयोग के लिए किर्गीज़िस्तान को 20 करोड़ डॉलर का रियायती क़र्ज़ भी दिया है. जब कज़ाख़िस्तान में एशिया में आपसी संवाद और भरोसा बढ़ाने के उपाय (CICA) पर चर्चा के लिए हुए विदेश मंत्रियों का छठा सम्मेलन हुआ, तो एस. जयशंकर ने क्षेत्रीय स्थिरता में कनेक्टिविटी की अहमियत के बारे में बताया. हालांकि, भारत के विदेश मंत्री ने मध्य एशिया को लेकर संकुचित नज़रिए के लिए चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की आलोचना भी की. क्योंकि चीन की इस पहल के तहत बन रहा चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा, पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में भारत की संप्रभुता का उल्लंघन भी करता है. मध्य एशियाई गणराज्यों में चीन के ख़िलाफ़ नाराज़गी भी बढ़ रही है. शिंजियांग के निवासियों पर चीन जिस तरह के ज़ुल्म ढा रहा है, उससे इन देशों के लोग बहुत नाख़ुश हैं. क्योंकि, वीगरों के साथ मध्य एशियाई देशों के जातीय रिश्ते रहे हैं. इसके अलावा, मध्य एशिया में चीन की बढ़ती आक्रामकता से भी उसके प्रति नाराज़गी बढ़ रही है.
मध्य एशियाई देश अन्य देशों को अपने ऊर्जा निर्यात को बढ़ाकर, चीन की बढ़ती साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं पर भी लगाम लगाना चाहते हैं. निर्यात में विविधता लाने की इस ज़रूरत ने पहले ही उज़्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान जैसे मध्य एशियाई देशों को तालिबान के साथ द्विपक्षीय वार्ता करने और काबुल में अपने राजनयिक मिशन शुरू करने को मजबूर किया है. ये दोनों ही देश अपने व्यापार और ऊर्जा संपर्कों के लिए एक स्थिर अफ़ग़ानिस्तान पर निर्भर हैं. दक्षिण और मध्य एशिया के साथ आर्थिक कनेक्टिविटी, व्यापार और परिवहन के लिए उज़्बेकिस्तान को तालिबान के सहयोग की ज़रूरत है. वहीं, तुर्कमेनिस्तान को अपने प्राकृतिक संसाधनों के निर्यात और अपने ऊर्जा संसाधनों के निर्यात बाज़ार में विविधता के लिए तालिबान से सुरक्षा की गारंटी चाहिए.
अपनी सामरिक और आर्थिक चिंताओं को देखते हुए, मध्य एशियाई देशों द्वारा तालिबान से ऐसा द्विपक्षीय सहयोग करना भले ही एक अच्छी रणनीति हो. लेकिन, इससे अफ़ग़ानिस्तान से पैदा हुए आतंकवाद के मध्य एशिया को अपनी गिरफ़्त में लेने का डर दूर नहीं हो जाता है. दोनों ही क्षेत्रों के लिए आपसी तालमेल वाली रणनीति की ज़रूरत होगी. मध्य एशियाई देशों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि वो तालिबान के साथ अपने रिश्तों को आगे बढ़ाने से पहले अफ़ग़ानिस्तान की जनता की फ़ौरी मदद की ज़रूरत और वहां पर एक समावेशी सरकार की स्थापना पर भी ध्यान दें.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.