Author : Krzysztof Iwanek

Published on Mar 12, 2020 Updated 0 Hours ago

कश्मीर मामले पर भारत सरकार ने दोलायमान मनोदशा का परिचय दिया है. सरकार एक तरफ तो इसे भारत का अंदरुनी मामला बताते रही तो दूसरी तरफ उसने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर को लेकर चली बहस को प्रभावित करने की कोशिश की.

भारत की कश्मीर नीति: अंतर्राष्ट्रीय साख़ को धक्का लेकिन वैश्विक हैसियत बरकरार

प्रसिद्ध रोम साम्राज्य के इतिहास के लिहाज से देखें तो वहां अगस्त का महीना शुभ माना जाता है लेकिन भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर को लेकर साल 2019 के अगस्त में जो दो फैसले किये वे शुभ साबित नहीं हुये. नई दिल्ली में केंद्र सरकार को सत्ता में आये अब छह माह से अधिक हो चुके हैं और समय के इस मोड़ पर पहुंचकर ये बात स्पष्ट हो गई है कि इस सरकार की नई कश्मीर नीति और इस नीति पर अमल के निहितार्थों को लेकर सरकार ने जो रुख़ अपनाया उससे अंदरुनी तौर पर चुनौतियां खड़ी हुई हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी, भले ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर की चुनौतियां छोटे स्तर की हों.

सरकार ने तेजी से दोनों फैसले लिए तो मेरी शुरुआती राय बनी कि इनमें से एक यानि धारा 370 को समाप्त करने का फैसला राज्यों तथा भारतीय संघ के नागरिक के बीच बराबरी के लिहाज से बुनियादी तौर पर उचित है लेकिन फिर जम्मू-कश्मीर का सूबाई दर्जा समाप्त करने से संबंधित दूसरा फैसला वैसे ही बुनियादी तौर पर गलत है. सिर्फ लद्दाख को अलग करना अपने आप में औचित्यपूर्ण है और जम्मू-कश्मीर को लेकर सुधार के कदमों में एकमात्र ऐसा फैसला है जिसकी कानूनी नजीर मिलती है.

लेकिन चूंकि समानता के आदर्श का झंडा खूब बुलंद किया गया तो फिर जम्मू-कश्मीर के सूबाई दर्जे को ख़त्म करने के निर्णय को औचित्यपूर्ण कैसे कहा जा सकता है?

जहां तक इन फ़ैसलों के अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थों का सवाल है, मैं मानकर चल रहा था कि इन बदलावों से भारत की छवि और वैश्विक स्थिति पर नुक़सानदेह असर नहीं पड़ेगा. लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, मेरे इन दोनों ही मंतव्यों में कुछ बदलाव आया और उनमें नकार के स्वर गहरे हुए. अंदरुनी मामलों के लिहाज से देखें तो नज़र आयेगा कि सरकार ने समानता के आदर्श की दुहाई दी और धारा 370 को ख़त्म कर दिया. तर्क ये दिया गया कि इससे जम्मू-कश्मीर तथा इसके निवासी नागरिक दूसरे राज्यों तथा भारत के शेष नागरिकों की बराबरी में आ जायेंगे. लेकिन फिर सरकार की यही एकमात्र मंशा थी तो मैं इसे उचित मानकर चलता(शुरुआती तौर पर मेरी राय ऐसी ही थी). लेकिन चूंकि समानता के आदर्श का झंडा तो खूब बुलंद किया गया तो फिर जम्मू-कश्मीर के सूबाई दर्जे को ख़त्म करने के निर्णय को औचित्यपूर्ण कैसे कहा जा सकता है? कहां तो तय ये था कि जम्मू-कश्मीर के विशेष वैधानिक दर्जे को ख़त्म करके उसे भारत के अन्य राज्यों की बराबरी मे लाया जायेगा जबकि हुआ ये कि जम्मू-कश्मीर को हैसियत की ज़मीन पर कुछ दर्जा और नीचे कर दिया गया, बाकी राज्य जिस हैसियत के हक़दार माने जाते हैं, जम्मू-कश्मीर की वो हैसियत भी ना रही. आख़िर को हुआ ये कि कानून के धरातल पर पुरानी असमानता ख़त्म हुई लेकिन उसकी जगह नयी असमानता ने ले ली.

लेकिन मामले को हद दर्जे तक बिगाड़ने और जटिल बनाने के पीछे सिर्फ कानून के धरातल पर लिये गये फैसले का ही नहीं बल्कि इन फ़ैसलों के संग-साथ दिखाये गये मनमानेपन का भी योगदान है और ये मनमानापन हम अभी तक देख रहे हैं. इंटरनेट को बंद करने और जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं को नज़रबंद करने जैसे कदमों को गुजरते हर माह के साथ औचित्यपूर्ण ठहराना मुश्किल होता गया. ये बात सच है कि जम्मू-कश्मीर के अग्रणी नेताओं में शुमार महबूबा मुफ्ती और अब्दुल्ला-द्वय (पिता-पुत्र) अगस्त माह में हुए बदलावों से तुरंत पहले इन बदलावों के विरोध के लिए एकजुट हो चुके थे(जैसा कि उनके गुप्कार  घोषणा से प्रकट होता है) लेकिन इसे इन नेताओं को नज़रबंदी में रखने का मजबूत नैतिक आधार तो नहीं ही कहा जा सकता और ना ही इस बात से इस तथ्य की कोई व्याख्या हो पाती है कि इन पंक्तियों को लिखे जाने के वक्त तक उन्हें लोगों से अलग-थलग नज़रबंदी में रखा गया है जबकि इन नेताओं के पास ऐसी कोई ताकत नहीं जो वे भारत सरकार को अपने फैसले वापस लेने के लिए मजबूर कर सकें (इन नेताओं के पास ऐसी ताकत 4-5 अगस्त 2019 को भी नहीं थी). नेताओं की नज़रबंदी के लिए लोक सुरक्षा अधिनियम (पब्लिक सेफ्टी एक्ट) को आधार बनाया गया है लेकिन इस कानून को लेकर गुज़रे वक्त में भी आपत्तियां उठायी जाती रही हैं. इसके अतिरिक्त, विडंबना की एक बात यह भी है कि ये कानून सिर्फ जम्मू-कश्मीर पर लागू होता है सो इस कानून को उन प्रतीकों में शुमार किया जा सकता है जिनके आधार पर कहा जाता है कि जम्मू-कश्मीर शेष भारत से वैधानिक तौर पर अलग है — जबकि मौजूदा सरकार शेष भारत से जम्मू-कश्मीर के वैधानिक अलगाव को ही ख़त्म करने की नीयत से ही काम कर रही थी.

नेताओं की नज़रबंदी के लिए लोक सुरक्षा अधिनियम (पब्लिक सेफ्टी एक्ट) को आधार बनाया गया है लेकिन इस कानून को लेकर गुज़रे वक्त में भी आपत्तियां उठायी जाती रही हैं

ऐसा ही प्रश्न कश्मीर में संचार-व्यवस्था को आंशिक रुप से सीमित करने के मसले पर उठाया जा सकता है—अगर संचार-व्यवस्था को ये सोचकर सीमित किया गया कि इससे संक्रमणकालीन चुनौतीपूर्ण स्थिति में सुरक्षा प्रदान करने में मदद मिलेगी तो फिर आज दिन तक संचार-व्यवस्था को सीमित रखने के पीछे क्या तुक है क्योंकि सरकार तो दावा कर रही है कि अब स्थितियां काबू में आ चुकी हैं. यहां गौर करने की एक बात ये भी है कि सूबाई दर्जे को हटाने के फैसले को एक अस्थायी उपाय के तौर पर पेश किया गया था. कहा गया कि एक बार इलाके में स्थिरता की बहाली हो जाती है तो फैसला वापस ले लिया जायेगा (जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह की घोषणा से ज़ाहिर होता है) लेकिन भारत सरकार के इंटरनेट सेवाओं को लंबी अवधि तक सीमित रखने और नेताओं को नज़रबंद रखने जैसे फैसले से अनिश्चितता का बोध और ज़्यादा गहरा हुआ है. चूंकि अभी कोई भी इस स्थिति में नहीं जो बता सके कि अस्थायी किस्म के ये उपाय कब वापस लिये जायेंगे तो अभी सरकार के इस वादे की ईमानदारी पर यकीन करना बहुत कठिन है कि सूबाई दर्जा ख़त्म करने का फैसला भी एक अस्थायी उपाय ही साबित होगा.

जहां तक अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थों का सवाल है, केंद्र सरकार की हाल की कश्मीर नीति से भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख को तो धक्का पहुंचा है लेकिन भारत की वास्तविक हैसियत को नहीं. कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान, भारत सरकार की आलोचना ही करेगा चाहे भारत जो भी कदम उठाये. मलेशिया के प्रधानमंत्री और तुर्की के राष्ट्रपति ने अगर मसले पर आलोचना के स्वर में कुछ कहा है तो इसके बारे में ये मानकर चला जा सकता है कि ये नेता अपने देश की मुस्लिम पहचान की सियासी संभावनाओं को दस्तक दे रहे हैं (जो कि उनके अपने देश के नागरिकों को सुनाने-बताने के लिए है). सो, भारत के पास ऐसा कोई रास्ता नहीं जो वो ऐसे बयानों से पिण्ड छुड़ा सके. साथ ही एक बात ये भी है कि आलोचना के इन स्वरों को जुमलेबाजी से ज़्यादा नहीं माना जा सकता. सो, भारत सरकार को कोई वास्तविक खतरा नहीं है. युरोप जैसे इलाके में जो देश भारत के प्रति तटस्थ या फिर दोस्ताना रवैया रखते हैं उनके साथ मोदी सरकार का मसले पर संवाद कायम करना बेहतर साबित होता. और, यही वो मोर्चा है जहां चूक नुकसान का सौदा साबित हुई.

हाल के महीने में भारत सरकार कश्मीर मसले पर पेंडुलम की भांति लगातार दोलायमान नज़र आयी. एक तऱफ उसने कश्मीर को लेकर चलने वाली अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बहस को प्रभावित करने की कोशिश की तो दूसरी तरफ मसले को भारत का अंदरुनी मामला मानकर भी बरता. भारत सरकार का रुख़ हमेशा यही रहा कि जम्मू-कश्मीर पूर्ण रुप से भारत का अविभाज्य अंग है और संयुक्त राष्ट्र संघ ने सुदूर अतीत में कश्मीर विवाद को लेकर जो बरताव किया उससे भारत सरकार मोहभंग की हालत में भी है. इन दो बातों को नज़र में रखें तो जान पड़ेगा कि भारत सरकार ने अगर कश्मीर के मसले को भारत का अंदरुनी मामला बताकर पेश किया है तो यह बिल्कुल जायज़ है. लेकिन अगर मामला ऐसा ही था तो फिर विदेश के सांसदों और राजनयिकों को कश्मीर बुलाने की क्या ज़रुरत आन पड़ी थी?

भारत सरकार का रुख़ हमेशा यही रहा है कि जम्मू-कश्मीर पूर्ण रुप भारत का अविभाज्य अंग है और संयुक्त राष्ट्र संघ ने सुदूर अतीत में कश्मीर विवाद को लेकर जो बरताव किया उससे भारत सरकार का मोहभंग की हालत में भी है. इन दो बातों को नज़र में रखें तो जान पड़ेगा कि भारत सरकार ने अगर कश्मीर के मसले को भारत का अंदरुनी मामला बताकर पेश किया है तो यह बिल्कुल जायज़ है.

इसी बिन्दु पर कुछ ऐसी गलतियां हुईं जिनसे बचा जा सकता था. साल 2019 के अक्तूबर में यूरोपीय संघ के सांसदों का दौरा ऐसी ही ग़लतियों में एक है. यहां ये बात स्वीकार की जानी चाहिए कि गलती हर कदम पर हुई और ये सिर्फ भारत की तरफ से नही बल्कि दोनों ही तरफ से हुई. युरोप संघ के सांसदों का दौरा दोनों ही तरफ से अनाधिकारिक दौरा था. इसे ना तो भारत सरकार ने औपचारिक तौर पर आयोजित किया था और ना ही यूरोपीय संघ ने ही इस दौरे के लिए आदेश दिया था. यह भी दोलायमान मनोदशा का ही मामला है क्योंकि यहां सवाल उठता है कि क्या यूरोपीय संघ के सांसदों का दौरा किसी औपचारिक कूटनयिक पहलकदमी का हिस्सा था या फिर बात ऐसी ना थी ? सांसदों की तरफ से गलती ये हुई कि उन्होंने दौरे का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और इस तरह सांसदों ने अपने देश तथा यूरोपीय संघ, दोनों ही की कूटनयिक हदबंदी से बाहर कदम रखा (और ये बात मैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कह रहा हूं, मैं इस बात से आगाह हूं कि दौरे पर आये सांसदों में मेरे अपने देश पोलैंड के भी राजनेता शामिल थे)

लेकिन, भले ही कुछ राजनयिकों का दौरा बाद के समय में हुआ हो तो भी ये नहीं लगता कि बाहर के देशों में कश्मीर मसले पर भारत को लेकर बनी धारणा में कुछ सुधार हुआ है. वही दोलायमान मनोदशा और अनिश्चितता का भाव कायम चला आ रहा है. अगर कश्मीर-विवाद भारत का अंदरुनी मामला है तो फिर किसी भारतीय राजनेता की तुलना में विदेशी राजनयिकों (कम से कम इनमें से कुछ के लिए) कश्मीर में प्रवेश करना क्योंकि आसान बना हुआ है ? अगर भारत सरकार ये जताना चाहती है कि कश्मीर में स्थितियां सामान्य हो चली हैं और वो कश्मीर के हालात को लेकर बहस को तैयार है तो फिर भारत सरकार लोगों को बहुत चुन-छांटकर कश्मीर आने का न्यौता क्यों दे रही है ? या तो ये माना जाय कि कश्मीर में हालात अस्थिर हैं और ये भारत का अंदरुनी मामला है सो भारत सरकार इस इलाके को बंद रखने (अबाधित यात्राओं तथा अंतर्राष्ट्रीय मंचों के लिए) को एक बुद्धिमत्तापूर्ण कदम मानती है या फिर ये माना जा सकता है कि कश्मीर में हालात सुधरे हैं, जैसा कि भारत सरकार का दावा भी है, तो ऐसे में इंटरनेट सेवाओं को प्रतिबंधित करने और चुनिन्दा विदेशी मेहमानों को आमंत्रितों करने की कोई ज़रुरत नहीं दिखती.

बहरहाल, कुल मिलाकर देखें तो बेशक भारत सरकार की छवि को धक्का पहुंचा है लेकिन व्यावहारिक राजनीति के नज़रिए से देखें तो भारत की हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ा है. अमेरिकी उप-सचिव एलिस वेल्स ने जनवरी के अपने भारत दौरे के बाद स्वदेश लौटने पर आधिकारिक प्रेसवार्ता में कहा कि नज़रबंद कश्मीरी नेताओं को रिहा कर दिया जाना चाहिए. लेकिन उनका ये बयान या फिर बीच की अवधि में इस जैसे जो कुछ और चंद कूटनियक झड़पें सामने आयी वो राष्ट्रपति ट्रम्प को भारत दौरे की घोषणा करने से नहीं रोक सकीं. ना ही ये जान पड़ता है कि ऐसी झड़पों का भारत और अमेरिका के सबंधों के दायरे में होने वाले किसी संवाद पर ही कोई असर हुआ.

साथ ही, फ्रांस संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद् में भारत की तरफदारी में खड़ा हुआ जो भारत के लिए कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण माना जायेगा. इससे पाकिस्तान को सुरक्षा-परिषद् में कश्मीर का मसला उठाने से रोकने में भारत को मदद मिली.

जहां तक फ्रांस का सवाल है, वो फ़िलहाल, युरोप में भारत का सबसे महत्वपूर्ण साझीदार माना जा सकता है. फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जब मुलाकात की थी तो धारा 370 की समाप्ति को ज़्यादा वक्त नहीं हुआ था और उन्होंने बड़े एहतियात के साथ ये चिंता जतायी कि कश्मीर के आम नागरिकों के अधिकार का सम्मान होना चाहिए. साथ ही, फ्रांस संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद् में भारत की तरफदारी में खड़ा हुआ जो भारत के लिए कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण माना जायेगा. इससे पाकिस्तान को सुरक्षा-परिषद् में कश्मीर का मसला उठाने से रोकने में भारत को मदद मिली.

यूरोपीय संघ की संसद में विभिन्न दलों के समूहों ने हाल में अर्जी लगायी है कि सीएए और कश्मीर के मसले पर मतदान हो. लेकिन ये अर्जियां यूरोपीय संघ के विभिन्न सांसदों के मंतव्य को ज़ाहिर करती हैं ना कि यूरोपीय संघ के किसी आधिकारिक रुख़ की. (ठीक इसी तरह यूरोपीय संघ ने अगस्त 2019 में भारत सरकार की प्रत्यक्ष आलोचना करने से परहेज किया था). इन बातों के बावजूद यहां एक बात ये भी ध्यान देने की है कि कोई भी राज्यसत्ता जिसके आर्थिक और सुरक्षा-संबंधी अहम हित भारत सरकार के सहयोग से लगे-बंधे हों, वो कश्मीर पर चलने वाली कूटनयिक तनातनी के कारण इन हितों पर आंच आने देगी- ऐसा नहीं माना जा सकता.

इस प्रकार देखें तो जान पड़ेगा कि बीजेपी सरकार ने कश्मीर के मसले पर कई कोणों से दोलायमान मनोदशा का परिचय दिया. सरकार की दोलायमान मनोदशा का ही परिचायक है कि उसने एक तरफ तो स्थिति को सामान्य बताकर पेश किया लेकिन दूसरी तरफ कश्मीर में सुरक्षा के विशेष उपाय किये. ठीक इसी तरह, एक तरफ तो सरकार ने कश्मीर में पैदा स्थिति को भारत का अंदरुनी मामला बताया तो दूसरी तरफ विदेशी राजनेताओं और राजनयिकों से मसले पर समर्थन जुटाना चाहा और ऐसा ही नज़र आया सरकार के साधनों के चयन में- सरकार ने आधिकारिक साधनों का सहारा लिया तो अनाधिकारिक साधनों का भी. एक मायने में देखें तो सरकार ने मसले पर जिस मनमानेपन का परिचय दिया वो अनुचित कहलाएगा और सरकार की नीतियों में मौजूद असंगति ने करेले के नीम चढ़े होने का असर पैदा किया. लेकिन एक लंबी समयावधि के लिहाज से देखें तो ऐसा नहीं लगता कि इन तमाम बातों से भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी समस्या खड़ी होगी और अगर ऐसी कोई समस्या खड़ी भी होती है तो उसे वैसा ही होना है जिनसे भारत अभी निपट रहा है. हां, जहां तक घरेलू मोर्चे और पाकिस्तान का सवाल है—कठिन चुनौतियां और अनसुलझी समस्या इसी मोर्चे पर मौजूद हैं.

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