Author : Sangeet Jain

Published on Mar 27, 2020 Updated 0 Hours ago

ये मांग उठना वाजिब है कि हम इन नई और सामने आ रही चुनौतियों का सामना करने के तौर तरीक़ों पर पुनर्विचार करें. ताकि हमारी दुनिया अधिक संगठित एवं सुनियोजित तरीक़े से इनका सामना कर सके.

क्लाईमेट चेंज को कल्याणकारी योजना के दायरे में लाने की ज़रूरत

हाल ही में दुनिया के दूसरे सबसे अमीर व्यक्ति ने एक घोषणा की थी. इस ऐलान से जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के बीच एक चर्चा ने ज़ोर पकड़ा. हालांकि, इस बार ये चर्चा बिल्कुल सही कारणों से हो रही थी. एक इंस्टाग्राम पोस्ट में जेफ़ बेज़ोस ने घोषणा की कि वो बेज़ोस अर्थ फंड को शुरू करने जा रहे हैं. और इसकी शुरुआत वो अपनी ओर से दस अरब डॉलर के योगदान के साथ कर रहे हैं, ताकि जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटा जा सके. बेज़ोस का ये प्रण बहुत बड़ा योगदान है. और इसके माध्यम से वो अमेरिका में जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए सबसे अधिक योगदान देने वाले दानदाता बन गए हैं. हालांकि, इतनी बड़ी रक़म से भी जेफ़ बेज़ोस की अपनी संपत्ति पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा. जलवायु परिवर्तन हाल के दिनों तक परोपकारियों की दृष्टि में नहीं आया था. कुछ आकलन बताते हैं कि अमेरिका में दान दी जाने वाली कुल रक़म का 2017 में केवल दो प्रतिशत हिस्सा ही जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए दान दिया गया था. ये हैरान करने वाली बात है. ख़ास तौर से तब और जब जलवायु परिवर्तन हमारे अस्तित्व के लिए बहुत बड़ी चुनौती है. जेफ़ बेज़ोस की घोषणा के बाद ऐसे मशविरों की बाढ़ सी आ गई है कि ये दस अरब डॉलर कहां ख़र्च किए जाएं. इससे स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए आवश्यक रक़म और अब तक दी जा रही रक़म के बीच कितना अधिक फ़ासला है. इसीलिए, ये बिल्कुल सही समय है कि जलवायु परिवर्तन की दिशा में दानदाताओं के योगदान को और बढ़ाने का प्रयास किया जाए. ख़ास तौर से भारत में. ये परोपकारियों के भी हित में होगा कि वो जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने में अपनी भूमिका के महत्व को समझें.

भारत ने पेरिस समझौते के अंतर्गत, 2005 की तुलना में 2030 तक प्रति इकाई ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 33 से 35 प्रतिशत कम करने का वादा किया है. ये उम्मीद से कहीं अधिक बड़ा लक्ष्य है. और धीरे-धीरे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत शायद ये लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहे.

IPCC यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमट चेंज का आकलन है कि अगर हम ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को आज के स्तर पर रोकना चाहते हैं, तो इसके लिए, वर्ष 2030 तक कम से कम 13 ख़रब डॉलर रक़म व्यय करने की आवश्यकता होगी. इतनी बड़ी रक़म जुटाने के लिए सभी मुमकिन प्रयास करने होंगे. लेकिन, जब हम ये देखते हैं कि हमारी दुनिया में आमदनी की असमानता और वैश्विक संपदा का वितरण बहुत ही असमान है. और , ऑक्सफ़ैम के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के दस प्रतिशत सबसे अमीर लोग, सबसे ग़रीब दस प्रतिशत लोगों की तुलना में पृथ्वी के कुल कार्बन उत्सर्जन में 60 गुना अधिक का योगदान देते हैं. साथ ही साथ, दुनिया के सबसे ग़रीब लोगों में से 50 प्रतिशत लोगों पर ही जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका है. चूंकि ये ग़रीब लोग संसाधन विहीन विकासशील देशों में रहते हैं. इसीलिए, उनके जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदाओं के शिकार होने का ख़तरा अधिक है. जबकि दुनिया के आधी आबादी वाले ये ग़रीब लोग, व्यक्तिगत खपत से कार्बन उत्सर्जन में केवल 10 प्रतिशत का योगदान करते हैं. इसके अलावा, सेंटर फॉर ग्लोबल डेवेलपमेंट के अनुसार, विकसित देश, पृथ्वी के कुल ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन में से 79 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार हैं. इन आंकड़ों के प्रतिक्रिया स्वरूप ही साझा मगर विविधताओं भरी ज़िम्मेदारियों के निर्वहन की क्षमताओं का निर्धारण संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCC) के अंतर्गत वर्ष 1992 में किया गया था. अब इस तर्क में और धार आती जा रही है. क्योंकि, अब पूरी दुनिया में वो आवाज़ें तेज़ होती जा रही हैं, जो ये मांग करती हैं कि अधिक संपत्ति वाले दुनिया के अमीर और कंपनियों को चाहिए कि वो हमारी धरती के सामने जलवायु परिवर्तन के रूप में खड़ी भयंकर चुनौती से निपटने को लेकर अपनी ज़िम्मेदारियों को और अधिक गंभीरता से लें.

भारत ने कार्बन उत्सर्जन सीमित करने के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किए हैं, उनसे निपटने में कुछ नक़दी की मदद अवश्य काम आ सकती है. भारत ने पेरिस समझौते के अंतर्गत, 2005 की तुलना में 2030 तक प्रति इकाई ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 33 से 35 प्रतिशत कम करने का वादा किया है. ये उम्मीद से कहीं अधिक बड़ा लक्ष्य है. और धीरे-धीरे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत शायद ये लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहे. (इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जिस ग्रीन इंडिया मिशन की स्थापना हुई है, उसके संकेतक बताते हैं कि उसके कोष में रक़म की भारी कमी है.). परोपकार से इस फंड की कमी को पूरा किया जा सकता है. लेकिन, कई कारणों से परोपकारियों से इस कोष को मिल रहे धन की मात्रा बेहद कम बनी हुई है. भारत में अरबपतियों की संपत्ति में वर्ष 2017 में लगभग 20 लाख, 91 हज़ार 300 करोड़ रुपए की वृद्धि दर्ज की गई थी. जो बहुत विशाल रक़म है. लेकिन, देश के केवल 39 अरबपतियों ने ही दस करोड़ या इससे अधिक रक़म दान की. (और इनमें भी, हुनर इंडिया फिलैंथ्रोपी लिस्ट 2018 के अनुसार अज़ीम प्रेमजी सबसे अधिक दान देने वाले दानदाता बने हुए हैं.) इसमें से भी जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित दान की रक़म कुल दान का केवल सात प्रतिशत ही है. शक्ति फ़ाउंडेशन के शिशिर सोती के अनुसार, अभी भारत में जलवायु परिवर्तन को इतनी बड़ी समस्या के तौर पर नहीं देखा जाता, जिसके लिए दानदाता अपने बटुए खोलें. ये सोच संभवत: इस आम धारणा से उपजी है कि जलवायु परिवर्तन आम लोगों की तबाही है. और, फिलहाल तो इसका कोई समाधान नहीं है.  शिशिर सोती इस बात की तरफ़ भी ध्यान खींचते हैं कि भारत में, ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ यानी औद्योगिक समुदाय के सामाजिक उत्तरदायित्व का ढांचा, दान के इनपुट-ऑउटपुट के मॉडल पर आधारित है. न कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए केवल दान देने पर. क्योंकि जलवायु परिवर्तन ऐसी समस्या है, जिसके लिए दान देने पर उसके त्वरित परिणाम देखने को नहीं मिलेंगे. और दान देने वाले को मिलने वाली फ़ौरी तसल्ली प्राप्त नहीं होगी. और ऐसा तब हो रहा है, जब भारत में बेहद अमीर घरानों की संपत्ति में 12 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है. बैन ऐंड कंपनी की इंडिया फिलैंथ्रोपी रिपोर्ट 2019 एक आंखें खोलने वाली रिपोर्ट है. जिससे ये पता चलता है कि भारत में अमीरों के दान करने की रक़म लगातार घटती ही जा रही है. उनकी दान की रक़म 2019 में चार प्रतिशत घट गई. इसका एक संभावित कारण ये भी हो सकता है कि भारत में टैक्स व्यवस्था में ख़ामी है. जो परोपकार को बढ़ावा देने में असफल रहा है. इसीलिए, भारत के अमीर लोग, अपनी संपत्ति दान देने के बजाय बच्चों को विरासत के तौर पर सौंपने को प्राथमिकता देते हैं. अशोका यूनिवर्सिटी के इंग्रिद श्रीनाथ कहते हैं कि, भारत में शायद लोग इसलिए भी अधिक दान नहीं देते क्योंकि हमारे यहां रईस लोग अपनी अमीरी की नुमाइश करने से बचते हैं, और साधारण जीवन जीने का प्रयास करते हैं.

कुछ वास्तविक और व्यवहारिक चिंताएं भी हैं, जो परोपकारी योगदान को जानने समझने की राह में बाधाएं हैं. अब ये ज़रूरी होता जा रहा है कि खर्च की जा रही रक़म की पाई-पाई सही तरीक़े से व्यय की जाए. रिसर्च बताते हैं कि अक्सर इन कोषों से वो काम किए जाते हैं, जो मदद करने के बजाय क्षति अधिक पहुंचाते हैं.

हालांकि, अच्छी ख़बर ये है कि ये तस्वीर शायद बदल रही है. इस साल दावोस में जलवायु परिवर्तन प्रमुख एजेंडा बना. इसीलिए, इस चुनौती से निपटने की दिशा में क़दम बढ़ाने वालों में जेफ़ बेज़ोस अकेले नहीं हैं. माइक्रोसॉफ्ट और ब्लैकरॉक जैसी कई कंपनियों ने संकेत दिए हैं कि वो जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए अपनी नीतियों में परिवर्तन करने जा रहे हैं. ताकि, उन्हें पर्यावरण की चिंताओं के अनुकूल बना सकें. (विडम्बना ये है कि इस दिशा में जेफ़ बेज़ोस की कंपनी अमेज़न पिछलग्गू है). जबकि माइक्रोसॉफ्ट ने वर्ष 2030 तक अपना कार्बन उत्सर्जन शून्य करने का लक्ष्य रखा है. ये घोषणाएं, दावोस सम्मेलन का नतीजा दर्शाती हैं. और बताती हैं कि दुनिया की बड़ी कंपनियां अपने निवेश के पोर्टफ़ोलियो में ESG (पर्यावरण, सामाजिक और प्रशासनिक लक्ष्य) भी शामिल कर रही हैं. अपने कारोबार में जलवायु परिवर्तन के लिए जोखिमों पर से पर्दा हटा रही हैं. और मूलत: इन कंपनियों का प्रयास है कि वो जलवायु परिवर्तन से जूझने में भागीदार के तौर पर दोबारा शामिल होकर चिंतित हो रही हैं. कंपनियों की इस पहल से इतर, दावोस में एक बार फिर जनकल्याण के लिए सहयोग बढ़ाने में दिलचस्पी दिखी. विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में उत्तरदायी परोपकारी व्यवस्था विकसित करने के लिए एक उच्च स्तरीय पैनल ने चर्चा की. और जैसे इसी के इशारे पर भारत के बड़े उद्योगपतियों जैसे कि महिंद्रा ग्रुप, नादिर गोदरेज और रतन टाटा जैसे कारोबारियों ने इंडिया क्लाइमेट कलेक्टिव की शुरुआत की. ये चालीस सदस्यों वाली एक ऐसी रणनीतिक पहल है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने में भारतीय उद्योगपतियों के नेतृत्व को दर्शाती है. इस पहल ने अपना काम आरंभ भी कर दिया है. इसके अंतर्गत उन्होंने वायु प्रदूषण के विशेषज्ञों को जोड़ने का लक्ष्य रखा है. और यहां तक कि इस इनिशिएटिव के तहत ये योजना भी बन रही है कि राजस्थान के अधिकारियों को हाथों-हाथ ट्रेनिंग देकर उन्हें जलवायु परिवर्तन की दिशा में काम करने के लिए तैयार किया जाए. हाल ही में ऐसी ही एक और पहल की गई है, इंडियन फिलैंथ्रोपी इनिशिएटिव. इसे टाटा ट्रस्ट, अज़ीम प्रेमजी फिलैंथ्रोपिक इनिशिएटिव और निलेकणी फिलैंथ्रोपी जैसे बड़े परोपकारियों ने शुरू किया है. ताकि जलवायु परिवर्तन के संघर्ष के लिए कोष जुटा सकें. जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए बाज़ार आधारित समाधान जुटाने में सहयोग के लिए जन कल्याण के लिए काम करने वालों की भूमिका को भी धीरे-धीरे पहचाना और समझा जा रहा है. इसके लिए प्रभाव आधारित निवेश जैसी वित्तीय व्यवस्थाएं काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. वो ऐसे सेक्टरों के लिए हैं महत्वपूर्ण हैं, जिनके राजस्व का कोई मॉडल नहीं है. जैसे जलवायु परिवर्तन से लड़ने की वक़ालत करने वाले. इन जैसों के लिए परोपकार से मिलने वाला धन बहुत अहम है. असल में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए निवेश में कल्याणकारी योगदान, महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. और बिल गेट्स की अगुवाई वाला ब्रेकथ्रू एनर्जी कोएलिशन इस संदर्भ में एक बड़ी मिसाल है. ये गठबंधन ऐसे अभियानों के लिए महत्वपूर्ण उत्प्रेरक पूंजी प्रदान करता है, जो अधिक जोखिम और अधिक समय लेने वाले तकनीकी समाधानों की तलाश करे, जो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपट सकें. भारत के उद्योगपति मुकेश अंबानी और विनोद खोसला (वेंचर कैपिटलिस्ट) जैसे कई लोग एक अरब डॉलर से अधिक की रक़म वाले ब्रेकथ्रू एनर्जी वेंचर्स फंड के निदेशक हैं. जिसे माइक्रोसॉफ्ट की अगुवाई वाली कोएलिशन ने शुरू किया है. ताकि स्वच्छ ईंधन के समाधान खोजे जा सकें.

सत्वा अब आम लोगों द्वारा किए जाने वाले दान से जुड़े आंकड़े जुटाने का प्रयास कर रहे हैं. ताकि इसे और पारदर्शी और आकर्षक बनाया जा सके. क्योंकि अभी इस क्षेत्र का विश्लेषण बहुत कम ही हुआ है और इससे संबंधित आंकड़े भी कम ही उपलब्ध हैं

कुछ वास्तविक और व्यवहारिक चिंताएं भी हैं, जो परोपकारी योगदान को जानने समझने की राह में बाधाएं हैं. अब ये ज़रूरी होता जा रहा है कि खर्च की जा रही रक़म की पाई-पाई सही तरीक़े से व्यय की जाए. रिसर्च बताते हैं कि अक्सर इन कोषों से वो काम किए जाते हैं, जो मदद करने के बजाय क्षति अधिक पहुंचाते हैं. नई तकनीकों को अपनाने वालों के योगदान को पर्याप्त मान्यता नहीं दी जाती. इसकी वजह शायद ये है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने का वचन देना अधिक चमकदार लगता है. और इसका एक कारण ये भी है कि अब तक प्राथमिकता आधारित क्षेत्रों की फंडिंग की दशा-दिशा भी तय नहीं हो सकी है. कितना प्रभाव हुआ, इसका पता लगाने के लिए, जवाबदेही की परिभाषाओं को और स्पष्ट बनाना होगा. और अधिक गुणवत्ता वाले आंकड़े भी तैयार करने होंगे. जलवायु परिवर्तन के लिए योगदान को और पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने की भी आवश्यकता है.  कोष को कहां ख़र्च किया जा रहा है और इसका कितना प्रभाव पड़ रहा है, इसका पता लगाने के लिए और स्पष्ट मानक तय करने होंगे. तभी जलवायु परिवर्तन के लिए दान देना और आकर्षक हो सकेगा. और ये बात केवल अरबपतियों की नहीं है. धीरे-धीरे ही सही ये बात लोगों के समझ में आ रही है कि थोड़े पैसे का दान करने वालों को भी जोड़ने की ज़रूरत है और उनके लिए दान कर पाना आसान बनाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है. सत्वा अब आम लोगों द्वारा किए जाने वाले दान से जुड़े आंकड़े जुटाने का प्रयास कर रहे हैं. ताकि इसे और पारदर्शी और आकर्षक बनाया जा सके. क्योंकि अभी इस क्षेत्र का विश्लेषण बहुत कम ही हुआ है और इससे संबंधित आंकड़े भी कम ही उपलब्ध हैं. गिव इंडिया और मिलाप जैसे संगठन इस समस्या की जड़ तक जाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि आम नागरिकों के दान देने के मूलभूत ढांचे को बेहतर बनाया जा सके. और छोटे-छोटे चंदे जुटाने के लिए नए तरीक़े तलाशे जा रहे हैं.

और केवल परोपकार या दान से काम नहीं चलने वाला है. और जलवायु परिवर्तन से निपटने के व्यवस्थित तरीक़े का विकल्प तो बिल्कुल नहीं है. कई लोगों ने जेफ़ बेज़ोस की घोषणा की कड़ी आलोचना की. क्योंकि जलवायु परिवर्तन के लिए काम करने वाले कई कार्यकर्ताओं और अमेज़न के कर्मचारियों ने बेज़ोस से कहा कि वो इसमें से कुछ रक़म अपनी कंपनी की जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाली गतिविधियों को ख़त्म करने में लगाएं. और अगर वो वाक़ई जलवायु परिवर्तन की समस्या को लेकर गंभीर हैं. तो, जीवाश्म ईंधन बेचने वाली कंपनियों के साथ कारोबार करना बंद कर दें. बहुत से लोग तर्क देते हैं कि निजी तौर पर बड़ी रक़म दान करने वालों पर निर्भरता में कुछ बुनियादी समस्याएं हैं. और इस कारण से इतनी विशाल चुनौती के लिए कोष जुटाने के प्रयासों का रंग-रूप परिवर्तित हो सकता है. अमेरिकी पत्रकार, फ्रैंकलिन फोएर बहुत मज़बूत तर्क देते हैं कि ऐसे व्यक्तिगत योगदान, कुछ व्यक्तियों के निजी फ़ैसले होते हैं. और ये लोग फिर इस कोष के इस्तेमाल के तौर-तरीक़े तय करते हैं. और जब ऐसा होता है, तो समस्याओं के वो समाधान ही तलाशे जाते हैं, जो दान देने वाला व्यक्ति या कंपनी चाहती है. (जैसे कि जेफ़ बेज़ोस का इतनी बड़ी रक़म का दान भी बेशक अमेज़न के कारोबारी हितों के संरक्षण का दबाव भी झेलेगा). कुछ आलोचक ये तर्क भी देते हैं कि अगर कर प्रणाली न्यायोचित ढंग से काम करे, तो तमाम राष्ट्र इस चुनौती से निपटने का ख़र्च उठा सकते हैं. ये तर्क चिंताजनक तो हैं, लेकिन उचित हैं. और इन्हें देखकर ये मांग उठना वाजिब है कि हम इन नई और सामने आ रही चुनौतियों का सामना करने के तौर तरीक़ों पर पुनर्विचार करें. ताकि हमारी दुनिया अधिक संगठित एवं सुनियोजित तरीक़े से इनका सामना कर सके. अत्यधिक संपदा का होना भी इस समस्या का ही एक हिस्सा है, जो जलवायु परिवर्तन के संकट को और बढ़ाए जा रहा है. हालांकि, व्यवस्था की संगठनात्मक कमियों को कम किए बिना भी, आज हमारे सामने ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का मौजूदा संकट फौरी तौर पर हर उस मदद का तलबगार है, जो उसे मिल सकती है. ऐसे में दान और परोपकार इस समस्या के तमाम समाधानों में से एक अटूट विकल्प है. और इसीलिए इसे पर्याप्त समर्थन मिलना चाहिए और बढ़ावा दिया जाना चाहिए. ताकि, हम इस चुनौती का सामना कर सकें.

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