Author : Gowree Gokhale

Published on Dec 04, 2021 Updated 0 Hours ago

वैश्विक कंपनियां, ख़ास तौर से कोरोना वायरस महामारी के बाद उठकर खड़े होने के दौरान, एक टिकाऊ और नैतिक विकास में सक्रिय रूप से भागीदार बन सकती हैं.

बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जनता की भलाई के लिए काम करने की बढ़ती मांग

ये लेख हमारी कोलाबा एडिट 2021 सीरीज़ का हिस्सा है.


कोविड-19 महामारी (Covid_19 Pandemic) के दौरान दुनिया के सभी देशों की सरकारों ने नई तरह की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना किया है. बड़ी कंपनियों को अपने कारोबार करने के तरीक़े नए हालात के हिसाब से ढालने पड़े हैं. कोरोना वायरस महामारी (Coronavirus) के दौरान डिजिटल कारोबार (Digital Business) को बहुत फ़ायदा हुआ है, तो बहुत से कारोबार बंद भी हो गए. मानवता को नई हक़ीक़त के हिसाब से ख़ुद को ढालना पड़ा है. इस महामारी ने इस बात को और साफ़ तौर पर उजागर कर दिया है कि, देश और संस्थाएं अलग अलग काम नहीं कर सकती हैं; एक दूसरे पर दोनों की निर्भरता बिल्कुल उजागर हो चुकी है. इस महामारी ने हम सबको एक मौक़ा भी दिया है कि हम अपने रहन-सहन से जुड़ी कई कमियों को ठीक कर लें. अब मानवता इस अवसर का लाभ उठाती है या फिर हम फिर से उसी ढर्रे पर वापस चले जाएंगे, ये देखने वाली बात होगी, और हमारा यही चुनाव हमारी असली नीयत को ज़ाहिर करेगा. महामारी के बाद के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियां (MNCs) राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक भूमिका निभा सकती हैं. लेकिन, उनकी भूमिका क्या होगी, उसकी कल्पना तब तक नहीं की जा सकती है, जब तक हम ये तय न कर लें कि दुनिया को किन बातों पर ध्यान केंद्रित करना है.

आज तकनीक दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से तरक़्क़ी कर रही है. लेकिन, दुनिया की वास्तविक चुनौतियों से निपटने के लिए किए जाने वाले उपाय अपर्याप्त हैं.

रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की बुनियादी ज़रूरतें हैं. लेकिन, आज भी दुनिया के बहुत से हिस्सों में लोग इनसे महरूम हैं (जबकि कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं इनका बड़े पैमाने पर इनका उपभोग करती हैं). इस महामारी ने मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की कमज़ोरियों को भी उजागर किया है. यहां तक कि विकसित देश भी इस महामारी से ठीक ढंग से नहीं निपट सके. पर्यावरण का एक संकट तेज़ी से बढ़ता जा रहा है. मगर, आज भी तमाम देश इससे निपटने के लिए उठाए जाने वाले ठोस क़दमों पर सहमत नहीं हो सके हैं. इसके साथ-साथ, बड़ी-बड़ी कंपनियां बेहद ज़रूरी मानवीय ज़रूरतें पूरी करने पर ध्यान देने के बजाय अपना पूरा ज़ोर मुनाफ़ा कमाने पर लगा रही हैं. आज तकनीक दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से तरक़्क़ी कर रही है. लेकिन, दुनिया की वास्तविक चुनौतियों से निपटने के लिए किए जाने वाले उपाय अपर्याप्त हैं.

इन हालात में लंबी अवधि के लिए इंसानियत के हित में ये ज़रूरी है कि हम नई योजना बनाएं. तो फिर इस प्रक्रिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियां कैसे अपना योगदान दे सकती हैं?

पहली बात तो ये कि एक ही क्षेत्र में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने कारोबार के तरीक़ों में नैतिकता अपनानी होगी. सभी देशों की सरकारें इतनी सक्षम नहीं हैं कि वो तेज़ी से क़ानूनों में बदलाव करें या नया क़ानून ले आएं, ताकि नई तकनीकों और कारोबार के नए मॉडल से जुड़े क़ानूनी मुद्दों से निपट सकें. मिसाल के तौर पर, वैसे तो क्रिप्टोकरेंसियां 2009 से ही बाज़ार में हैं. लेकिन अभी भी बहुत से देश इन्हें लेकर अपना रुख़ तय नहीं कर पाए हैं. इनके लिए नियम नहीं बना सके हैं. ऐसे में ज़ोर सिर्फ़ नियमों का पालन करने पर नहीं, बल्कि ये तय करने पर होना चाहिए कि किसी ख़ास परिस्थिति में कौन सा क़दम उठाना सही होगा (जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को अपनाते हुए कौन से व्यवहारों को लागू करना चाहिए). इससे सभी को बराबरी से मौक़ा भी मिल सकेगा. इसकी एक मिसाल भारत का अपना तजुर्बा है, जहां क्रिप्टोकरेंसी को लेकर कोई नियम क़ायदे न होने के चलते, क्रिप्टो एक्सचेंज ने ख़ुद से अपने लिए नियम बनाए हैं.

 वैसे तो क्रिप्टोकरेंसियां 2009 से ही बाज़ार में हैं. लेकिन अभी भी बहुत से देश इन्हें लेकर अपना रुख़ तय नहीं कर पाए हैं. इनके लिए नियम नहीं बना सके हैं 

दूसरी बात ये कि वैश्विक निवेशकों को बदलाव के संदेशवाहक की भूमिका निभानी होगी. निवेशकों के अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ऐसे कारोबारों की मदद करनी होगी, जो दुनिया की असली चुनौतियों से निपटने का काम करती हैं. इलेक्ट्रिक गाड़ियों, स्वच्छ नवीनीकरण योग्य ऊर्जा, शिक्षा की तकनीक, माइक्रो फाइनेंस, रिसर्च और इनोवेशन, पर्यटन और सेवाएं देने वाले प्लेटफॉर्म में निवेश किए गए हैं. ये सभी क्षेत्र दुनिया भर के लोगों की ज़िंदगी बेहतर बनाने के अवसर मुहैया कराते हैं. टेस्ला के मालिक एलन मस्क और संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) के कार्यकारी निदेशक डेविड बीसले के बीच ट्विटर पर, दुनिया में भुखमरी का ख़ात्मा करने में अरबपतियों की भूमिका को लेकर हुई बहस के दौरान ऐसे कई सुझाव सामने आए, जिनसे 6 अरब डॉलर की मदद से भुखमरी की चुनौती से निपटने में मदद मिल सकती है (एलन मस्क ने इस रक़म के हवाले से पूछा था कि 6 अरब डॉलर से दुनिया में भुखमरी की समस्या कैसे ख़त्म की जा सकती है). इन सुझावों में कृषि सुधार जैसे कि स्मार्ट बीज, सूखा से प्रभावित न होने वाली पानी की आपूर्ति और जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम फ़सलों से लेकर विश्व खाद्य कार्यक्रम की विस्तारित योजना तक शामिल थे.

तीसरी बात, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को टिकाऊ विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ख़ास तौर से कचरे के प्रबंधन और ज़रूरत से ज़्यादा उत्पादन के क्षेत्र में. उदाहरण के तौर पर, कपड़ा उद्योग 30 से 40 फ़ीसद अतिरिक्त उत्पादन की रिपोर्ट देता है; और अमेरिकी ग्राहकों द्वारा फेंके गए 85 प्रतिशत कपड़े या तो कचरे के ढेर में डाल दिए जाते हैं, या फिर जला दिए जाते हैं. इनमें इस्तेमाल न किए गए कपड़े और पोशाक शामिल हैं. चूंकि, कपड़े बनाने में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों को लेकर सख़्त नियमों की कमी है, तो अक्सर ऐसी चीज़ों का इस्तेमाल होता है, जो पर्यावरण के लिए मुफ़ीद नहीं होती हैं. ये चीज़ें कचरे के गड्ढे में गलती-सड़ती नहीं हैं. इस समस्या का समाधान वैल्यू चेन के हर छोर पर करना होगा. फिर चाहे पर्यावरण के लिए मुफ़ीद उत्पाद बनाने हों या फिर कचरे के निपटारे की असरदार व्यवस्था. इसके लिए ग्राहकों के बीच बड़े स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी.

 कपड़े बनाने में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों को लेकर सख़्त नियमों की कमी है, तो अक्सर ऐसी चीज़ों का इस्तेमाल होता है, जो पर्यावरण के लिए मुफ़ीद नहीं होती हैं. ये चीज़ें कचरे के गड्ढे में गलती-सड़ती नहीं हैं

महामारी के दौरान दुनिया भर में प्रदूषण की दर में भारी कमी आई थी, क्योंकि लॉकडाउन (Lockdown) के चलते औद्योगिक गतिविधियां बंद हो गई थीं. अब जबकि हालात फिर से सामान्य हो रहे हैं, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल बढ़ाना होगा. भारत की अगुवाई वाले अंतरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा गठबंधन में 125 देश सौर ऊर्जा बनाने के लिए एक साथ आए हैं. सहयोग की ये भावना बहुराष्ट्रीय कंपनियों को एक मौक़ा मुहैया कराती है कि वो अपनी पूंजी, तकनीक और प्रबंधन के हुनर का इस्तेमाल दुनिया की भलाई के लिए करें.

पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का मूल्यांकन

अब जबकि कंपनियां अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं को नए नियम क़ायदों के हिसाब से ढाल रही हैं, तो उन्हें पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का भी मूल्यांकन करना चाहिए, भले ही ऐसा करने के लिए कोई क़ानूनी बाध्यता मौजूद न हो. हो सकता है कि आपूर्ति करने वाले देशों में पर्यावरण के सख़्त नियम न हों. लेकिन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चाहिए कि वो ख़ुद अपने ठेके के समझौतों में ऐसी सख़्त शर्तें लगाएं, जो आपूर्ति श्रृंखला के अंतिम छोर तक लागू हों. ख़बरें बताती हैं कि निचले स्तर के आपूर्तिकर्ताओं के पास पर्यावरण के लिहाज़ से सामान बनाने संबंधी ज़रूरतें पूरी करने के संसाधन ही नहीं हैं, क्योंकि उनमें से बहुतों के पास न तो इसका हुनर है, न संसाधन हैं और न ही सामाजिक और पर्यावरण संबधी उसूलों और नियमों की जानकारी है. इसीलिए ठेके की शर्तें पूरी कराने के साथ-साथ, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चाहिए कि वो निचले स्तर की इन इकाइयों को विशेषज्ञों की मदद और ऐसा मूलभूत ढांचा मुहैया कराएं, जो पर्यावरण के लिए ठीक मानकों का पालन कराने वाला हो. इसकी मिसाल के तौर पर हम देख सकते हैं कि भारत भले ही दुनिया का दवाखाना कहा जाता हो, मगर यहां रोगाणुओं से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक है. ये आपूर्ति श्रृंखलाओं के ग़ैर ज़िम्मेदाराना प्रबंधन की मिसाल है.

चौथी बात, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चाहिए कि वो पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने और उन समस्याओं का समाधान निकालने के लिए काम करें, जो कोविड-19 महामारी के दौरान देखने को मिली हैं. स्वास्थ्य उद्योग से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना कौशल और सेवाएं सरकारों को भी मुहैया कराना चाहिए, जिससे एक मज़बूत स्वास्थ्य व्यवस्था का निर्माण और उसका विस्तार हो सके और इन तक पहुंच बनाने व टेली-मेडिसिन की सुविधा के लिए मंच उपलब्ध कराने चाहिए. कंपनियों को इसके लिए प्रोत्साहित करने के लिए सरकारों को अपने नियम क़ायदों में ज़रूरी बदलाव करने चाहिए.

 

कर्मचारियों के इस्तीफ़े देने की संख्या बढ़ी

पांचवीं बात, बड़ी कंपनियों को मानवीय पूंजी के प्रबंधन पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ‘इस्तीफ़ों की भरमार’- ये जुमला एंथनी क्लोत्ज़ ने गढ़ा है, जो महामारी के बाद के दौरन में कामकाजी लोगों के धड़ाधड़ इस्तीफ़े देने की व्याख्या करता है- ऐसा लगता है कि महामारी के बाद की दुनिया में कर्मचारियों के इस्तीफ़े देने की संख्या बहुत बढ़ रही है. आज कर्मचारी अपनी ज़िंदगी में काम से इतर अन्य पहलुओं को प्राथमिकता दे रहे हैं और ऐसे नज़रिए अपना रहे हैं, जिनमें काम और बाक़ी की ज़िंदगी को एक साथ जोड़ा जा सके. इस दृष्टिकोण का मक़सद ‘जीवन के अलग अलग क्षेत्रों में समन्वय को अपनाना है. इसमें काम-काज के अलावा परिवार, दोस्ती, अपनी बेहतरी, समुदाय और सेहत जैसी बातें शामिल हैं’. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ऐसी नीतियां विकसित करनी होंगी, जो दुनिया भर के अपने कामकाजी तबक़े के अलग अलग रहन सहन का ख़याल रखे और ज़्यादातर कर्मचारियों को अपने साथ जोड़े रखे. इसके साथ ही साथ महामारी ने एक ऐसा शानदार मौक़ा भी मुहैया कराया है, जिससे कंपनियां दुनिया के किसी भी कोने में मौजूद क़ाबिल लोगों को अपने साथ जोड़ सकती हैं, क्योंकि आज दूर बैठकर काम करने के दौर में दूरी कोई मायने नहीं रखती है. चूंकि महामारी के हालात में बहुत सी स्टार्ट अप कंपनियों ने कारोबार शुरू किया है, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इन्हें सहयोग और मदद मुहैया करानी चाहिए.

बहुराष्ट्रीय कंपनियों को स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल बढ़ाना होगा. भारत की अगुवाई वाले अंतरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा गठबंधन में 125 देश सौर ऊर्जा बनाने के लिए एक साथ आए हैं. 

महामारी ने तकनीक के इस्तेमाल की रफ़्तार बढ़ा दी है. इससे मानव संसाधनों के अनुपयोगी होने की संभावना भी बढ़ गई है. इसके साथ-साथ, बड़े पैमाने पर इस्तीफ़े दिए जाने से बहुत से लोग इन चुनौतियों को भी सब्र से झेल रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन प्रतिभाओं का इस्तेमाल करके अपने कामकाजी लोगों को नौकरी के लायक़ बनाए रख सकते हैं.

आख़िर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की एक अहम भूमिका और ख़ास तौर से मीडिया और प्रकाशन के क्षेत्र में ये है कि वो एक सकारात्मक माहौल बनाने के लिए पॉजिटिव न्यूज़ को बढ़ावा दें.

निष्कर्ष

कुल मिलाकर, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास एक शानदार अवसर है कि वो बदलाव के वैश्विक वाहक बन जाएं. नैतिक और टिकाऊ विकास के लिए सरकारों द्वारा क़दम उठाने का इंतज़ार करने के बजाय, बहुराष्ट्रीय कंपनियां ख़ुद आगे बढ़कर ये भूमिका निभा सकती हैं. हो सकता है कि बहुत से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारक सरकारों को ऐसी नीतियां अपनाने से रोकें, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता की भलाई के लिए हों. ऐसी परिस्थितियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी मर्ज़ी से कुछ मोर्चों पर अगुवाई कर सकती हैं. मिसाल के तौर पर पर्यावरण के लिए मुफ़ीद नीतियां अपनाना.

जैसा कि संस्कृत में कहा जाता है- वसुधैव कुटुम्बकम् यानी पूरी दुनिया ही एक परिवार है. अगर बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बाक़ी के सभी भागीदार इस सरल संदेश को आत्मसात करके लागू करें तो हम एक नई दुनिया को देख सकते हैं.

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