Author : Vinitha Revi

Published on Oct 29, 2020 Updated 0 Hours ago

ऐसा लगता है कि अपना नज़रिया बढ़ाते हुए और दक्षिण एशिया की भू-राजनीति को देखते हुए भारत अपने कई छोटे पड़ोसियों के साथ संबंधों को दुरुस्त करने को अहमियत दे रहा है.

अमेरिका की हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रूचि का ‘भारत-श्रीलंका’ के राजनैतिक रिश्तों पर असर?

अगस्त में हुए श्रीलंका के संसदीय चुनाव के नतीजों ने किसी को भी हैरान नहीं किया. पिछले साल ईस्टर संडे के दिन हुए बम धमाकों के बाद श्रीलंका के अंदर और बाहर मीडिया, नीति-निर्माता और रणनीति बनाने वाले, शिक्षा से जुड़े लोग और स्कॉलर परोक्ष रूप से ये मान रहे थे कि राजपक्षे बंधु फिर से सत्ता में लौटेंगे. लेकिन उनकी पार्टी श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना (SLPP) ने उम्मीद से बड़ी जीत हासिल की. SLPP 145 सीट जीतने में कामयाब रही जबकि सहयोगियों को पांच सीट पर जीत मिली. इस तरह राजपक्षे बंधु ने जिस दो-तिहाई बहुमत के लिए अभियान चलाया था, उसमें उन्हें कामयाबी मिली. ये जीत गृह युद्ध ख़त्म होने के बाद 2010 में मिली जीत से भी बड़ी थी.

ये ज़बरदस्त जीत हमें श्रीलंका की राजनीति के बदलते हालात, व्यापक दक्षिणी एशियाई भू-राजनीति के बीच भारत-श्रीलंका संबंध के साथ अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बड़े बदलाव, रुझान और शक्तियों के फिर से संगठित होने के बारे में क्या बताती है?

लोकतंत्र के ऊपर सुरक्षा

श्रीलंका की सिविल सोसायटी ख़ासतौर पर अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर राजपक्षे की वापसी और लोकतंत्र, अनेकता, जवाबदेही और मेल-मिलाप पर इसके असर को लेकर चिंता जताई गई है लेकिन ईस्टर धमाके के बाद आतंकवाद की वापसी का इकलौता डर ज़्यादा शक्तिशाली साबित हुआ. पूर्ववर्ती सिरिसेना-विक्रमसिंघे गठबंधन के बीच राजनीतिक तकरार और इसकी वजह से ठप काम-काज की वजह से लोगों को लगा कि आपातकाल के वक़्त भी इनके बीच समन्वय नहीं है. इस संकट के कारण ज़्यादातर लोगों को लगने लगा कि ये जोड़ी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकती है जिसका नतीजा SLPP की बड़ी जीत के रूप में सामने आया.

गोटाबाया की जीत के तुरंत बाद विदेश मंत्री एस. जयशंकर का श्रीलंका दौरा, भारत की तरफ़ से 400 मिलियन डॉलर मुद्रा विनिमय की सुविधा और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा महामारी को लेकर गोटाबाया राजपक्षे को फ़ोन करना भारत की तरफ़ से संबंधों को बेहतर करने के लिए उठाए गए कुछ क़दम हैं.

30 साल के गृह युद्ध की वजह से जो देश उजड़ चुका था और जिसके नागरिकों ख़ासतौर पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय को कुछ समय पहले से ही ये महसूस होने लगा था कि वो अब इससे उबर चुके हैं, उनके लिए आतंकवाद के डर को कम करके नहीं आंका जा सकता है. गोटाबाया के लिए वोट ज़रूरी नहीं कि सिंहली बौद्ध समुदाय के कट्टर लोगों का वोट है, ये वोट “ज़्यादातर सिंहली और बौद्ध समुदाय के हैं लेकिन इन्हें LTTE विरोधी, आतंक विरोधी वोट भी कहा जा सकता है.” 2015 का चुनाव राजपक्षे जवाबदेही और लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के संकट की वजह से हारे थे लेकिन ईस्टर धमाकों और कोविड-19 के बाद ये साफ़ है कि इस बार सुरक्षा और आर्थिक विकास लोकतंत्र की चिंताओं पर भारी पड़ा.

राजपक्षे और श्रीलंका से भारत का संपर्क

ऐसा लगता है कि अपना नज़रिया बढ़ाते हुए और दक्षिण एशिया की भू-राजनीति को देखते हुए भारत अपने कई छोटे पड़ोसियों के साथ संबंधों को दुरुस्त करने को अहमियत दे रहा है. गोटाबाया की जीत के तुरंत बाद विदेश मंत्री एस. जयशंकर का श्रीलंका दौरा, भारत की तरफ़ से 400 मिलियन डॉलर मुद्रा विनिमय की सुविधा और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा महामारी को लेकर गोटाबाया राजपक्षे को फ़ोन करना भारत की तरफ़ से संबंधों को बेहतर करने के लिए उठाए गए कुछ क़दम हैं. हालांकि, राजपक्षे से भारत के संपर्क साधने की शुरुआत 2018 में ही हो गई थी जब उस साल फरवरी में हुए देशव्यापी स्थानीय चुनावों में SLPP की लहर चली थी. ऐसा लगता है कि भारत को पता चल गया था कि क्या होने वाला है.

स्थानीय चुनाव में अपनी पार्टी की विशाल जीत के बाद जब महिंदा राजपक्षे (उस वक़्त विपक्ष के नेता) व्यक्तिगत दौरे पर भारत में एक लेक्चर देने के लिए आए थे तो भारतीय प्रधानमंत्री ने उनसे और उनके सांसद बेटे नमल राजपक्षे (2017 में अपने श्रीलंका दौरे के वक़्त भी वो दोनों से मिले थे) से मुलाक़ात की थी. उस वक़्त से राजपक्षे के साथ संपर्क बढ़ाने के लिए भारत की तरफ़ से लगातार कोशिश हुई है.

ऐसा लगता है कि भारत का दृष्टिकोण उसके अपने विचारों को भी दोहराता है. भारत के लिए श्रीलंका की अंदरुनी राजनीति में सुरक्षा की चिंता, लोकतंत्र और मानवीय मुद्दों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है. इन चिंताओं में श्रीलंका के भीतर चीन की ज़रूरत से ज़्यादा मौजूदगी और उसका बढ़ता असर शामिल हैं. फरवरी 2020 में दिल्ली में महिंदा राजपक्षे से अपनी मुलाक़ात के बाद मीडिया से बात करते हुए पीएम मोदी ने कहा, “मुझे यकीन है कि श्रीलंका की सरकार यूनाइटेड श्रीलंका के भीतर समानता, न्याय, शांति और आदर के लिए तमिल आबादी की उम्मीदों को पूरा करेगी.” उन्होंने इस बात को भी जोड़ा कि मेल-मिलाप की प्रक्रिया को आगे ले जाने के लिए श्रीलंका के संविधान में 13वां संशोधन, जो तमिल समुदाय के अधिकारों की रक्षा करता है, लागू करना ज़रूरी है. लेकिन संसदीय चुनाव में महिंदा राजपक्षे की जीत और प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी वापसी के बाद भारत ने आधिकारिक तौर पर इस मुद्दे का ज़िक्र नहीं किया है.

ऐसा लगता है कि भारत का दृष्टिकोण उसके अपने विचारों को भी दोहराता है. भारत के लिए श्रीलंका की अंदरुनी राजनीति में सुरक्षा की चिंता, लोकतंत्र और मानवीय मुद्दों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है. इन चिंताओं में श्रीलंका के भीतर चीन की ज़रूरत से ज़्यादा मौजूदगी और उसका बढ़ता असर शामिल हैं. 

जहां तक श्रीलंका की बात है तो ऐसा लगता है कि उसे ये पता है कि भारत किन बातों को लेकर नाराज़ हो सकता है. अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान राष्ट्रपति गोटाबाया ने बयान दिया, “श्रीलंका ऐसी किसी चीज़ को बढ़ावा नहीं देगा जिससे हिंद महासागर में सुरक्षा ख़तरे में पड़े.” हाल के एक इंटरव्यू  में श्रीलंका के विदेश सचिव जयंत कोलंबेज ने इसी विचार को दोहराया. उन्होंने साफ़ तौर पर कहा, “हम भारत के लिए सामरिक सुरक्षा ख़तरा नहीं बन सकते हैं, हमें नहीं बनना चाहिए और हम ये ख़तरा नहीं उठा सकते हैं.”

दक्षिण एशिया में हर समीकरण पर चीन का असर

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गलवान घाटी में सीमा पर झड़प के बाद दक्षिण एशिया में चीन के असर को संतुलित करने की कोशिश न सिर्फ़ भारत बल्कि अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए भी विदेश नीति का एक अहम लक्ष्य बन गया है. दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते और स्थायी असर की कठोर वास्तविकता श्रीलंका और उसकी अंदरुनी राजनीति की तरफ़ अंतरराष्ट्रीय रुख़ को तय करेगी. इस बात को नवंबर 2019 और अगस्त 2020 के चुनाव नतीजों के बाद उन देशों की तरफ़ से जारी बयान के संदर्भ में देखा जा सकता है.

2019 में गोटाबाया की जीत के बाद अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने बयान जारी करते हुए कहा कि अमेरिका नई सरकार के साथ काम करने के लिए तैयार है. इसी तरह जापान ने शांतिपूर्ण और सफलतापूर्वक राष्ट्रपति चुनाव कराने का स्वागत किया. इन दोनों देशों ने तमिल मेल-मिलाप के मुद्दे का ज़िक्र किया. पोम्पियो के बयान में कहा गया: “राष्ट्रपति राजपक्षे सुरक्षा के क्षेत्र में सुधार, जवाबदेही, मानवाधिकार के लिए सम्मान और हिंसा नहीं दोहराने की श्रीलंका की प्रतिबद्धता को कायम रखेंगे.”

जहां तक श्रीलंका की बात है तो ऐसा लगता है कि उसे ये पता है कि भारत किन बातों को लेकर नाराज़ हो सकता है. अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान राष्ट्रपति गोटाबाया ने बयान दिया, “श्रीलंका ऐसी किसी चीज़ को बढ़ावा नहीं देगा जिससे हिंद महासागर में सुरक्षा ख़तरे में पड़े.” 

हालांकि, अमेरिका मानवीय मुद्दों पर लगातार ध्यान खींचता रहा है और श्रीलंका की नई सरकार के साथ अपनी बातचीत के दौरान “मेल-मिलाप पर आगे बढ़ने की गुज़ारिश” की लेकिन श्रीलंका के साथ उसके समीकरण में ज़ोर हिंद-प्रशांत की तरफ़ हो गया है. उसमें भी महत्वपूर्ण रूप से ‘मुक्त और खुला हिंद-प्रशांत.’ इस संदर्भ में अमेरिका के लिए श्रीलंका एक क़ीमती साझेदार है, ऐसा साझेदार जो “हिंद-प्रशांत क्षेत्र के केंद्र के तौर पर क्षेत्रीय स्थायित्व और समृद्धि के लिए योगदान देगा.” ये मौजूदा और महामारी के बाद की दुनिया की बदली हुई वास्तविकता को दिखाता है. चूंकि दुनिया के कई हिस्सों में कोरोना वायरस महामारी बिना कमी के फैलती जा रही है, ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि सभी देश ज़्यादा-से-ज़्यादा भीतर की ओर रुख़ करेंगे और उनकी विदेश नीति का लक्ष्य राजनीतिक व्यावहारिकता और उनके अपने मतलब के हिसाब से तय होगा. ज़्यादातर देशों का तात्कालिक और महत्वपूर्ण लक्ष्य घरेलू चिंताएं, आर्थिक बहाली और राष्ट्रीय सुरक्षा होगी. ऐसे में उनकी विदेश नीति लोकतंत्र को बढ़ावा देने के आदर्श से ज़्यादा वास्तविकता से प्रभावित होगी.

दक्षिण एशिया में अमेरिका की बढ़ती सक्रियता

चूंकि दक्षिण एशिया में अमेरिका ज़्यादा सक्रिय हो रहा है, ऐसे में भारत-श्रीलंका के संबंधों पर इसके असर पर विचार करना ज़रूरी है. मालदीव और अमेरिका ने हाल में “हिंद महासागर में शांति और सुरक्षा को बनाए रखने के समर्थन में आपसी भागीदारी और सहयोग बढ़ाने के लिए” एक रक्षा समझौते पर दस्तख़त किए. हालांकि, इस समझौते को लेकर भारत की तरफ़ से अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है लेकिन कुछ रिपोर्ट से ऐसा लगता है कि भारत इस समझौते का स्वागत करता है. इसके अलावा द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक़ दक्षिण और मध्य एशिया के लिए अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की निदेशक लीसा कर्टिस ने कहा, “जब दक्षिण एशिया क्षेत्र की बात आती है तो मेरे विचार से हमने देखा है कि भारत इस बात के ख़िलाफ़ है कि अमेरिका ज़्यादा सक्रिय हो लेकिन मुझे लगता है कि जिस हालात में हम अपने आप को पा रहे हैं, उसकी वजह से आप इसमें आप बदलाव देखेंगे.” इस बयान के ज़रिए कर्टिस ने दक्षिण एशिया में चीन की सक्रियता की तरफ़ इशारा किया.

इस बात को मानना होगा कि श्रीलंका, मालदीव की तरह नहीं है. राजपक्षे और उनके प्रशासन के वरिष्ठ सदस्यों ने लगातार विदेश नीति में तटस्थता के महत्व पर ज़ोर दिया है. इस तटस्थता के सबूत हैं स्टेटस ऑफ फोर्सेज़ एग्रीमेंट (SOFA) और मिलेनियम चैलेंज कॉम्पैक्ट की उनकी समीक्षा. आख़िर में राष्ट्रपति गोटाबाया एक यथार्थवादी हैं और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में यथार्थवादी को आसानी से समझा जा सकता है. एक इंटरव्यू के दौरान जब उनसे हिंद महासागर क्षेत्र के बारे में पूछा गया तो गोटाबाया ने इसके सामरिक महत्व पर ज़ोर दिया. उन्होंने तथ्यों के मुताबिक़ विस्तार से बताया, “दुनिया के ज़्यादातर खनिज अफ्रीका में हैं और इस तरफ़ उन्हें लाने के लिए हिंद महासागर से गुज़रना होगा. इसी तरह ऊर्जा मध्य-पूर्व में है, उसे भी इस तरफ़ लाने की ज़रूरत होगी. इसलिए हिंद महासागर को शांति का क्षेत्र बनना होगा और ये श्रीलंका के हित में नहीं है कि वो किसी गुट का साथ दे.” यथार्थवादी के तौर पर वो समझते हैं कि ये श्रीलंका के हित में नहीं है कि एक बड़ी शक्ति उसके पड़ोस में हो बल्कि इसकी जगह शक्ति संतुलन होना चाहिए.

अमेरिका मानवीय मुद्दों पर लगातार ध्यान खींचता रहा है और श्रीलंका की नई सरकार के साथ अपनी बातचीत के दौरान “मेल-मिलाप पर आगे बढ़ने की गुज़ारिश” की लेकिन श्रीलंका के साथ उसके समीकरण में ज़ोर हिंद-प्रशांत की तरफ़ हो गया है. 

आगे की तरफ़ देखें तो बेशक भारत-श्रीलंका संबंध अंतरराष्ट्रीय संबंधों और ताक़त के मुक़ाबले के मुताबिक तय होंगे. नवंबर 2020 में अमेरिका में चुनाव के बाद वहां चीन के ख़िलाफ़ बने माहौल में कमी आएगी. हालांकि, ये भी सच है कि मौजूदा तनाव पूरी तरह चुनाव की वजह से नहीं है. अमेरिका में चुनाव हो या नहीं हो लेकिन कुछ संरचनात्मक चुनौतियां बनी रहेंगी और इनका दीर्घकालीन असर ना सिर्फ़ अमेरिका-चीन द्विपक्षीय संबंधों पर बल्कि हिंद महासागर क्षेत्र की राजनीति पर बना रहेगा. इस बीच में भारत को गोटाबाया के उस बयान पर सावधानी से विचार करना चाहिए कि हिंद महासागर सामरिक महत्व का क्षेत्र है और इसे शांति का क्षेत्र बने रहना चाहिए.

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