Author : Sushant Sareen

Published on Mar 29, 2024 Updated 0 Hours ago

एक तरह से सालेह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के लगातार और अटल विरोध के कारण एकदम अलग शख़्स के रूप में उभरे हैं. ऐसे समय में जब ज़्यादातर दूसरी राजनीतिक हस्तियां और लड़ाई के असरदार मुखिया तालिबान के साथ शांति कायम करने के लिए तैयार लग रहे हैं

अफ़ग़ानिस्तान में अमरुल्लाह सालेह: मोर्चे पर डटा अंतिम योद्धा

अफ़ग़ानिस्तान के उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह 9 सितंबर की सुबह काबुल में अपने कार्यालय जाते हुए हत्या की एक और कोशिश में बच गए. उनके क़ाफ़िले को निशाना बनाकर सड़क किनारे बम धमाका किया गया था. श्री सालेह का हल्का सा हाथ जला और वो बच गए. उनके कुछ गार्ड घायल हो गए. लेकिन बम धमाके में क़रीब एक दर्जन लोग मारे गए. तालिबान द्वारा फ़ौरन हमले में अपना हाथ होने से इनकार किए जाने के बाद शक की सुई हक़्क़ानी नेटवर्क की तरफ़ मुड़ जाती है, जो न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा इसके नेता को दिए गए प्रचार के बावजूद, न केवल पाकिस्तान की ‘इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस की असल शाखा’ बना हुआ है,  बल्कि अलक़ायदा के साथ क़रीबी रिश्ते भी बनाए हुए है.

श्री सालेह पर हमले का समय बहुत महत्वपूर्ण है. दोहा में बहुप्रतीक्षित अंतर-अफ़ग़ान वार्ता की पूर्व संध्या पर यह हमला परिदृश्य से उस शख़्स को हटाने के मक़सद से किया गया लगता है, जिसे एक ऐसे इंसान के तौर पर देखा जाता है जो तालिबान के लिए एक बड़ी रुकावट है, ताकि वह बातचीत का इस्तेमाल काबुल में बेरोक-टोक शासन के लिए कर सके. दिलचस्प बात यह है कि उन्नीस साल पहले– 9 सितंबर, 2001 को– पंजशेर के शेर अहमद शाह मसूद, जो अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्जे़ के अंतिम बचे प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहे थे, अलक़ायदा के दो हत्यारों द्वारा उनकी हत्या कर दी गई थी. दो दिन बाद 9/11 हुआ और दुनिया बदल गई. लगभग दो दशकों के बाद तालिबान के एक और विरोधी को निशाना बनाया गया, लेकिन इस बार हमला नाकाम रहा.

श्री सालेह पर हमले का समय बहुत महत्वपूर्ण है. दोहा में बहुप्रतीक्षित अंतर-अफ़ग़ान वार्ता की पूर्व संध्या पर यह हमला परिदृश्य से उस शख़्स को हटाने के मक़सद से किया गया लगता है, जिसे एक ऐसे इंसान के तौर पर देखा जाता है जो तालिबान के लिए एक बड़ी रुकावट है

निश्चित रूप से ऐसा पहली बार नहीं है जब श्री सालेह को हत्या की कोशिश का सामना करना पड़ा है. पिछले साल जब वह राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के साथी के रूप में चुनाव में खड़े थे, तो उनके राजनीतिक दफ़्तर के बाहर एक ज़बरदस्त कार बम धमाका हुआ. उस समय फ़िदायीन हमलावरों के एक दस्ते ने कार्यालय पर धावा बोला, लेकिन श्री सालेह और उनके लोगों ने संघर्ष किया और उसके बाद हुए कार्रवाई में आतंकवादियों का सफ़ाया कर दिया गया. ज़ाहिर है, उनके दुश्मन किसी भी कीमत पर उनसे छुटकारा पाने के लिए बुरी तरह बेताब हैं. जब भी किसी ने श्री सालेह के नाम का ज़िक्र किया है, हर बार पाकिस्तानियों के मुंह पर तमाचे जैसा लगा है. असल में 2010 में अफ़ग़ान ख़ुफ़िया एजेंसी एनडीएस के प्रमुख के पद से उनका हटना– ज़ाहिर तौर पर उन्होंने एक सुरक्षा चूक की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़ा दिया था, लेकिन इस्तीफ़ा असल में तालिबान के साथ बातचीत के मुद्दे पर राष्ट्रपति करज़ई के साथ उनके बढ़ते मतभेदों का नतीजा था– माना जाता है कि शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने को रास्ता बनाने के लिए पाकिस्तानियों को एक प्रस्ताव दिया गया था. श्री सालेह लंबे समय से पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान और ख़ुफ़िया एजेंसियों के लिए कांटा बने हुए हैं. वह उन चंद लोगों में से हैं, जो पाकिस्तानियों को समझते हैं, और अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के दोहरे खेल के खुले आलोचक रहे हैं. यहां तक ​​कि उन्होंने पाकिस्तान पर इस्लामिक स्टेट खोरासान प्रॉविंस (आईएसकेपी) को संरक्षण और समर्थन देने का भी आरोप लगाया है. अमेरीकियों और उसके पश्चिमी सहयोगियों के उलट जो ग़लत समझ में पाकिस्तानियों की खुशामद करने की कोशिश कर रही हैं कि इससे उन्हें तालिबान को आतंकवाद के समर्थन और निर्यात को ख़त्म करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा,  श्री सालेह ने कभी भी पाकिस्तानियों को बेनक़ाब करने और उन्हें कोई मौक़ा देने के लिए तेवर ढीले नहीं किए. उदाहरण के लिए, वह हमेशा इस बात पर अड़े रहे कि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में रह रहा था और एक बार उनकी इस मुद्दे पर पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ़ के साथ तीख़ी नोकझोंक भी हुई थी. वह न सिर्फ़ तालिबान के घनघोर आलोचक रहे हैं, बल्कि कट्टरपंथी इस्लामवादियों के साथ बातचीत से कुछ सार्थक निकलने को लेकर संदेह जताया है. उन्होंने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा कि तालिबान के साथ बातचीत “इतिहास की सबसे मुश्किल शांति वार्ताओं में से एक होगी” और कहा कि “बहुत ज़्यादा ख़ून बहाया गया है और ढेर सारे बंटवारे बनाए गए हैं. इन बंटवारों पर क़ाबू पाना आसान नहीं होगा.”

असल में 2010 में अफ़ग़ान ख़ुफ़िया एजेंसी एनडीएस के प्रमुख के पद से उनका हटना– ज़ाहिर तौर पर उन्होंने एक सुरक्षा चूक की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़ा दिया था, लेकिन इस्तीफ़ा असल में तालिबान के साथ बातचीत के मुद्दे पर राष्ट्रपति करज़ई के साथ उनके बढ़ते मतभेदों का नतीजा था

एक तरह से श्री सालेह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के लगातार और अटल विरोध के कारण एकदम अलग शख़्स के रूप में उभरे हैं. ऐसे समय में जब ज़्यादातर दूसरी राजनीतिक हस्तियां और लड़ाई के असरदार मुखिया तालिबान के साथ शांति कायम करने के लिए तैयार लग रहे हैं,  श्री सालेह तालिबान– या हक़ीकत में उनके आक़ा पाकिस्तान– पर उनके रुख़ से सहमत नहीं हैं. एक तरह से वह उन लोगों के लिए एक किस्म का केंद्रीय तत्व बन रहे हैं, जिन्हें तालिबान के बारे में कोई भ्रम नहीं है. हालांकि, वह कभी भी अफ़गानिस्तान में बड़ी सियासी शख्सियत नहीं रहे, लेकिन एक मौक़ा है कि वह ऐसे शख्स के रूप में उभर सकते हैं जिसके पीछे तालिबान विरोधी ताकतें खड़ी हो सकती हैं जब  हालात बदतर हो रहे हों.

हाल के दिनों में, वह एक बार फिर से डुरंड लाइन पर सवाल उठाकर पाकिस्तानियों के ग़ुस्से का निशाना बने. इस हालिया हमले से ठीक दो दिन पहले उन्होंने ट्वीट किया था: “राष्ट्रीय क़द का कोई भी अफ़ग़ान राजनीतिज्ञ डुरंड लाइन के मुद्दे को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. यह ज़िंदगी भर और ज़िंदगी के बाद भी उसे कलंकित करेगा. यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर चर्चा और समाधान की ज़रूरत है. हमें यह मुफ़्त में तोहफ़े में दिए जाने की उम्मीद करना गै़र-यथार्थवादी है. पेशावर, अफ़ग़ानिस्तान की शीतकालीन राजधानी हुआ करता था.” यह पाकिस्तानियों के लिए वाक़ई लाल पैबंद जैसा दिख रहा है और साथ ही इस मुद्दे पर अपना रुख़ साफ करने के लिए तालिबान को चुनौती दे रहा है. इससे भी बढ़कर यह कि अफ़ग़ानिस्तान, साथ ही यह अफ़ग़ानिस्तान के अलावा  पाकिस्तान में पश्तून आबादी के वर्गों को जोड़ने का एक तरीक़ा है, जिन्होंने हमेशा डूरंड लाइन की वैधता पर सवाल उठाया है. हालांकि, दक्षिण एशिया के लिए अमेरिकी विदेश विभाग की पूर्व प्वाइंट पर्सन एलिस वेल्स ने डुरंड लाइन मुद्दे को उठाने पर सवाल उठाया था, लेकिन यह मांग जिस वर्ग को लक्षित थी, उसने इसे फ़ौरन लपक लिया.

श्री सालेह ने कभी भी पाकिस्तानियों को बेनक़ाब करने और उन्हें कोई मौक़ा देने के लिए तेवर ढीले नहीं किए. उदाहरण के लिए, वह हमेशा इस बात पर अड़े रहे कि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में रह रहा था और एक बार उनकी इस मुद्दे पर पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ़ के साथ तीख़ी नोकझोंक भी हुई थी.

श्री सालेह ने जिस दिन डूरंड लाइन का मुद्दा उठाया, उसी दिन उन्होंने एक ट्वीट कर पाकिस्तानियों पर एक और निशाना साधा: “पाकिस्तान इनकार से बाहर निकला है और खुले तौर पर कह रहा है कि वो तालिबान को पनाह दे रहा है. कड़वी होने के बावजूद यह स्पष्टता एक नई स्थिति है जिसका इस्तेमाल शांति के लाभ के लिए किया जा सकता है. जब जनरल बाजवा और आईएसआई के डायरेक्टर ने अफ़ग़ानिस्तान का दौरा किया था तो मैंने उनके साथ नेक नियत से चर्चा की थी. पाक को शांति प्रक्रिया से जोड़े रखें .” पाकिस्तानी जनरल के साथ  उनका “ईमानदार विचार-विमर्श” जून में हुआ था जब पाकिस्तानी सेना प्रमुख और आईएसआई प्रमुख काबुल गए थे. लेकिन श्री सालेह का तीन महीने बाद पाकिस्तानियों द्वारा तालिबान को शरण देने की बात स्वीकार करने के संदर्भ में ट्वीट करते हुए साफ़ तौर से बताता कि वह पाकिस्तानियों से कुछ कहना चाहते थे. हाल के महीनों में, पाकिस्तान के कबायली ज़िलों में आतंकवादी हमले बढ़े हैं, जो उन पाकिस्तानियों के लिए बड़ी  चिंता का कारण बन रहा है जिन्होंने हिंसा में वृद्धि के लिए भारतीय और अफ़ग़ान ख़ुफ़िया एजेंसी को ज़िम्मेदार ठहराया है. क्या इन सभी घटनाक्रमों और श्री सालेह की हत्या की हालिया कोशिश के बीच कोई संबंध हो सकता है?

पाकिस्तान, तालिबान और उनकी मिलीभगत से चलने वाले संगठन और अफ़गान देश के भीतर उनसे गठबंधन रखने वाले आतंकवादी समर्थक और अफ़गान देश के बाहर उनके मध्यस्थों के  संभावित संदिग्धों की तयशुदा शब्दों में निंदा और खंडन करने वाले बयान आएंगे–  मुद्दा यह है कि यह हमला असल में ‘काम बिगाड़ने वालों’ की करतूत था जिसका मकसद हमले के अपराधियों और योजनाकारों से ध्यान भटकाने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है. चाहे जो भी, यह हमला यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि ’शांति वार्ता’ उस तरह चले जैसा इसके समर्थक और प्रस्तावक चाहते हैं – यानि तालिबान के हिसाब से. अमरुल्लाह कुछ मायनों में आख़िरी आदमी हैं, जो उनकी रास्ते की रुकावट हैं. उनके नेता अहमद शाह मसूद की तरह, अगर उन्हें सुरक्षित रूप से अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान के हाथों में सौंपना है और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ प्रतिरोध को खामोश करना है, तो उन्हें छुटकारा पाना होगा. इसलिए यह सिर्फ़ वक़्त की बात है कि उनकी जान पर अगले हमले की कोशिश कब की जाती है.

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