Published on Nov 27, 2018 Updated 0 Hours ago

नए प्रबंधन ने बड़ी तेजी से कदम उठाते हुए निवेशकों को यह आश्‍वासन दिया है कि आईएल एंड एफएस के गिरते शेयरों को थामा जाएगा।

आईएल एंड एफएस: उभरते भारत का अपना ‘रॉबर बैरन’

आईएल एंड एफएस का कार्यालय

भारत निश्चित रूप से एक ‘उभरता बाजार’ है। यहां सूचनाओं को उपलब्‍ध कराने में समरूपता का घोर अभाव देखा जाता है। इतना ही नहीं, यहां ‘अपने स्‍वयं के जोखिम पर ही कुछ भी खरीदने’ का माहौल है जिस वजह से निवेश अपेक्षा से कहीं अधिक जोखिम भरा हो जाता है। जितनी तेजी से एक निजी समूह ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज (आईएल एंड एफएस)’ का अचानक अंदरूनी पतन हुआ उससे इसकी पुष्टि होती है।

सबसे पहले, इस तथ्‍य पर विचार करें कि कोई भी बाहरी व्यक्ति यह नहीं जानता है कि इसकी कितनी सहायक (सब्सिडियरी) कंपनियां हैं। इसकी सब्सिडियरी कंपनियों की संख्‍या 135 से लेकर लगभग 350 तक होने के अनुमान व्‍यक्‍त किए गए हैं। इस निजी या प्राइवेट समूह की सब्सिडियरी कंपनियों की संख्‍या लगभग 350 होने का अनुमान विनीत नय्यर ने साझा किया है जो नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) द्वारा गठित किए गए इसके बोर्ड में शामिल नए सदस्‍यों में से एक हैं। वार्षिक रिपोर्ट में उल्लिखित समेकित समूह खाते कुछ हद तक मददगार तो हैं, लेकिन ये पर्याप्त नहीं हैं।

दूसरा, भारतीय क्रेडिट रेटिंग विगत दिन के अखबार की तुलना में कम महत्‍वपूर्ण प्रतीत होती हैं। आईएल एंड एफएस ने 2017-2018 की वार्षिक रिपोर्ट में बड़े गर्व से इस बात का उल्‍लेख किया था कि उसे उच्चतम क्रेडिट रेटिंग दी गई हैं। हालांकि वर्ष के समापन, जब निवर्तमान चेयरमैन एवं संस्थापक रवि पार्थसारथी (उन्‍होंने वर्ष 1989 से ही आईएल एंड एफएस को एक ब्रांड बना दिया था) ने जुलाई 2018 में इस्तीफा दे दिया, से महज तीन माह के भीतर सभी तीनों रेटिंग एजेंसियां अगस्त में बकाया बांड की रेटिंग घटाकर अपनी विश्वसनीयता की रक्षा करने पर विवश हो गईं। आज, इसे ‘जंक बांड’ का दर्जा प्राप्त है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड ने निवेशकों को जानबूझकर गुमराह करने के लिए सभी तीनों रेटिंग एजेंसियों को दंडित करने की ओर कदम क्‍यों नहीं बढ़ाया है?

तीसरा, आईएल एंड एफएस के बोर्ड में शामिल आदरणीय ‘हस्तियों’ ने नामित और स्वतंत्र निदेशकों के रूप में प्राप्‍त वेतन-भत्‍तों (बेशक भारतीय कंपनियों के मानकों की दृष्टि से मामूली) की तुलना में निश्चित तौर पर बेहद कम मूल्यवर्धन किया। यही नहीं, इनमें से किसी भी ‘हस्‍ती’ ने शालीनता का परिचय देते हुए वर्ष 2014 से ही प्राप्त हो रहे वेतन-भत्‍तों को वापस करके इसके लिए खेद प्रकट नहीं किया। तब तक वे सभी आम जनता के साथ-साथ अल्पमत वाले शेयरधारकों के हितों की उपेक्षा करने के दोषी करार दिए जा चुके थे।

चौथा, इस बात पर भी विचार करें कि हम राजकीय सत्‍ता का अपारदर्शी एवं पक्षपाती उपयोग करने के मामले में किस हद तक चीन से काफी मिलते-जुलते हैं। आईएल एंड एफएस तो एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी भी नहीं थी। यही कारण है कि सिंहावलोकन करने पर यह बेहद असामान्य नजर आता है कि एक समूह के रूप में सरकारी वित्तीय संस्थान एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के सबसे बड़े शेयरधारक थे, वह भी ऐसी स्थिति में जब क्रेडिट रेटिंग और इसके नामित निदेशकों के पास उपलब्‍ध ‘अंदरूनी सूचनाओं’ को छोड़कर इसके स्थायित्व या वित्‍तीय सेहत के बारे में कोई भी बाजार संकेत नहीं था।

ठीक चीन, जहां सार्वजनिक संस्थाएं या निकाय निजी क्षेत्र की कंपनियों का लाभ बढ़ाने में मदद करते हैं, की ही भांति 25 लाख करोड़ (ट्रिलियन) रुपये से भी अधिक की परिसंपत्तियों वाली सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी ‘भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी)’ ने 25.3 फीसदी हिस्सेदारी के साथ आईएल एंड एफएस का इक्विटी निवेशक बनने का फैसला किया। वर्ष 2015 में जब बोर्ड ने किसी रणनीतिक निवेशक को इसे बेचने की चर्चा की तो एलआईसी ने अपनी शेयरधारिता 32.5 अरब रुपये (1,000 रुपये प्रति शेयर) आंकी। उधर, शेयर मूल्य के लिए बाजार का मूड 550 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से 17.85 अरब रुपये था। उस समय एलआईसी ने बेचने से साफ इनकार कर दिया था। हालांकि, आज यदि उन्‍हें 0.3 अरब रुपये (प्रति शेयर 10 रुपये का अंकित मूल्य) भी मिल जाएं तो वे भाग्यशाली माने जाएंगे। उसकी अदूरदर्शिता के कारण महज तीन साल में ही उसके निवेश का कुल मूल्य 17 अरब रुपये लुढ़क गया। क्या एलआईसी के शीर्ष निवेश प्रबंधक को बर्खास्त कर दिया जाएगा? इसकी संभावना बहुत कम है।

इसी तरह के अन्‍य सार्वजनिक क्षेत्र निकायों ने भी आईएल एंड एफएस की इक्विटी पूंजी बढ़ा दी। भारतीय स्टेट बैंक (6.4 प्रतिशत); भारतीय रिजर्व बैंक की त्वरित सही कारर्वाई सूची के अंर्तगत आने वाले 11 अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों में से एक ‘सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया’ (7.7 प्रतिशत) और यूटीआई यूलिप योजना (0.8 प्रतिशत) ने इसमें हिस्‍सेदारी हासिल की। आपस में मिलाकर इनका आईएल एंड एफएस की इक्विटी में 40 प्रतिशत हिस्सा है।

किसी भी ढहते आइकॉन पर कीचड़ उछालना बड़ा आसान होता है, खासकर वैसी स्थिति में जब प्रासंगिकता समाप्‍त हो जाने के बाद भी वह अपना वजूद बनाए रखने की कोशिश करता रहता है। एल एंड टी बुनियादी ढांचागत क्षेत्र की एक और निजी विशालकाय कंपनी है जिसे भी ठीक इसी तरह की समस्‍या से दो-चार होना पड़ रहा है। अपने सुनहरे दौर में आईएल एंड एफएस अत्‍यधिक आत्मविश्वास दिखाने वाली एक ऐसी निजी कंपनी थी जो सरकारी एवं बहुपक्षीय एजेंसियों की बड़ी चहेती थी; प्रोफेशनल प्रबंधन एवं वित्तीय नवाचार में ब्रांड लीडर थी और नब्‍बे के दशक में निजी पूंजी एवं प्रबंधन के साथ सरकारी संसाधनों से लाभ उठाने की वित्तीय क्रांति की ध्वजवाहक या प्रतीक थी।

यहां तक कि सरकार को भी राजी कर लिया गया था। 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17), जिससे नरेंद्र मोदी सरकार ने वर्ष 2015 में निर्धारित समय से पहले ही किनारा कर लिया था, में निजी निवेश की हिस्सेदारी बढ़कर 48 फीसदी के अभूतपूर्व स्‍तर पर पहुंच गई थी। मालूम हो कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में वास्तविक निजी निवेश महज 36 प्रतिशत ही था। तभी से हकीकत ने इस मृगतृष्णा को फीका कर दिया है।

नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल ने ऋणों की अदायगी में निरंतर हो रहे डिफॉल्ट को ध्‍यान में रखते हुए कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 242 के तहत हाल ही में एक नया बोर्ड गठित किया। जनवरी 2009 में सत्यम कंप्यूटर्स के मामले में ठीक इसी तरह की कार्रवाई तब की गई थी जब उसके चेयरमैन ने बड़ी हिम्‍मत दिखाते हुए जानबूझकर धोखाधड़ी करने की बात मानते हुए इसकी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। उस समय आईटी उद्योग के शीर्ष संगठन नैसकॉम के किरण कार्णिक ने सत्यम के नए बोर्ड की कमान ठीक उसी तरह से संभाली थी, जैसे कि भारत के सबसे सम्मानित बैंकर उदय कोटक ने अब आईएल एंड एफएस की कमान संभाली है। एक सेवानिवृत्त नौकरशाह और बाद में कॉरपोरेट दिग्गज के रूप में उभरने वाले विनीत नय्यर इसके उपाध्यक्ष हैं। वह महिंद्रा से जुड़े रहे हैं। उन्‍हें सत्यम के बोर्ड में शामिल किया गया था और वह वर्ष 2013 में सत्यम का अधिग्रहण करने वाली कंपनी महिंद्रा टेक के उपाध्यक्ष बने। विकिपीडिया ने उन्हें कोटक महिंद्रा ओल्ड म्यूचुअल लाइफ इंश्योरेंस के एक निदेशक के रूप में भी सूचीबद्ध किया है।

नए प्रबंधन ने बड़ी तेजी से कदम उठाते हुए निवेशकों को यह आश्‍वासन दिया है कि आईएल एंड एफएस के शेयर भाव को और नीचे नहीं गिरने दिया जाएगा। निवेशकों का उत्‍साह बढ़ाने के लिए ही इस तरह के उद्गार व्‍यक्‍त किए जा रहे हैं। हालांकि, समझदार निवेशकों के तब तक आश्वस्त होने की कतई संभावना नहीं है जब तक कि बुनियादी ढांचागत सुविधाओं से जुड़े व्यवसाय के लगभग हर क्षेत्र में अपने पांव पसार चुकी होल्डिंग कंपनी आईएल एंड एफएस को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर बेच नहीं दिया जाएगा।

सत्यम के मामले में रणनीतिक विनिवेश कारगर साबित हुआ था क्योंकि महिंद्रा एंड महिंद्रा ने कुछ ही महीनों के भीतर इस ओर कदम बढ़ा दिया था। हालांकि, आईएल एंड एफएस के मामले में इस तरह के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। बुनियादी ढांचागत क्षेत्र की हालत डांवाडोल है। विभिन्‍न राज्यों में होने वाले चुनावों के साथ-साथ लोकसभा चुनाव भी अगले नौ महीनों तक आम जनता के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करते रहेंगे, जिससे सरकार के लिए यह संभव नहीं हो पाएगा कि वह एक प्राइवेट लिमिटेड में नई जान फूंकने के लिए उसकी खुल कर मदद कर सके। इसके अलावा, इस कंपनी के बिजनेस की लाभप्रदता को लेकर भी संशय है। हालांकि, अच्‍छी खबर यह है कि आईएल एंड एफएस ग्रुप की आपस में जुड़ी कंपनियों के जाल के अंतर्गत आने वाली महज 11 सहायक कंपनियों का इसकी शुद्ध परिसंपत्तियों में लगभग दो-तिहाई हिस्सेदारी है और लगभग 50 कंपनियों की इतनी ही हिस्‍सेदारी इसके लाभ/हानि में है। वैसे, बड़ी चुस्‍ती के साथ इसका पुनर्गठन किसी भी सूरत में आसान नहीं है।

रवि पार्थसारथी और लंबे समय से उनके वफादार रहे दूसरे नंबर के सहायक हरि शंकरन की तलाश में पूरी नौकरशाही अब जुट गई है जिसकी आंख केवल तभी खुलती है जब किसी सच्‍चाई का पर्दाफाश होता है। हालांकि, भविष्य में उन्हें ठीक वैसे ही भारत के अपने स्‍वयं के ‘रॉबर बैरन’ के रूप में जाना जाएगा जैसे अमेरिका के वैंडरबिल्ट, ड्रयू, क्रॉकर और मॉर्गन थे, जिन्‍होंने सही परिपाटी को छोड़कर राजकीय सत्‍ता तक विशेषाधिकार प्राप्त पहुंच, निजी वित्त और बुनियादी ढांचागत निवेश के एक घातक घालमेल का उपयोग आर्थिक विकास के निजी इंजनों में किया था।


यह लेख मूलत: द एशियन एज में प्रकाशित हुआ।

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