Published on Oct 16, 2020 Updated 0 Hours ago

विश्व की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत माल निर्यात के मामले में 20वें स्थान पर आता है, और ऐसे में चीन-अमेरिकी व्यापार-युद्ध से लाभान्वित होने की उसकी क्षमता, काफी हद तक  वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के साथ जुड़ने पर निर्भर करती है.

अमेरिका-चीन व्यापार-विवाद से भारत को कितना फ़ायदा?

साल 2019  में संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच कूटनीतिक संबंधों के 40 साल पूरे हुए, फिर भी दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं, वैश्विक स्तर पर प्रभुत्व की लड़ाई लड़ रही हैं.’ इसके चलते विश्व में एक नए तरह के शीत युद्ध के कयास बढ़ गए हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने न केवल यह कहा है कि अमेरिका, कोरोनोवायरस महामारी से होने वाली तबाही के लिए चीन को जवाबदेह बनाएगा, बल्कि हाल के महीनों में उसके प्रशासन ने चीन के दूरसंचार टेलीकॉम दिग्गज ‘हुवावे’ पर प्रतिबंध लगाने के साथ ही, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर बीजिंग को निशाना बनाया है. हांगकांग में होने वाले लोकतंत्र संबंधी प्रदर्शनों और शिनजियांग प्रांत में वीगर समुदाय के खिलाफ कथित रूप से दुर्व्यवहार के मामले पर भी अमेरिका ने चीन को आड़े हाथों लिया है. खासतौर पर, हाल ही में चीन पर जासूसी करने का आरोप लगाते हुए, अमेरिकी आदेश के तहत, अमेरिका के ह्यूस्टन में मौजूद चीनी दूतावास बंद किए जाने की जवाबी कार्रवाई में चीन के चेंगदू प्रांत में मौजूद अमेरिकी दूतावास को बंद किया जाना, दोनों पक्षों के बीच तू डाल-डाल मैं पात-पात की रणनीति को खुल कर सामने रखता है. इसके साथ ही दोनों देशों के बीच एक दूसरे ख़िलाफ़ नीतिगत मामलों पर होने वाली बयानबाज़ी भी अब एक नए स्तर पर पहुंच रही है.

चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा लगातार बना हुआ है. आंकड़ों के मुताबिक इस साल जुलाई में यह  1.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 28.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया.

साल 2016 में अमेरिका में हुए चुनावों में राष्ट्रपति ट्रंप ने बीजिंग पर निशाना साधा था, और चीन से संबंधित बयानबाज़ी को अपने चुनाव अभियान के केंद्र में रखा था. ऐसे में साल 2020  के चुनाव अभियान में रिपब्लिकन पार्टी के नेता ट्रंप ने चीन विरोधी बयानबाज़ी को तेज़ करते हुए, चीन पर अमेरिकी निर्भरता को पूरी तरह से ख़त्म करने की कसम खाई है. हालांकि, चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा लगातार बना हुआ है. आंकड़ों के मुताबिक इस साल जुलाई में यह  1.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 28.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया.  इस बीच ट्रंप ने मज़दूर दिवस के मौके पर की गई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बीजिंग के साथ व्यापार पर कड़ा रुख अपनाते हुए कहा, “हम अमेरिका को दुनिया की विनिर्माण महाशक्ति बनाएंगे, और हमेशा के लिए चीन पर अपनी निर्भरता को ख़त्म कर देंगे. फिर चाहे  इसके लिए ‘डीकपलिंग’ यानी निवेश बाज़ार को अर्थव्यवस्था से अलग करने का क़दम उठाना पड़े या बड़े पैमाने पर सीमा शुल्क में बढ़ोत्तरी हो, जो मैं पहले से ही कर रहा हूं”. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी अमेरिका और चीन के बीच, व्यापार में आए इस गतिरोध को लेकर इसी तरह का रवैया अपनाया है. हाल ही में उन्होंने कहा कि “अब हम नए सिरे से अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने और उसके विस्तार का काम शुरु कर रहे हैं, और इसके लिए हमें एक नई शुरुआत करनी होगी.”

हालांकि, पारंपरिक रूप से देखें तो, सीख यही है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच गतिरोध में कोई भी पक्ष विजेता नहीं होता. कुछ विशेषज्ञों और जानकारों का निष्कर्ष यह भी है कि दो महान शक्तियों के बीच शुरु हुई, नफ़े-नुकसान की ये निर्थक प्रतियोगिता, असल में भारत के लिए नए अवसर पैदा करती है. सिंगापुर के डीबीएस बैंक (डेवलपमेंट बैंक ऑफ सिंगापुर) की अगस्त में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, “अमेरिका-चीन व्यापार संघर्ष के बीच, भारत अपने व्यापार को बढ़ा सकता है, विशेष रूप से उन श्रेणियों में, जिन पर अमेरिका द्वारा सीमा शुल्क लगाया गया है”. इससे भारत को लगभग 11 बिलियन अमेरिकी डॉलर का लाभ होने की उम्मीद है. भारत के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में एक साक्षात्कार में यहां तक दावा किया कि चीन की बिगड़ती वैश्विक छवि, भारतीय निवेश क्षेत्र के लिए नए मौके लेकर आई है. भारत के उत्तरी इलाके में स्थित उत्तर प्रदेश ने जहां एक ओर, चीन से बाहर निकल रहे व्यापार संगठनों और निकायों को आकर्षित करने के लिए पहले ही एक आर्थिक टास्क फ़ोर्स बनाने की शुरुआत कर दी है, वहीं यूएस-इंडिया बिज़नेस काउंसिल (USIBC) के अध्यक्ष ने कहा है कि, “हम चाहते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों स्तरों पर भारत अपनी आपूर्ति श्रंखलाओं को मज़बूत बनाने की दिशा में प्राथमिकता से काम करे.”

पारंपरिक रूप से देखें तो, सीख यही है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच गतिरोध में कोई भी पक्ष विजेता नहीं होता. कुछ विशेषज्ञों और जानकारों का निष्कर्ष यह भी है कि दो महान शक्तियों के बीच शुरु हुई, नफ़े-नुकसान की ये निर्थक प्रतियोगिता, असल में भारत के लिए नए अवसर पैदा करती है. 

उदाहरण के लिए, रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (GJEPC) ने कहा है कि, चीन द्वारा हांगकांग पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू किए जाने के प्रत्यक्ष परिणाम के स्वरूप अमेरिका, हांगकांग से आने वाले सामान पर लगने वाले शुल्क को 3.3 प्रतिशत से बढ़ाकर 7.5 प्रतिशत कर सकता है. जीजेईपीसी के चेयरमैन कोलिन शाह के मुताबिक, “बहुत संभव है कि इससे, रत्न और आभूषण व्यापार में, भारत के लिए नए अवसर पैदा हों” क्योंकि विनिर्माण व्यवसाय में चीन के बजाय अब भारत की ओर रुख किए जाने की संभावना है. खासतौर पर, क्योंकि भारत के पास पहले से ही, आसानी से उपलब्ध कच्चा माल और श्रमिकों सहित इस काम को करने का कौशल उपलब्ध है. ऐसे में व्यापार को लेकर हांगकांग को मिलने वाली प्रमुखता और प्राथमिकता ख़त्म होने से भारत के लिए, रत्न और आभूषण उद्योग में वैश्विक स्तर पर अग्रणी बनने का अवसर है.

चीन के शिंजियांग इलाके से कपड़ा आयात को लेकर अमेरिका द्वारा लगाई गई रोक और व्यापार की सीमाएं निश्चित करना भी भारतीय कपड़ा निर्यातकों के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. इन प्रतिबंधों को 14 सितंबर को लागू किया गया, क्योंकि राजनीतिक रूप से स्वायत्त शिंजियांग इलाके में व्यापारिक इकाईयों द्वारा क्रूर और अवैध श्रम कराए जाने को लेकर चिंताएं सामने आ रही थीं. चीन के कपास उत्पादन का लगभग 80-85 प्रतिशत हिस्सा शिंजियांग प्रांत से आता है. ऐसे में भारत के पास उन सभी अंतरराष्ट्रीय खरीदारों के रूप में, लाभ के महत्वपूर्ण अवसर मौजूद हैं, जो चीन से अपनी आपूर्ति सीमित कर अलग-अलग देशों तक पहुंच बनाना चाहते हैं ताकि उनकी आपूर्ति श्रंखलाओं में विविधता को बढ़ावा मिले.

चीन-अमेरिकी व्यापार संघर्ष से लगातार लाभ उठाने के लिए, भारत को इस संभावित अवसर को एक महत्वपूर्ण लाभ के रूप में विकसित करना होगा. इसके लिए भारत को एक रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है. 

साल 2018 में  ग्लोबल रिसर्च और ब्रोकिंग कंपनी, नोमुरा के एक अध्ययन में कंपनियों, उद्योगों और यहां तक कि कुछ छोटी अर्थव्यवस्थाओं  को आयात प्रतिस्थापन, उत्पादन पुनर्वास और एफडीआई (FDI) से होने वाले संभावित लाभ पर प्रकाश डाला गया. इस अध्ययन के विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि अमेरिकी आयातों पर चीन द्वारा लगाए गए सीमा शुल्क के चलते पैदा हुए आयात प्रतिस्थापन से भारत को मामूली लाभ मिलेगा. यह चीन में उत्पादन और एफडीआई में होने वाली कमी का प्रत्यक्ष परिणाम होगा, क्योंकि समय के साथ व्यापार-युद्ध (trade-war) बढ़ता जाएगा. ध्यान रहे कि, चीन का 43 प्रतिशत माल-निर्यात, विदेशी निवेश पर निर्भर करता है, इसलिए इस निवेश को दूसरी ओर स्थानांतरित करने के कई अवसर मौजूद हैं. भारत के बाज़ार का आकार और भारत में इस निवेश के स्थानांतरण की प्रबल क्षमता होना, इसे इच्छुक देशों के लिए एक संभावित गंतव्य बनाता है, लेकिन इसके बावजूद ‘नोमुरा प्रोडक्शन रीलोकेशन सूचकांक’ में भारत को वियतनाम, मलेशिया और सिंगापुर के बाद चौथे स्थान पर रख गया है.

इसलिए, चीन-अमेरिकी व्यापार संघर्ष से लगातार लाभ उठाने के लिए, भारत को इस संभावित अवसर को एक महत्वपूर्ण लाभ के रूप में विकसित करना होगा. इसके लिए भारत को एक रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए,  हालांकि, भारत को अपने बड़े घरेलू बाज़ार से लाभ मिलता है, लेकिन अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने प्रयासों को निर्यात की ओर केंद्रित करती हैं और अपनी वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (Global Value Chains) को बनाए रखना चाहती हैं. भारत, सातवीं सबसे बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था के रूप में अपनी वर्तमान स्थिति के साथ, माल निर्यात के मामले में 20वें स्थान पर आता है, और ऐसे में चीन-अमेरिकी व्यापार-युद्ध से लाभान्वित होने की उसकी क्षमता,  इन वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के साथ सफलतापूर्वक जुड़ने पर निर्भर करती है. इसके अलावा, चीन से निकलने वाले निवेश को आकर्षित करने की इच्छा रखने वाले अन्य देशों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए, भारत को संचालन और परिचालन संबंधी स्थितियों में सुधार को प्राथमिकता देनी होगी और नीति व नियमों को स्थिर बनाए रखना होगा. सोसाइटी जनरेल से जुड़े अर्थशास्त्री कुणाल कुंडू ने भारतीय भूमि क़ानूनों को “निर्माण और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए सबसे बड़ी बाधा” के रूप में रेखांकित किया है और उनका मानना है कि इन क़ानूनों के ‘अत्यंत जटिल’ होने के अलावा, भूमि अधिग्रहण व स्वामित्व का अलग-अलग राज्यों में खंडित होना एक बाधा के रूप में देखा जाता है. उचित बुनियादी ढाँचे की कमी भी इन मुद्दों को और गंभीर बनाती है, और भले ही भारत में बुनियादी ढांचे के निर्माण के क्षेत्र में बहुत सुधार हुआ है,  फिर भी वह दक्षिण पूर्व एशिया के अपने प्रतिद्वंद्वी देशों से अभी भी बहुत पीछे है.

भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद बढ़ने के साथ,  चीन के अलग-थलग पड़ने और चीन के प्रति रोष से पैदा होने वाले अवसरों को लेकर, वियतनाम और ताइवान जैसे पड़ोसी देशों के भारत की तुलना में, अधिक लाभान्वित होने की संभावना है. 

इस बीच भारत व चीन के बीच बढ़ रहा तनाव भी व्यापार और निवेश के अवसरों के स्थानांतरण और चीन के मुकाबले भारत के एक संभावित गंतव्य के रूप में उभरने की स्थिति को कमज़ोर बना सकता है. चीन को लेकर भारत ने न केवल, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी से दूर जाने का फैसला किया जो कि पिछले साल नवंबर में 12 अन्य एशियाई देशों के साथ हस्ताक्षरित हुआ एक महत्वपूर्ण बहुपक्षीय व्यापार समझौता था, बल्कि नई दिल्ली ने इस साल अप्रैल में अपने विदेशी निवेश क़ानूनों को और कड़ा करने का फैसला लिया है. इसे साफ तौर पर बीजिंग की ओर इंगित कार्रवाई माना जा रहा है. चीन के खिलाफ़ भारत का कठोर रुख़ स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, लेकिन इस तरह के फ़ैसलों ने भारत के उभरते बाज़ार में निवेश को अप्रत्याशित बनाया है, और राजनीतिक कारणों से प्रभावित होने की उसकी प्रकृति को उजागर किया है. सफल अंतरराष्ट्रीय व्यवसायों पर स्थानीय नियंत्रण को दर्शाने वाली यह रणनीतियां, विदेशी निवेशकों को संशय और आशंकाओं से ग्रस्त करती हैं और किसी भी वक्त नए नियमों और क़ानूनों के लागू होने के जोखिम का आभास देती हैं. विदेशी निवेश या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नज़रिए से यह एक नकारात्मक संकेत है. इसलिए, बहुराष्ट्रीय कंपनियां अगर अपने व्यापार और विनिर्माण इकाइयों को स्थानांतरित करने का फैसला करती हैं, तो ज़रूरी नहीं कि भारत उनके लिए पहला विकल्प हो, क्योंकि यह कारण, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के साथ भारत के जुड़ाव को कमज़ोर और अनिश्चित बनाते हैं.

खासतौर पर लद्दाख की गलवान घाटी में हाल ही में हुई झड़पों के बाद, जिसके परिणामस्वरूप बीस भारतीय सैनिकों की मौत हो गई और चीन में भी कुछ लोगों के हताहत होने की खबर है, इस बात का डर बढ़ गया है कि भारत अपने चारों ओर संरक्षणवादी घेरे का निर्माण कर रहा है और वो इस दिशा में लगातार आगे बढ़ेगा. भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के लिए हालिया संबोधन इस राय को और मज़बूत बनाता है, जिसमें उन्होंने लगातार ‘स्थानीयता को समर्थन दिए जाने’ (‘be vocal for local’) का उद्घोष किया है. अनुभवी राजनयिक गोपालस्वामी पार्थसारथी ने इस संदर्भ में हिंदू बिज़नेसलाइन में लिखी अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि, “भारत को चीन पर अपनी वर्तमान आर्थिक निर्भरता की समीक्षा करनी होगी और इसे और कम करना होगा”. इसलिए, भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद बढ़ने के साथ,  चीन के अलग-थलग पड़ने और चीन के प्रति रोष से पैदा होने वाले अवसरों को लेकर, वियतनाम और ताइवान जैसे पड़ोसी देशों के भारत की तुलना में, अधिक लाभान्वित होने की संभावना है. उदाहरण के लिए, वियतनाम से आयातित अमेरिकी सामान में जून 2018  के बाद से अब तक 50 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है. साथ ही ताइवान से आयात होने वाले सामान में भी 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए, अंतिम रूप से यह विश्लेषित किया जा सकता है कि,  भारत को भले ही शुरु में उसके जटिल भूमि व श्रम क़ानूनों और सीमित रूप से अमल में लाए गए मुक्त व्यापार समझौतों के कारण चीन से बाहर जाने वाले निवेश का फ़ायदा न मिले, लेकिन जैसे-जैसे वैश्विक स्तर पर चीन के प्रति रोष और विरोध की भावना बढ़ेगी, भारत को अपने वैश्विक व्यापारिक संबंधों के ज़रिए व्यापक रूप से फ़ायदा मिलने की उम्मीद है. यह तभी हो सकता है जब वह संरचनात्मक सुधारों के ज़रिए, इन व्यापक भू-राजनीतिक बदलावों का लाभ उठाने के लिए आगे आए.

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