Author : Ramanath Jha

Published on Jan 14, 2021 Updated 0 Hours ago

निर्धनता से जुड़ी सरकारी नीतियों का ज़ोर ग्रामीण भारत पर रहा है. इसके पीछे की सोच यही रही कि हमारा देश गांवों में बसता है और देश का ग़रीब इन्ही गांवों में रहता है

शहरों की ग़रीबी और गांवों में व्याप्त निर्धनता किस तरह से अलग हैं?

आज़ादी के बाद दशकों तक ग़रीबी उन्मूलन भारत में सरकारों की सबसे बड़ी प्राथमिकता रही है. निर्धनता से जुड़ी सरकारी नीतियों का ज़ोर ग्रामीण भारत पर रहा है. इसके पीछे की सोच यही रही कि हमारा देश गांवों में बसता है और देश का ग़रीब इन्ही गांवों में रहता है. दशकों पहले जब ये नीतियां बनी थीं तब गांव में बसने वाले लाखों लोगों के पास पेट भरने के लिए पर्याप्त अनाज नहीं था. उस समय वो भूख और कुपोषण के शिकार थे. ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा इंसान अगर रोज़ाना भोजन के ज़रिए ज़रूरी न्यूनतम कैलोरी भी हासिल न कर सके तो उसे ‘दरिद्र’ की श्रेणी में रखा गया. ग़रीबी उन्मूलन नीतियों के तहत अंतिम पायदान पर खड़ी ऐसी निर्धन आबादी पर सबसे ज़्यादा ध्यान दिया गया.

शहरों में रहने वाली जनसंख्या 1951 के 6.20 करोड़ के मुकाबले 2011 में 37.7 करोड़ हो गई. शहरों की बढ़ती आबादी के पीछे एक मुख्य कारण बेहतर आजीविका की तलाश में ग्रामीण क्षेत्र से शहरों की ओर लगातार होने वाला पलायन है.

सरकारी नीतियों का फोकस ग्रामीण भारत पर रहने के बावजूद देश में शहरीकरण की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही. 1951 की जनगणना के समय देश की कुल आबादी का 17.29 प्रतिशत शहरों में रहता था जो 2011 में लगभग दोगुना होकर 31.16 फीसदी हो गया. शहरी आबादी में इसी कालखंड में करीब 6 गुणा बढ़ोतरी हुई. शहरों में रहने वाली जनसंख्या 1951 के 6.20 करोड़ के मुकाबले 2011 में 37.7 करोड़ हो गई. शहरों की बढ़ती आबादी के पीछे एक मुख्य कारण बेहतर आजीविका की तलाश में ग्रामीण क्षेत्र से शहरों की ओर लगातार होने वाला पलायन है. इस प्रक्रिया को दुनिया भर में निर्धनता के शहरीकरण के तौर पर जाना जाता है. इस प्रकार की ग़रीबी का सबसे बड़ा उदाहरण शहरों में बढ़ती झुग्गी बस्तियां हैं. 2011 तक ऐसी झुग्गी बस्तियों को 6.55 करोड़ लोगों ने अपना आशियाना बनाया हुआ था. अनुभवों से साफ है कि शहरों में रहने वाली ग़रीब आबादी की हालत गांवों में बसे ग़रीबों से कई मायनों में अलग और ज़्यादा तकलीफदेह होती है.  

ग़रीबी का बुनियादी फर्क़

शहरी ग़रीबी को बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें शहरी और ग्रामीण जीवन के बुनियादी फर्क को समझना होगा. गांवों में आबादी कम होती है- यही कुछ हज़ार लोग. जबकि देश में शहरी बसावट की आबादी अलग-अलग है. कुछ शहरों की आबादी कुछ हज़ार की है तो कुछ दूसरे शहरों में करोड़ों लोग बसते हैं. ‘नगर’ की पहचान मुख्य तौर पर इंसानी बसावट, मकानों के घनत्व और आर्थिक गतिविधियों में ग़ैर-कृषि कार्यों के हिस्से के हिसाब से होती है. भारतीय संविधान के तहत शहरों का वर्गीकरण किया गया है. नगर पंचायत (ऐसे गांव जो शहर बनने की ओर अग्रसर हैं), नगर परिषद (जहां शहरीकरण तो पूरा हो चुका है लेकिन जो अब भी आकार में काफी छोटे हैं), नगर निगम (पूरी तरह से शहरी सुविधाओं से लैस शहर). इससे भी बड़े शहर जिनकी आबादी 10 लाख से ज़्यादा हो उन्हें महानगर का नाम दिया गया है. जबकि 50 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों को मेगा सिटी के तौर पर पुकारा जाता है. 1 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले शहरों को मैं गीगा सिटी का नाम देना चाहूंगा. शहरीकरण की रफ्तार ऐसी ही रही तो जल्द ही भारत में ऐसे कई और शहर हो जाएंगे.

गांवों में आबादी का घनत्व कम होता है और इंसानी बसावट दूर-दूर होती है. जबकि शहरों की उत्पादकता घनत्व पर केंद्रित होती है. जैसे-जैसे शहरों का विकास होता है वो और घने होते जाते हैं. 

ग्रामीण क्षेत्रों में खेती-बाड़ी ही लोगों का मुख्य पेशा होता है और वो अपनी ज़मीनों के पास ही रहते हैं. इससे उन्हें पूरी दक्षता के साथ अपना काम करने की सुविधा होती है. गांवों में आबादी का घनत्व कम होता है और इंसानी बसावट दूर-दूर होती है. जबकि शहरों की उत्पादकता घनत्व पर केंद्रित होती है. जैसे-जैसे शहरों का विकास होता है वो और घने होते जाते हैं. गांव कई मायनों में एक समान होते हैं लिहाजा वहां की समस्याओं के समाधान के लिए एक जैसी रणनीति अपनाने की सुविधा होती है. लेकिन शहरों की बात करें तो वहां आकार मायने रखता है. अलग-अलग आकार और आयामों वाले शहरों की समस्याओं का एक समान हल ढूंढ पाना संभव नहीं. शहरों में बसी ग़रीब आबादी की समस्याएं भी अलग-अलग होती हैं. लिहाजा उनके समाधान के लिए अलग-अलग नीतियों की ज़रूरत है. गांवों के भीतर एक से दूसरी जगह की दूरी कम होती है. वहां हरेक कोने तक आसान से पहुंचा जा सकता है. जबकि शहरों के भीतर एक से दूसरी जगह जाना उतना आसान नहीं होता, वहां ट्रैफिक की समस्या होती है और आवागमन में अधिक समय और खर्च आता है. शहरी ग़रीब की आय पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है.

आर्थिक तौर पर बात करें तो गांव आज भी मुख्य रूप से प्राथमिक उत्पादन वाले पायदान पर हैं. जबकि शहर प्राथमिक अर्थव्यवस्था से आगे निकल चुके हैं और जैसे-जैसे उनका आकार बढ़ रहा है वहां की आर्थिक गतिविधि और अधिक विविधतापूर्ण होती जा रही है. गांवों में मौजूदा उत्पादन-प्रक्रिया के चलते पर्यावरण, मिट्टी, जल संसाधनों और जंगलों पर दबाव पड़ रहा है तो शहरों में प्रदूषण का बड़ा खतरा मौजूद है. वहां मानवीय गतिविधियों, मोटरगाड़ियों, लगातार चलते निर्माण कार्यों और बड़े पैमाने पर कूड़ा इकट्ठा होने की वजहों से प्रदूषण की समस्या और विकराल होती जाती है. इसका भी शहरी ग़रीबों और उनकी दशा-दिशा पर असर पड़ता है.

ग्रामीण और शहरी ग़रीबी के कुछ समान पहलू भी हैं. रोज़गार के पर्याप्त अवसर, खाद्य पदार्थों की उपलब्धता, स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा ऐसे मुद्दे हैं जो दोनों के लिए समान महत्व रखते हैं. इसी तरह सूचनाओं तक पहुंच और अपनी बस्तियों में अपने हक के लिए आवाज़ उठाने के अधिकार और प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दे भी दोनों के लिए मायने रखते हैं. ग्रामीण और शहरी दोनों जगह बसने वाली ग़रीब आबादी के पास नीतियों को प्रभावित कर पाने की क्षमता न के बराबर होती है. गांवों के ग़रीब बड़े ज़मींदारों के सामने बेबस रहते हैं जबकि शहरों के निर्धन लोग अमीरों और संगठित वर्गों के सामने अपनी आवाज़ बुलंद नहीं कर पाते.

रिहायशी और बुनियादी सुविधाओं का अभाव

ग्रामीण ग़रीबों के मुकाबले शहरी ग़रीबों को रिहाइश की दिक्कतों और बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझना पड़ता है. गांव के ग़रीबों के लिए अपनी रिहाइश पर हक के मामलों में कोई मुश्किल नहीं होती जबकि शहरों में ये एक बड़ी समस्या है. शहरों में रहने वाले ग़रीब झुग्गी बस्तियों और अनधिकृत बसावट में जैसे-तैसे रहने को मजबूर हैं. वहां एक पूरा ग़रीब परिवार एक कमरे में सिमटकर रह जाता है. इस तरह की बसावट ज़्यादातर अनधिकृत होती है और बिना उचित मंज़ूरी के बनाई जाती हैं लिहाजा इनपर हमेशा ही दरबदर किए जाने का खतरा मंडराता रहता है. इतना ही नहीं शहरी ग़रीब को साफ-सफाई और बुनियादी ढांचे की किल्लत से भी जूझना होता है. शौचालय की सुविधाओं का अभाव खासकर महिलाओं के लिए भारी परेशानी का सबब बनता है. पीने के साफ पानी की किल्लत, साफ और हवादार जगहों के अभाव और बीमारियों के खतरे के बीच उनका जीवन बेहद तकलीफदेह होता है. उनको दूसरी चुनौतियों और खतरों से भी जूझना होता है. इनमें आवागमन के साधनों से लेकर फिरौती और बढ़ती आपराधिक गतिविधियों का शिकार हो जाने का खतरा तक शामिल है. ऐसे में अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ऐसे गंदे माहौल में किस प्रकार के पारिवारिक संबंध और मानवीय मूल्य विकसित होंगे.

शहरों में रहने वाले ग़रीब झुग्गी बस्तियों और अनधिकृत बसावट में जैसे-तैसे रहने को मजबूर हैं. वहां एक पूरा ग़रीब परिवार एक कमरे में सिमटकर रह जाता है. इस तरह की बसावट ज़्यादातर अनधिकृत होती है और बिना उचित मंज़ूरी के बनाई जाती हैं लिहाजा इनपर हमेशा ही दरबदर किए जाने का खतरा मंडराता रहता है.

शहरों में अमीरों और ग़रीबों के बीच के जीवनस्तर में जो खाई नज़र आती है उसका वहां के ग़रीबों के दिलोदिमाग़ और मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है. दूसरी ओर ग्रामीण समाज में लोगों को जीवनस्तर कमोबेश एक जैसा होता है. वहां की जीवनशैली में शहरों जितना अंतर नहीं होता. गांवों में निवास करने वाली आबादी के उपभोग का तौर-तरीका भी एक जैसा ही होता है क्योंकि वहां उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धता सीमित होती है. नतीजतन ग्रामीण समाज में सापेक्षिक निर्धनता शहरों के मुकाबले खुले तौर पर कम नज़र आती है. ऐसे में गांवों के हालात एक समान जीवनशैली को बढ़ावा देने वाले होते हैं.

शहरों में ये खाई बढ़ जाती है. शहरी आबादी की इंसानी ज़रूरतों की बात करें तो चाहे वो रिहाइश, पहनावा-ओढ़ावा, खान-पान, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवागमन या फिर बाकी सेवाओं से जुड़े मामले हों- ग़रीबों के मुकाबले पैसेवालों की पहुंच इनतक कहीं ज़्यादा होती है. ग्रामीण इलाकों में उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धता सीमित होती है. नतीजतन कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो गांव में समान रूप से सबकी पहुंच के बाहर होती हैं, चाहे वो ग़रीब हों या अमीर. शहरों में जिनके पास पैसे हैं वो मनचाहे सामान और सेवाओं का लाभ उठा सकते हैं. लेकिन बेचारा शहरी ग़रीब इनसे महरूम रह जाता है. ऐसे में शहरी ग़रीब को अपनी ग़रीबी ज़्यादा चुभती है क्योंकि वो अपनी नज़रों के सामने पैसेवालों को इन सुविधाओं का लाभ उठाते देखता है जबकि वो उनसे वंचित रह जाता है. ऐसे हालात उसके मन में बेसहारा होने और बेचारगी के भाव भरते चले जाते हैं. इतना ही नहीं अपनी परिस्थितियों की वजह से उसके दिमाग में ग़ुस्सा और असंतोष भर जाता है. शहर जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं वहां ग़रीब और अमीर के बीच की खाई भी चौड़ी होती जाती है.

वैधानिक और संस्थागत मदद

शहरी ग़रीबी से निजात पाने के उपाय ढूंढने से पहले शहरों में रहने वाली निर्धन आबादी की समस्याओं और उनकी ज़िंदगी से जुड़ी परेशानियों को ठीक ढंग से समझना पड़ेगा. ग़रीबी को सिर्फ ग्रामीण दृष्टिकोण से देखने और उसके निदान के लिए ग्रामोन्मुख उपाय करने से शहरी ग़रीबी की समस्या का हल नहीं निकलेगा. शहरों में ग़रीबी-उन्मूलन के प्रयासों को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है और इसे शहरी नीतियों और नगर विकास से जुड़ी योजनाओं के अंतर्गत वैधानिक और संस्थागत रूप देने की आवश्यकता है. आज के परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो ऐसा होता नहीं दिखता. कई विश्लेषणों से ये बात निकलकर आई है कि शहरी ग़रीबी उन्मूलन के रास्ते में ज़मीन की किल्लत एक बड़ी बाधा है. शहरों में रहने वाली ग़रीब आबादी की रिहाइश, आजीविका या मूल सुविधाओं से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काफी कम ज़मीन उपलब्ध होती है.

शहरों में ग़रीबी-उन्मूलन के प्रयासों को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है और इसे शहरी नीतियों और नगर विकास से जुड़ी योजनाओं के अंतर्गत वैधानिक और संस्थागत रूप देने की आवश्यकता है. 

बहरहाल, ऐसा लगता है कि सरकार को अब ये बात समझ में आ रही है कि ग़रीबी की परिभाषा पर फिर से विचार करने का समय आ गया है. हाल ही में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा ग़रीबी पर जारी एक कार्यपत्र में ये प्रस्ताव किया गया है कि भविष्य में ग़रीबी रेखा को तय करने के लिए सिर्फ गुज़र-बसर करने लायक आमदनी को ही आधार न मानकर एक न्यूनतम जीवनस्तर हासिल कर पाने की क्षमता को ग़रीबी रेखा के निर्धारण का आधार माना जाए. और इसमें दूसरे विषयों के साथ-साथ आवास, शिक्षा, स्वच्छता जैसी ज़रूरतों को भी शामिल किया जाए. वैसे तो ये प्रस्ताव ग्रामीण विकास विभाग की ओर से आया है लेकिन इसके पीछे की सोच सटीक है. ग़रीबी रेखा तय करने के पैमानों में ऐसा कोई भी बदलाव ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली ग़रीब आबादी से कहीं ज़्यादा शहरी ग़रीबों के लिए कारगर होगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि ये सोच देर-सवेर देश की सरकार का आधिकारिक विचार बन जाए. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.