Published on Dec 04, 2018 Updated 0 Hours ago

मज़बूत गठबंधन के लिए नेतन्याहू को ज़्यादा नंबर की आवश्यकता होगी जो आख़िरकार उनके चौथे कार्यकाल की रक्षा करेंगे।

कैसे हमास ने इज़रायल के अगले चुनाव अभियान की शुरुआत की

काफ़ी उथल-पुथल भरे एक पखवाड़े के बाद इज़रायल ने राहत की सांस ली है, पहले युद्ध के कगार पर था और फिर बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार गिरते-गिरते बची। गाज़ा को नियंत्रित करनेवाले और इज़रायल विरोधी आतंकी संगठन हमास के साथ विवादित संघर्ष विराम समझौता हो रहा है, जबकि प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार गठबंधन की एक सहयोगी खोने के बाद भी साथ रहने में कामयाब रही है। हालांकि, स्थिति फिर से उबल सकती है।

इस महीने गाज़ा से दागे गए एक रॉकेट के बदले सीमावर्ती समुदाय पर 500 मिसाइल दागे गए। हाल के दिनों में इज़रायल ने हमास के 160 ठिकानों पर बमबारी की है। पिछले काफ़ी समय से चली आ रही लड़ाई के बीच ये सबसे ताज़ा हमला है, जिसकी वजह से इज़रायल और गाज़ा पूरी तरह युद्ध और सैन्य टकराव की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। साथ ही, इस साल 30 मार्च के बाद से, गाज़ा के लोग फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों और उनके वंशजों को लौटने की इजाज़त देने और इज़रायल की नाकेबंदी हटाने की मांग के साथ इज़रायल से लगी सीमा पर नियमित रूप से एकत्रित हुए हैं और अक्सर हिंसक हो रहे हैं। यह अभियान 30 मार्च से 15 मई तक यानी छह हफ़्ते तक होना चाहिए था — लेकिन पिछले कुछ महीनों में यह लगातार बढ़ रहा है।

वास्तव में, पिछले दो शुक्रवारों के दौरान भी हज़ारों की तादाद में प्रदर्शनकारी गाज़ा में प्रदर्शन के लिए एकत्रित हुए — हालांकि, इस बार, हमास ने मिस्र-मध्यस्थ युद्धविराम समझौते के हिस्से के रूप में ख़ुद को बेड़े (इज़रायली सीमा) से दूर रखा। इस समझौते ने क़तर की नकदी को तटीय एनक्लेव और अन्य आर्थिक रियायतों में वितरित करने की अनुमति भी दी। इन सब से उम्मीद है कि इज़रायल की दक्षिणी सीमा पर ज़्यादा टिकाऊ शांति के बदले में गाज़ा पट्टी के लोगों पर दबाव कम होगा, लेकिन ये समझौता नाजुक ज़मीन पर टिका है।

गाज़ा पट्टी के लोग संघर्ष विराम समझौते को हमास द्वारा बिकने के रूप में देखते हैं — सीमा से दूर विरोध अर्थहीन हैं, बेमतलब हैं, क्योंकि तब वे इज़रायल के लोगों को परेशान नहीं करते हैं या इज़रायली सरकार पर दबाव नहीं डालते हैं।

रामल्ला स्थित फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA), जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी फ़िलिस्तीनियों का मान्यता प्राप्त प्रतिनिधि है, लेकिन सिर्फ़ वेस्ट बैंक को नियंत्रित करता है, उसने भी समझौते की आलोचना की है क्योंकि यह इसके ख़ुद के घटते अधिकार को और कम कर देता है। फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA) का नेतृत्व फतह पार्टी द्वारा किया जाता है जिसे एक दशक पहले गाज़ा पट्टी से हिंसक रूप से हटा दिया गया था — तब से, सुलह के कई प्रयास विफल रहे हैं और दोनों लोग आपसे में भिड़े रहते हैं। वास्तव में, यह फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA) थी, जिसने हाल ही में गाज़ा के लिए सिविल सेवकों के वेतन, बिजली और ईंधन सब्सिडी के लिए भुगतान करना बंद कर दिया ताक़ि हमास पर सार्वजनिक दबाव बन सके। यह उम्मीद थी कि हमास अंततः फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA) के अधिकार के सामने झुक जाएगा और पिछले साल से हो रही सुलह योजना से सहमत हो जाएगा। लेकिन इज़रायल के साथ गोलीबारी, उसके बाद इज़रायली रक्षा मंत्री का इस्तीफ़ा और संघर्ष विराम समझौते की वजह से आई अल्पकालिक राहत ने सिर्फ़ गाज़ा में हमास की साख को बढ़ावा दिया; जबकि फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA) को अलग-थलग छोड़ दिया।

इज़रायल में भी, युद्धविराम समझौते के कई आलोचक हैं, ख़ास कर दक्षिणी सीमावर्ती समुदायों में। ये आलोचक चाहते हैं कि हमास को मुंहतोड़ और सख़्त से सख़्त जवाब मिले, हालांकि यह शायद ही कभी दीर्घकालिक समाधान होगा। पिछले सैन्य अभियानों ने हमास की आतंकी आधारभूत संरचनाओं को फिर से खड़ा करने की क्षमता को ख़त्म किए बिना नागरिक जीवन और संपत्ति पर एक ख़तरा लिया है। इज़रायल ने हमास के ख़िलाफ़ विश्वसनीय प्रतिरोध स्थापित करने के लिए संघर्ष किया है। और अब, सुरक्षा को लेकर कई दूसरी चिंताएं हैं, जैसे सीरिया के साथ इसकी उत्तरी सीमा पर ईरान की उपस्थिति। जोखिम/ख़तरों से दूर रहनेवाले बेंजामिन नेतन्याहू क्षेत्रीय हिंसा भड़काने की जगह गाज़ा में हालात को मैनेज करना चाहेंगे। यह युद्धविराम समझौते के लिए उनके समर्थन को दिखाता है जो तब से इजरायल में राजनीतिक गर्म मुद्दा बन गया है।

14 नवंबर को, इज़रायल के रक्षा मंत्री एविगडोर लिबरमैन ने मिस्र की मध्यस्थता से फ़िलिस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास और इज़रायल के बीच हुए संघर्ष विराम समझौते को आतंकवाद के सामने इज़रायल का आत्मसमपर्ण बताते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया, साथ ही इस समझौते के प्रति अपना विरोध दर्ज कराते हुए लिकुड पार्टी के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ गठबंधन से अपनी कट्टर राइट विंग यिसराइल बीटिनू पार्टी का समर्थन वापस लेने की घोषणा की। तुरंत बाद जुइश होम (हबीयत हेहेउदी पार्टी) के शिक्षा मंत्री नाफ़्ताली बेनेट और क़ानून मंत्री आइलिट शेक्ड ने भी नेतन्याहू सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी। नेतन्याहू ने उन्हें ऐसा न करने से मना तो लिया लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन अब बहुमत के आंकड़े के बिल्कुल पास यानी डेंज़र ज़ोन में खड़ा है। 120 सीटों वाली कनेसेट (इजरायली संसद) में सत्तारूढ़ गठबंधन के पास सिर्फ़ 61 सीटें हैं।

मौजूदा सरकार का कार्यकाल अगले साल नवंबर में ख़त्म हो रहा है और प्रधानमंत्री उससे पहले किसी भी समय चुनाव का एलान कर सकते हैं (लेकिन चुनाव की घोषणा होने के कम से कम तीन महीने बाद ही वोट डाले जा सकते हैं)। एविगडोर लिबरमैन ने अपने इस्तीफ़े के साथ समय से पहले चुनाव का दबाव बनाया।

यहां टाइमिंग महत्वपूर्ण है।

पहला, बेंजामिन नेतन्याहू कमज़ोर स्थिति में हैं — गाज़ा से रॉकेट हमले और संघर्ष विराम समझौते को लेकर लगातार आलोचनाओं का सामना कर रहे हैं।

दूसरा, रक्षा मंत्री के तौर पर एविगडोर लिबरमैन का ख़ुद का कार्यकाल उम्मीद से परे रहा है, और उनके समर्थकों का मानना है कि वो अपनी कट्टरपंथी साख पर खड़े नहीं उतरे हैं। संघर्ष विराम के मुद्दे पर इस्तीफ़ा देकर उन्होंने ख़ुद को उस फ़ैसले से अलग कर लिया, जिसे उनके वोटर गाज़ा में सरकार के आत्म-समर्पण के तौर पर देखते हैं। और ख़ुद को बीबी (बेंजामिन नेतन्याहू) के अधिकार को चुनौती देनेवाले के रूप में भी स्थापित किया है। तब से उनके समर्थकों की तादाद भी बढ़ी है, हालांकि शायद ही वो कभी प्रधानमंत्री पद के गंभीर दावेदार हों।

लिबरमैन अकेले नहीं हैं जो समय से पहले चुनाव चाहते हैं। नाफ़्ताली बेनेट ने भी यही गणित बिठाया है। यही वजह है कि उन्होंने ख़ुद को दक्षिणपंथ का अगला नेता स्थापित करने की कोशिश में सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री नेतन्याहू को ब्लैकमेल किया और रक्षा मंत्री के पद की मांग की। हालांकि, उनका चुनावी स्टंट तब फ़्लॉप हो गया जब नेतन्याहू ने उनके झांसे की पोल खोल दी और उन्हें पीछे हटना पड़ा।

वित्त मंत्री मोशे कहलोन और 2015 में शानदार शुरुआत करनेवाली उनकी दक्षिणपंथी कुलानु पार्टी भी समय से पहले चुनाव के पक्ष में है, लेकिन अभी ऐसा करने से परहेज़ कर रही है। ओपिनियन पोल्स दिखाते हैं कि अगर आज चुनाव हुआ तो मोशे की पार्टी उतना अच्छा नहीं कर पाएगी; लेकिन तब जब नेतन्याहू मुश्किल स्थिति में हैं, कुलानु पार्टी लिकुड पार्टी के कुछ नेताओं को तोड़ सकती है।

नेतन्याहू ने ख़ुद को कमरे में व्यस्क की तरह पेश कर इन सभी का जवाब दिया है: एक स्टेट्समैन जिसने शांति के लिए समझौता किया, जबकि दूसरे नेताओं ने युद्ध के लिए दबाव डाला और राष्ट्रीय संकट के दौरान सरकार गिराने की मांग कर रहे थे। और अब जबकि उनकी सरकार बच गई है, नेतन्याहू का ध्यान जितना संभव हो सके चुनाव में देरी पर होगा। यह थोड़ा अज़ीब लगेगा क्योंकि कुछ ही महीने पहले वो समय से पहले चुनाव को लेकर बेताब थे — तब उनके पोल नंबर्स ज़्यादा थे और उनके ख़िलाफ़ करप्शन के केस का ख़ुलासा नहीं हुआ था। लेकिन, अब हालात बिल्कुल बदल गए हैं।

नेतन्याहू को कुछ समय बीतने की ज़रूरत है ताकि जनता गाज़ा संकट से आगे बढ़ सके। उन्हें भ्रष्टाचार के तीन मामलों से हुई क्षतिपूर्ति से उबरने के लिए वक़्त की ज़रूरत है।

उम्मीद है कि 2019 की पहली तिमाही में, अटॉर्नी जनरल ये तय करेंगे कि भ्रष्टाचार के इन मामलों में प्रधानमंत्री पर महाभियोग लगाया जाए या नहीं। अगर वो महाभियोग के ख़िलाफ़ भी फ़ैसला करते हैं तो, नेतन्याहू उस समय चुनाव में नहीं जाना चाहेंगे।

लेकिन वह एक चुनाव अभियान भी नहीं चाहते हैं जो अगले नवंबर तक एक साल में एक नाजुक गठबंधन के साथ तैयार हो जाए। किसी भी तरह, ओपिनियन पोल्स से पता चलता है कि नेतन्याहू के पास जीतने का अच्छा मौक़ा है, लेकिन उनकी व्यक्तिगत और राजनीतिक परेशानियों को देखते हुए उन्हें जीतने के लिए ज़रूरी वोटों से ज़्यादा की ज़रूरत होगी।

मज़बूत गठबंधन के लिए नेतन्याहू को ज़्यादा नंबर की आवश्यकता होगी जो आख़िरकार उनके चौथे कार्यकाल की रक्षा करेंगे। इससे पहले सिर्फ़ इज़रायल के पहले प्रधान मंत्री डेविड बेन-गुरियन ही चार बार प्रधानमंत्री बने थे। इस बीच, उनके विरोधी उस दिन की तैयारी कर रहे होंगे जब नेतन्याहू प्रधानमंत्री नहीं होंगे। वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वे सही समय पर सही जगह पर हों।

इन चीज़ों का भारत के लिए क्या मतलब है? इज़रायल की घरेलू राजनीति में उथल-पुथल से भारत-इज़रायल रिश्ते पर कोई ख़ास असर होने की संभावना नहीं है। इस रिश्ते को यरुशलम में द्विपक्षीय समर्थन मिलता है और नेतन्याहू युग के बाद भी ऐसा ही रहने की उम्मीद की जा सकती है। हालांकि, अंदरूनी राजनीतिक समीकरणों के साथ-साथ नई गठबंधन सरकार की फ़ितरत निश्चित तौर पर इस बात को प्रभावित करेगी कि इज़रायली नेता किस तरह फ़िलिस्तीन के मुद्दे से निपटते हैं। उदाहरण के लिए, नेतन्याहू कोई बड़ा सैन्य टकराव नहीं चाहते हैं; वो छोटे योजनाबद्ध ऑपरेशन्स चाहते हैं, जिन्हें नियंत्रित किया जा सके। उनके उत्तराधिकारी के पास अलग नज़रिया, अलग दृष्टिकोण हो सकता है। नेतन्याहू के बाद आनेवाले को फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA) के पूरी तरह से पतन की संभावना से भी निपटना पड़ सकता है। यह वेस्ट बैंक के साथ इज़रायल के सुरक्षा समीकरण को ख़त्म कर देगा। फ़िलहाल के लिए, भारत ने अपनी इज़रायल-फ़िलिस्तीन नीति को सफलतापूर्वक कम प्रचारित कर दिया है, लेकिन इज़रायल और फ़िलिस्तीन दोनों ही राजनीतिक खेमों में घरेलू अस्थिरता के मामले में इसे चुनौती दी जा सकती है जो एक और क्षेत्रीय तबाही की ओर जाता है।


मयूरी मुखर्जी तेलअवीव यूनिवर्सिटी, इज़रायल में सिक्योरिटी स्टडीज़ स्कॉलर हैं।

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