Author : Nilanjan Ghosh

Published on Oct 19, 2019 Updated 0 Hours ago

किसी भी मुक्त व्यापार समझौते में शामिल होने के इन नफ़ा नुक़सान का हिसाब किताब पहले ही लगा लेना बेहतर होता है. हमें पहले ये समझ लेना चाहिए कि क्या वाक़ई ऐसे फायदे वाले अवसर उस व्यापार समझौते में शामिल होने की वजह से मिलेंगे और अगर हां तो किस क़ीमत पर?

बिना भारत के आरसीईपी कितना प्रभावी?

आरसीईपी (RCEP) यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप के लिए चल रही वार्ता में एक निर्णायक मोड़ उस वक़्त आया, जब भारत ने इस विशाल कारोबारी समझौते से ख़ुद को अलग रखने का फ़ैसला किया. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 नवंबर 2019 को बैंकॉक में आरसीईपी के शिखर सम्मेलन में साफ़ तौर से कहा कि, ‘आरसीईपी का मौजूदा समझौता इसकी बुनियादी भावना को प्रकट नहीं करता. न ही ये इस मुद्दे पर पहले तय हुए साझा दिशा-निर्देशों को प्रतिपादित करता है. इसके अलावा भारत ने जिन मुद्दों पर चिंता जताई थी, उन पर भी ये समझौता तसल्लीबख़्श तरीक़े से स्पष्टीकरण देने में नाकाम रहा है. ऐसे हालात में भारत के लिए ये मुमकिन नहीं है कि वो आरसीईपी समझौते का हिस्सा बने.’ भारत का ये क़दम बेहद तार्किक है. मौजूदा हालात में आरसीईपी में शामिल होना भारत के लिए  फायदे का सौदा नहीं होता. लेकिन, इसका ये मतलब भी नहीं है कि भारत को भविष्य में भी आरसीईपी से कोई ताल्लुक़ न रखने का फ़ैसला कर लेना चाहिए. बल्कि बेहतर ये होगा कि इस विशाल

आरसीईपी में शामिल सभी देशों के मुक़ाबले चीन के साथ भारत के बढ़ते व्यापार घाटे की चिंता सब से ज़्यादा है. क्योंकि चीन के साथ भारत के द्विपक्षीय व्यापार घाटे का दायरा क़रीब 55 से 60 अरब अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंचा है.

कारोबारी समझौते में भारत को आगे चल कर,यानी उचित समय आने पर शामिल होने के विकल्प खुले रखने चाहिए. भारत ने पहले ही कई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते किए हैं. साथ ही भारत ने कई व्यापक आर्थिक सहयोग के समझौतों पर भी दस्तख़त किए हैं. इन में भारत में निवेश करने से जुड़े समझौते भी शामिल हैं. इन में से कई करारनामे ऐसे हैं, जो भारत ने दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ किए हैं. ऐसे समझौतों के बाद इन देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा बढ़ा ही है. यहां तक कि आरसीईपी में शामिल उन देशों के साथ भी भारत का व्यापार घाटा बढ़ता ही जा रहा है, जिनके साथ भारत ने मुक्त व्यापार के समझौते नहीं किए हैं. मसलन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और चीन जैसे देशों के साथ व्यापार में भारत को विशाल कारोबारी घाटा हो रहा है. और इसका दायरा बढ़ता ही जा रहा है. आरसीईपी में शामिल सभी देशों के मुक़ाबले चीन के साथ भारत के बढ़ते व्यापार घाटे की चिंता सब से ज़्यादा है. क्योंकि चीन के साथ भारत के द्विपक्षीय व्यापार घाटे का दायरा क़रीब 55 से 60 अरब अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंचा है. ये चिंता तब और बढ़ जाती है, जब हम ये देखते हैं कि भारत और चीन के सामरिक संबंध लंबे समय से तनापूर्ण रहे हैं. हाल ही में तमिलनाडु में प्रधानमंत्री मोदी की चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अनौपचारिक शिखर वार्ता से भी इस में कोई कमी नहीं आई है. ऐसे में भारत के किसी ऐसे क्षेत्रीय व्यापार समझौते में शामिल होने के आर्थिक ही नहीं सामरिक प्रभाव भी होंगे, जिसका  हिस्सा चीन भी हो. इसीलिए भारत के आरसीईपी में शामिल होने का सवाल मूल रूप से इस सवाल के जवाब में निहित है कि क्या भारत और चीन के बीच ऐसा संबंध होना मुमकिन है, जिस में अंतरराष्ट्रीय कारोबार और निवेश से दोनों ही देशों का फ़ायदा हो. वहीं दूसरी तरफ़, भारतीय अर्थव्यवस्था में, चीन से होने वाले सस्ते आयातों और सस्ते उत्पादों के व्यापक विकल्पों की मांग तेज़ी से बढ़ रही है. इससे भारत के घरेलू उद्योगों पर नकारात्मक असर पड़ रहा है. हम इसका असर खाद्य तेलों की प्रॉसेसिंग, ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स,टेलीकॉम और व्हाइट गुड्स सेक्टर में पहले से ही देख रहे हैं. मोटे तौर पर कहें, तो अगर मुक्त व्यापार से वाक़ई ऐसा होगा कि मध्यस्थों की भूमिका ख़त्म होगी और सस्ते उत्पाद और सेवाएं मिल सकेंगी. तो, इससे घरेलू उद्योगों की प्रतिद्वंदिता और बढ़ेगी. वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुक़ाबले के लिए बेहतर ढंग से तैयार हो सकेंगे. निर्यात के लिए तैयार उत्पादों की क़ीमतें भी बाज़ार में घटेंगी. अगर हम इस नज़रिए से देखें, तो क्षेत्रीय स्तर पर आर्थिक एकीकरण से हमें दूसरे देशों के बाज़ारों को सस्ते निर्यात की राह में आने वाली बाधाएं दूर करने में मदद मिलेगी. इससे ‘मेक इन इंडिया’ के लिए भी अच्छा माहौल तैयार होगा. लेकिन, शाय द आरसीईपी के साथ ऐसा न हो. क्योंकि सेवाओं के माध्यम से बाज़ार तक पहुंच बनाने के लक्ष्य को लेकर कई चिंताएं अभी भी बनी हुई हैं. अगर हम व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण से देखें, तो क्षेत्रीय व्यापार समझौते की वार्ता में शामिल नीति नियंताओं को कई बातों का ख़ास तौर से ध्यान रखना चाहिए. सबसे पहले तो इस बात का ध्यान रखना होगा कि समझौते के लिए अर्थव्यवस्था के अहम हिस्सेदारों के हितों की किस हद तक बलि दी जा सकती है. और इससे ग्राहकों का कितना फ़ायदा होगा. सामान के उत्पादकों या घरेलू उद्योग को कितना फ़ायदा या नुक़सान होगा. कहीं उनके उत्पाद बोझ तो नहीं बन जाएंगे. इन चिंताओं का ध्यान रखने का मतलब क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौतों के समर्थकों की उस सोच और दावे के विपरीत होगा जिस में वो कहते हैं कि, ‘कारोबार अच्छा है. और ज़्यादा व्यापार और अच्छा है.’ सुरजीत भल्ला की अध्यक्षता वाली, ‘रिपोर्ट ऑफ़ द हाई लेवल एडवाइज़री ग्रुप’ (HLAG) को हाल ही में सार्वजनिक किया गया था. इस ग्रुप ने क्षेत्रीय व्यापारिक सहयोग समझौतों को लेकर यही रुख़ अख़्तियार किया था. और भारत के आरसीआईपी में शामिल होने को लेकर सकारात्मक रुख़ अपनाया था. असल में कारोबार को लेकर से आक्रामक सोच इस बुनियादी  सोच पर आधारित है कि किसी भी अर्थव्यवस्था की पूरी क्षमता का बिना ऐसे सहयोग के पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं होता है. ये विचार माइक्रोइकोनॉमिक थ्योरी का अभिन्न अंग है. ये विचार अर्थव्यवस्था को लेकर बनाई जाने वाली सार्वजनिक हित वाली नीति को सीमित करने वाला होता है. और, इससे भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देशों का कोई भला नहीं होता है. अब चाहे सुरजीत भल्ला की अध्यक्षता वाले ग्रुप की रिपोर्ट हो, या ऐसी ही दूसरी रिपोर्ट हों, व्यापार के हामी अर्थशास्त्री, मुक्त व्यापार के दावे इससे आर्थिक विकास पर होने वाले सकारात्मक असर की बुनियाद पर ही ऐसे समझौतों की वक़ालत करते हैं. इसके लिए या तो वो सीजीई यानी कंप्यूटेबल जनरल इक्विलिब्रियम या फिर इसी के जैसे ग्लोबर ट्रेड एनालिसिस प्रोजेक्ट यानी जीटैप के मॉडल के आधार पर मुक्त व्यापार की वक़ालत करते हैं. इसी तरह से एचएलएजी और दूसरे ऐसे समूहों ने भारत के आरसीईपी में शामिल होने की वक़ालत की थी. ऐसे विशेषज्ञों का जीटीएपी और सीजीई मॉडल पर आंख मूंद कर भरोसा करना, यक़ीनन वो तरीक़ा नहीं है, जिस नज़रिए से मुक्त व्यापार समझौतों को देखा जाना चाहिए. ऐसे मॉडलों की अव्यवहारिकता और हक़ीक़त से दूरी को कई बातों से परखा जा सकता है. जैसे कि (ए) किसी तबक़े के प्रतिनिधि चुनने की तकनीक. इस मॉडल में सभी परिवारों, कंपनियों, खेती और दूसरे सेक्टरों को एक ही खांचे में डाल दिया जाता है. दूसरी बात (बी) उनका हमेशा यही मानने वाली सोच कि हमेशा उत्पादकता उच्चतम ही होगी. (सी) उत्पादन और सेवासं स्थानों के बारे में ये सोचना कि वो अच्छा बर्ताव ही करेंगे, जैसे कि उत्तलता केगुणों का संतुष्टिकरण. जबकि बहुत से अर्थशास्त्री मानते हैं कि ऐसा सोचना ग़लत है. क्योंकि ग़ैर-उत्तलता के मॉडल से अलग अलग तरह के समीकरण सामने आते हैं. (डी) नतीजे पर पहुंचने के लिए फ्रेमवर्क में जड़ता का होना और (ई) ये मानना कि उन्हें ही संपूर्ण ज्ञान है, जबकि ये असंभव है! एक बात ये भी है कि विकास को बढ़ाना ही एकमात्र मक़सद नहीं हो सकता है. ऐसे मॉडल इस बात का अनुमान लगाने में नाकाम रहे हैं कि व्यापार का उत्पाद की वैल्यू चेन पर क्या असर पड़ता है. अभी तक ऐसा एक भी विश्लेषण नहीं किया गया है, जिसके माध्यम से ये पता लग सके कि अगर भारत आरसीईपी में शामिल होता है, तो उसका वैल्यू चेन पर क्या असर पड़ेगा.

‘मेक इन इंडिया’ का मक़सद, घरेलू और विदेशी, दोनों ही निवेशकों के लिए माकूल माहौल तैयार करना है. ताकि कारोबार अच्छे से हो सके. अब अगर घरेलू उद्योगों को विकास करना है, तो उसे माकूल माहौल की तलब तो है ही, उसे संरक्षण की भी ज़रूरत है. और इसके लिए बाज़ार से जुड़े सुधार करने ज़रूरी हैं.

वहीं दूसरी तरफ़, ये मानने के कई कारण हैं कि अगर भारत आरसीईपी जैसे किसी क्षेत्रीय व्यापार समझौते का हिस्सा बनता है, तो ये भारत के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के लिए फायदे का सौदा नहीं होगा. ‘मेक इन इंडिया’, भारत में विदेशी निवेश आकर्षित करने का मुख्य प्रोजेक्ट है. लेकिन, इसकी परिकल्पना इसलिए नहीं की गई थी कि हमारे घरेलू उद्योगों को नुक़सान पहुंचे. आज आर्थिक सुधारों की शुररुआत होने के क़रीब एक चौथाई सदी के बाद भी भारत का मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर अब तक अंतरराष्ट्रीय कारोबार की प्रतिस्पर्धा के लिए ख़ुद को तैयार नहीं कर सका है. वो अंतरराष्ट्रीय कारोबार के मुक़ाबलों का सामना करने में सक्षम ही नहीं है. ऐसे हालात इसलिए भी हैं कि उत्पाद और बाज़ार के कारकों के हिसाब से आर्थिक सुधार के कई क़दम उठाए ही नहीं जा सके हैं. जब जीएसटी लागू किया गया था, तो ये माना गया था कि ये आपूर्ति की श्रृंखला को तार्किक बनाएगा, बाज़ार के मौजूदा बिखरे हुए रूप में बदलाव लाएगा. लेकिन जीएसटी की अलग अलग दरों का नतीजा ये हुआ है कि इन्हें अदा करने में दिक़्क़तें आ रही हैं और किसी भी उत्पाद की सप्लाई चेन पर भी इसका असर पड़ रहा है. इनपुट सेक्टर में बहुत अहम सुधारों की सख़्त ज़रूरत है. ख़ास तौर से श्रम के बाज़ार में. सस्ती मज़दूरी के बावजूद भारत के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में मज़दूरों की उत्पादकता अभी भी दुनिया में सब से कम है. और हर राज्य और सेक्टर के अपने अलग अलग श्रम क़ानूनों की वजह से लेन-देन का ख़र्च बढ़ जाता है. हालांकि इस साल 5 जुलाई को पेश किए गए बजट में देर से ही सही, कुछ श्रम क़ानूनों को तार्किक बनाए जाने की बात कही गई है. ऐसे हालात में भारतीय उद्योग किसी मुक्त व्यापार क्षेत्र का मुक़ाबला करने के लिए शायद ही तैयार हैं. ‘मेक इन इंडिया’ का मक़सद, घरेलू और विदेशी, दोनों ही निवेशकों के लिए माकूल माहौल तैयार करना है. ताकि कारोबार अच्छे से हो सके. अब अगर घरेलू उद्योगों को विकास करना है, तो उसे माकूल माहौल की तलब तो है ही, उसे संरक्षण की भी ज़रूरत है. और इसके लिए बाज़ार से जुड़े सुधार करने ज़रूरी हैं.

इसके अलावा, अगर भारत को इन देशों के निवेश से फ़ायदा लेना है, तो कारोबार के लिए अनुकूल  माहौल तो फिर भी बनाना ही होगा. इसके लिए आर्थिक सुधारों की सख़्त आवश्यकता होगी. कारोबारियों में प्रतियोगी क्षमता के विकास के लिए नीतियों में सुधार की ज़रूरत होती है. इससे हम आरसीईपी में शामिल होने से पैदा हुई चुनौतियों का सामना कर सकेंगे. तब ही हम इन चुनौतियों को अवसरों में तब्दील कर पाएंगे. हमें यहां ये ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि कारोबार करने में आसानी के पैमाने पर कम्बोडिया, लाओस और फिलीपींस को छोड़ दें, तो आरसीईपी में शामिल बाक़ी के सभी देशों की स्थिति काफ़ी बेहतर है. इसीलिए वो निवेशकों को लुभाने के लिए अपने यहां बेहतर कारोबारी माहौल होने का दावा कर सकते हैं.

साथ ही साथ, बार बार ये दावा किया जा रहा था कि आरसीईपी से भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्ज़े के उद्योगों को फायदा होगा. वो पूरे क्षेत्र की वैल्यू और सप्लाई चेन का हिस्सा बन सकेंगे. इस में कोई दो राय नहीं है कि इस के मौक़े तो हैं. लेकिन, इसके ख़तरे भी मौजूद हैं! किसी भी मुक्त व्यापार समझौते में शामिल होने के इन नफ़ा नुक़सान का हिसाब किताब पहले ही लगा लेना बेहतर होता है. हमें पहले ये समझ लेना चाहिए कि क्या वाक़ई ऐसे फायदे वाले अवसर उस व्यापार समझौते में शामिल होने की वजह से मिलेंगे और अगर हां तो किस क़ीमत पर? हक़ीक़त में ऐसे सबूत न होने की सूरत में केवल अटकल के आधार पर कोई फ़ैसला करना ठीक नहीं होगा. बल्कि कई बार तो परिस्थितियां फायदे के बजाय नुक़सान वाली बनने का डर होता है. वहीं, दूसरी तरफ़ श्रमिक बाज़ार में कार्यकुशलता की कमी, कम उत्पादकता और अकुशल उत्पादन प्रक्रिया, बाज़ार में एकरूपता की कमी से लेन-देन में ज़्यादा लागत की वजह से भारतीय उत्पादों के लिए मुक़ाबला करना मुश्किल हो जाता है. भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्ज़े के उद्योगों को बाज़ार तो शायद मिल जाए, लेकिन, इनके अंदर मौजूद संरचनात्मक ख़ामी की वजह से इस बात की उम्मीद कम ही है कि ये आसियान देशों के उत्पादकों से प्रतिद्वंदिता कर पाएं.

आरसीईपी के साझीदार देशों के साथ कारोबार में उदारीकरण को अगर हम सर्विस सेक्टर के परिप्रेक्ष्य में देखें तो, ये भारत के दृष्टिकोण से मुश्किल मुद्दा रहा है. पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते की शुरुआत 2005 में सिंगापुर के साथ द्विपक्षीय समझौते से हुई थी. और भारत ने ऐसा आख़िरी समझौता 2011 में सिंगापुर के साथ किया था. भारत इन देशों से लगातार ये कहता रहा है कि हुनरमंद कामगारों का एक पूल बनाया जाए, ताकि उन्हें रोज़गार के बेहतर मौक़े मिल सकें. पेशेवर लोग दूसरे देशों में जाकर काम कर सकें. इसके लिए भारत ने सर्विस सेक्टर के व्यापार के लिए मोड-4 का विकल्प सुझाया था. इस लक्ष्य को पाने के लिए भारत अपने यहां मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की कर प्रणाली में बदलाव के लिए भी तैयार है.  यहां तक कि भारत ने कृषि क्षेत्र में भी बदलाव की इच्छाशक्ति दिखाई है. लेकिन, आरसीईपी के संदर्भ में देखें तो, व्यापार समझौते से हमें गंवाए हुए मौक़े मिल सकेंगे, इसकी गहराई से समीक्षा करने की ज़रूरत है.

अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर इस वक़्त हमारे पास जो तथ्य और लेख मौजूद हैं, उनका दावा है कि छोटी अर्थव्यवस्थाएं जो विश्व अर्थव्यवस्था में सामान और सेवाओं की क़ीमत पर असर नहीं डाल सकतीं, उनके लिए तरज़ीह देने वाले व्यापार समझौते यानी प्रेफ़रेंशियल ट्रेड एग्रीमेंट (PTA) करना कोई फायदे का सौदा नहीं होगा.  अपनी विशाल आबादी और लोगों की बढ़ती आमदनी के बावजूद आज भी भारत विश्व अर्थव्यवस्था पर बहुत असर डालने की स्थिति में नहीं है. ख़ास तौर से वो वस्तुओं, उत्पादों या सेवाओं की दरों पर कुछ असर डालने के बजाय दूसरों से ज़्यादा प्रभावित होता है. जब कोई देश, दूसरे देश को तरज़ीह देने के लिए अपने यहां के टैक्स घटाता है, तो इसका ये मतलब भी होता है कि वो उन देशों के साथ कारोबार की राह में दीवारें खड़ी कर रहा है, जिनके साथ उसके प्रेफ़रेंशियल ट्रेड एग्रीमेंट नहीं हैं.

वहीं दूसरी तरफ़, आरसीईपी, जो विदेशी निवेश की राह आसान करने की कोशिश में बौद्धिक संपदा के अधिकारों और दूसरे क़ानूनों से पार पाने की कोशिश करता है. वो कई अन्य क़ानूनों के मामले में भी विश्व व्यापार संगठन के तय किए हुए मानकों से अलग पैमाने तय करने का काम करता है. इससे किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए किसी ख़ास काल खंड में कारोबार की नीतियां तय करने में मुश्किल होती है. ये एक और भारी क़ीमत होगी, जो भारत को लंबे दौर के लिए चुकानी होगी, अगर वो आरसीईपी की सदस्यता ग्रहण करता है.

भारत के बिना आरसीईपी-

जो लोग भारत के आरसीईपी में शामिल होने के समर्थक हैं, वो ये विचार रखते हैं कि भारत को इस में शामिल होने से फ़ायदा होगा. क्योंकि आज अमेरिका के टीटीपी से अलग होने की वजह से भारत को कोई मुनाफ़ा नहीं हो रहा है. ऐसे में आरसीईपी की मदद से विश्व व्यापार का एक वैकल्पि ढांचा खड़ा होगा. इसका विश्व की सामरिक राजनीतिक व्यवस्था पर भी असर पड़ेगा. बहुत से जानकार ये भी मानते हैं कि चीन का बीआरआई प्रोजेक्ट दुनिया में अपने सामरिक और रणनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए बनाया गया है. चीन, सड़कों, रेलवे और बंदरगाहों के विशाल नेटवर्क के माध्यम से दुनिया के एक बड़े हिस्से पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है. भारत के आरसीईपी से हटने का फ़ैसला उस समय आया है जब चीन पर ये आरोप है कि वो आरसीईपी के शिखर सम्मेलन के दौरान इस समझौते पर आख़िरी मुहर लगवाने में जुटा हुआ था. इस बात के निश्चित रूप से व्यापक रणनीतिक आयाम हैं. चीन के लिए ये आर्थिक मक़सद भी है और भौगोलिक प्रभाव बढ़ाने का माध्यम भी. आरसीईपी समझौते पर आख़िरी मुहर के माध्यम से चीन कई लक्ष्य हासिल करना चाहता है.

  1. अमेरिका के साथ चल रहे व्यापार युद्ध का अपनी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला असर कम करना चाहता है.क्योंकि इससे चीन के निर्यातों में काफ़ी कमी आ गई है.
  2. दूसरी बात ये है कि आरसीईपी के माध्यम से चीन पश्चिमी देशों को ये संदेश भी देना चाहता है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों के पास भी आर्थिक शक्ति है. ये बात भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और अमेरिका के आपसी समझौते के संदर्भ में भी कही जा सकती है. क्योंकि इस के तीन सदस्य देश आरसीईपी में शामिल होने के लिए परिचर्चा में भागीदार हैं. इसी के साथ-साथ जापान, सिंगापुर और आसियान भी अब ये मान रहे हैं कि अब एक नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है.
  3. अब जबकि भारत की सरकार देश की अर्थव्यवस्था को 5 ख़रब तक पहुंचाने के लक्ष्य की आकांक्षा रखती है, तो इस मक़सद को पूरा करने के लिए भारत के पास सबसे बड़ी ताक़त इसका अपना उपभोक्ता बाज़ार ही है.

लेकिन, भारत के आरसीईपी से अलग होने के बाद, आरसीईपी की चमक धूमिल हो गई है. आरसीईपी का मुख्य लक्ष्य भारत के विशाल बाज़ार तक पहुंच बनाने का था. बाक़ी दुनिया के लिए भारत की 1.4 अरब की आबादी एक बड़ा बाज़ार है, जिसके नागरिकों की आमदनी पिछले कई वर्षों से 6 से 8 फ़ीसद की दर से बढ़ रही है. इससे भारत को अपनी आबादी के रूप में एक बहुत बड़ा फ़ायदा मिलता है, जिस के पास युवा ग्राहकों की बड़ी तादाद है. और ये ग्राहक दिनों दिन अमीर हो रहा है. इसके अलावा कमज़ोर घरेलू उद्योगों की वजह से आज इस युवा ग्राहकों के बाज़ार की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पा रही हैं. क्योंकि इनकी अलग-अलग मांगों को घरेलू उद्योग पूरा नहीं कर पा रहे हैं. मौजूदा औद्योगिक उत्पाद बेहद कम है. अकुशल उत्पादन प्रक्रिया और सप्लाई चेन की बाधाएं भारत के उद्योगों को विदेशी मुक़ाबले के लिए तैयार होने से रोक रही हैं. अब जबकि भारत की सरकार देश की अर्थव्यवस्था को 5 ख़रब तक पहुंचाने के लक्ष्य की आकांक्षा रखती है, तो इस मक़सद को पूरा करने के लिए भारत के पास सबसे बड़ी ताक़त इसका अपना उपभोक्ता बाज़ार ही है. अब तक भारत का विकास बुनियादी तौर पर इसी बाज़ार की मदद से हुआ है. ऐसे में कोई बाहरी ताक़त और क्या चाह रख सकती है? ऐसे विशाल संभावनाओं वाले बाज़ार में उतरना विदेशी ताक़तों का सपना हो सकता है. क्योंकि भारत के घरेलू उद्योग तो विदेशी कंपनियों से मुक़ाबला करने की हैसियत में ही नहीं हैं. ऐसी संभावनाएं आरसीईपी के किसी और सदस्य देश में नहीं मौजूद हैं. ऐसे में भारत के आरसीईपी से अलग होने की वजह से इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस व्यापारिक समझौते की चमक फिलहाल धूमिल पड़ गई है. हालांकि, भारत को निश्चित रूप से पहले अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था के बारे में विचार करना चाहिए. इसीलिए अभी अगर उसने आरसीईपी से दूरी बनाने का फ़ैसला किया है, तो ये बिल्कुल सही दिशा में उठाया गया क़दम है. जब तक भारत आरसीईपी में शामिल होने के फायदों और नुक़सान को पूरी तरह से समझ नहीं लेता है. इससे जुड़ी लागत और ख़तरों का बख़ूबी अंदाज़ा नहीं लगा लेता है. इससे जुड़े सामरिक आयामों को गहराई से नहीं समझ लेता है, तब तक भारत को इस क्षेत्रीय व्यापार समझौते से दूर ही रहना चाहिए.

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