Author : Niranjan Sahoo

Published on Oct 07, 2017 Updated 0 Hours ago

हालांकि यह सरकारी खजाने पर बड़ा बोझ होगा, लेकिन समय आ गया है कि भारत में भी राष्ट्रीय चुनाव कोष तैयार किया जाए। चुनावी चंदे की मौजूदा भारतीय व्यवस्था अभी जिस हालत में है और कानून व सांस्थानिक प्रक्रिया के जरिए राजनीति में पारदर्शिता और जवाबदेही लाया जाना अभी जितनी दूर दिखाई दे रहा है, सरकारी कोष के जरिए कम से कम इन जरूरी तत्वों का आधार तो कायम किया जा सकेगा।

राष्ट्रीय चुनाव कोष का विचार कितना उपयुक्त?

अकादमिक जगत और राजनीति में सक्रिय लोगों के सामने 20 सितंबर को एक विशेष संबोधन के दौरान पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एस. कृष्णमूर्ति ने राष्ट्रीय चुनाव कोष (एनईएफ) का विचार पेश किया ताकि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में धन की महिमा कुछ कम हो सके। सरकारी सहायता मॉडल के आलोचक रहे एक व्यक्ति की ओर से जब यह विचार पेश किया जा रहा हो तो उस पर गौर किया जाना लाजमी हो जाता है। एनईएफ का विचार पेश करने वाले कृष्णमूर्ति कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं। यह विचार पहली बार 1989 में पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने रखा था। उन्होंने इसके गठन के लिए जरूरी सुझाव देने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी के नेतृत्व में पहला बहु-दलीय आयोग गठित किया था। इसके बाद 1998 में युनाइटेड फ्रंट सरकार ने इंद्रजीत गुप्ता समिति गठित की, जिसने चुनाव खर्च आंशिक रूप से सरकार की ओर से वहन करने की सिफारिश की। पिछले साल नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुनाव के लिए सरकारी कोष की बहस में दिलचस्पी दिखाई थी।

चुनाव के लिए सरकारी कोष का विचार भारत में नया नहीं है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर नजर रखने वाले अंतरराष्ट्रीय संगटन इंटरनेशनल आइडिया के मुताबिक लगभग 116 लोकतांत्रिक देशों (68%) ने राजनीतिक गतिविधियों के लिए किसी न किसी तरह की सब्सिडी की व्यवस्था की हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका, युनाइटेड किंगडम (यूके), जर्मनी, फिनलैंड और इटली का सरकारी फंडिंग का वर्षों पुराना अनुभव है। एशिया के अंदर ही जापान, दक्षिण कोरिया और इजराएल जैसे बहुत से देश हैं जिन्होंने सरकारी मदद के मॉडल को अपनाया है। हालांकि चुनाव में सरकारी फंडिंग के लिहाज से पहल करने वाले उरुग्वे, अर्जेंटीना और कोस्टा रीका जैसे लैटिन अमेरिकी देश हैं। उरुग्वे ने सरकारी सहायता पहली बार 1920 में शुरू की थी, जिसे बाद में कोस्टा रिका और अर्जेंटीना ने भी अपना लिया। अब सात से ज्यादा लैटिन अमेरिकी देशों में राजकीय मदद दी जाती है।

सरकारी सहायता के पक्ष में अहम तर्क

सरकारी धन उपलब्ध करवाने के पीछे सबसे बड़ा तर्क होता है भ्रष्टाचार पर काबू करने का विचार। इस सिद्धांत के पक्षधरों का कहना है कि चुनाव में राजनीतिक दलों को जो सहायता मिल रही है वह एक तरह से वैध रिश्वत है जिसकी वजह से ये राजनीतिक पार्टियां और नेता स्वतंत्र रह कर काम नहीं कर पाते हैं। [i] इस बात के पक्ष में उनके पास ऐतिहासिक संदर्भ भी हैं। सरकारी धन से चुनाव लड़ने के पक्ष में सबसे बड़ा कारण यह है कि “निजी धन की अहमियत” कम हो और “बड़ी पूंजी का राजनीति में दखल” नहीं हो सके। राजनीतिक प्रक्रिया में एक-दूसरे को फायदा पहुंचाने के इस खेल को खत्म करने में सरकारी सहायता की व्यवस्था मददगार साबित हो सकती है। भ्रष्टाचार को रोकने, राजनीति में विविधता को बढ़ावा देने और आम लोगों की बजाय सिर्फ अपने दान दाताओं के हित की सोचने के राजनीतिक दलों के रवैये पर अंकुश लगाने के लिहाज से सरकारी फंडिंग ना सिर्फ एक प्रतिबंधात्मक बल्कि सकारात्मक कदम भी है।

सरकारी सहायता के मौजूदा विचार की जड़ें मूल रूप से जॉन राल्स और डोनाल्ड डोरकिन की ओर से पेश किए गए दार्शनिक सिद्धांत में देखी जा सकती हैं। उनके लिए सरकारी फंडिंग से “समतामूलक प्रभाव” स्थापित करने में मदद मिलती है। यह ऐसा प्रयास है जो यह सुनिश्चित करता है कि चुनावी प्रक्रिया पर कुछ खास ताकतवर लोगों और समूहों का ही प्रभाव नहीं हो। यह विचार रखने वाले लोगों का कहना है कि राजनीतिक समानता “समान राजनीतिक प्रभाव” के सिद्धांत पर निर्भर करती है। यानी राजनीतिक प्रक्रिया पर किसी एक नागरिक का दूसरे नागरिक के मुकाबले ज्यादा प्रभाव नहीं होगा। दूसरे शब्दों में सरकारी फंडिंग को समानता के लिए जरूरी मानने वाले इस विचार पर चलते हैं कि अगर राजनीतिक शक्तियों को मनमानी करने दिया गया तो वे आर्थिक शक्ति को राजनीतिक शक्ति में बदल देंगे और राजनीतिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करेंगे।


सरकारी सहायता के मौजूदा विचार की जड़ें मूल रूप से जॉन राल्स और डोनाल्ड डोरकिन की ओर से पेश किए गए दार्शनिक पहलू में देखी जा सकती हैं। उनका मानना है कि सरकारी फंडिंग से “समतामूलक प्रभाव” स्थापित करने में मदद मिलती है। यह ऐसा प्रयास है जो यह सुनिश्चित करता है कि चुनावी प्रक्रिया पर कुछ खास ताकतवर लोगों और समूहों का ही प्रभाव नहीं हो।


निष्कर्ष के तौर पर सरकारी फंडिंग को ले कर ऊपर के दार्शनिक विचार में तीन मुख्य मान्यताएं उभर कर सामने आती हैं:

पहली, यह कि भ्रष्टाचार विरोधी मत रखने वाले और “बड़ी पूंजी को राजनीति से दूर रखने” की बात करने वाले चाहते हैं कि राज्य राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के सामने आने वाली चुनावी खर्च की चुनौती का ध्यान रखने के लिए जरूरी कदम उठाए।

दूसरी, सरकारी फंड “प्रभाव की साम्यता” और प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है (जिससे कम संसाधन और बहुतायत संसाधन वाले दलों व उम्मीदवारों के लिए बराबरी का मैदान तैयार हो सके )।

तीसरी , मान्यता के तहत जोरदार लोक अभिरुचि का तर्क कहता है कि चुनावों के लिए सरकारी कोष उपलब्ध होना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र और सार्वजनिक हित के अनुकूल है।

दावे बनाम सबूत

सरकारी सहायता के पक्ष में आने वाले दावों के मुकाबले इस संबंध में उपलब्ध साक्ष्यों की पड़ताल करना भी जरूरी है। अंतरराष्ट्रीय अनुभवों से जो साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, वे सरकारी फंडिंग के प्रभाव को ले कर संदेह भी पैदा करते हैं। चुनाव खर्च को घटाने और निजी पूंजी की भूमिका को सीमित करने के मुख्य लक्ष्य को ले कर अंतरराष्ट्रीय अनुभव से जो अहम बिंदु हमारे सामने आते हैं, वे इस लिहाज से बहुत खुशनुमा तस्वीर नहीं खींचते। उदाहरण के तौर पर, इटली, इजराएल और फिनलैंड जैसे देश जिन्होंने पिछले दशकों में सार्वजनिक कोष शुरू किया वहां चुनाव खर्च में कोई बड़ी कटौती होती नहीं दिखी है। इसी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका के मामले में खर्च लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ओबामा के काल में दुनिया ने दो सबसे महंगे राष्ट्रपति चुनाव होते हुए देखे हैं। सिर्फ जर्मनी और जापान ही ऐसे देश हैं, जिन्होंने इस तरीके से अपने यहां चुनाव खर्च में महत्वपूर्ण कटौती करने में कामयाबी हासिल की है। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए यह कामयाबी इन देशों को पारदर्शिता और स्वघोषणा संबंधी सख्त नियमों की वजह से मिली। साथ ही इसमें पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्च पर नजर रखने के लिए व्यापक नियामक तंत्र और सार्वजनिक निगरानी ने भी बड़ी भूमिका निभाई है।

इसी तरह पार्टियों के वित्तीय संसाधन और भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिहाज से भी इसके नतीजे बहुत उत्साहजनक नहीं कहे जा सकते। [ii] उदाहरण के तौर पर इजराएल और अमेरिका के मामले में जैसा कि ऊपर भी बताया गया है, सरकारी सहायता से बड़े निजी चंदे की अहमियत कम नहीं हुई है। इसी तरह कई लैटिन अमेरिकी देशों, खास कर ब्राजील, अर्जेंटीना, कोलंबिया, एक्वाडोर और कोस्टा रिका, में सरकारी सहायता राजनीतिक खर्च में बड़े व्यापार की भूमिका को सीमित करने में अप्रभावी साबित हुई है। इन देशों में सरकारी सब्सिडी निजी चंदे की जरूरत को समाप्त करने में तो नाकाम हुई ही है, राजनीतिक दलों के लिए उल्टा आय का एक अतिरिक्त साधन हो गई है।

हालांकि कुछ सफल उदाहरण भी हैं। जैसे कि कनाडा, जिसने सरकारी मदद को एक व्यापक सुधार का हिस्सा बनाया। इन सुधार में चुनाव खर्च पर सीमा लगाना और छोटे चंदे पर कर छूट जैसे उपाय शामिल हैं। इससे पार्टियों के वित्तीय संचालन में बड़ी कारपोरेट कंपनियों की भूमिका कम हो गई है। स्वीडन में उदार सरकारी सहायता जो निजी चंदे से काफी अधिक है और पार्टियों के मामले में सरकार की न्यूनतम दखलंदाजी की वजह से पार्टियों की गुमनाम चंदा हासिल करने की प्रवृत्ति घटी है। दोनों ही मामलों में, यह समझना जरूरी है कि सिर्फ सरकारी सहायता उपलब्ध करवा देने भर से ही यह नतीजे हासिल नहीं हुए है, बल्कि इसके साथ ही दूसरे कारण भी शामिल रहे हैं।

क्या सरकारी फंडिंग से नए लोगों को चुनावी मैदान में आने में मदद मिली है और क्या इससे प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है। इस संबंध में स्पष्ट नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है। अंतरराष्ट्रीय अनुभव यही बताते हैं कि सरकारी फंडिंग का इस लिहाज से कितना फायदा मिला यह इस पर निर्भर करता है कि इस मदद को बांटा कैसे गया। रूस जैसे देश में तो यह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को दबाने और अधिनायकवाद को बढ़ावा देने के लिए ही उपयोग की गई है। रूस का 2001 का सार्वजनिक कोष संबंधी कानून ऐसी स्थिति की ओर ले गया है जहां सत्तारुढ़ दल को चुनौती देना लगभग असंभव हो गया है। [iii] इससे एक केंद्रीय पार्टी तैयार हो गई है। हालांकि कनाडा और फिनलैंड जैसे कुछ अन्य देशों में नतीजे कुछ हद तक सकारात्मक हैं। इन देशों में जहां पार्टियों के प्रसार को रोकने के लिए सरकारी फंडिंग को शुरू किया गया था, वहां कई नई पार्टियां सामने आई हैं। कुछ मामलों में, खास कर इजराए, इटली और मैक्सिको में सरकारी सब्सिडी ने नई पार्टियों के पदार्पण को मुमकिन बना कर और छोटी पार्टियों के लिए धन उपलब्ध करवा कर ज्यादा मुकाबला पैदा किया है। [iv]


क्या सरकारी फंडिंग से चुनावी मैदान में नए खिलाड़ियों के आने को बढ़ावा मिला है और स्वस्थ मुकाबला बढ़ा है? इस पर कोई स्पष्ट नतीजा नहीं सुनाया जा सकता। अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि सरकारी मदद का लाभ कितना मिलेगा, यह इस पर निर्भर करता है कि इसे लागू कैसे किया गया है।


खास कर उन पार्टियों के लिहाज से कुछ अनूठे अनुभव भी देखने को मिले हैं, जिनकी एक खास तरह की विचारधारा है जैसे कि साम्यवादी रुझान वाली या वामपंथी पार्टियां। यह सभी जानते हैं कि ऐसी पार्टियों को दक्षिणपंथी पार्टियों के मुकाबले अपने संसाधन जुटाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है, क्योंकि बड़े निजी फंड आम तौर पर दक्षिणपंथी पार्टियों के लिए ही आसानी से उपलब्ध होते हैं। इस वजह से कुछ मामलों में सार्वजनिक कोष का फायद इन खास तरह की पार्टियों को मिल रहा है, जैसा कि उरुग्वे में देखा जा सकता है।

भारत के लिए सबक

भारतीय नीति निर्माताओं के लिहाज से देखें तो कामयाब उदाहरणों पर गौर करना हमारे लिए ज्यादा मायने रखेगा। कनाडा, स्वीडन और कुछ हद तक जापान की कामयाबी की कहानी यह बताती है कि प्रभावी सार्वजनिक कोष व्यवस्था में दो महत्वपूर्ण पहलू होते हैं: कारपोरेट या निजी धन पर निर्भरता घटती है (खर्च सीमा पर सख्ती, कड़े नियम और पारदर्शिता आदि की मदद से) और सरकारी फंडिंग या कर मुक्त चंदा, कर्ज और मैचिंग फंड जैसे दूसरे तरीकों को अपना कर चुनाव में सफेद धन के उपयोग को बढ़ाया जाता है। इसके बावजूद यह ध्यान रखना होगा कि जैसा कि कनाडा में देखा गया, इसकी कामयाबी काफी हद तक कड़ी पारदर्शिता और स्वघोषणा आदि संबंधी नियमों, व्यापक नियामक तंत्र और पार्टियों व उम्मीदवारों के खर्च पर जनता की कड़ी निगरानी पर निर्भर करती है।

इस लिहाज से भारत में प्रचार के लिए धन उपलब्ध करवाने के मौजूदा कानून और सांस्थानिक प्रक्रिया उन जरूरी स्थितियों से मीलों दूर हैं जो सार्वजनिक कोष के लिए जरूरी होती है। भारत में राजनीतिक धन उपलब्ध करवाने की मौजूदा व्यवस्था और उस पर से पारदर्शिता व घोषणा संबंधी नियमों का अभाव, मजबूत प्रभावी नियामक एजेंसी की कमी इसे सार्वजनिक कोष की व्यवस्था के प्रतिकूल बनाती है। इसके बावजूद यही वह कारण हैं जिसकी वजह से भारत में राजनीति के लिए सार्वजनिक कोष के प्रारूप को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। सार्वजनिक कोष लागू करने वाले लगभग सभी देशों में यह व्यवस्था लागू करने से पहले नियामक व्यवस्था और पारदर्शिता की घोषणा को सख्ती से लागू किया गया है साथ ही बहुत से मामलों में मौजूदा निर्वाचन आयोगों को ही और मजबूती प्रदान की गई है ताकि वह इनका उल्लंघन करने वालों पर सख्त कार्रवाई कर सके। भारत में नई योजना लागू करने से चुनावी धन उपलब्ध करवाने की अविकसित और अव्यवस्थित संरचना को बेहतर करने क्स साथ ही नियामक इकाई को भी कसने में मदद मिल सकती है। [v]

दूसरा लाभ यह है कि सभी को एक समान कोष उपलब्ध करवा कर सार्वजनिक कोष छोटे और नए राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। विभिन्न कारणों से भारत में विभिन्न आधार पर गठित हुए राजनीतिक दलों का काफी विकास हुआ है। लेकिन धन के अभाव में इनमें से बहुत से अपना प्रचार नहीं कर पाते। ऐसे में सार्वजनिक कोष और खास कर अगर वह उम्मीदवार के जरिए जारी होता हो, राजनेताओं में स्वस्थ मुकाबले को बढ़ावा देने में काफी उपयोगी हो सकता है और दलों के आंतरिक लोकतंत्र को भी मजबूत कर सकता है। सरकारी फंडिंग को अगर सही तरीके से लागू किया जाए तो इसके बाद पार्टियों की छोटी इकाइयां लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग कर सकती हैं। इससे कुछ खास लोगों के हाथ में सारी शक्ति सीमित हो जाने की समस्या का समाधान भी हो सकता है, जिसकी वजह से कुछ खास घरानों का ही राजनीति पर कब्जा रहता है। सबसे अहम बात है कि अगर राजनीतिक फंडिंग को सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो सरकार पार्टियों को ये सभी बिंदु लागू करने पर बाध्य कर सकती हैं।


संदर्भ

[i] Bradley A. Smith, The Sirens’ Song: Campaign Finance Regulation and the First Amendment, 6 J.L. & POL’Y 1, 6 (1997).

[ii] According to well-known campaign finance expert Michael Pinto-Duschinsky, “there is ample evidence from around the world that public funding is not an effective cure for corruption.” See Marcin Walecki et al., “Public Funding Solutions for Political Parties in Muslim-Majority Societies”, IFES and USIP (2009).

[iii] Grigorii E. Golosov, “Russia” in Checkbook Elections: Political Finance in Comparative Perspective, ed. Pippa Norris, Andrea Abel van Es and Lisa Fennis, 2014.

[iv] Kevin Casas-Zamora, “Political Finance and State Funding Systems: An Overview,” International Foundation for Electoral Systems, Washington, 2008.

[v] For a detailed analysis, see Niranjan Sahoo and Rajendran Nair, Lessons from Global Experiences: Can India learn from Others? Common Cause, Jan-March 2017, http://www.commoncause.in/publication_details.php?id=507

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