वित्त वर्ष 2017-18 की दूसरी तिमाही में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वृद्धि दर का 5.3 प्रतिशत से बढ़कर 6.3 प्रतिशत हो जाना खुशी से फूले न समाने जैसा है क्योंकि इससे यह तो साबित हो ही जाता है कि आर्थिक विकास दर और नीचे नहीं चली गई है। चाहे कोई भी सरकार हो, जीडीपी वृद्धि दर से जुड़े आंकड़ों पर उसकी निगाहें हमेशा ही जमी रहती हैं। एनडीए सरकार इस मामले में कोई अपवाद नहीं है। हालांकि, जीडीपी में मामूली वृद्धि से यह निश्चित तौर पर नहीं पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था में सब कुछ अच्छा ही है। दरअसल, अब भी कुछ ऐसी जटिल ढांचागत समस्याएं हैं जिन्हें जड़ से खत्म करने की जरूरत है, तभी जाकर जीडीपी वृद्धि दर में बेहतरी के जरिए लोगों का कहीं ज्यादा कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है। वैसे तो विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर बेहतर होकर 7 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई है और इसके साथ ही यह आंकड़ा निर्यात में वृद्धि के लिहाज से भी आकर्षक है (हालांकि, संयोगवश अक्टूबर 2017 के दौरान इसमें 1.12 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई), लेकिन कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर सुस्त होकर 1.7 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है जिससे यही स्पष्ट संकेत मिलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। कृषि क्षेत्र में सुस्ती के लिए कमजोर मानसून को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, लेकिन वास्तविक कारण काफी गहराई में समा चुका है जिसका निदान ढूंढ़ने की सख्त जरूरत है।
अब भी कुछ ऐसी जटिल ढांचागत समस्याएं हैं जिन्हें जड़ से खत्म करने की जरूरत है, तभी जाकर जीडीपी वृद्धि दर में बेहतरी के जरिए लोगों का कहीं ज्यादा कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा था कि अगले बजट, जो आम चुनाव से पहले अंतिम बजट होगा, में फोकस बुनियादी ढांचागत क्षेत्र और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर रहेगा। कृषि क्षेत्र की निम्न वृद्धि दर से जूझ रही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हाल आने वाले समय में भी किसानों पर ऋण बोझ को कम करने के मामले में बेहाल ही रहने का अंदेशा है। इतना ही नहीं, इसका प्रतिकूल असर अगली तिमाही में निर्मित उत्पादों के लिए उपभोक्ता मांग पर भी पड़ेगा। इससे यह साफ जाहिर है कि ऋण माफी ग्रामीण क्षेत्र के लिए रामबाण साबित नहीं हुई है और फसल बीमा, किसानों को पर्याप्त रिटर्न देने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्यों, सिंचाई, भंडारण एवं ऊंची ढुलाई लागत, इत्यादि से जुड़े मसलों को सुलझाना अभी बाकी है।
चिंता का एक अन्य कारण यह है कि नया निवेश तेज रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा है और सकल पूंजी निर्माण जीडीपी के 27 फीसदी से घटकर 26.4 फीसदी के स्तर पर आ गया है। इससे और भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे जेहन में उभर रहे हैं: ऐसा आखिरकार क्यों है कि उद्योग जगत ऐसे समय में बैंकों से उधार नहीं ले रहा है जब बैंकों के पास तरलता (लिक्विडिटी) की कोई कमी नहीं है? यह एक ऐसी समस्या है जिसके दो पहलू हैं – बैलेंस शीट से जुड़ी स्वयं की समस्याओं के कारण बैंक फिलहाल ऋण देने में आनाकानी कर रहे हैं। यही नहीं, सरकार द्वारा हाल ही में बैंकों को नई पूंजी मुहैया कराने के बावजूद उनकी बैलेंस शीट अब तक पूरी तरह से दुरुस्त नहीं हो पाई हैं। वहीं, दूसरी ओर निवेशक ऐसे समय में बैंकों से ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेने को इच्छुक नहीं हैं, जब निवेश पर रिटर्न आकर्षक नहीं है। बाह्य मांग अब भी कमजोर है। हालांकि, वैश्विक व्यापार और निवेश में सकारात्मक वृद्धि हुई है। स्वयं भारतीय फिलहाल नोटबंदी (विमुद्रीकरण) और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के कारण लगे दोहरे झटकों से उबर रहे हैं, जिनके कारण छोटे एवं मध्यम औद्योगिक क्षेत्र में व्यवधान पैदा हुआ। विनिर्माण क्षेत्र के विकास में दर्ज की गई वृद्धि इस व्यवधान को प्रतिबिंबित नहीं करती है क्योंकि इसमें बड़े कारखानों में होने वाले उत्पादन को ध्यान में रखा जाता है।
पिछले कुछ सालों से अर्थव्यवस्था उपभोक्ता मांग की बदौलत आगे बढ़ती रही है, जिसने अब अपनी गति खो दी है। यही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र का व्यय भी पहले की तुलना में अब बहुत कम हो गया है। उपभोक्ता मांग कई कारकों (फैक्टर) से प्रभावित हुई है जिनमें आमदनी के भावी प्रवाह के बारे में बढ़ती असुरक्षा से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यय में खासी वृद्धि तक शामिल हैं। मांग में कमी के चलते विनिर्माण इकाइयों का क्षमता उपयोग पूंजीगत सामान में नए निवेश को नई गति प्रदान करने के लिहाज से पर्याप्त नहीं रह गया है। पिछले कुछ वर्षों से विशेषकर महत्वपूर्ण विनिर्माण क्षेत्रों जैसे कि बिजली, ऑटोमोबाइल और सीमेंट क्षेत्रों में क्षमता उपयोग का स्तर निरंतर घटता जा रहा है। यह स्थिति खासकर ऐसे समय में उद्योगपतियों को नए निवेश करने से रोक रही है, जब उन पर उधारी का बोझ पहले से ही काफी ज्यादा हो चुका है और कई कंपनियां तो ऐसी हैं जो अपने विभिन्न ऋणों पर देय ब्याज का भुगतान तक नहीं कर पा रही हैं। नए निवेश में, हालांकि, 4.7 प्रतिशत की थोड़ी वृद्धि हुई है जो पहली तिमाही में दर्ज की गई 1.6 प्रतिशत की निराशाजनक बढ़ोतरी की तुलना में अधिक है।
नया निवेश तेज रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा है और सकल पूंजी निर्माण जीडीपी के 27 फीसदी से घटकर 26.4 फीसदी के स्तर पर आ गया है।
इसके परिणामस्वरूप वर्ष 2017 में बहुत कम नौकरियां सृजित हुई हैं। एक स्रोत के अनुसार, ‘बीएसई 500’ सूचकांक में शामिल लगभग 241 कंपनियों में वर्ष 2017 के दौरान रोजगार में शुद्ध वृद्धि केवल 80,000 लोगों की ही हुई है। वर्ष 2016 के दौरान 1,08,000 नौकरियां सृजित हुई थीं। इसके ठीक विपरीत, आज भारत में नौकरी चाहने वालों की संख्या लगभग एक मिलियन प्रति माह है। आज सरकार के सामने मुख्य मुद्दा रोजगार सृजन और कौशल निर्माण है। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि कई नौकरियां उपलब्ध तो हो सकती हैं, लेकिन आवेदक रोजगार पाने के योग्य नजर नहीं आते हैं। निजी और सरकारी दोनों ही पहलों के जरिए कौशल विकास में तेजी लाई जानी चाहिए।
इस बीच, कच्चे तेल की कीमतों में भी वृद्धि का रुख नजर आने लगा है जिससे उद्योग जगत की लागत बढ़ जाएगी और उसका मार्जिन घट जाएगा। इससे पहले पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान कच्चे तेल की कीमतों में दर्ज की गई गिरावट उद्योगों के लिए बोनांजा यानी अप्रत्याशित लाभ साबित हुई थी। इसकी बदौलत विनिर्माण क्षेत्र के विकास को अप्रत्याशित गति हासिल हुई थी।
सरकार सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए बहुत उत्सुक नजर आ रही है, जिससे ‘कारोबार में सुगमता’ सूचकांक में भारत की रैंकिंग और बेहतर हो जाएगी तथा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ जाएगी। इससे रोजगार के अवसर सृजित होंगे। सरकार ने डिजिटलीकरण को बढ़ावा दिया है एवं ‘उदय’ पहल के जरिए विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) में सुधार सुनिश्चित किया है और वह नौकरशाहों की लालफीताशाही में कमी करने को लेकर काफी गंभीर है। सरकार भ्रष्टाचार को कम करने में भी कामयाब रही है। मोदी सरकार को विरासत में ऐसी अर्थव्यवस्था मिली थी जो कई समस्याओं से ग्रस्त थी। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए (फंसे कर्ज) निश्चित रूप से इन समस्याओं में से एक है।
एनपीए के पहाड़ (8 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक) ने कई समस्याओं को जन्म दिया है। इनमें से एक समस्या यह है कि ऋणों का उठाव काफी घट गया है। ऋण वृद्धि दर 7.7 प्रतिशत के निम्न स्तर पर बनी हुई है। नवंबर 2016 से लेकर मार्च 2017 तक की अवधि के दौरान ऋण वृद्धि दर घटकर 4 फीसदी के ऐतिहासिक निम्न स्तर पर आ गई थी। कुल मिलाकर, ऋणों का उठाव इस बात पर निर्भर करेगा कि कितनी तेजी से औद्योगिक विकास पटरी पर आता है, क्षमता उपयोग किस हद तक बेहतर होता है और कितनी तेजी से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की माली हालत दुरुस्त होती है।
ब्याज दरें कम होने पर भी ऋणों की मांग बढ़ जाएगी। हालांकि, आरबीआई द्वारा निकट भविष्य में ब्याज दरों में कटौती किए जाने की संभावना नहीं है क्योंकि वर्ष 2017 के आखिर में राजकोषीय घाटा 96.1 प्रतिशत के आंकड़े को पहले ही छू चुका है। अत: सरकार द्वारा अतिरिक्त उधारियां लेना अपरिहार्य है और ऐसे में महंगाई बढ़ने का अंदेशा है। इसके अलावा, सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल से हुई वेतन वृद्धि के चलते भी महंगाई बढ़ने की आशंका है। अत: भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा आगे भी आक्रामक या कठोर रुख ही अपनाए जाने की संभावना है।
सेवा क्षेत्र नौकरी चाहने वालों के लिए उम्मीद की किरण बन सकता है, लेकिन इसकी वृद्धि दर दूसरी तिमाही में केवल 6.6 फीसदी ही रही, जो पहली तिमाही में दर्ज 8 फीसदी की वृद्धि दर की तुलना में कम है। हालांकि व्यापार, होटल, परिवहन और वित्तीय सेवाओं जैसे क्षेत्रों में वृद्धि दरें अपेक्षाकृत ज्यादा है। पर्यटन, व्यक्तिगत या निजी सेवाएं एवं स्वास्थ्य सेवाएं ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें कम कुशल लोगों को रोजगार दिया जा सकता है। बुनियादी ढांचे के निर्माण में भी बड़ी संख्या में कुशल और अकुशल लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। हालांकि, दूसरी तिमाही में निर्माण उद्योग केवल 2.6 प्रतिशत की दर से ही विकास कर पाया। अगली तिमाही बेहतर हो सकती है, लेकिन सही स्थिति से वाकिफ होने के लिए हमें अभी इंतजार करना पड़ेगा।
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