Published on Nov 07, 2020 Updated 0 Hours ago

पानी की उपलब्धता से जुड़े जोख़िम ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के चलते और पेचीदा होते जा रहे हैं. इससे पानी की किल्लत और बढ़ रही है. आगे चलकर इसी कारण से पानी की क़ीमत में भी उठा-पटक बढ़ने की आशंका है.

ग्लोबल वॉर्मिंग: एशिया के हाइड्रोलॉजिकल भविष्य के लिए ‘पानी’ का फ्यूचर मार्केट

17 सितंबर 2020 को CME ग्रुप और अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंज NASDAQ ने NASDAQ वेल्स कैलिफ़ोर्निया वाटर इंडेक्स फ्यूचर्स की शुरुआत करने की अपनी योजना का ऐलान किया था. पानी के कारोबार के लिए इस फ्यूचर मार्केट की शुरुआत इस साल के अंत तक होने की संभावना है. इसके लिए बस नियामक संस्थाओं की मंज़ूरी का इंतज़ार है. पानी के कारोबार के इस डेरिवेटिव मार्केट का मक़सद कैलिफ़ोर्निया राज्य में इसके कारोबार को बढ़ावा देना है. इसकी वजह ये है कि कैलिफ़ोर्निया में पानी का एक अच्छा बाज़ार है. वर्ष 2019-20 में कैलिफ़ोर्निया में 1.1 अरब डॉलर का पानी के शेयरों का कारोबार होते देखा गया था. अमेरिका के इस पश्चिमी राज्य में पानी की उपलब्धता को लेकर अनिश्चितता बढ़ी है. जिसके चलते अब शेयर बाज़ार में इसका कारोबार करने वाली कंपनियों की लिस्टिंग का ये फ्यूचर्स मार्केट शुरू किया जा रहा है. कैलिफ़ोर्निया में जैसे-जैसे शहरी आबादी बढ़ रही है. खेती में पानी का उपयोग बढ़ रहा है. और फूड इंडस्ट्री में पानी की खपत बढ़ रही है. उद्योगों के विस्तार के साथ पानी की मांग बढ़ रही है, तो वहां पानी की कमी अक्सर महसूस की जा रही है. पानी की उपलब्धता से जुड़े जोख़िम तब और बढ़ जाते हैं, जब हम इसमें ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के समीकरणों को भी जोड़ देते हैं. इससे पानी की किल्लत के चलते उसका मूल्य और बढ़ने की आशंका है. जितनी पानी की मांग होगी, उतनी ही किल्लत होगी और फिर उतना ही उसका दाम बढ़ेगा. पानी पर अधिक रक़म ख़र्च करने के कारण कारोबार में लगी कंपनियों के मुनाफ़े पर भी असर पड़ेगा. इसी कारण से पानी के शेयरों का ये फ्यूचर्स मार्केट, पानी की आपूर्ति और मांग के बीच के संतुलन को बनाने का काम करेगा. दाम में उठा-पटक के जोखिमों को कम करेगा. और इसकी मदद से पानी का वास्तविक मूल्य तय हो सकेगा.

पानी की उपलब्धता से जुड़े जोख़िम तब और बढ़ जाते हैं, जब हम इसमें ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के समीकरणों को भी जोड़ देते हैं. इससे पानी की किल्लत के चलते उसका मूल्य और बढ़ने की आशंका है. जितनी पानी की मांग होगी, उतनी ही किल्लत होगी और फिर उतना ही उसका दाम बढ़ेगा.

जहां तक भारत और पूरे दक्षिण एशिया की बात है, तो यहां जलविज्ञान की स्थिति और भी पेचीदा है. दक्षिण एशिया में बदलते सीज़न और अलग-अलग क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता की स्थिति बदलती रहती है. इसकी वजह ये है कि हमारे यहां पानी की उपलब्धता 80 से 90 प्रतिशत तक, मॉनसून के सीज़न में बारिश पर निर्भर होती है. उस समय दक्षिण एशिया में पानी की उपलब्धता सबसे अधिक होती है. तो गर्मी के महीनों में पानी की सबसे ज़्यादा कमी हो जाती है. भारतीय उपमहाद्वीप के ज़्यादातर रिवर बेसिन, गर्मियों में सूख जाते हैं.  अंग्रेज़ शासकों ने भारतीय उपमहाद्वीप में जल की उपलब्धता का घंटी के आकार के कर्व को समझने की बहुत कोशिश की थी. क्योंकि नदियों में पानी का बहाव, बारिश में बहुत अधिक और गर्मियों में बहुत कम हो जाता है. इसके अलावा, साम्राज्यवादी शासकों ने यूरोप के जलवायु विज्ञान और इंजीनियरिंग के अनुभवों के ज़रिए इस समस्या का जिस तरह समाधान करने का प्रयास किया था, वो सफल नहीं रहा. आज भी, मौसम विज्ञान की भविष्यवाणी और इसका विज्ञान भले ही काफ़ी बेहतर हो गया हो, फिर भी वो इस बात की व्याख्या कर पाने में असफल साबित हुआ है कि हिमालय की गोद में अचानक बादल फटने और बाढ़ आने के पीछे आख़िर क्या कारण होते हैं.

ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन ने इस पेचीदा समस्या को और भी मुश्किल बना दिया है. इसकी एक बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन के कारण नदियों के जल प्रवाह के ऊपर पड़ने वाले असर को लेकर अनिश्चितता है. क्योंकि अंतत: इसी कारक से उपमहाद्वीप में पानी की उपलब्धता तय होती है. अनिश्चितता का ये माहौल न केवल हिमालय और तराई क्षेत्र की नदियों को लेकर है, बल्कि यही बात प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियों के सिस्टम के बारे में भी कही जा सकती है. हालांकि, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में कुछ अनुमानों के आधार पर, हिमालय से निकलने वाली नदियों में पानी की उपलब्धता के बारे में भविष्यवाणी की जा रही है. जैसे कि, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियां. एक और आकलन कहता है कि इन नदियों के ऊपरी हिस्से में जलवायु परिवर्तन के कारण पानी की उपलब्धता और बढ़ जाएगी. लेकिन, इसके साथ ही साथ दक्षिण पश्चिम मॉनसून, जो इस क्षेत्र में पानी उपलब्ध कराने का सबसे बड़ा माध्यम है, उसके बारे में अंदाज़ा ये लगाया जा रहा है कि उसकी आमद और रवानगी में आने वाले समय में बहुत परिवर्तन देखने को मिलेगा. और इससे, हर सीज़न में पानी की उपलब्धता को लेकर अनिश्चितता और भी बढ़ने का डर है. इसका नतीजा ये होगा कि जिन क्षेत्रों में पानी की कमी हो जाती है, वहां हालात और बिगड़ सकते हैं. जिसके कारण पानी के लिए संघर्ष और बढ़ने का डर है. ख़ास तौर से उन इलाक़ों में, जहां अभी भी गर्मियों के दिनों में पानी को लेकर हिंसक संघर्ष देखने को मिलते हैं.

दक्षिण एशिया में बदलते सीज़न और अलग-अलग क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता की स्थिति बदलती रहती है. इसकी वजह ये है कि हमारे यहां पानी की उपलब्धता 80 से 90 प्रतिशत तक, मॉनसून के सीज़न में बारिश पर निर्भर होती है. उस समय दक्षिण एशिया में पानी की उपलब्धता सबसे अधिक होती है. तो गर्मी के महीनों में पानी की सबसे ज़्यादा कमी हो जाती है.

वहीं दूसरी ओर, इस बात के सबूत साफ़ तौर पर देखने को मिल रहे हैं कि भारत में बारिश के पैटर्न में लगातार बदलाव आ रहा है. मेरे अपने पिछले रिसर्च में मैंने जब दक्षिण पश्चिम मॉनसून से होने वाली बारिश के स्टैंडर्ड डेविएशन के दो अलग-अलग दौर की तुलना की थी, तो ये बदलाव बिल्कुल साफ़ तौर पर दिख रहा था. 1950 से 1975 (फेज 1) और 1976-2010 (फेज 2) के बीच भारत के भौगोलिक तौर पर दो अलग-अलग ज़िलों में बारिश के आंकड़ों का अध्ययन करने पर दक्षिण पश्चिम मॉनसून की बारिश में आ रहे बदलाव को बिल्कुल साफ तौर पर देखा गया है. मैंने कर्नाटक के टुमकुर और पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर ज़िलों को इसका आधार बनाया था. टुमकुर में फेज़ 1 से फ़ेज 2 के दौरान बारिश 147 मिलीमीटर से बढ़ कर 171 मिलीमीटर के औसत तक पहुंच गई थी. वहीं इसी दौरान, मेदिनीपुर में फ़ेज़ 1 में 188 मिलीमीटर से फ़ेज़ 2 में बारिश का औसत 220 मिलीमीटर हो गया था. इससे ज़ाहिर है कि फ़ेज़ 2 में बारिश के औसत में बहुत अंतर देखने को मिल रहा है. जबकि फ़ेज़ 1 में ये अंतर बहुत अधिक नहीं था. और बारिश के औसत में इस फ़र्क़ का नतीजा दोनों क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर बारिश की उपलब्धता में उतार चढ़ाव के रूप में दिखा.

जोख़िम कम करने की मौजूदा रणनीतियां

इस तकलीफ़देह हक़ीक़त को देखते हुए, पानी की कमी से निपटने की ज़्यादातर मौजूदा रणनीतियों का ज़ोर, पानी की आपूर्ति बढ़ाने से लेकर, पानी के बहाव पर नियंत्रण स्थापित करने पर रहा है. जैसे कि बारिश के पानी का संचय करना या खेती में पानी के इस्तेमाल को कम करने की अपील करना. शहरों में पानी कम बर्बाद करने के अभियान चलाना. पानी की आपूर्ति बढ़ाने की रणनीति अमल में लाने का ख़र्च बहुत अधिक आता है. इसके दूरगामी सामाजिक और पारिस्थितिकी संबंधी प्रभाव भी बहुत अधिक होते हैं. बहुत सूक्ष्म स्तर पर पानी की आपूर्ति बढ़ाने की योजनाएं, जल संबंधी बड़े स्तर की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती हैं. ख़ास तौर से लंबी दूरी वाली योजनाएं, तो ज़मीनी चुनौतियों से पार नहीं पा पाती हैं. इसका अर्थ ये है कि पानी की आपूर्ति बढ़ाने पर ज़ोर देने वाली रणनीति से बहुत कम अवधि के लिए ही समाधान निकल सकते हैं. ऐसी योजनाएं दक्षिण एशिया के सूखे इलाक़ों पर प्रभावी समाधान दे पाने में अक्षम हैं. ख़ास तौर से जहां जहां बारिश बहुत कम होती है.

वैसे तो ये बात सही है कि लंबी अवधि के लिए पानी की समस्याओं का समाधान करने के लिए पानी की मांग संबंधी प्रबंधन भी एक विकल्प है. लेकिन, अगर हम जल की मांग संबंधी चुनौती के समाधान के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाएं तो इससे हम उन क्षेत्रों के लिए भी समाधान खोज सकते हैं, जहां पानी की कमी के चलते नुक़सान होता है. लेकिन, अभी हम पानी की कमी से निपटने के लिए जिन रणनीतियों पर अमल कर रहे हैं, उनमें से किसी में भी ऐसे समग्र दृष्टिकोण का अभाव है. जहां तक मौसम संबंधी डेरिवेटिव्स या शेयरों का हाल है, तो बाज़ार में वो बहुत अधिक पैठ बना पाने में असफल रहे हैं. वहीं फ़सल बीमा की सुविधा के दायरे में केवल किसान समुदाय आता है. इससे शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों को कोई लाभ नहीं होता.

अभी हम पानी की कमी से निपटने के लिए जिन रणनीतियों पर अमल कर रहे हैं, उनमें से किसी में भी ऐसे समग्र दृष्टिकोण का अभाव है. जहां तक मौसम संबंधी डेरिवेटिव्स या शेयरों का हाल है, तो बाज़ार में वो बहुत अधिक पैठ बना पाने में असफल रहे हैं.

वैसे, जहां तक पानी से संबंधित शेयरों के कारोबार की बात है, तो ये दक्षिण एशिया के लिए कोई नई बात नहीं है. ऐसे बहुत से दस्तावेज़ उपलब्ध हैं, जो ये इशारा करते हैं कि दक्षिण एशिया के कई इलाक़ों में पानी की फॉरवर्ड ट्रेडिंग होती रही है. लेकिन, दिक़्क़त इस बात की है कि इस फॉरवर्ड ट्रेडिंग के हर सौदे के मानक अलग होते हैं. फ्यूचर ट्रेडिंग में अलग-अलग मानकों वाले सौदों से काम नहीं चल सकता. उसके लिए मानक एक जैसे होने चाहिए. पानी की फ्यूचर ट्रेडिंग के मामले में दक्षिण एशिया, अमेरिका से सीख सकता है. यहां पर भी अमेरिका की तरह वाटर इंडेक्स फ्यूचर यानी पानी संबंधी शेयरों के कारोबार के लिए अलग शेयर बाज़ार की शुरुआत होनी चाहिए. 

वाटर इंडेक्स फ्यूचर्स के फ़ायदे 

ऐसा नहीं है कि पानी के जोख़िम के चलते सिर्फ़ कृषि क्षेत्र पर ही फ़सलें बर्बाद होने का ख़तरा मंडराता हो. बल्कि, खेती की पूरी आपूर्ति श्रृंखला में जितनी भी कड़ियां हैं और वैल्यू चेन से जुड़े सभी फाइनेंसर्स भी पानी की किल्लत से प्रभावित होते हैं. वे भी कृषि क्षेत्र के बुरे असर को झेलते हैं. इनमें खेती से जुड़े हुए उद्योग, मार्केटिंग करने वाले, प्रॉसेसिंग करने वाले, निवेशक, वित्तीय बाज़ार के भागीदार और बैंक शामिल हैं. दिलचस्प बात ये है कि ये सभी कृषि क्षेत्र में पानी के इस्तेमाल से सीधे तौर पर संबंधित नहीं हैं. न ही इनकी ये ख़्वाहिश है कि वो सीधे तौर पर पानी हासिल करना चाहें या फिर पानी संबंधी जोख़िम कम करने की कोशिश करें. लेकिन,  खेती करने वालों को जो बैंक क़र्ज़ देते हैं, वो इस बात का रिस्क लेते हैं कि अगर मॉनसून नाकाम रहा, या बारिश कम हुई और फ़सल बर्बाद हो गई, तो उनके लोन को बैड लोन के दर्जे में डाल दिया जाएगा. बैंकों की ये समस्या तब और बढ़ जाती है, जब दक्षिण एशियाई देशों में किसानों के हितों के संरक्षण के नाम पर सरकारें उनके क़र्ज़ माफ़ करने की योजनाएं लागू करती हैं. वहीं, दूसरी तरफ़ खेती के उत्पादों की प्रॉसेसिंग करने वाली इकाइयों को भी पानी की कमी का जोख़िम उठाना पड़ता है. क्योंकि फ़सल तबाह होने पर उन इकाइयों के कच्चा माल ख़रीदने में दिक़्क़त आती है. फिर, सवाल खड़ा होता है कि कच्चा माल नहीं है, तो प्रॉसेसिंग किस बात की होगी? यहां ये बात ध्यान देने वाली है कि पानी की कमी का जोख़िम केवल कृषि क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है. इसका बुरा प्रभाव, नगर निगम और स्थानीय निकाय, जल बोर्ड, निजी कंपनियां, बोतलबंद पानी का कारोबार करने वाली कंपनियां, सॉफ्ट ड्रिंक्स बनाने वाली कंपनियां और शराब बनाने वाले उद्योगों वग़ैरह पर भी पड़ता है. इनमें से कई उद्योगों के लिए पानी की किल्लत का मतलब कच्चे माल की आपूर्ति का जोख़िम होता है. इसमें कोई शक नहीं कि दक्षिण एशिया में इन सभी उद्योगों के लिए, पानी के कारोबार पर दांव लगाने के लिए अलग तरह की संस्था की ज़रूरत है. ऐसे किसी भी संस्थान के माध्यम से पानी की आपूर्ति करना तो संभव नहीं हो पाएगा. लेकिन, इसकी मदद से उन लोगों की मदद की जा सकेगी, जिन तक पानी पहुंचाया जाना संभव नहीं हो पाता.

खेती की पूरी आपूर्ति श्रृंखला में जितनी भी कड़ियां हैं और वैल्यू चेन से जुड़े सभी फाइनेंसर्स भी पानी की किल्लत से प्रभावित होते हैं. वे भी कृषि क्षेत्र के बुरे असर को झेलते हैं. इनमें खेती से जुड़े हुए उद्योग, मार्केटिंग करने वाले, प्रॉसेसिंग करने वाले, निवेशक, वित्तीय बाज़ार के भागीदार और बैंक शामिल हैं.

अगर पानी के लिए कोई फ्यूचर मार्केट शुरू किया जाता है, तो ये कमी दूर की जा सकती है. इस बाज़ार में पानी की फ्यूचर ट्रेडिंग सूचकांक के आधार पर की जा सकती है. ऐसे ठेकों के सौदे नक़द लेन-देन पर आधारित होने चाहिए, न कि पानी की वास्तविक आपूर्ति के ज़रिए की जाए. और इसके लिए जल्द से जल्द पानी की उपलब्धता के एक सूचकांक (Water availability index WAI) को विकसित किए जाने की ज़रूरत है. इसके दो कारण हैं. पहली बात तो ये है कि पानी की सीधे तौर पर आपूर्ति करने की लागत बहुत अधिक है. तो सीधे तौर पर पानी के लेन देन में ज़्यादा लोगों की भागीदारी बढ़ा पाना मुश्किल है. दूसरी बात ये है कि पानी के लेन देन और कारोबार पर दांव लगाने के वाजिब तौर पर इच्छुक लोगों की चिंता इस बात को लेकर अधिक होती है कि अगर पानी की किल्लत हुई, तो उसके घाटे की भरपाई कैसे हो सकेगी. उनकी चिंता पानी की किल्लत दूर करने की नहीं होती.

इसके अलावा दक्षिण एशिया में पानी के फ्यूचर मार्केट के शेयर बाज़ार में कई देशों के कारोबारियों को ख़रीद फ़रोख़्त की छूट मिलनी चाहिए. और ये फ्यूचर ट्रेडिंग इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम पर आधारित होनी चाहिए. ऐसा इसलिए, क्योंकि दक्षिण एशिया की बहुत सी नदियां राष्ट्रों की सरहदों के आर-पार बहती हैं. जबकि पानी की किल्लत को लेकर दो राज्यों या दो क्षेत्रों के बीच संघर्ष होते रहे हैं. ऐसा होने की सूरत में अलग-अलग नदियों के पानी को लेकर शेयरों की ख़रीद और बिक्री की व्यवस्था विकसित की जा सकती है. जिससे कि उस नदी के प्रवाह क्षेत्र से जुड़े लोग अपनी सहूलत के हिसाब से पानी की फ्यूचर ट्रेडिंग कर सकें.

अगर पानी के लिए कोई फ्यूचर मार्केट शुरू किया जाता है, तो ये कमी दूर की जा सकती है. इस बाज़ार में पानी की फ्यूचर ट्रेडिंग सूचकांक के आधार पर की जा सकती है. ऐसे ठेकों के सौदे नक़द लेन-देन पर आधारित होने चाहिए, न कि पानी की वास्तविक आपूर्ति के ज़रिए की जाए. और इसके लिए जल्द से जल्द पानी की उपलब्धता के एक सूचकांक (Water availability index WAI) को विकसित किए जाने की ज़रूरत है.

पानी के ऐसे फ्यूचर मार्केट के कई फ़ायदे हो सकते हैं. पहले तो ये पानी की उपलब्धता के आधार पर उसका दाम तय करेंगे. और इससे पानी की बर्बादी रोकी जा सकेगी. दूसरी बात ये कि फ्यूचर ट्रेडिंग से बाज़ार की ताक़तें ख़ुद पानी की किल्लत से होने वाले नुक़सान का आकलन करेंगी. भविष्य में उस पानी की उपलब्धता के आधार पर उसकी क़ीमत तय होगी. भविष्य में कितना पानी मिल पाएगा या उसका कितना भंडारण होगा, इस आधार पर शेयरों के दाम तय होगा. तीसरा फ़ायदा ये होगा कि फ्यूचर्स मार्केट या इसके आधार पर तय बाज़ार के उत्पादों से सिंचित इलाक़ों और बारिश के भरोसे रहने वाले इलाक़ों में जोख़िम के अनुपात में फ़सल बीमा की व्यवस्था हो सकेगी. पानी के फ्यूचर्स मार्केट से चौथा लाभ ये होगा कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में पानी के सदुपयोग की व्यवस्था में निवेश करने में बैंकों और दूसरे निवेशकों की दिलचस्पी बढ़ेगी. क्योंकि, इस निवेश के कारण उन्हें जो जोख़िम उठाना पड़ेगा, उसके बदले में वो पानी के फ्यूचर्स मार्केट में निवेश करने वालों को क़र्ज़ देकर या ख़ुद सीधे निवेश करके अपना जोख़िम कम कर सकेंगे. पांचवां फ़ायदा ये होगा कि पानी के शेयर में दांव लगाने की इस व्यवस्था से पानी की किल्लत के कारण होने वाले झगड़ों और दूसरे संघर्षों की सामाजिक तौर पर जो क़ीमत चुकानी पड़ती है, उससे अलग-अलग स्तर पर निपटा जा सकेगा. 

निष्कर्ष

इस लेख में हमने दक्षिण एशिया के लिए जिस पानी के फ्यूचर्स मार्केट की परिकल्पना पेश की है, वो शायद अभी बहुत दूर की कौड़ी है. लेकिन, भविष्य की ज़रूरत यही है. हमें पानी को लेकर अनिश्चितता भरे भविष्य की चुनौती से निपटने के लिए नए तरीक़ों और नए विचारों की ज़रूरत है. इसके लिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है. इसके अलावा दक्षिण एशियाई देशों को भी अपने राजनीतिक मतभेद भुलाने होंगे, जिससे वो इस चुनौती से मिलकर निपट सकें. इसकी शुरुआत पानी संबंधी सभी जानकारियों को सार्वजनिक मंच पर उपलब्ध कराने से होनी चाहिए. पानी संबंधी आंकड़ों को गोपनीय रखने की मौजूदा व्यवस्था से हमें बाहर निकलने की ज़रूरत है. मौसम और पानी संबंधी सटीक भविष्यवाणी के लिए हमें इससे संबंधित आंकड़ों के और बेहतर विश्लेषण और इन्हें जुटाने के लिए नए तौर तरीक़ों को विकसित करने की ज़रूरत है. दक्षिण एशिया में पानी के फ्यूचर्स मार्केट के विकास के लिए ये शर्तें बुनियादी तौर पर पूरी करनी ही होंगी. तभी हम पानी की उपलब्धता को लेकर अपने अनिश्चित भविष्य की चुनौती से पार पा सकेंगे.

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