Published on Oct 06, 2020 Updated 0 Hours ago

चीन के साथ भारत के संबंधों में जहां तनाव का बोलबाला है वहीं अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत के बाज़ार में मौक़ा बन गया है.

क्या वैश्विक तकनीकी शीत युद्ध में भारत को नुक़सान उठाना पड़ेगा?

अमेरिकी तकनीक आकर्षित करने के क़दम को तरजीह मिलनी चाहिए. लेकिन इसके बावजूद अमेरिका-चीन तकनीकी युद्ध की वजह से भारत पर पड़ने वाले असर की अनदेखी नहीं करनी चाहिए.

चीन-अमेरिका संबंधों में बढ़ते तनाव के बीच इस भू-राजनीतिक संघर्ष के केंद्र में भारत की स्थिति लगातार बदलती जा रही है. तिब्बत के पठार में 3,488 किमी लंबी विवादित सीमा में कई जगहों पर भारत और चीन की सेना तनावपूर्ण गतिरोध में उलझी हुई है. इस हालत में हांग कांग और दक्षिणी चीन सागर में अपना दबदबा कायम करने के बाद चीन का ज़िद्दी रवैया लगातार बढ़ रहा है. वहीं भारत की सामरिक चुनौतियां लगातार बढ़ रही हैं. चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) की तर्ज़ पर चीन और ईरान के बीच नई सुरक्षा और आर्थिक संधि से चीन के द्वारा भारत की पूरी तरह घेरेबंदी का ख़तरा है क्योंकि पाकिस्तान और ईरान दोनों देश चीन के दूर-दराज़ के प्रांत में तब्दील हो गए हैं. इसकी वजह से भारत पर ये दबाव बढ़ता जा रहा है कि वो इस घेरेबंदी से बाहर आने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ और नज़दीकी तौर पर जुड़ जाए.

वैसे तो अमेरिकी प्रशासन ने हमेशा से भारत को चीन के भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदी के तौर पर देखा है लेकिन कोरोना वायरस महामारी के दौर में परमाणु हथियार से संपन्न पड़ोसियों के बीच बढ़ते तनाव की वजह से अमेरिका के साथ भारत का सहयोग वास्तव में और गहरा हुआ है. चीन विरोधी भावना बढ़ने की वजह से भारत को अमेरिका के और नज़दीक आना पड़ा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने न सिर्फ़ भारत को G7 बैठक में शामिल होने का न्योता दिया बल्कि ट्रंप प्रशासन और नरेंद्र मोदी की सरकार ने विदेश और रक्षा मंत्रियों की सालाना बातचीत शुरू की है, जापान के साथ अपने त्रिपक्षीय संबंधों को बढ़ावा दिया है और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चार देशों की बातचीत को फिर से शुरू किया है.

वैसे तो अमेरिकी प्रशासन ने हमेशा से भारत को चीन के भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदी के तौर पर देखा है लेकिन कोरोना वायरस महामारी के दौर में परमाणु हथियार से संपन्न पड़ोसियों के बीच बढ़ते तनाव की वजह से अमेरिका के साथ भारत का सहयोग वास्तव में और गहरा हुआ है.

लेकिन अमेरिका और चीन के बीच इस व्यापक भू-राजनीतिक मुक़ाबले में लगातार बढ़ोतरी के बीच भारत तकनीक युद्ध के मैदान का केंद्र बनता जा रहा है. दोनों देशों के बीच 137 करोड़ लोगों के भारतीय बाज़ार को लेकर ख़ासतौर पर दुश्मनी है. ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं जब भारतीय तकनीकी बाज़ार में चीन की दिलचस्पी तेज़ी से बढ़ी. अलीबाबा और टेनसेंट जैसी कंपनियों के नेतृत्व में चीन की कंपनियों ने 2017 की शुरुआत से इस साल के जून तक भारत में कुल मिलाकर 4.3 अरब डॉलर का निवेश किया है. लेकिन भारत और चीन में राजनीतिक तनाव की वजह से चीन की कंपनियों को उसका नतीजा भुगतना पड़ रहा है. डाटा मुहैया कराने वाली कंपनी रेफिनिटिव के मुताबिक़ जनवरी में चीन की कंपनियों से फंड उगाही की छह डील हुई जो जून में गिरकर शून्य हो गई जबकि जून में अमेरिकी कंपनियों के साथ नौ वेंचर कैपिटल डील हुई. जुलाई में गूगल ने ‘इंडिया डिजिटाइज़ेशन फंड’ के तहत भारत में 10 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया.

इस तरह चीन के साथ भारत के संबंधों में जहां तनाव का बोलबाला है वहीं अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत के बाज़ार में मौक़ा बन गया है. उदाहरण के लिए, कोरोना वायरस महामारी के दौरान बढ़ती चीन विरोधी भावना के बीच भारत ने अप्रैल में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के नियमों को कड़ा कर  दिया. भारतीय कंपनियों पर कब्ज़ा करने की चीन की मौक़ापरस्ती को बंद करने की ये कोशिश अमेरिकी निवेशकों के पक्ष में देखी जा सकती है क्योंकि इसके बाद फ़ेसबुक ने जियो प्लेटफॉर्म में 5.7 अरब डॉलर का निवेश किया. इसके अलावा जून में सीमा विवाद के दौरान चीन के साथ ख़ूनी संघर्ष में 20 भारतीय सैनिकों की मौत के बाद भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं का हवाले देते हुए टिकटॉक के साथ 58 ऐप पर प्रतिबंध लगा दिया. ‘बायकॉट चीन’ की इस मुहिम में उस वक़्त और तेज़ी आई जब भारत की सड़कों पर प्रदर्शनकारियों ने चीन के ख़िलाफ़ अपना ग़ुस्सा दिखाया. उदाहरण के लिए, कोलकाता में फूड डिलीवरी प्लेटफॉर्म ज़ोमैटो के कर्मचारियों ने कंपनी में चीन के निवेश के ख़िलाफ़ अपनी लाल यूनिफॉर्म को फाड़कर आग के हवाले कर दिया. एक प्रदर्शनकारी ने कहा, “चीन की कंपनियां यहां मुनाफ़ा कमाती हैं और वो हमारे सैनिकों पर ही हमला करते हैं.” ये बयान दिखाता है कि भारत के टेक सेक्टर में चीन की कंपनियों के अरबों डॉलर के निवेश के ख़िलाफ़ राष्ट्रवादी किस कदर ग़ुस्से में हैं.

इसके अलावा हाल में अपने टेलीकॉम नेटवर्क से हुवावे के उपकरणों को हटाकर भारत ने चीन की इस बड़ी कंपनी को उसके सबसे बड़े बाज़ारों में से एक में बड़ी चोट पहुंचाई है. हालांकि, भारत ने चीन के उपकरण सप्लायर पर पाबंदी लगाने का कोई औपचारिक लिखित आदेश नहीं जारी किया है लेकिन उद्योगों से जुड़े लोग और सरकारी अधिकारियों ने साफ़ तौर पर इशारा किया है कि स्थानीय टेलीकॉम सेवा देने वाली कंपनियां आगे चीन के उपकरणों से परहेज़ करें. हुवावे पहले भारत (दुनिया का दूसरे सबसे बड़ा मोबाइल बाज़ार जहां 85 करोड़ से ज़्यादा यूज़र हैं) में तीन सबसे बड़ी उपकरण सप्लायर में से एक थी. हुवावे पर ये निशाना उस वक़्त साधा गया है जब ये चिंता जताई जा रही है कि वो भारत में पावर ग्रिड और दूसरे अहम बुनियादी ढांचों को हैक करने में चीन की मदद कर सकती है.

भारत ने चीन के उपकरण सप्लायर पर पाबंदी लगाने का कोई औपचारिक लिखित आदेश नहीं जारी किया है लेकिन उद्योगों से जुड़े लोग और सरकारी अधिकारियों ने साफ़ तौर पर इशारा किया है कि स्थानीय टेलीकॉम सेवा देने वाली कंपनियां आगे चीन के उपकरणों से परहेज़ करें.

इस तरह दो सुपर पावर भारत में तकनीकी शीत युद्ध में आमने-सामने हैं. इस दुश्मनी की वजह से चीन की तकनीकी कंपनियों ने भारतीय स्टार्टअप में रिकॉर्ड निवेश के ज़रिए तेज़ी से जो जगह बनाई है, उसको ख़तरा हो गया है. अमेरिकी तकनीकी कंपनियां और फंड अपने चीनी प्रतिद्वंदियों का मुक़ाबला करने के लिए काफ़ी बेहतर हालत में हैं. चीन के ख़िलाफ़ डॉनल्ड ट्रंप की शत्रुता और अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ़ से भारत और नरेंद्र मोदी को गले लगाने की रणनीति की वजह से अमेरिकी तकनीकी कंपनियां भारत में मज़बूत स्थिति में हैं. भारत इस भू-राजनीतिक संघर्ष में चुप नहीं हैं. चीन की शत्रुता और चालाकी के साथ इस इलाक़े में दूसरे देशों के क़दम ने भारत को मजबूर किया है कि वो किसी भी पक्ष का साथ लेने के अपने सामरिक सिद्धांतों से पीछा छुड़ाए.

अमेरिका-भारत के संबंधों में मज़बूती आने के साथ अमेरिकी तकनीक को आकर्षित करने के क़दम को प्राथमिकता मिलनी चाहिए. हालांकि भारत में स्टार्टअप और इनोवेशन की संस्कृति को बढ़ावा मिला है, ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में भारत 2015 की 81वीं रैंकिंग से बढ़कर 2019 में 52वीं रैंकिंग पर पहुंच गया है और हाल में भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम को दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा बताया गया है लेकिन इसके बावजूद भारत को तकनीकी सेक्टर में अमेरिकी निवेश को आकर्षित करने और रिस्क प्रोफाइल बेहतर करने के लिए सरकारी नियमों में सुधार करने की ज़रूरत है.

लेकिन इसके बावजूद अमेरिका-चीन तकनीकी युद्ध की वजह से भारत पर पड़ने वाले असर की अनदेखी नहीं करनी चाहिए. चीन के ख़िलाफ़ भारत के कठोर रुख़ ने यहां के उभरते बाज़ार में निवेश करने के अप्रत्याशित स्वभाव को उजागर किया है. कामयाब अंतर्राष्ट्रीय कारोबार के ऊपर स्थानीय नियंत्रण को दिखाने के लिए अलग-अलग रणनीति अपनाना और नये नियमों के ज़रिए निशाना साधने से किसी भी विदेशी निवेशक के लिए यहां आने में मुश्किल होगी. उदाहरण के लिए, वोडाफ़ोन के भारतीय ज्वाइंट वेंचर ने चेतावनी दी है कि वो यहां अपना कारोबार बंद कर सकती है. ये चेतावनी उस वक़्त आई है जब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अरबों डॉलर का राजस्व टालने की वोडाफ़ोन की याचिका को ठुकरा दिया है. इस ‘बेहद कठोर आदेश’ की वजह से देश की तीसरी सबसे बड़ी मोबाइल कंपनी के दिवालिया होने का ख़तरा पैदा हो गया है. ये आदेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी काफ़ी मायने रखता है जिन्होंने अपना दूसरा कार्यकाल इस वादे के आधार पर जीता था कि 2024 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाएंगे.

ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में भारत 2015 की 81वीं रैंकिंग से बढ़कर 2019 में 52वीं रैंकिंग पर पहुंच गया है और हाल में भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम को दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा बताया गया है लेकिन इसके बावजूद भारत को तकनीकी सेक्टर में अमेरिकी निवेश को आकर्षित करने और रिस्क प्रोफाइल बेहतर करने के लिए सरकारी नियमों में सुधार करने की ज़रूरत है.

अमेरिका-भारत साझेदारी की वजह से आर्थिक सहयोग और तकनीकी निवेश में मज़बूती मिल सकती है लेकिन सिर्फ़ चीन के प्रति अविश्वास दोनों लोकतंत्रों को जोड़ने के लिए अपर्याप्त है. दोनों देश मानते हैं कि चीन एक भू-राजनीतिक चुनौती है और उसका जवाब देने के लिए दोनों देशों की साझेदारी महत्वपूर्ण है लेकिन इस तथ्य के बावजूद चीन की चुनौती का जवाब देने के तौर-तरीक़ों को लेकर दोनों देशों में काफ़ी विवाद है. लेकिन इसके बावजूद भारत को लेकर अमेरिका का भरोसा बढ़ता जा रहा है. अमेरिकी निवेशक जिनमें प्राइवेट इक्विटी कंपनियां सिल्वर लेक और KKR भी शामिल हैं, सभी मजबूरियों की अनदेखी करने के लिए तैयार हैं और वो जियो प्लेटफॉर्म में निवेश करने के मामले में फ़ेसबुक और गूगल की राह पर चल रही हैं. इसलिए अंतिम निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि इस गहन मुक़ाबले से भारत को फ़ायदा होने वाला है क्योंकि सिलिकॉन वैली महामारी के इस माहौल में अपने स्वर्णिम पल को हासिल करने के लिए तैयार है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.