अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में जो आर्थिक नीतियां अपनाई वो उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से काफ़ी हटकर नहीं थीं. उनका ज़ोर मौद्रिक नीतियों पर रहा जिनमें क़रीब शून्य के स्तर पर ब्याज़ दर को तय करना और अर्थव्यवस्था को चलते रहने देने के लिए पर्याप्त पैसे की सप्लाई शामिल है.
जब कोविड-19 महामारी ने अमेरिका को मुश्किल में डाला तो 27 मार्च 2020 को 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के वित्तीय प्रोत्साहन पैकेज पर हस्ताक्षर कर उसे क़ानून बनाया गया. इस पैकेज को सभी लोगों का ज़ोरदार समर्थन मिला. लेकिन ऐसा वित्तीय प्रोत्साहन सिर्फ़ एक बार के लिए था क्योंकि अक्टूबर की शुरुआत में दूसरे वित्तीय प्रोत्साहन पैकेज की बातचीत से ट्रंप अलग हो गए. उन्होंने नवंबर का चुनाव ख़त्म होने तक किसी भी बातचीत से इनकार कर दिया.
जो बात ट्रंप को अमेरिकी इतिहास के दूसरे राष्ट्रपतियों से अलग करती है वो है उनकी व्यापार नीति. ट्रंप की व्यापार नीति उनके “अमेरिका फर्स्ट” के नारे से पूरी तरह मेल खाती थी.
जो बात ट्रंप को अमेरिकी इतिहास के दूसरे राष्ट्रपतियों से अलग करती है वो है उनकी व्यापार नीति. ट्रंप की व्यापार नीति उनके “अमेरिका फर्स्ट” के नारे से पूरी तरह मेल खाती थी.
ट्रंप ने अपने राजनीतिक विरोधियों पर अतीत में अमेरिका की तरफ़ से किए गए व्यापार समझौतों में अमेरिका के हितों को खोखला करने और जोख़िम में डालने का आरोप लगाया है. ट्रंप ने ख़ुद को “टैरिफ मैन” घोषित किया और ज़ोर देकर कहा कि “व्यापार युद्ध अच्छे हैं और आसानी से जीते जा सकते हैं.” इस तरह अमेरिका का व्यापार युद्ध चीन के उत्पादों पर 360 अरब डॉलर अमेरिकी डॉलर का सीमा शुल्क लगाकर शुरू हुआ.
इसके बाद नॉर्थ अमेरिकन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (नाफ्टा) पर फिर से बातचीत शुरू हुई जिसमें लंबे समय के सहयोगी कनाडा और मेक्सिको शामिल हैं. फिर यूरोपियन यूनियन (EU) के साझेदारों और भारत समेत दूसरे देशों पर सीमा शुल्क लगाया गया.
ओबामा प्रशासन ने कड़ी मेहनत से जिस ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) नाम का व्यापार समझौता किया था, जिसमें चीन शामिल नहीं है, को आनन-फानन में ठुकरा दिया गया. फ़ौरन ही, अमेरिका ने जिस “मुक्त व्यापार” के युग की अगुवाई की थी, उसे “अमेरिका फर्स्ट” के संरक्षणवाद से बदल दिया गया.
लेकिन अगर आर्थिक इतिहास कोई सबक सिखाता है तो वो ये है कि व्यापार में जीत हासिल करना न सिर्फ़ बेहद कठिन है बल्कि उसकी वजह से दोनों तरफ़ नुक़सान भी होता है. महामारी से पहले अमेरिका के बढ़ते व्यापार घाटे का आंकड़ा इतिहास के इस सबक़ को साबित करता है.
चीन के ख़िलाफ़ क्या होगी अमेरिका की रणनीति?
ट्रंप के कार्यकाल में चीन के ख़िलाफ़ जिस आक्रामक रुख़ को बढ़ावा दिया गया वो आगे भी बरकरार रहने की संभावना है. अमेरिका की राजनीति में इस बात पर लगभग सर्वसम्मति है कि चीन अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नियमों और समझौतों का उल्लंघन कर रहा है, व्यापार की ग़लत परंपराओं में शामिल है और दूसरे देशों के साथ संबंधों में स्कूल के धौंस दिखाने वाले बच्चे की तरह व्यवहार कर रहा है.
अमेरिका की राजनीति में इस बात पर लगभग सर्वसम्मति है कि चीन अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नियमों और समझौतों का उल्लंघन कर रहा है, व्यापार की ग़लत परंपराओं में शामिल है और दूसरे देशों के साथ संबंधों में स्कूल के धौंस दिखाने वाले बच्चे की तरह व्यवहार कर रहा है.
हालांकि, जो बाइडन सीमा शुल्क के आलोचक हैं लेकिन उन्होंने चीन के उत्पादों पर अमेरिकी सीमा शुल्क हटाने को लेकर अभी तक अपनी राय ज़ाहिर नहीं की है. अमेरिका-चीन के बीच व्यापार संबंध अब कभी भी पहले की तरह नहीं होंगे- और दावा किया जा रहा है कि ये डोनाल्ड ट्रंप की सबसे महत्वपूर्ण विरासत है.
दूसरी चीज़ है वैश्विक बहुपक्षीय व्यापार का ध्वस्त हो जाना. व्यापार युद्ध के अलावा, ट्रंप प्रशासन का डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) की अपील संस्था में सदस्य नियुक्त करने से इनकार करना- इस तरह इस संस्था को वास्तव में निष्क्रिय करना- इसके गवाह हैं. व्यापार में बहुपक्षवाद असल में मृतप्राय है.
अमेरिका के सात दशकों से ज़्यादा के नेतृत्व ने मुक्त अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और उससे जुड़े वैश्विक संगठनों को बढ़ावा दिया. ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने उस वैश्विक नेतृत्व को छोड़ दिया. चीन इस खाली जगह को भरने की हताश कोशिश जारी रखेगा. बाइडेन की जीत के बाद भी नेतृत्व की ज़िम्मेदारी को फिर से उठाना उनके लिए काफ़ी मुश्किल साबित होगा. इस तरह एक अनिश्चित दुनिया जहां बहुपक्षीय की जगह दो देश और कुछ देशों का समूह होगा, ये भी ट्रंप के राष्ट्रपति पद के कार्यकाल की स्थायी बची-खुची चीज़ होगी.
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