Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन युद्ध के नतीजतन क्या होने वाला है, इसका इंतज़ार पूरी दुनिया को है क्योंकि वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए वर्षों का विश्वास और सहयोग ध्वस्त हो चुका है.

यूक्रेन युद्ध का भू-रणनीतिक पहलू
यूक्रेन युद्ध का भू-रणनीतिक पहलू

वैसे तो यूक्रेन पर रूस के हमले के सिर्फ़ दो महीने ही बीते हैं लेकिन इसका असर कई स्तरों पर वैश्विक रहा है. दुनिया को युद्ध के ख़ौफ़ और नागरिकों की दिल दुखाने वाली दुर्दशा की याद दिलाई गई है. इसके साथ-साथ ये भी स्मरण कराया गया है कि अलग-अलग देशों को अपनी संप्रभुता, स्वतंत्रता और अस्तित्व के अधिकार के लिए ज़रूर लड़ना चाहिए.

इस युद्ध ने दुनिया को दो खेमों में लामबंद कर दिया है: सही बनाम ग़लत, लोकतंत्र बनाम तानाशाही, वैश्वीकरण बनाम संरक्षणवाद और जीत बनाम हार. दुनिया और भी ज़्यादा बंट गई है. युद्ध में ये ज़रूरत हो सकती है लेकिन इससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की गांठ और भी मज़बूत हो जाएगी.

इस युद्ध ने दुनिया को दो खेमों में लामबंद कर दिया है: सही बनाम ग़लत, लोकतंत्र बनाम तानाशाही, वैश्वीकरण बनाम संरक्षणवाद और जीत बनाम हार. दुनिया और भी ज़्यादा बंट गई है. युद्ध में ये ज़रूरत हो सकती है लेकिन इससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की गांठ और भी मज़बूत हो जाएगी. अभी हो या बाद में लेकिन जब युद्ध ख़त्म होगा तो ये गांठ ज़रूर खुलेगी और हमें वैश्विक समस्याओं को ठीक करने, असंतुलन को दूर करने और नाइंसाफ़ी को ख़त्म करने के लिए हर हाल में लग जाना चाहिए. ये भी ज़रूरी है कि हम सभी को दुनिया की भलाई के लिए समझौता करना होगा. लोकतंत्र में सामान्य मतदाताओं का हित मायने रखता है और ये हित एक स्थायी रणनीतिक संदर्भ है जिसमें कि वो फल-फूल सकता है. गांठ को खोलने और आम लोगों समेत सभी को दीर्घकालीन लाभ के लिए समझौते को स्वीकार करने के लिए तैयार करना आसान काम नहीं होगा.

दुनिया में रूस का कद

दुनिया की बड़ी ताक़त यदा-कदा ही कोई ऐसी बड़ी ग़लती करती हैं जो न सिर्फ़ दुनिया में उनकी मौजूदा स्थिति बल्कि भविष्य में भी उनकी संभावना को चुनौती देती हैं. 1957 में स्वेज़ नहर का संकट फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम के लिए ऐसा ही एक मौक़ा था. वियतनाम में फ्रांस और अमेरिका की सैन्य कार्रवाई ने इन देशों का दर्जा नहीं बढ़ाया. इसी तरह 2003 में इराक़ पर अमेरिका के हमले से अमेरिकी वैधता या प्रभुता को बढ़ावा नहीं मिला. तत्कालीन सोवियत संघ को ये मानने में 10 साल लग गए कि उसका अफ़गानिस्तान में सेना भेजने का फ़ैसला नाकाम था.

रूस दुनिया में सबसे बड़े परमाणु जखीरे के साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक स्थायी सदस्य है, रक्षा बजट के मामले में चौथा सबसे बड़ा देश है (हालांकि भारत के मुक़ाबले 20 प्रतिशत कम), पिछले साल अर्थव्यवस्था के मामले में दुनिया का छठा सबसे बड़ा देश है (परचेज़िंग पावर पैरिटी या क्रय शक्ति समता में; नॉमिनल जीडीपी के मामले में भारत की अर्थव्यवस्था से आधी से भी कम या चीन की अर्थव्यवस्था के छठे हिस्से से भी कम). ऐसे देश के लिए युद्ध के बारे में ग़लत अंदाज़ लगाने का भू-रणनीतिक नतीजा होगा.

रूस ने यूक्रेन की सेना और लोगों के युद्ध लड़ने की तत्परता का ग़लत आकलन किया. रूस इस बात का भी अंदाज़ा नहीं लगा पाया कि यूक्रेन को किस तरह दुनिया के ज़्यादातर देशों का समर्थन और हमदर्दी मिलेगी. 

पश्चिमी देशों की निगाहों में रूस अपना नैतिक अधिकार, सॉफ्ट पावर और अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता खो चुका है. यूक्रेन में ज़रूरत से ज़्यादा ताक़त का इस्तेमाल और सरासर क्रूरता ने सभी विश्लेषकों को हैरान कर दिया है. आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से रूस व्यापार, आमदनी और विकास से वंचित रह गया है. अब कौन सा ऐसा देश है जो इस युद्ध के बाद रूस के साथ जुड़ना चाहेगा या रूस में निवेश करना चाहेगा? कौन सा ऐसा देश है जो रूस पर भरोसा करेगा या रूस पर निर्भर रहेगा?

हैरानी की बात है कि रूस की सेना ने अभी तक लगभग हर मानदंड के मामले में उम्मीद से कम प्रदर्शन किया है. इतिहासकार इस पर चर्चा करेंगे कि क्या इसकी वजह नाकाम राजनीतिक आकलन, भ्रष्टाचार, ख़राब योजना और मनोबल था या फिर सिर्फ़ ख़राब रणनीति थी जिसकी वजह से गंभीर नुक़सान हुआ और जिसके कारण कम-से-कम शुरुआती दौर में रूस को क्रूर विध्वंसक चाल अपनानी पड़ी. रूस हवाई युद्ध के मामले में भी प्रभुत्व कायम नहीं रख पाया. उसके पास यूक्रेन की सेना के बारे में पर्याप्त खुफ़िया जानकारी भी नहीं थी और साफ़ तौर पर रूस ने यूक्रेन की सेना और लोगों के युद्ध लड़ने की तत्परता का ग़लत आकलन किया. रूस इस बात का भी अंदाज़ा नहीं लगा पाया कि यूक्रेन को किस तरह दुनिया के ज़्यादातर देशों का समर्थन और हमदर्दी मिलेगी.

इसका नतीजा ये है कि रूस न सिर्फ़ अपने सैन्य उपकरणों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा गंवा बैठेगा बल्कि उसके सैन्य ऑपरेशन की खामियां भी उजागर हो गई हैं और उसने अपनी विश्वसनीयता खो दी है. सबसे प्रमुख असर ये है कि निकट भविष्य में रूस एक आक्रमणकारी और क्रूर देश के रूप में देखा जाएगा. अगर रूस सामूहिक विनाश के हथियारों का इस्तेमाल करता है तो दाग़ और भी गहरा होगा.

ये युद्ध रूस को पहले से ग़रीब, ज़्यादा अलग-थलग और संभवत: ज़्यादा ख़तरनाक हालत में छोड़ेगा.

युद्ध की तैयारी की अमेरिकी क्षमता

अमेरिका ने अभी तक रणनीतिक शतरंज की बाज़ी असरदार क्षमता के साथ खेली है. अमेरिका और बाइडेन प्रशासन तमाम आंतरिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं लेकिन दुनिया के सामने अमेरिका का दर्जा बढ़ा है और इसकी वजह यूक्रेन में अमेरिका की सक्रिय भूमिका है.

वैसे तो अमेरिका रूस के ख़िलाफ़ युद्ध के मैदान में उतरना और इसकी वजह से परमाणु जंग के ख़तरे में बढ़ोतरी का सामना नहीं करना चाहता है. फिर भी अमेरिका ने ज़्यादातर सही क़दम उठाए हैं और उसने रूस के ख़िलाफ़ हाइब्रिड युद्ध के औज़ार तैनात किए हैं. रूस के हमले से पहले अमेरिका ने यूक्रेन की सेना को ट्रेनिंग दी और साइबर युद्ध की उसकी क्षमता को विकसित किया. साथ ही रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इसकी तैयारी की. खुफ़िया जानकारी साझा करने के स्तर और रूस के इरादों/विकल्पों को उजागर करने का काम कुशलता से किया गया. युद्ध की शुरुआत के समय से दान में मिले सैन्य उपकरण के स्तर एवं उसकी क्वालिटी, खुफ़िया समन्वय, सुरक्षित कमांड एवं कंट्रोल और साइबर अभियानों ने बहुत बड़ा योगदान दिया है.

वैसे तो अमेरिका रूस के ख़िलाफ़ युद्ध के मैदान में उतरना और इसकी वजह से परमाणु जंग के ख़तरे में बढ़ोतरी का सामना नहीं करना चाहता है. फिर भी अमेरिका ने ज़्यादातर सही क़दम उठाए हैं और उसने रूस के ख़िलाफ़ हाइब्रिड युद्ध के औज़ार तैनात किए हैं.

ये साफ़ है कि राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को हर मामले में, भाषण लिखने से लेकर कूटनीति और मीडिया प्रबंधन तक, अपने सहयोगियों से बेहद संतुलित और शानदार सलाह मिल रही है.

मीडिया और सूचना युद्ध में भी अमेरिका का दबदबा रहा है. रूस के मीडिया पर पाबंदी लगाने (जिसमें अमेरिका की बिग टेक कंपनियों और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म ने मदद की) से दुनिया के ज़्यादातर देशों में अमेरिकी/पश्चिमी देशों की सोच का दबदबा हो गया है. रूस की कमियों, ग़लतियों और त्रासदियों का शोर मचाया गया है. दूसरी तरफ़ यूक्रेन के नेतृत्व, साहस, बलिदान और नुक़सान के बारे में भी बताया गया है.

ये भी एक तथ्य है कि दुनिया के सबसे बड़े तेल और गैस उत्पादक देश अमेरिका को ऊर्जा की ऊंची क़ीमत का फ़ायदा मिल रहा है (हालांकि ये तथ्य मतदाताओं के बीच अलोकप्रिय है). अमेरिकी एलएनजी (लिक्विफाइड नेचुरल गैस) पर यूरोप की बढ़ती निर्भरता का भी उसे लाभ मिल रहा है.

अमेरिका को एक बार फिर से पश्चिमी देशों में स्वाभाविक मार्गदर्शक के रूप में देखा जा रहा है और इससे ज़्यादा साफ़ संकेत चीन को नहीं मिल सकता है.

लेकिन इस बात को लेकर सब उत्सुक हैं कि आर्थिक प्रतिबंधों को हटाने के लिए क्या करना पड़ेगा. क्या पश्चिमी देश यूक्रेन और रूस के बीच भविष्य में समझौतों को स्वीकार करेंगे? रूस के आत्मसमर्पण के बारे में सोचा नहीं जा सकता और यहां तक कि उसकी हार भी व्याख्या का विषय होगी. क्या राष्ट्रपति पुतिन के लिए पद छोड़ना सैद्धांतिक रूप से पर्याप्त होगा या फिर उनके इर्द-गिर्द के लोगों को भी बदलना होगा? इस बात का ख़तरा है कि हम रूस की सेना, खुफ़िया तंत्र और संरचना की ताक़त और असर को उसी तरह कम करके आंक रहे हैं जैसे कि हम रूस की राष्ट्रीय पौराणिक कहानियों और सोच को कम करके आंक रहे हैं.

इस बात को लेकर सब उत्सुक हैं कि आर्थिक प्रतिबंधों को हटाने के लिए क्या करना पड़ेगा. क्या पश्चिमी देश यूक्रेन और रूस के बीच भविष्य में समझौतों को स्वीकार करेंगे? 

हमें ख़ुद को ये याद भी दिलाना चाहिए कि अमेरिकी प्रशासन बदल सकता है. वैश्विक और यूरोपीय सुरक्षा सहयोग पर राष्ट्रपति ट्रंप का असर महत्वपूर्ण था.

यूरोपीय सुरक्षा को झटका

संयुक्त राष्ट्र महासचिव के शब्दों में यूक्रेन के संप्रभु क्षेत्र में रूस का आक्रमण यूएन के चार्टर का उल्लंघन है. यूरोप के लोगों की नज़रों में बिना उकसावे के इस हमले ने मूल रूप से यूरोप के सुरक्षा हालात को बदल दिया है और मौजूदा विश्व व्यवस्था को चुनौती दी है.

इस युद्ध ने यूरोपीय संघ और नेटो को इस कदर एकजुट कर दिया है जैसे किसी संकट ने नहीं किया था. वैसे तो यूरोप की आंतरिक चुनौतियां बनी हुई हैं लेकिन अब जब यूरोप के देश अस्तित्व पर ख़तरे का सामना कर रहे हैं तो उन चुनौतियों को परिप्रेक्ष्य में रख दिया गया है. यूरोपीय संघ के सामंजस्य और नई गतिशीलता को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए.

अमेरिका की सैन्य भागीदारी का और भी स्वागत किया गया है और हमें ये देखना होगा कि यूरोप के नये सुरक्षा हालात के बाद नेटो का नया रणनीतिक सिद्धांत (जिसकी शुरुआत जून 2022 में होने का अनुमान है) कैसा रूप लेता है. स्वीडन और फिनलैंड की नेटो की सदस्यता को लेकर बहस चल रही है, बाल्टिक और पूर्वी यूरोप के कई देश ज़्यादा स्थायी अमेरिकी अड्डे की मांग कर रहे हैं और यूक्रेन को ज़ोरदार समर्थन मिल रहा है- ये ऐसे तथ्य हैं जिनके बारे में राष्ट्रपति पुतिन ने उम्मीद नहीं की होगी.

स्वीडन और फिनलैंड की नेटो की सदस्यता को लेकर बहस चल रही है, बाल्टिक और पूर्वी यूरोप के कई देश ज़्यादा स्थायी अमेरिकी अड्डे की मांग कर रहे हैं और यूक्रेन को ज़ोरदार समर्थन मिल रहा है- ये ऐसे तथ्य हैं जिनके बारे में राष्ट्रपति पुतिन ने उम्मीद नहीं की होगी. 

रूस और अमेरिका की ऊर्जा पर यूरोप की निर्भरता को मान लेना निश्चित रूप से कुछ देशों के लिए पीड़ादायक है. हमें ये देखना होगा कि अपनी सुरक्षा के लिए यूरोप का निवेश उसे अमेरिकी सुरक्षा और उपकरणों पर ज़्यादा निर्भर बनाएगा या कम. हमें ये भी देखना होगा कि जैसे 2022 में अमेरिका ने यूरोप को सहारा दिया, क्या उसी तरह अमेरिका का समर्थन, उदाहरण के तौर पर एशिया में, करने के लिए यूरोप तैयार है. आख़िरकार मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता है.

व्यापार और दाम

दुनिया पहले से कई मोर्चों पर बढ़े हुए संरक्षणवाद का सामना कर रही है. इसके अलावा अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, और कोविड के बाद की स्थिति में सप्लाई, वैल्यू चेन एवं मांग पर असाधारण असर से भी दुनिया जूझ रही है. रूस के आक्रमण का सामानों की क़ीमत पर महत्वपूर्ण नकारात्मक असर पड़ा है, ख़ास तौर पर खाद्य, ऊर्जा और खनिज क्षेत्र में. यहां भी अपेक्षाकृत विजेता और हारने वाले हैं. अमेरिकी किसानों के लिए ये साल अच्छा है और ऑस्ट्रेलिया, नॉर्वे और खाड़ी देश ऊंची क़ीमत की वजह से फल-फूल रहे हैं. रूस/यूक्रेन के अनाज, उर्वरक और लकड़ी पर बेहद निर्भर देश या जिन्होंने रूस के साथ ऊर्जा संबंध ख़त्म कर लिया है, उन्हें भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है.

चीन को सबक़

यूक्रेन का युद्ध चीन के लिए बड़ा सिरदर्द है. अगर अमेरिका, यूरोप और जापान एकजुट हो जाएं तो डॉलर की ताक़त बहुत ज़्यादा है. दूसरी तरफ़ वैश्विक मुद्रा के रिज़र्व में चीन की करेंसी रेनमिनबी सिर्फ़ 2.5 प्रतिशत की नुमाइंदगी करती है. चीन के पास पश्चिमी देशों की मुद्रा में महत्वपूर्ण संपत्ति है और अमेरिकी कर्ज़ भी है. यूक्रेन के लोगों का समर्थन, उनका सामर्थ्य, और अपने से बड़े दुश्मन से लड़ने की उनकी क्षमता को याद किया जाएगा.

सैन्य मोर्चे पर हर किसी को ये सबक़ सीखना चाहिए कि अगर एक बचाव करने वाले देश (ताइवान समझिए) के पास मनोबल, बेहतरीन खुफ़िया जानकारी, अच्छी राजनीतिक सलाह और आधुनिक रक्षात्मक हथियारों का समर्थन है तो उसका विरोध उग्र और सफल हो सकता है. इसके अलावा,  यूक्रेन से हटकर, पश्चिमी प्रशांत में आपूर्ति और हवाई/समुद्री नियंत्रण को ठप करना अपेक्षाकृत आसान है. लेकिन चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. साथ ही चीन हरित तकनीकों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) में सबसे बड़ा निवेशक है और रक्षा बजट के मामले में दुनिया में दूसरे स्थान पर है. ऐसे में अमेरिका और चीन के बीच किसी भी तरह का संघर्ष यूक्रेन के युद्ध के मुक़ाबले वैश्विक स्तर पर ज़्यादा तबाही लाने वाला और ख़तरनाक होगा.

सैन्य मोर्चे पर हर किसी को ये सबक़ सीखना चाहिए कि अगर एक बचाव करने वाले देश (ताइवान समझिए) के पास मनोबल, बेहतरीन खुफ़िया जानकारी, अच्छी राजनीतिक सलाह और आधुनिक रक्षात्मक हथियारों का समर्थन है तो उसका विरोध उग्र और सफल हो सकता है.

अगर रूस के पास अभी भी कुछ आधुनिक तकनीकें और असाधारण ग़ैर-परंपरागत हथियार हैं, तब भी रूस की रणनीति, साजो-सामान और राजनीतिक नियंत्रण को लेकर उसके एससीओ (शंघाई सहयोग संगठन) के साझेदार के द्वारा गहन मंथन होना चाहिए. इसके अलावा ख़राब प्रदर्शन करने वाली कुछ हथियार प्रणाली भी हैं.

ये तो वक़्त ही बताएगा कि मीडिया पर तानाशाही नियंत्रण, दुष्प्रचार, अलगाव और देशभक्ति रूस जैसे देश के लिए ज़्यादा स्थिरता, समृद्धि और ख़ुशी ला सकती है या नहीं. बाहरी दृष्टिकोण से तो ये असंभव लगता है.

चीन कम्युनिस्ट पार्टी के 20वें राष्ट्रीय सम्मेलन से पहले महामारी, धीमे विकास, जनसांख्यिकीय दबाव और ज़्यादा अलगाव का सामना कर रहा है. चीन एक “अनियंत्रित” साझेदारी में फंसा हुआ है, रूस का युद्ध, पड़ोसी के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप और अमेरिका जैसा विरोधी देश जो रूस के साथ चीन को जोड़ने में पीछे नहीं रहता है. ये स्थायित्व और अनुमान लगाने की क्षमता के वांछित स्तर से दूर है. वैसे तो चीन के लिए हालात बेहद अनिश्चित है लेकिन चीन और भारत का रूस में असर है. हम उम्मीद कर सकते हैं कि चीन और भारत अपने प्रभाव का इस्तेमाल मध्यस्थता और रूस को शांत करने में कर सकते हैं.

वैश्विक चुनौतियां

यूक्रेन युद्ध टिकाऊ विकल्पों की तरफ़ बदलाव को और भी प्रोत्साहन देता है. रूस से तेल/गैस/कोयला का आयात करने वाले कई देश दूसरे देशों से आयात की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इसकी एक क़ीमत चुकानी होगी और कम समय में कार्बन मुक्त बनने के लिए कुछ ही विकल्प हैं.

उम्मीद कर सकते हैं कि चीन और भारत अपने प्रभाव का इस्तेमाल मध्यस्थता और रूस को शांत करने में कर सकते हैं.

यूक्रेन युद्ध के दौरान आम नागरिकों की दुखद मौत के अलावा शायद सबसे बड़ा नुक़सान वैश्विक सहयोग के स्वरूप और वैश्विक चुनौतियों का सामना करने की तत्परता और क्षमता को हुआ है. इन दिनों पहले से ही इस तरह की चिंताजनक बहसें चल रही हैं कि जी20 की किस बैठक में कौन शामिल होगा और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद “उद्देश्य के लिए शायद ही उपयुक्त” है. इस मामले में तथ्य ये है कि चीन और अमेरिका के साथ अक्सर भारत, ईयू, जापान और रूस की ज़रूरत लगभग हर रणनीतिक चर्चा में पड़ती है, विषय चाहे जलवायु प्रबंधन हो, नवीकरणीय ऊर्जा, सूक्ष्मजीव विरोधी प्रतिरोधक, दुर्लभ धातु, महासागर प्रबंधन या फिर अंतरिक्ष समन्वय ही क्यों न हो. एक विषाक्त वातावरण, जिसमें अमेरिका-चीन संबंधों में संरक्षणवाद और उत्साहपूर्ण देशभक्ति के कारण पहले ही ज़हर घुल चुका है, बड़ी शक्तियों के बीच समझौते और दीर्घकालीन समाधान तलाशने को नामुमकिन नहीं तो मुश्किल ज़रूर बना देगा. जोखिम ये है कि दक्षिण एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्से इन वैश्विक चुनौतियों में से ज़्यादातर के लिए सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकाएंगे.

एक हद तक तकनीक

एक तरफ तो बड़े स्तर के तकनीकी रुझानों पर युद्ध का कोई असर नहीं हुआ है. क्वांटम कम्प्यूटिंग, सिंथेटिक बायोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) अभी भी संभावित क्रांतिकारी तकनीक हैं. सिलिकॉन वैली अभी भी पूंजी और इनोवेटिव पावर से भरी हुई है, शेंज़ेन ग़ुलज़ार है और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि चीन मुक़ाबले की अपनी महत्वाकांक्षा को कम कर रहा है. अगर कोई चीज़ हम देख रहे हैं तो वो है वैश्वीकरण में कमी और आत्मनिर्भरता पर ज़्यादा ध्यान. कई मायनों में इसका मतलब है कार्यकुशलता में कमी, ज़्यादा क़ीमत और संभवत: कम विकास.

जोखिम ये है कि दक्षिण एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्से इन वैश्विक चुनौतियों में से ज़्यादातर के लिए सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकाएंगे.

अभियान के मामले में देखें तो रूस का आक्रमण आश्चर्यजनक रूप से कम तकनीक के इस्तेमाल वाला रहा है और ये काफ़ी हद तक चेचेन्या युद्ध के अनुभव की तरह है. इसके उलट, अमेरिकी/यूरोपीय हाइब्रिड युद्ध के साथ दृढ़ और पश्चिमी देशों के हथियारों से लैस यूक्रेन की सेना के गठजोड़ ने प्रभावशाली परिणाम दिए हैं.

शायद बड़े पैमाने पर सेंसर, स्मार्टफ़ोन, डिजिटल ख़ुलासों, सैन्य एवं नागरिक स्तर पर हाई रेज़ोल्यूशन सैटेलाइट और ड्रोन तस्वीरों एवं व्यापक तालमेल के साथ नया अचरज ये है कि हर चीज़ खुली और ध्यान देने योग्य है. सैन्य तैयारी या अत्याचार को छिपाना अब संभव नहीं है. अच्छी खुफ़िया जानकारी और हल्की एवं स्वायत्त हथियार प्रणाली की क्षमता के साथ ज़मीन से ज़मीन पर मार करने वाली मिसाइल, मुख्य युद्धक टैंक, तोपखाना और नौसेना के बड़े ज़मीनी हथियार अब पुराने हो रहे हैं.

निष्कर्ष

यूक्रेन में युद्ध का कोई वास्तविक विजेता नहीं है. इस युद्ध में लोगों के सबसे और सबसे ख़राब  स्वभाव का पर्दाफ़ाश हुआ है. लेकिन अंत में ये युद्ध विश्वास, सहयोग और वैश्विक चुनौतियों के समाधान की क्षमता को ध्वस्त करता है. वैश्विक मानकों और अंतर्राष्ट्रीय नियमों की गारंटी देने वाला एक देश उसमें अड़चन डाल रहा है. रुकावटों, कमियों और बर्बादी की बड़ी क़ीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ेगी. नतीजा चाहे कुछ भी हो लेकिन रूस दूर नहीं जाएगा. आज की चुनौती है नुक़सान को कम-से-कम करना, हमारी आत्मा का सौदा किए बिना समझौते को स्वीकार करना और सबकी भलाई के लिए संघर्ष की गांठ को खोलना.

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