-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
गिलगित-बाल्टिस्तान में भी पाकिस्तान फ़ौज ने हुकूमत का वही हाईब्रिड मॉडल दोहराया है, जिसकी मदद से उसने इमरान ख़ान को सत्ता में बिठाया हुआ है.
पिछले महीने, पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान इलाक़े में चुनाव हुए. इन चुनावों के बाद पाकिस्तान में ज़बरदस्त सियासी हंगामा हुआ. इमरान ख़ान की सरकार और पाकिस्तान आर्मी पर एक बार फिर चुनाव में फ़र्ज़ीवाड़ा करने के इल्ज़ाम लगे. इसकी आशंका तो पहले से ही जताई जा रही थी. आम तौर पर तो गिलगित-बाल्टिस्तान का इलाक़ा, पाकिस्तान से कटा सा ही रहता है. सच तो ये है कि अब तक गिलगित-बाल्टिस्तान की कोई अहमियत पाकिस्तान की सियासत में रही नहीं है. राजनीतिक विश्लेषक हों या मीडिया के चुनावी पंडित, उन्होंने कभी भी गिलगित-बाल्टिस्तान को इतनी तवज्जो के लायक़ भी नहीं समझा कि उस पर चर्चा करने में थोड़ा सा भी वक़्त बर्बाद करें. पाकिस्तान के राजनीतिक दल वहां चुनाव लड़ते आए हैं. लेकिन, उन्होंने भी गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव पर कभी कुछ ख़ास दांव पर नहीं लगाया. मगर, इस बार पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक दलों, जैसे कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने गिलगित-बाल्टिस्तान में जमकर चुनाव प्रचार किया. सत्ताधारी पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ ने भी गिलगित-बाल्टिस्तान का चुनाव जीतने के लिए काफ़ी ताक़त लगा रखी थी. इसकी वजह बिल्कुल साधारण थी. माना जा रहा था कि इस बार के गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव ही पाकिस्तान के राजनीतिक भविष्य की दशा-दिशा तय करेंगे. संभावना इस बात की भी जताई जा रही है कि पाकिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान से अपने संवैधानिक संबंध को भी नए सिरे से परिभाषित करने वाला है. ज़ाहिर है, अगर पाकिस्तान ऐसा करेगा, तो पूरे इलाक़े और ख़ास तौर से जम्मू-कश्मीर के समीकरण पर इसका असर पड़ेगा.
माना जा रहा था कि इस बार के गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव ही पाकिस्तान के राजनीतिक भविष्य की दशा-दिशा तय करेंगे.
आम तौर पर पाकिस्तान के कब्ज़े वाले जम्मू-कश्मीर के दोनों ही क्षेत्रों, गिलगित-बाल्टिस्तान और मीरपुर-मुज़फ़्फ़राबाद की पट्टी में होने वाले चुनावों के नतीजे, वोट डाले जाने से पहले से ही पता होते हैं. जो पार्टी पाकिस्तान पर हुकूमत कर रही होती है, यहां के चुनाव भी वही जीतती रही है. लेकिन, इस बार गिलगित-बाल्टिस्तान में मरियम नवाज़ शरीफ़ की अगुवाई वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नून (PML-N) और बिलावल भुट्टो ज़रदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) ने गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव प्रचार के दौरान अपनी रैलियों में जितनी भीड़ जुटाई, उससे अटकलों और साज़िशों का बाज़ार गर्म हो गया. पाकिस्तान के कई राजनीतिक विश्लेषक तो ये अनुमान भी लगाने लगे थे कि इस बार गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनावी नतीजे चौंकाने वाले भी हो सकते हैं. वहीं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान गिलगित-बाल्टिस्तान में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे. इमरान ख़ान के बारे में माना जाता है कि वो अक्सर ख़्वाबों की दुनिया में रहते हैं, लेकिन चुनाव के नतीजों से साफ़ हो गया कि इमरान ख़ान का जीत का भरोसा हवा-हवाई नहीं था. और ये इस बात पर आधारित नहीं था कि इमरान ख़ान ने अपनी और पार्टी की लोकप्रियता की वजह से चुनाव जीता है. बल्कि, पाकिस्तान के विपक्षी दलों का इल्ज़ाम है कि गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव में भी धांधली करके फ़ौज ने इमरान ख़ान की पार्टी को चुनाव जिताया. इसकी शुरुआत चुनाव से पहले ही हो गई थी, जब पाकिस्तान में एक ‘ख़ुफ़िया रिपोर्ट’ आई, जिसमें इमरान ख़ान की पार्टी के चुनाव जीतने की वजहें एडवांस में बताई गई थीं. इस ख़ुफ़िया रिपोर्ट में जो कारण बताए गए थे, उनके मुताबिक़ अगर केंद्र और गिलगित-बाल्टिस्तान में एक ही पार्टी की सरकार होगी, तो क्षेत्र का भला होगा, इमरान ख़ान का सियासी ब्रांड मज़बूत हुआ है और सबसे बड़ी बात ये है कि इमरान ख़ान जीत रहे हैं और नवाज़ शरीफ़ हार रहे हैं. चुनाव पूर्व हुए दो सर्वेक्षणों में भी कहा गया कि फ़ौज की क़रीबी पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ पार्टी चुनाव जीत रही है. सबसे मज़े की बात तो ये है कि इनमें इमरान ख़ान को बाक़ी दलों के नेताओं से ज़्यादा लोकप्रिय बताया गया. लेकिन, आशंका इस बात की भी ज़ाहिर की गई कि गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव निष्पक्ष होंगे भी या नहीं. ऐसे में जब नतीजे आए और सबसे ज़्यादा सीटें PTI को मिलीं, तो ये चौंकाने वाली बात नहीं लगी. हैरानी इस बात पर हुई कि, इमरान ख़ान की पार्टी को गिलगित-बाल्टिस्तान में बहुमत हासिल नहीं हुआ. उनके बाद दूसरे नंबर पर निर्दलीय उम्मीदवार रहे. जबकि, मरियम नवाज़ शरीफ़ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. नतीजे आने के साथ ही विपक्षी दलों ने चुनाव में धांधली के इल्ज़ाम लगाने शुरू कर दिए. पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो गिलगित-बाल्टिस्तान में जाकर धरने पर बैठ गए. वहीं, इमरान सरकार के मंत्री विपक्षी दलों को ये नसीहत देने लगे कि उन्हें चुनाव के नतीजों को स्वीकार कर लेना चाहिए. पीपुल्स पार्टी और PML-N के आरोप थे कि उनकी पार्टियों से उम्मीदवार तोड़कर निर्दलीय खड़े किए गए और उन्हें एक रणनीति के तहत चुनाव जिताया गया. विपक्षी का ये आरोप तब सही साबित हो गया, जब गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव में जीते सात निर्दलीयों में से 6 ने इमरान ख़ान की पार्टी का दामन थाम लिया. इससे गिलगित-बाल्टिस्तान में इमरान ख़ान की पार्टी की सरकार बनने का रास्ता साफ़ हो गया.
पीपुल्स पार्टी और PML-N के आरोप थे कि उनकी पार्टियों से उम्मीदवार तोड़कर निर्दलीय खड़े किए गए और उन्हें एक रणनीति के तहत चुनाव जिताया गया. विपक्षी का ये आरोप तब सही साबित हो गया, जब गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव में जीते सात निर्दलीयों में से 6 ने इमरान ख़ान की पार्टी का दामन थाम लिया.
पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ अपनी चुनावी जीत को अपनी सरकार की बढ़ती लोकप्रियता का सबूत कहकर प्रचारित कर रही है. जबकि, सच ये है कि इमरान सरकार इस वक़्त तमाम मुश्किलों से घिरी हुई है. वैसे भी गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनावी नतीजों से पाकिस्तान की सत्ता के समीकरणों पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला. लचर प्रशासन, तेज़ी से बढ़ती महंगाई और विदेशी क़र्ज़ और विपक्षी दलों की रैलियों के कारण, पाकिस्तान की इमरान सरकार की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो गिलगित-बाल्टिस्तान में चुनाव जीतने से इमरान ख़ान को कोई ख़ास नफ़ा नहीं होने वाला. हालांकि, अगर वो ये चुनाव हार जाते, तो ज़्यादा मुसीबत हो जाती. इसके बाद सवाल ये खड़ा होता कि आख़िर इमरान सरकार के कितने दिन बचे हैं. ये सवाल बार-बार इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि 2018 के चुनाव में इमरान ख़ान बहुमत नहीं जोड़-तोड़ से सत्ता में आए थे. विपक्षी दलों का आरोप है कि इमरान ख़ान को बाक़ी दलों पर चुनकर फ़ौज से प्रधानमंत्री बनाया था. इमरान ख़ान की पार्टी को बहुमत न मिलने के बाद, पाकिस्तान पर नज़र रखने वालों का ये मानना है कि उनके सेलेक्टर्स यानी पाकिस्तान की फ़ौज, इमरान को सत्ता तक पहुंचाने के अपने नाकाम तजुर्बे को अब एक सम्मानजनक अंत देने की ओर बढ़ रहे हैं. पाकिस्तान में इस बार फौज का एक हाइब्रिड सरकार बनाने का अनुभव सफल नहीं रहा है.
गिलगित-बाल्टिस्तान में चुनाव जीतने से इमरान ख़ान को कोई ख़ास नफ़ा नहीं होने वाला. हालांकि, अगर वो ये चुनाव हार जाते, तो ज़्यादा मुसीबत हो जाती. इसके बाद सवाल ये खड़ा होता कि आख़िर इमरान सरकार के कितने दिन बचे हैं.
अगर इमरान ख़ान ये चुनाव हार जाते, तो इसका फ़ायदा या तो बिलावल भुट्टो ज़रदारी को होता, या फिर मरियम नवाज़ शरीफ़ को. दोनों ही नेताओं की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही थी. मरियम और बिलावल, दोनों ने ही चुनाव जीतने के लिए पूरी ताक़त झोंक रखी थी. चुनाव में धांधली और फ़र्ज़ीवाड़े के बावजूद, बिलावल और मरियम ने इमरान ख़ान के लिए गिलगित-बाल्टिस्तान का चुनावी मैदान खुला नहीं छोड़ा था. गिलगित-बाल्टिस्तान में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी काफ़ी मज़बूत रही है. PPP ने यहां पर कई राजनीतिक सुधारों की शुरुआत भी की थी. लेकिन, यहां पर अहमियत इस बात की नहीं है कि गिलगित-बाल्टिस्तान में PPP कितनी मज़बूत है. बल्कि, सवाल इस बात का है कि क्या पाकिस्तान का तंत्र (Establishment) या फ़ौज, यहां पर बिलावल की पार्टी का पलड़ा भारी रख कर कोई नया संदेश दे सकते थे? हालांकि, ऐसा हुआ नहीं पर अटकलों का बाज़ार तो चुनाव के नतीजे आने तक गर्म रहा था. असल में इन दिनों पाकिस्तान के 11 विपक्षी दलों ने इमरान सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए पाकिस्तान जम्हूरी महाज (PDM) बना रखा है. PDM की आख़िरी रैली 13 दिसंबर को मरियम नवाज़ शरीफ़ के गढ़ लाहौर में हुई. नवाज़ शरीफ़ और उनकी बेटी मरियम, पाकिस्तान के जनरलों पर लगातार तीखे हमले कर रही है. वहीं, फ़ौज के ख़िलाफ़ बिलावल के तेवर उतने तीखे नहीं हैं. ऐसे में अटकलें ऐसी भी लगाई जा रही थीं कि गिलगित-बाल्टिस्तान में बिलावल की पार्टी को चुनाव जिताकर फ़ौज, विपक्ष के खेमे में दरार डालने की कोशिश कर सकती है, पर, ऐसा हुआ नहीं.
पर्यवेक्षकों का मानना था कि बिलावल भुट्टो ज़रदारी की PPP को जिताकर पाकिस्तान की फ़ौज शायद इमरान ख़ान को भी ये संदेश देना चाहती थी उसके पास एक सियासी विकल्प और भी है. पिछले दो वर्षों के दौरान इमरान ख़ान की हुकूमत, फौज को ये कहकर अपने साथ रखे हुए है कि आर्मी के पास कोई और राजनीतिक विकल्प है नहीं. ऐसे में अगर बिलावल भुट्टो की पार्टी गिलगित-बाल्टिस्तान का चुनाव जीत जाती, तो इमरान ख़ान भी अपनी हरकतों से बाज़ आते और प्रशासन को बेहतर करने पर ध्यान देते. गिलगित-बाल्टिस्तान में PPP की जीत का एक मतलब ये भी होता कि बिलावल आगे चलकर फ़ौज से बेहतर संबंधों के बूते, केंद्र की सत्ता में वापसी का ख़्वाब भी देख सकते. विपक्षी दलों के मोर्चे में दरार पड़ती सो अलग. ख़ुद बिलावल के लिए भी ये एक मौक़ा होता कि वो अपनी पार्टी में एक नई जान फूंक पाते, और बाक़ी देश में अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ा पाते. बिलावल को गिलगित-बाल्टिस्तान में जीत से और भी फ़ायदे होते. इससे ये संदेश भी जाता कि पाकिस्तान की फ़ौज ख़ुद को देश की राजनीति से दूर रखने की कोशिश कर रही है. इससे पाकिस्तान आर्मी को उन आरोपों का सामना कर पाने में भी मदद मिलती कि वो देश की राजनीति में कुछ ज़्यादा ही दख़ल दे रही है और चुनाव में फ़िक्सिंग कर रही है. फ़ौज ये संदेश भी दे पाती कि गिलगित-बाल्टिस्तान जैसे सामरिक रूप से संवेदनशील इलाक़े में भी वो राजनीतिक मामलों में घुसपैठ नहीं करती है. पाकिस्तान की आर्मी बड़ी मज़बूती से ये दावा कर पाती कि गिलगित-बाल्टिस्तान के नतीजे इस बात का सबूत हैं कि देश की राजनीति में उसका कोई दखल नहीं है, और सबसे बड़ी बात ये है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के चुनाव जीतने पर कोई और दल इसके नतीजों पर सवाल न उठाता. लेकिन, ये सारे आकलन और अटकलें धरे के धरे रह गए. गिलगित-बाल्टिस्तान में इस बार भी इतिहास ने ख़ुद को दोहराया और इस्लामाबाद में सत्ताधारी इमरान ख़ान की पार्टी ही वहां भी सरकार बनाने में सफल रही.
अगर गिलगित-बाल्टिस्तान में नवाज़ शरीफ़ की पार्टी जीतती, तो ये इमरान ख़ान और फ़ौज, दोनों ही के लिए तबाही वाली बात होती. इसे फौज पर नवाज़ शरीफ़ के आरोपों पर जनता की मुहर बताया जाता.
चौंकाने वाली बात तो ये होती अगर गिलगित-बाल्टिस्तान पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नून (PML-N) इन चुनावों में जीत हासिल करती. हालांकि, जानकारों का शुरू से ही मानना था कि इसकी संभावना न के बराबर है. इसकी वजह ये नहीं कि गिलगित-बाल्टिस्तान में PML-N की कोई पैठ नहीं है. इससे पहले गिलगित-बाल्टिस्तान में पाकिस्तान मुस्लिम लीग की ही सरकार थी. फिर, मरियम नवाज़ शरीफ़ की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही थी, जो इस बात का सबूत है कि नवाज़ शरीफ़ और मरियम नवाज़, इमरान ख़ान और फ़ौज पर जो इल्ज़ाम लगा रहे हैं, उन पर जनता विश्वास कर रही है. अगर गिलगित-बाल्टिस्तान में नवाज़ शरीफ़ की पार्टी जीतती, तो ये इमरान ख़ान और फ़ौज, दोनों ही के लिए तबाही वाली बात होती. इसे फौज पर नवाज़ शरीफ़ के आरोपों पर जनता की मुहर बताया जाता. वैसे भी पंजाब सूबे में नवाज़ शरीफ़ के पक्ष में काफ़ी भीड़ जुट रही है. आज जब पाकिस्तान की फौज नवाज़ शरीफ़ को नीचा दिखाने के लिए, उनकी पार्टी को कमज़ोर करने के लिए पुरज़ोर कोशिश कर रही है, तो गिलगित-बाल्टिस्तान में उसकी जीत तो ख़यालों से भी परे की बात थी.
ऐसे में एस्टैबलिशमेंट या पाकिस्तान की फौज ने बीच का रास्ता निकाला. गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. इमरान ख़ान की पार्टी सबसे बड़ा दल बनी और उसने अन्य दलों से अलग होकर लड़ने वाले निर्दलीयों के साथ मिलकर गिलगित-बाल्टिस्तान में सरकार बना ली. इससे इमरान ख़ान और फ़ौज को बहुत अधिक सियासी समीकरण बिठाने की ज़रूरत नहीं पड़ी और अवैध कब्ज़े वाले इस इलाक़े में आर्मी का सत्ता पर वास्तविक नियंत्रण बना हुआ है. गिलगित-बाल्टिस्तान में भी पाकिस्तान फ़ौज ने हुकूमत का वही हाईब्रिड मॉडल दोहराया है, जिसकी मदद से उसने इमरान ख़ान को सत्ता में बिठाया हुआ है.
पाकिस्तान के बारे में माना यही जाता है कि वहां आख़िर में वही होता है, जो फ़ौज चाहती है. विपक्ष के हमलों, इमरान ख़ान के नख़रों और चुनाव के नतीजों से इतर, गिलगित-बाल्टिस्तान में भी वही देखने को मिला है. फ़ौज ने वहां, इमरान ख़ान की सरकार बनवाकर विपक्ष को ये संदेश दिया है कि वो अभी भी अपने चहेते इमरान ख़ान के साथ मज़बूती से खड़ी है, और विपक्ष की रैलियों से वो ज़रा भी प्रभावित नहीं है. गिलगित-बाल्टिस्तान के नतीजों से स्पष्ट है कि जिस बदलाव की विपक्ष अपेक्षा कर रहा है, उसे अभी वहां की आर्मी से हरी झंडी नहीं मिली है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador ...
Read More +