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ये त्रासदी दुनिया के व्यस्त समुद्री रास्तों में से एक हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा और आपदा प्रबंधन क्षमता के महत्व को दिखाती है.
जुलाई 2020 के आख़िर में जापान का जहाज़ MV वाकाशियो मॉरीशस तट पर कोरल रीफ में फंस गया. 10 अगस्त तक जहाज़ से क़रीब 1,000 टन ईंधन रिस गया जिससे मॉरीशस के समुद्री ख़ज़ानों में से एक और पर्यावरण के हिसाब से संवेदनशील ब्लू बे मरीन पार्क ख़तरे में आ गया. तेल रिसाव मॉरीशस के पर्यावरण के लिए एक त्रासदी है. ग्रीनपीस अफ्रीका ने चेतावनी दी कि जानवरों की हज़ारों प्रजातियों पर “प्रदूषण के समुद्र में डूबने का ख़तरा है जिसका मॉरीशस की अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य पर बेहद ख़राब असर होगा.” ये त्रासदी दुनिया के व्यस्त समुद्री रास्तों में से एक हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा और आपदा प्रबंधन क्षमता के महत्व को दिखाती है. इस घटना से हमें सतर्क हो जाना चाहिए कि करोड़ों के ख़र्च के बावजूद इस क्षेत्र में आपदा से निपटने का तौर-तरीक़ा कितना कमज़ोर है.
25 जुलाई 2020 को MV वाकाशियो जहाज़ मॉरीशस के समुद्री तट पर फंस गया. दो हफ़्ते बाद 7 अगस्त को जहाज़ को फिर से समुद्र में लाने और इसमें मौजूद 4,000 टन डीज़ल को बाहर निकालने की योजना नाकाम हो गई जिसकी वजह से तेल रिसाव होने लगा.
पहले जिसे एक काबू में आने वाला आपातकाल समझा जा रहा था वो जल्द ही मॉरीशस सरकार के मुक़ाबला करने की क्षमता से बाहर हो गया. 10 अगस्त को प्रधानमंत्री प्रविंद जगन्नाथ ने पर्यावरण आपातकाल का एलान किया और अंतर्राष्ट्रीय मदद की अपील की.
मॉरीशस के सैकड़ों सामान्य नागरिक भूसे से भरी बोरी और दूसरे समान लेकर रिसाव रोकने के लिए जमा हुए. फ्रांस की नौसेना ने एक निगरानी विमान के अलावा नज़दीक के ला रियूनियन से सहायता जहाज़ चैंपलेन को भेजा. भारत के अलावा जापान और अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन (IMO) ने विशेषज्ञों को भेजा. मॉरीशस में मौजूद संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों और यूरोपियन संगठन ने भी मदद भेजी. इन कोशिशों की बदौलत जहाज़ में मौजूद ज़हरीले ईंधन का क़रीब एक-चौथाई हिस्सा ही रिसा. हालांकि ये रिसाव किसी पर्यावरण त्रासदी के लिए काफ़ी था लेकिन जहाज़ के टूटकर उसमें मौजूद पूरे ईंधन के समुद्र में मिलने की नौबत नहीं आई.
मॉरीशस की सरकार को इस तरह की आपदा के जोख़िम के बारे में पता था. वास्तव में ये पहली बार नही था जब कोई जहाज़ इस जगह फंस गया था. ये उस लोकेशन से कुछ ही मील दूर है जहां से हज़ारों जहाज़ एशिया और केप ऑफ गुड होप के बीच का सफ़र करते हैं. मॉरीशस ने IMO और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की मदद से राष्ट्रीय तेल रिसाव आपदा योजना बना रखी है. मॉरीशस तेल रिसाव से निपटने और समुद्र में पर्यावरण आपदा के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय तैयारी की कई बड़े पैमाने की परियोजनाओं का फ़ायदा उठा चुका है.
इनमें 4.9 मिलियन अमेरिकी डॉलर की परियोजना पश्चिमी हिंद महासागर द्वीप तेल रिसाव आपदा योजना शामिल है जो 1998 से 2006 के बीच चली थी. इस परियोजना का मक़सद कोमोरोस, सेशेल्स, मैडागास्कर और मॉरीशस में तेल रिसाव की आपदा से निपटने के लिए उचित राष्ट्रीय और क्षेत्रीय तैयारी है. इस परियोजना के ज़रिए इस बात पर रोशनी डाली गई कि हिंद महासागर के द्वीप तेल रिसाव और पर्यावरण आपदा का जोख़िम उठा रहे हैं. इस परियोजना के ज़रिए जहां राष्ट्रीय स्तर की तैयारी की गई वहीं इसके बाद की परियोजनाएं ज़्यादा महत्वाकांक्षी थी. 26.7 मिलियन डॉलर की पश्चिमी हिंद महासागर समुद्री मार्ग विकास और तटीय और समुद्री प्रदूषण रोकथाम परियोजना 2007-2012 के बीच चली थी जिसका मक़सद क्षेत्रीय तैयारी विकसित कर लागू करना था. केन्या, तंज़ानिया और दक्षिण अफ्रीका को इस परियोजना में शामिल किया गया था.
इस परियोजना का मक़सद कोमोरोस, सेशेल्स, मैडागास्कर और मॉरीशस में तेल रिसाव की आपदा से निपटने के लिए उचित राष्ट्रीय और क्षेत्रीय तैयारी है. इस परियोजना के ज़रिए इस बात पर रोशनी डाली गई कि हिंद महासागर के द्वीप तेल रिसाव और पर्यावरण आपदा का जोख़िम उठा रहे हैं.
इसकी क्षमता निर्माण का काम UNEP के क्षेत्रीय समुद्री कार्यक्रम और नैरोबी समझौते के तहत जारी रहा. कुछ ही महीने पहले इस कार्यक्रम के तहत तेल रिसाव रोकथाम पर एक वर्कशॉप का आयोजन किया गया जहां मॉरीशस ने अपनी राष्ट्रीय तैयारी के बारे में जानकारी दी. आज हम जानते हैं कि सभी क्षमता निर्माण की कोशिश और राष्ट्रीय योजना इस तरह की आपदा का मुक़ाबला करने में अपर्याप्त थी.
इस इलाक़े में क्षमता निर्माण की तीन बड़े पैमाने की परियोजनाएं फिलहाल चल रही हैं. ये अलग-अलग कोणों से समुद्री सुरक्षा पर ध्यान देती हैं. सोमालिया के समुद्री डकैतों और दूसरे तरह के समुद्री अपराध के अलावा समुद्र के संरक्षण की चिंताओं से निपटना भी इनका मक़सद है. लेकिन इन परियोजनाओं के तहत स्थापित किसी भी केंद्र या समझौते ने आपदा से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई.2008 में IMO ने जिबूती आचार संहिता के ज़रिए क्षेत्रीय समुद्री सुरक्षा सहयोग संधि की पहल की. इसके तहत शुरुआत में समुद्री डकैती पर ध्यान दिया गया लेकिन 2017 में इसका विस्तार करके दूसरी बातों के अलावा पर्यावरण के मुद्दों को भी इसमें शामिल किया गया. इसकी कार्यक्रम लागू करने वाली इकाई की स्थापना 2010 में की गई जिसका बजट 13.8 मिलियन अमेरिकी डॉलर था. तकनीकी सहयोग और क्षमता निर्माण को लेकर सिर्फ़ 2018-19 में IMO का बजट 13 मिलियन अमेरिकी डॉलर था.
इस इलाक़े में क्षमता निर्माण की तीन बड़े पैमाने की परियोजनाएं फिलहाल चल रही हैं. ये अलग-अलग कोणों से समुद्री सुरक्षा पर ध्यान देती हैं. सोमालिया के समुद्री डकैतों और दूसरे तरह के समुद्री अपराध के अलावा समुद्र के संरक्षण की चिंताओं से निपटना भी इनका मक़सद है.
एक दूसरी बड़ी पहल MASE परियोजना है जिसकी फंडिंग यूरोपियन यूनियन ने की है. इसका मुख्य मक़सद इलाक़े के देशों को समुद्री क्षेत्र की सटीक तस्वीर विकसित करने के लिए सक्षम बनाना और समन्वित तरीक़े से तेज़ जवाब के लिए तैयार करना है. 2013 से 2020 के बीच यहां 30 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा ख़र्च हुए. तीसरा खंभा नैरोबी संधि के तहत है जिसका मुख्य उद्देश्य प्रदूषण और तेल रिसाव की रोकथाम है. इसके समुद्री कार्यक्रम को सफ़ायर का नाम दिया गया है और इसका बजट 2016-22 के बीच 8.8 मिलियन अमेरिकी डॉलर है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि मॉरीशस की आपदा के वक़्त इनमें से कोई भी महंगी कोशिश बड़े ढंग से जवाब देने में नाकाम रही.
इस बात पर गौर करने के लिए बहुत ज़्यादा कल्पना करने की ज़रूरत नहीं है कि कैसे ये तौर-तरीक़े काम कर सकते थे. MV वाकाशियो अपने सामान्य रास्ते से साफ़ तौर पर भटककर किसी दूसरे रास्ते पर था जिसका पता लग जाना चाहिए था. जब मॉरीशस के कोस्ट गार्ड ने ध्यान नहीं दिया तो मैडागास्कर के क्षेत्रीय समुद्री सूचना केंद्र को तुरंत अलर्ट जारी करना चाहिए था. इसका मतलब ये है कि हादसे को रोका जा सकता था.
जिबूती संहिता, नैरोबी संधि या क्षेत्रीय सहयोग समझौते के तहत जिन प्रक्रियाओं की स्थापना की गई वो जहाज़ के फंसने के बाद बड़ी भूमिका निभा सकती थीं जिनमें संकट के शुरुआती दिनों में जोख़िम के आकलन समेत कई काम शामिल हैं. मॉरीशस इन तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल कर इलाक़े में मदद की मांग कर सकता था चाहे वो क्षेत्रीय विशेषज्ञ की मदद हो या रिसाव काबू करने में अतिरिक्त उपकरण. लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हुआ. क्यों?
मॉरीशस के मामले में तेल रिसाव की आपदा से निपटने के लिए ऊपर बताए गए कार्यक्रम के तहत महत्वपूर्ण कोशिशें की गईं थीं और कागज़ों पर पर्याप्त क्षमता निर्माण और आपदा योजना तैयार की गई थी. लेकिन जिस बात ने सबको हैरान किया वो ये है कि किस तरह एक काबू में आने वाली घटना तेज़ी से बड़े पैमाने पर पर्यावरण आपदा में तब्दील हो गई.
छानबीन में पता चलेगा कि कहां, कब और कैसे ग़लतियां की गईं जिनमें मॉरीशस सरकार, MV वाकाशियो के मालिक और हालात का जवाब देने के लिए लाए गए विशेषज्ञों की गल़तियां शामिल हैं. लेकिन ये आपदा करोड़ों के ख़र्च के बावजूद आम तौर पर क्षमता निर्माण की मुश्किलों की तरफ़ भी इशारा करती है. जैसा कि हम एक आने वाली किताब में बता रहे हैं, क्षमता निर्माण के कार्यक्रम कम अवधि तक चलते हैं और उनका स्वभाव तकनीकी होता है. साथ ही इसमें बाहरी विशेषज्ञों और सलाहकारों पर ज़्यादा ज़ोर रहता है.
क्षेत्रीय समुद्री सुरक्षा के तौर-तरीक़े आपातकाल के दौरान आम तौर पर ग़ायब हैं. इसकी एक वजह ये हो सकती है कि कई परियोजनाएं, संगठन और मंच मौजूद हैं जो इलाक़े में समुद्री सुरक्षा के मुद्दे पर एक या दूसरे ढंग से काम करते हैं.
ऊपर हम उनमें से तीन के बारे में बता चुके हैं लेकिन समुद्री सुरक्षा को लेकर सेफ़ सी नेटवर्क के हिस्से के तौर पर जैसा कि हम एक रिसर्च प्रोजेक्ट में दिखाते हैं, इलाक़े में कुछ ही अलग-अलग पहल पर काम चालू है. विखंडन और उसके नतीजे के तौर पर एक प्रोजेक्ट का दूसरे प्रोजेक्ट में दखल और समन्वय की समस्याएं कार्रवाई और प्रतिबद्धता में दिक़्क़तों की वजह बन सकती हैं. किस संगठन को कार्रवाई करनी चाहिए, कब और कैसे और अगर क्षेत्रीय तौर पर काम करने की ज़रूरत है तो ये कौन करेगा, ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब ज़रूरी है
इस तरह की समस्याओं का समाधान आसान नहीं है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि ये क्षेत्र सामूहिक पहचान या साझा क्षेत्रीय योजना से दूर है. तब भी भारत, केन्या या फ्रांस जैसे देशों के पास वहां तक पहुंचने की क्षमता है..
इस तरह की समस्याओं का समाधान आसान नहीं है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि ये क्षेत्र सामूहिक पहचान या साझा क्षेत्रीय योजना से दूर है. तब भी भारत, केन्या या फ्रांस जैसे देशों के पास वहां तक पहुंचने की क्षमता है. हिंद महासागर रिम एसोसिएशन या हिंद महासागर नौसैनिक सिम्पोज़ियम जैसे फोरम इस तरह की चर्चा के लिए मंच मुहैया करा सकते हैं.
ये तथ्य कि कोई भी क्षेत्रीय तौर-तरीक़ा तेल रिसाव का जवाब देने में सक्षम नहीं रहा और मॉरीशस का उनकी मदद लेने पर विचार नहीं करना, उनके प्रभावशाली होने पर सवाल खड़ा करता है. क्षमता निर्माण में कमी और विखंडन को आसानी से दूर नहीं किया जा सकेगा.
भारत और फ्रांस जैसी क्षेत्रीय शक्तियों ने इस घटना पर तेज़ी से प्रतिक्रिया देते हुए मदद मुहैया कराई. आने वाले लंबे समय तक न सिर्फ़ पर्यावरण त्रासदी बल्कि समुद्री डकैती और समुद्री अपराध के अलग-अलग रूपों में योगदान की ज़रूरत होगी. इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि लंबे वक़्त के लिए इस तरह क्षमता का निर्माण हो ताकि स्थानीय हालात, मजबूरी और प्राथमिकता के मुताबिक़ काम हो सके और जिससे लंबे वक़्त के लिए टिकाऊ समाधान विकसित हो सके
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