Author : Ritu Sharma

Published on Nov 30, 2018 Updated 0 Hours ago

कश्मीर घाटी में स्थानीय निकायों के चुनाव में जो स्थितियां बनीं उससे क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं?

कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए सिमटता दायरा

कश्मीर में हालात सामान्य हैं कि नहीं, इसके आकलन के लिए भारत सरकार लंबे समय से चुनावों को एक संकेतक के रूप में देखती रही है। लेकिन, घाटी में 13 साल के अंतराल के बाद हुए स्थानीय नगर निकायों के चुनावों पर नजर डालें तो ये साफ नजर आता है कि वहां लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए दायरा सिमटता जा रहा है। लोकतांत्रिक आचार व्यवहार में मुख्य तौर पर पुरानी पीढ़ी के लोग शरीक है जिसे आज के युवा अप्रासंगिक समझते हैं। युवा वर्ग नाइंसाफी (वास्तविक और कथित दोनो) के प्रति विरोध जताने के लिए ‘आभासी उग्रवाद’ का विकल्प चुन रहा है।

केन्द्र सरकार एक दशक से ज्यादा समय के बाद नगर निकायों के चुनावों के आयोजन भर से आत्ममुग्ध है। मुख्यधारा की क्षेत्रीय पार्टियां ने चुनावों में शामिल होने से मना कर दिया था। दूसरी ओर कई जगहों पर लोगों ने मस्जिदों से ऐलान करके खुद को चुनावों से खुद को अलग कल लिया जो 1990 के दशक की दुखद याद दिलाता है। इसका परिणाम ये हुआ कि कश्मीर में 2018 में चार चरणों में हुए नगर निकायों के चुनावों में मतदान का प्रतिशत दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाया।

घाटी के युवाओं की राजनीतिक आकांक्षाओं के प्रति प्रशासन के रूख से केन्द्र सरकार की उदासीनता झलकती है। ये बात उस समय और बेहतर तरीके से स्पष्ट हो जाती है जब जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक मतदान शुरू होने के पहले “विदेश में शिक्षित व्यक्ति के श्रीनगर के मेयर” बनने की बात करते हैं।

कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों के चुनाव बहिष्कार के ऐलान पर केन्द्र सरकार ने जिस अहंकार भाव में प्रतिक्रिया दी उसने इस जटिल परिदृश्य (conflict matrix) में पार्टियों को और अप्रासंगिक बना दिया। पार्टियों के अप्रासंगिक बनने से जो रिक्तता पैदा हुई उस पर अलगाववादियों और उग्रवादियों का कब्जा हो गया है। सुरक्षा बलों की आक्रामक (hot pursuit) नीति को सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग लाभकारी मानते हैं जिसमें हर दिन उग्रवादी मारे जा रहे हैं। ये बात समझनी चाहिए कि जिस शख्स ने बंदूक उठा लिया है उसका मारा जाना तो तय है लेकिन सुरक्षा बलों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। इन मुठभेड़ों में अभी तक 71 सुरक्षाकर्मी और 54 नागरिक मारे गये हैं।

भारत सरकार के समक्ष एक बड़ी चुनौती है जो आज नहीं तक कल सामने आ ही जायेगी। जनगणना के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक घाटी में पुरूषों की 63 फीसदी आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की और 70 फीसदी आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है। ये युवा लोकतंत्र में सहभागी बनने को सम्मानजनक नहीं मानते और उन्हें इज्जत की मौत का नैरेटिव ज्यादा लुभावना दिखता है। कश्मीर में उग्रवादियों के रूप में भर्ती के लिए 17 साल से 25 साल के लड़कों और युवाओं पर नजर रखी जाती है। यहां कोई विचारधारा का मसला नहीं है, बल्कि वास्तविकता ये है कि एक उम्र भारत के खिलाफ हो गयी है। ऐसे परिदृश्य में ये सवाल पूछने की जरूरत नहीं है कि कितने उग्रवादी मारे गये हैं बल्कि ये कि कितने नये उग्रवादी बने हैं।

इस कालखंड में 1990 के दशक जैसी भयानक समानता है और अनेकों युवा बंदूक उठाने के लिए घरों से भाग रहे हैं। लेकिन इस बार अलग बात ये है कि ये युवा अब पहले की तरह छुप कर नहीं रहते बल्कि पहला काम ये करते हैं कि उग्रवादी वेशभूषा में, बंदूक लहराते हुए अपने फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं। इनमें अधिकतर पढ़े लिखे हैं और कई बिना कुछ किये धरे ये सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाते हैं। हांलाकि, भारत सरकार युवा पीढ़ी की कुंठाओं को लगातार नजरअंदाज करके पहले के उग्रवाद के दौर की अपनी गलतियों को फिर दोहरा रही है। वक्त की जरूरत तो है कि उग्रवाद पर लगाम लगाई जाये लेकिन सिर्फ उग्रवादियों को मार कर नहीं।

भारत सरकार को ये बात समझनी चाहिए कि कश्मीर में अब चौथी पीढ़ी अशांति झेल रही है जिनकी लोकतंत्र में कोई हिस्सेदारी नहीं है, और जो विद्रोहियों की पीढ़ी है उनमें नाइंसाफी सहन करने की क्षमता कम है। ये वो पीढ़ी है जिसने कभी सामान्य हालात नहीं देखे हैं और जो गोलियों से नहीं डरते। इसे देखते हुए हालात की मांग है कि रणनीति में बदलाव किया जाये। ‘संवाद ना करने’ के रूख का परिणाय ये हुआ है कि उग्रवादियों की संख्या वर्ष 2018 में बढ़कर 360 के करीब हो गयी है जबकि 2013 में ये सबसे कम यानि 78 थी। और तादाद में ये बढ़ोतरी इस हकीकत के बावजूद है कि 1 जनवरी 2018 के बाद से अब तक राज्य में 170 आतंकवादी/घुसपैठिये मारे गये हैं।

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को ये अहसास करने की जरूरत है कि कश्मीर में शक्ति का निष्ठुर प्रदर्शन उसे गैर कश्मीरी आबादी का तो प्रिय बना सकता है लेकिन ये मौजूदा कश्मीरी पीढ़ी को धकेलते हुए उस विन्दु तक पहुंचा देगा जहां से उसकी वापसी संभव नहीं रह जायेगी। कश्मीर की जटिल समस्या को ‘हिंदू भारत बनाम मुस्लिम कश्मीर’ के खांचे में रखने और कश्मीरियों की आकांक्षाओं को ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित करने का परिणाम ये हुआ है कि गतिरोध की ये स्थिति पैदा हो गयी है। इसके हल की दिशा में पहला कदम युगों से आजमाई हुई वो सलाह है, जिसकी पेशकश पहले भी शांतिदूत करते रहे हैं, वो है संवाद, भले ही इसका कोई परिणाम हाल के समय में निकलता ना दिखे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ का नारा देकर इसी का एक उदाहरण पेश किया था।

दूसरी बात ये, कि घाटी में असंतोष के हर प्रकरण को देश के विभाजन की बड़ी साजिश के रूप में प्रचारित करना बंद करें जिसकी वजह से कश्मीर के खिलाफ देश भर में नफरत की भावना भड़की है। मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को राजनीति करने के लिए जो जरूरी दायरा चाहिए, वो इस नफरत की वजह से कम हो गयी है। इससे कभी कभी कश्मीरियों की छोटी मोटी आकांक्षाओं की पूर्ति हो जाया करती थी। इसे और सरल तरीके से समझने की कोशिश करें। एक तमिल राजनीतिज्ञ कभी कभी ऐसे बयान दे दिया करता है जो राष्ट्रीय नीति के खिलाफ हो, और केन्द्र सरकार ने अनेकों बार श्रीलंका में तमिल लोगों की चिंताओं का समाधान किया है या हिंदी को राष्ट्र भाषा मानने को लेकर उनकी आपत्तियों को तवज्जो दी है। अत:, समय आ गया है कि सरकार लोकतंत्र की रक्षा करे और राजनीतिक संरचना को ध्वस्त होने से बचाये।

लोकतंत्र के सशक्तीकरण से स्थानीय स्तर तक सत्ता का हस्तांतरण संभव हो पायेगा। जो समाज स्वायत्तता की आकांक्षा रखता हो उसे कुछ अधिकार प्रदान किया जाये तो ये एक बड़े विश्वास बहाली उपाय के रूप में काम करेगा। लोगों को शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति दी जानी चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का ये मानना बिल्कुल सही है विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र का सेफ्टी-वाल्व है। हम कश्मीर की युवा आबादी को उसके गुस्से या कुंठा को जाहिर करने का कोई मौका देने से रोक रहे हैं। उन्हें सोशल मीडिया पर अपना आक्रोश जाहिर करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। पत्थरबाजी करने या मारे गये उग्रवादियों के जनाजे में शामिल होने के आरोप में उनके खिलाफ जन सुरक्षा कानून की धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया जाता है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के दायरे के विस्तार से कश्मीर में अलगाववादी राजनीति तुरंत कमजोर नहीं होगी या पाकिस्तान के साथ भारत की समस्या का समाधान नहीं हो जायेगा। ऐसा लंबे समय तक करना होगा। इसका पहला कदम अब ये है कि घाटी में और पूरे भारत में गुस्से को ठंडा किया जाये।

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