आज से तक़रीबन 50 लाख साल पहले मानव जीवन के उभार की प्रक्रिया में वनमानुष जाति के प्राणियों ने पूर्वी अफ़्रीका की रिफ़्ट घाटी से बाहर निकलना शुरू किया था. पृथ्वी पर इंसानी जीवन के उभार के इस बेहद शुरुआती दौर की यात्रा में मनुष्य के इन पूर्वजों का नए तरीक़े के पर्यावरण और हालातों से सामना हुआ था. इसके अलावा उन्हें नए-नए शिकारियों और लगातार उतार-चढ़ावों भरे जलवायु से भी दो-चार होना पड़ा था. उस वक़्त अफ़्रीका में कभी भारी बारिश और तो कभी बेहद सूखा मौसम रहता था. इंसानों ने ऐसे चुनौतीपूर्ण वातावरण में भी ज़िंदा रहने और आगे चलकर पूरे विश्व में फैल जाने का हुनर दिखाया. इससे इस बात के संकेत मिलते हैं कि मानव और उसके पूर्वज शायद सभी जीवों में परिस्थिति के हिसाब से ढल जाने में सबसे ज़्यादा माहिर हैं. पर्यावरण से जुड़े तमाम तरह के बदलावों में वो लगातार ख़ुद को अनुकूल बनाते जाते हैं. इसके पीछे उनके बेहद तेज़ सामाजिक मस्तिष्क और संस्कृति का हाथ होता है. इसी की बदौलत वो ज्ञान या जानकारियां जुटाते हैं और उसे आगे की तमाम पीढ़ियों और समूहों में फैलाते चले जाते हैं.
मौजूदा वक़्त में पृथ्वी पर मौसम से जुड़ी तमाम प्राकृतिक विपदाओं में सबसे सामान्य और व्यापक समस्या बाढ़ ही है. दक्षिण एशिया जैसे इलाक़े में सदियों से बाढ़ की समस्या नियमित तौर पर सामने आती रही है.
ज़ाहिर है इंसानों की इस पूरी विकास यात्रा में पानी से जुड़े प्रलयकारी हालात कभी भी बहुत असामान्य कारक नहीं रहे. लिहाज़ा इंसानों को बाढ़ जैसी विपत्तियों के बारे में कभी भी कोई ख़ास तवज्जो देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. हालांकि मौजूदा वक़्त में पृथ्वी पर मौसम से जुड़ी तमाम प्राकृतिक विपदाओं में सबसे सामान्य और व्यापक समस्या बाढ़ ही है. दक्षिण एशिया जैसे इलाक़े में (मॉनसून के निश्चित मौसम वाला) सदियों से बाढ़ की समस्या नियमित तौर पर सामने आती रही है. हमारे पूर्वजों ने हमें हर परिस्थिति के हिसाब से ख़ुद को ढाल लेने का ज्ञान मुहैया कराया है. हालांकि ये फ़ायदेमंद हुनर बाढ़ के संदर्भ में नदारद मालूम होता है. पिछले कई दशकों से सिंधु समेत गंगा-ब्रह्मपुत्र और मेघना के विशाल मैदानों में बसे एक अरब से भी ज़्यादा लोग लगातार बाढ़ और जानमाल पर उसके बेहिसाब नुकसानों को झेलने पर मजबूर हैं. इसके पीछे की वजह क्या है? बेशक़ जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या का बढ़ता घनत्व इसके पीछे के प्रमुख कारक हैं. इन्हीं के चलते कुछ साल ऐसे होते हैं जिनमें बाढ़ अपेक्षाकृत ज़्यादा बर्बादी और तबाही लाती है. लेकिन क्या दक्षिण एशिया में बाढ़ के क़िस्से का कोई ऐसा आयाम भी है जो अब तक ज़्यादातर अनसुना ही रहा है?
अतीत का ज्ञान
दक्षिण एशिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा सिंधु और गंगा के मैदानी क्षेत्र में पड़ता है. ये इलाक़ा हिमालय के साए में बसा है. यही हिमालय दक्षिण एशिया में गर्मी के मौसम के मॉनसून की प्रभावी रूप से घेराबंदी करता है. इसके चलते मॉनसून अपनी पूरी मियाद में हिमालय के बगल में बरकरार रहता है. हिमालय से निकलने वाली चौड़ी, सुस्त रफ़्तार वाली और प्रचुर मात्रा में गाद से भरी नदियां सिंधु और गंगा के मैदानी इलाकों को भरपूर पानी मुहैया कराती हैं. ये तमाम नदियां ताज़े पानी के इस मौसमी प्रवाह को अपने भीतर समेटकर उन्हें पूरे जलतंत्र में पहुंचाती हैं. लगभग हर साल बारिश के मौसम के बाद का प्रवाह नदियों की क्षमता से आगे निकल जाता है. नतीजतन नदियों के किनारे के इलाक़ों में पानी भर जाता है. इससे बाढ़ की समस्या पैदा होता है क्योंकि इंसानों की बसावट वाले इलाक़े पानी में डूब जाते हैं.
औद्योगीकरण से पहले के दक्षिण एशियाई समाजों में इस अनूठे हालात में आगे बढ़ने के लिए मुख्य तौर पर दो रणनीतियों का उपयोग किया गया. पहला, प्रचंड जल प्रवाह से ख़ुद को बचाने के लिए वो ऊंचे मैदानी इलाक़ों में चले गए. इसके साथ ही उन्होंने खेतीबाड़ी से जुड़े अपने तौर-तरीक़ों को इस सालाना ‘समस्या’ के इर्द गिर्द विकसित कर लिया.
शुरुआत में ही हमारे सामने ये बात आई थी कि मानव अपने अनुभवों से सीखते हैं. इसी के मुताबिक दक्षिण एशिया के समाजों ने मॉनसून के व्यापक प्रभावों के हिसाब से ख़ुद को अच्छे से ढाल लिया है. यहां मानवीय बसावट नदी तंत्रों के उपजाऊ मैदानी इलाक़ों में फैलता चला गया. हालांकि उस वक़्त मैदानी इलाक़ों के लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि उन इलाक़ों की समतल बनावट के चलते वहां बाढ़ आना लाज़िमी है. बहरहाल आज टेक्नोलॉजी की मदद से हमें इस बात की जानकारी हासिल हो चुकी है. बाढ़ के ख़ौफ़ में रहने या बाढ़ के पानी को दुश्मन समझने की बजाए समुदायों ने सैलाब को एक मददगार घटना समझा. बाढ़ में ज़मीन को उपजाऊ बनाने की क्षमता और उसमें मौजूद पोषण शक्ति के चलते मानव समुदायों ने उसे एक सहायक घटना माना. सैलाब से बाढ़ के मैदानों (floodplains) में पानी का प्रवाह होता है. हाल के वक़्त तक इन बाढ़ के मैदानों में अनेक जलक्षेत्र हुआ करते थे. ज़ाहिर है बाढ़ से इन जलक्षेत्रों में पानी की भरपाई होती थी. इससे पानी, गाद और मछलियों की सालों भर नियमित आपूर्ति होती रही. इसके साथ-साथ मिट्टी में नई जान और उपजाऊ क्षमता के संचार ने मूल रूप से खेती पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं की बड़ी मज़बूती से नींव रखी. ज़ाहिर है मानव समुदाय इनके हिसाब से ढलने लगे. आज हम इनमें से कई सुविधाओं को आपस में जुड़ी नदियों की पारिस्थितिकी से जुड़ी सेवाओं के तौर पर जानते हैं. बेशक़ अब इन तमाम क्षेत्रों में भारी बदलाव आ गए हैं. इसके बावजूद एक निश्चित अंतराल पर आने वाले सैलाब के साथ गुज़र बसर करने की इस प्राचीन परंपरा और ज्ञान के कुछ निशान आज भी मौजूद हैं.
औद्योगीकरण से पहले के दक्षिण एशियाई समाजों में इस अनूठे हालात में आगे बढ़ने के लिए मुख्य तौर पर दो रणनीतियों का उपयोग किया गया. पहला, प्रचंड जल प्रवाह से ख़ुद को बचाने के लिए वो ऊंचे मैदानी इलाक़ों में चले गए. इसके साथ ही उन्होंने खेतीबाड़ी से जुड़े अपने तौर-तरीक़ों को इस सालाना ‘समस्या’ के इर्द गिर्द विकसित कर लिया. दूसरी रणनीति के तहत सरल और चतुराई भरे तौर-तरीक़े ढूंढे गए. इनके तहत ऊंचे और प्रचंड प्रवाहों से स्थानीय तौर पर जुटाए गए संसाधनों के ज़रिए निपटा गया. साथ ही बाढ़ का अच्छे से सामना कर पाने वाले साधनों का इस्तेमाल किया गया. इन तमाम उपायों के इस्तेमाल के साथ-साथ पानी उतरने का इंतज़ार किया जाता था. इन रणनीतियों में बाढ़ की मार झेल पाने में सक्षम धान की प्रजाति की खेती, बांस पर टेक लगाकर बनाए जाने वाले मकान और बाढ़ के पानी को सहेज कर रखने के लिए जलसंचय करने वाले ढांचों का निर्माण करने जैसे उपाय शामिल हैं.
बचाव का भ्रम जाल
भारतीय उपमहाद्वीप में मानव समुदायों और प्राकृतिक वातावरण के बीच पारस्परिक फ़ायदे वाली पारंपरिक व्यवस्था में ब्रिटिशों के आने से खलल पड़ गया. ब्रिटिश उपनिवेशवादी अपने साथ औद्योगिक क्रांति लेकर आए थे. इसने पूरे परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव ला दिया. इन परिवर्तनों के इतने व्यापक तात्कालिक आर्थिक फ़ायदे हुए जो इससे पहले कभी देखे नहीं गए थे. ज़मीन से अधिकतम राजस्व हासिल करने की औपनिवेशिक नीति के तहत ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन को खेतीबाड़ी के दायरे में लाया गया. इस प्रणाली में बाढ़ नियंत्रण के लिए पुश्तों या तटबंधों का निर्माण नई रणनीति बनकर सामने आई. इसके साथ ही नहरों और सड़क और रेल नेटवर्कों जैसे बुनियादी ढांचों का विस्तार किया गया. ये बुनियादी ढांचे अक्सर इन्हीं तटबंधों पर बनाए गए. हालांकि इनका विस्तार करते वक़्त नालों के लिए पर्याप्त प्रावधान नहीं किए गए. इससे नदियों से जुड़ा पूरा परिदृश्य ही बदल गया. नतीजतन नदियों और बाढ़ के मैदानों के बीच का संपर्क ही टूट गया. नदियों को एक ख़ास तयशुदा रास्ते पर चलने के लिए ‘प्रशिक्षित’ किया गया. किनारों पर उनके विस्तार और बहाव को तटबंधों के इस्तेमाल के ज़रिए काबू में किया गया. इसी तरह आर्थिक फ़ायदों को अधिकतम करने के लिए बाढ़ के मैदानों को उसी हिसाब से परिवर्तित किया गया. विद्वानों ने ब्रिटिश राज के दौरान पानी से जुड़े इस समूचे तंत्र में की गई तमाम दखलंदाज़ियों को संक्षेप में समझाने के लिए अक्सर इसे ‘औपनिवेशिक जल-विज्ञान’ का नाम दिया है. इन बदलावों का दक्षिण एशिया के सामाजिक और नदियों से जुड़े समूचे तंत्र पर बड़ा गहरा असर पड़ा.
किनारों पर उनके विस्तार और बहाव को तटबंधों के इस्तेमाल के ज़रिए काबू में किया गया. इसी तरह आर्थिक फ़ायदों को अधिकतम करने के लिए बाढ़ के मैदानों को उसी हिसाब से परिवर्तित किया गया.
20वीं सदी के मध्य में औपनिवेशिक शासन के अंत के साथ ही ये इलाक़ा आज़ाद और संप्रभु राष्ट्रों में बंट गया. यहां की कई नदियां अब अंतरराष्ट्रीय सरहदों में तब्दील हो गईं. इलाक़े के इतिहास में आए इस अहम मोड़ ने सैलाब से जुड़ी क़वायद को भी प्रभावित किया. अब बाढ़ के ख़तरों को कम करने की तमाम जुगत का मकसद अधिकतम राजस्व हासिल करने के औपनिवेशिक लक्ष्य से हटकर जनकल्याण को अधिकतम स्तर पर लाना हो गया. हालांकि इस लक्ष्य को हासिल करने का ज़रिया औपनिवेशिक इंजीनियरिंग ही बना रहा. ज़ाहिर है ये तौर-तरीक़ा उधार का और टुकड़ों में बंटा था. बाढ़ नियंत्रण के लिए ढांचागत उपायों पर निर्भर रहने की परिपाटी ने ‘बाढ़ के साथ गुज़र-बसर करने’ की स्थानीय परंपरागत पद्धतियों को काफ़ी नुकसान पहुंचाया. मानव जीवन के उभार के साथ हासिल हुई इन परंपरागत जानकारियों के स्थान पर और ज़्यादा तटबंधों, ऊंचे बांधों, पानी का रास्ता बदलने के तरीक़ों और बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं का बोलबाला रहने लगा. ज़्यादा से ज़्यादा ऐसी परियोजनाओं की संभावनाओं की तलाश की जाने लगी. इस बार तो ऐसे हस्तक्षेपों का आकार और भी बड़ा होने लगा. लगभग पूरी 20वीं सदी में राज्यसत्ता ने बाढ़ के इकलौते स्थायी समाधान के तौर पर इन्हीं उपायों को अपने सामने रखा.
इसके साथ ही बुनियादी ढांचों के रूप में किए जाने वाले हस्तक्षेपों द्वारा मुहैया कराए जाने वाले बचाव का भ्रम भी फैला. इसने बाढ़ के मैदानों में और ज़्यादा अनियंत्रित गतिविधियों को बढ़ावा दिया. शहरों के विस्तार और जनसंख्या की बढ़ोतरी के चलते सैलाब के ख़तरे और भी ज़्यादा बढ़ गए. दशकों बाद अब हमारे सामने जो हक़ीक़त है उसमें हम साफ़ तौर से देख सकते हैं कि बाढ़ के ख़तरों से घिरे इलाक़ों का विस्तार हो गया है. इतना ही नहीं ढांचागत स्तर पर बेहिसाब दखलंदाज़ियों के चलते पारिस्थितिकी तंत्र को हुए भारी नुकसान का कोई लेखाजोखा ही नहीं हो सका है. इतना ही नहीं बाढ़ और जलप्रलय की भयावह घटनाएं भी बढ़ गई हैं. इस सिलसिले में 2008 में कोसी नदी के प्रवाह में अचानक आए बदलाव की मिसाल हम सबके सामने है. ज़ाहिर है दक्षिण एशिया के पूरे इलाक़े में सैलाब के प्रबंधन से जुड़ी व्यवस्थाओं को नए सिरे से तैयार करने की ज़रूरत है. इस कड़ी में बाढ़ की तबाही को टालने में बांधों की ज़बरदस्त नाकामी पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. बाढ़ के ख़तरों में घिरे ज़्यादातर क्षेत्र रिहाइश के लिहाज़ से सबसे सस्ते इलाक़ों में शुमार होते हैं. ऐसे में जल प्रलय की सबसे बड़ी मार ग़रीब आबादी पर ही पड़ती है. ज़ाहिर है कमज़ोर वर्गों की भलाई सुनिश्चित करने को लेकर कल्याणकारी राज्य के घोषित लक्ष्य से ये हालात बिल्कुल विपरीत हैं.
ढांचागत स्तर पर बेहिसाब दखलंदाज़ियों के चलते पारिस्थितिकी तंत्र को हुए भारी नुकसान का कोई लेखाजोखा ही नहीं हो सका है. इतना ही नहीं बाढ़ और जलप्रलय की भयावह घटनाएं भी बढ़ गई हैं.
आगे क्या होने वाला है?
पिछले साल यूरोप में आई बाढ़ से कुछ बातें साफ़ तौर पर उभरकर सामने आईं. पूर्वानुमान और भविष्यवाणियों की आधुनिक और पर्याप्त तकनीकों के बावजूद वैश्विक जलवायु में हो रही बढ़ोतरी से बारिश और आंधी-तूफ़ान की घटनाएं और आक्रामक रूप से सामने आ रही हैं. इससे जान और माल का नुकसान हो रहा है और आगे भी होने की आशंका बरकरार है. बहरहाल बार-बार सामने आ रही इस समस्या से बाढ़ का जोख़िम कम करने को लेकर एक बेहद अहम और प्रभावी सिद्धांत सामने आया है. नीदरलैंड्स के लोग एक ज़माने से पानी से जुड़ी इंजीनियरिंग के अगुवा रहे हैं. डच लोग आज प्रकृति पर आधारित समाधानों की सबसे ज़्यादा बढ़ चढ़कर अगुवाई कर रहे हैं. नीदरलैंड्स में ‘नदी के लिए जगह बनाने’ को लेकर दशकों की तैयारी ने नुकसान कम करने में काफ़ी मदद की है. दक्षिण एशिया के पास भी बाढ़ के हिसाब से ख़ुद को प्रभावी रूप से ढाल लेने का सदियों के अनुभव पर आधारित ज्ञान है. हालांकि इसने बाढ़ नियंत्रण के लिए अबतक दूसरे तरीक़ों को ही अपनाया है. बाढ़ प्रबंधन और उसके हिसाब से शासन प्रशासन के संचालन का मुद्दा हमेशा से ही प्रासंगिक रहा है. आज दक्षिण एशिया एक बार फिर इस मुद्दे के साथ जुड़ाव बना रहा है. ऐसे में दक्षिण एशिया के लिए इस दिशा में अपनी खोई हुई क्षमता को दोबारा हासिल करने का माकूल वक़्त आ गया है. भारत इस इलाक़े की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारत के पास इस मसले पर शोध कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन मौजूद हैं. ऐसे में भारत को बाढ़ से निपटने के स्थानीय और क्षेत्र-विशेष की ज़रूरतों के हिसाब से अनुकूलता वाले तौर-तरीक़े ढूंढने की अगुवाई करनी चाहिए.
मोटे तौर पर दो तरीक़ों से ये काम किया जा सकता है. शहरी इलाक़ों में इसके तहत कंक्रीट के कठोर और अभेद्य फ़र्श को कम करना और ‘पानी सोखने वाले शहरों यानी sponge cities’ के लिए रास्ता खोलने जैसी क़वायद शामिल है. डेल्टा या समंदर के मुहाने पर बसे मुंबई जैसे तटवर्ती शहरों में कार्यकारी शब्द और उसके तहत नीतिगत प्रतिक्रिया ‘नाले’ से हटकर ‘सोखने’ में बदल जाना चाहिए. ग्रामीण क्षेत्रों में ‘सक्रिय बाढ़ के मैदानों’ में ज़मीन के इस्तेमाल को पलटना मुमकिन है. वहां बाढ़ के मैदानों की पहचान होनी चाहिए. इसके साथ-साथ तटबंधों या पुश्तों को चरणबद्ध रूप से हटाने का काम भी किया जाना ज़रूरी है. चाहे शहर हों या गांव, पानी के निकास की प्राकृतिक प्रणालियों को फिर से बहाल करना होगा. इसके लिए अतिक्रमण को हटाकर बारिश के पानी का तेज़ और प्रभावी प्रवाह सुनिश्चित करना होगा.
भारत इस इलाक़े की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारत के पास इस मसले पर शोध कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन मौजूद हैं. ऐसे में भारत को बाढ़ से निपटने के स्थानीय और क्षेत्र-विशेष की ज़रूरतों के हिसाब से अनुकूलता वाले तौर-तरीक़े ढूंढने की अगुवाई करनी चाहिए.
ज़ाहिर तौर पर इन तमाम क़वायदों को कामयाब तरीक़े से पूरा करने के लिए विस्थापित लोगों को पर्याप्त मुआवज़ा देने और उनके पुनर्वास की व्यवस्था करनी होगी. शासन प्रशासन का मौजूदा तौर-तरीक़ा अदूरदर्शी और टुकड़ों में बंटा हुआ है. ये व्यवस्था राजनेताओं, इंजीनियरों और ठेकेदारों के बीच कई तरह की साठगांठ में उलझी है. लिहाज़ा इस व्यवस्था की निष्क्रियता से पार पाने के लिए काफ़ी प्रयास करने होंगे. ऐसा लगता है ये पूरी पहल ‘क्रांतिकारी’ होने वाली है. इस तरह की क़वायद के लिए संस्थागत क्षमता तैयार करने और उसको बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी योजनाएं बनाने की दरकार होगी. हालांकि बाढ़ की समस्या के टिकाऊ और दीर्घकालिक समाधान के लिए नई सोच और तौर-तरीक़ों की ज़रूरत है. दरअसल भारत बाढ़ के अनुकूल प्रबंधन के लिहाज़ से दुनिया का अगुवा या विश्व गुरु बन सकता है. भारत के हिसाब से इसके लिए तमाम ज़रूरी आर्थिक और राजनीतिक पहलू मौजूद हैं. ग़ौरतलब है कि बांग्लादेशी और वियतनामी डेल्टा क्षेत्रों में नीदरलैंड्स ने अत्याधुनिक डेल्टा मैनेजमेंट रणनीतियों के प्रसार में काफ़ी कामयाबियां हासिल की हैं. भारत को भी इसी तरह की क़वायद में महारत हासिल करनी होगी. भारत और मोटे रूप से पूरे दक्षिण एशिया के लिए सबसे फ़ायदेमंद बात ये है कि इस पूरी जद्दोजहद में वो अतीत में तजुर्बे से हासिल ज्ञान के भंडार या ख़ज़ाने का इस्तेमाल कर सकते हैं. बाढ़ के साथ ज़िंदा रहने की क़वायद में इन तमाम जानकारियों और हुनर का उपयोग किया जा सकता है.
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