Author : Satish Misra

Published on Jan 04, 2019 Updated 0 Hours ago

लोकसभा चुनाव से पहले कुछ पार्टियां चुनाव के बाद के अपने विकल्पों को छुपाने हेतु जोड़तोड़ करके एक ढीले ढाले गठबंधन की घोषणा कर सकती हैं लेकिन ये जिस तरह ये उभरेंगे उसी तरह गायब भी हो जायेंगे।

संघीय मोर्चा या विफल मोर्चा?

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्र शेखर राव (केसीआर) ने हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की। इस चुनाव में तेलंगाना राष्ट्र समिति ने कुल (टीआरएस) 119 में से 88 सीटें हासिल की। केसीआर एक गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई मोर्चा बनाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। इसका नामकरण उन्होंने फ़ेडरल फ्रंट किया है।

केसीआर मुख्यमंत्रियों और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से मुलाकात के लिए अलग अलग राज्यों की राजधानियाँ घूम रहे हैं ताकि वे राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहें और आगामी आम चुनावों में खंडित और त्रिशंकु चुनाव परिणाम आने की स्थिति में अपने लिए एक बेहतर सौदा कर सकें।

केसीआर एक गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई मोर्चा बनाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। इसका नामकरण उन्होंने फ़ेडरल फ्रंट किया है।

 उन्होंने रविवार 23 दिसंबर को ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ फ़ेडरल फ्रंट (संघीय मोर्चा) के विचार पर चर्चा करने के लिए भुवनेश्वर की यात्रा की ताकि गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी क्षेत्रीय दलों को एक दूसरे के करीब लाया जा सके और वे मिलकर आगामी चुनाव के लिए काम कर सकें। अगले ही दिन तेलंगाना के मुख्यमंत्री पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाक़ात के लिए कोलकाता में थे। मुलाकात के बाद केसीआर ने मीडिया को बताया कि मोर्चे के गठन पर संवाद जारी रहेगा और दावा किया कि यह वार्ता जल्द ही गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी मोर्चे के निर्माण की दिशा में एक ठोस रूप धारण करेगी। किन्तु न ही पटनायक और न ही बनर्जी ने अपने तेलंगाना समकक्षी के साथ हुई बैठक पर किसी तरह की प्रतिक्रिया दी।

26 दिसंबर को तेलंगाना के मुख्यमंत्री राष्ट्रीय राजधानी में थे जहां उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। मुलाकात को मात्र “शिष्टाचार भेंट” करार दिया गया। केसीआर नई दिल्ली प्रवास के दौरान बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती और समाजवादी पार्टी (सपा) अखिलेश यादव से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे। पर वे इन दोनों नेताओं में से किसी से भी मुलाकात नहीं कर सके।

अगले आम चुनाव में लगभग चार महीने ही रह गए हैं और भारतीय निर्वाचन आयोग अगले साल मार्च में कभी भी चुनावी कवायद शुरू कर सकता है।

उधर अखिलेश यादव ने सूचित किया कि वह केसीआर से मिलने के लिए हैदराबाद जायेंगे वहीँ बसपा सुप्रीमो मायावती ने उनसे मिलने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई। हालांकि केसीआर उनके सम्मान में उनसे मिलने के लिए लखनऊ जा सकते हैं।

अगले आम चुनाव में लगभग चार महीने ही रह गए हैं और भारतीय निर्वाचन आयोग अगले साल मार्च में कभी भी चुनावी कवायद शुरू कर सकता है। 2014 में 5 मार्च को चुनावों की घोषणा की गई थी और नौ चरणों में चुनाव करवाए गए जिसमें पहला चरण 7 अप्रैल और अंतिम चरण 12 मई को पूरा हुआ था।

16 मई को परिणाम घोषित हुए जब भाजपा के नेतृत्व वाले राजग का नेतृत्व तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया जिन्हें 336 सीटों के साथ अभूतपूर्व जनादेश मिला और सत्तारूढ़ यूपीए 60 लोकसभा सीटों तक ही सिमट कर रह गई और शेष 146 सीटें गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस पार्टियों के पास चली गईं।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री द्वारा 2018 के आरम्भ यानी मार्च में ही फेडरल फ्रंट बनाने के विचार को आगे बढानेके प्रयास दिखने लगे थे।जब उन्होंने क्षेत्रीय नेताओं से समर्थन प्राप्ति के लिए कुछ राज्यों की राजधानियों का दौरा किया था। केसीआर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिलने कोलकाता पहुंचे जहाँ बैठक के बाद उन्होंने मीडिया से कहा कि “भाजपा और कांग्रेस को दरकिनार करने के लिए यह एक बेहतरीन शुरुआत है।”

तेलंगाना में लगभग 18 प्रतिशत अल्पसंख्यक वोटर हैं और यदि यह धारणा बन गई कि केसीआर भाजपा के करीबी हैं या भगवा पार्टी के लिए काम कर रहे हैं तो अभी हालिया हुए विधानसभा चुनावों में प्राप्त अल्पसंख्यकों का पर्याप्त वोट आगामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेस या अन्य सेक्युलर पार्टियों की झोली में गिर सकता है।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री परिस्थियों के निरीक्षण में कहीं अधिक सजग दिखीं और उन्होंने इस सन्दर्भ में कहा: “श्री राव ने जो कहा है ऐसा नहीं है कि मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं। लेकिन उन्हें अपनी बात कहने देनी चाहिए यदि कहीं कुछ हुआ तो आप को पता चल जाएगा।”

उन्होंने कहा “कभी कभी राजनीति में इस तरह की परिस्थितियां बन जाती हैं कि लोगों को काम करने के लिए एक साथ आना ही पड़ता है।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि “हम एक मजबूत मोर्चा चाहते हैं लेकिन हम जल्दबाजी में नहीं हैं।”

हालांकि इस दिशा में बात बहुत आगे नहीं बढ़ी क्योंकि सभी संभावित राजनीतिक साझेदार फेडरल फ्रंट के लक्ष्य पर एक आम सहमति नहीं बना सके। फेडरल फ्रंट का विचार सुप्तावस्था में ही बना रहा। राष्ट्रीय भूमिका तलाश रहे टीआरएस प्रमुख ने फेडरल फ्रंट के विचार को पुनर्जीवित किया है। वे अपने बेटे केटीआर का मार्ग प्रशस्त करना चाहते हैं ताकि वे आगे आने वाले वक़्त में टीआरएस की कमान संभाल सके। केटीआर अभी हाल ही में विधानसभा चुनाव जीते हैं और टीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं, और केसीआर की पिछली सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं।

बेटे पर सब छोड़ कर केसीआर अपने मिशन में ओड़िसा में बीजेडी, पश्चिम बंगाल में टीएमसी, उत्तरप्रदेश में एसपी और बीएसपी और शायद तमिलनाडु में एआईडीएमके के साथ गठबंधन करना पसंद करेंगे।

 केसीआर उस स्थिति में एक किंगमेकर के रूप में उभरने का प्रयास कर रहे हैं जब एनडीए और यूपीए दोनों में से किसी को भी स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो। केसीआर के मिशन की सफलता या विफलता त्रिशंकु निर्णय पर निर्भर करती है उस स्थिति में अधिकांश घटक मोर्चा छोड़ देंगे और सत्ता और पद हथियाने का प्रयास करेंगे।

जबकि हर क्षेत्रीय नेता का अपना एजेंडा और अपनी महत्वकांक्षाएं हैं यह एक आसान काम नहीं है। उदहारण के लिए मायावती और ममता बनर्जी दोनों ही खुद को भविष्य के प्रधान मंत्री के रूप में देखती हैं। यहाँ तक कि केसीआर भी स्वयं के लिए केंद्र में एक बड़ी भूमिका की कल्पना कर रहे हैं। केसीआर को सबको साथ रखकर फेडरल फ्रंट बनाने की जरुरत है ताकि वे आम जनमानस में यह नजरिया पैदा कर सकें कि वे बीजेपी को मदद पहुंचाने के लिए इसका गठन नहीं कर रहे हैं बल्कि चुनावी फायदे के लिए विपक्ष को एकजुट बनाए रख सकने के लिए कर रहे हैं।

लोकसभा चुनाव से पहले कुछ पार्टियां चुनाव के बाद के अपने विकल्पों को छुपाने हेतु जोड़तोड़ करके एक ढीले ढाले गठबंधन की घोषणा कर सकती हैं लेकिन ये जिस तरह ये उभरेंगे उसी तरह गायब भी हो जायेंगे।

लेकिन उनके सभी दावों के बावजूद लोग अपनी समझ रखते हैं और ऐसा नहीं लगता कि तेलंगाना का मतदाता उनके शब्दों और उनकी छवि के आधार पर मतदान करेंगे। बीते सालों में मतदाता परिपक्व हुए हैं और उनका व्यवहार चुनाओं की प्रकृति के साथ साथ बदल भी रहा है। अक्सर लोग राष्ट्रीय और राज्य के चुनावों में अलग अलग मुद्दों पर वोट करते हैं।

तेलंगाना में लगभग 18 प्रतिशत अल्पसंख्यक वोटर हैं और यदि यह धारणा बन गई कि केसीआर भाजपा के करीबी हैं या भगवा पार्टी के लिए काम कर रहे हैं तो अभी हालिया हुए विधानसभा चुनावों में प्राप्त अल्पसंख्यकों का पर्याप्त वोट आगामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेस या अन्य सेक्युलर पार्टियों की झोली में गिर सकता है।

आज के हालातों में इस तरह के मोर्चे के सफल होने को लेकर बहुत से अन्तर्विरोध हैं। निस्संदेह इस तरह के मोर्चे की दरकार और गुंजाइश दोनों ही हैं। इस तरह के मोर्चे की नींव रखने से पहले नेताओं और अकादमिकों के बीच विस्तृत चर्चा जरुरी है। फेडरल फ्रंट को कार्यरूप देने के लिए जमीनी काम करने की जरुरत है जिससे इसे एक निश्चित समयावधि में बेहतर तरीके से गठित और विकसित किया जा सके।

केसीआर ने हाल के दिनों में अपनी जमीनी समझ और प्रतिक्रियाओं के साथ जिन लोगों से मुलाकातें की उन सभी में प्रतिक्रिया की कमी और उत्साह का अभाव था जिसने केसीआर को यह कहने को मजबूर कर दिया कि उन्हें इस मोर्चे के गठन की जल्दबाजी नहीं है।

लोकसभा चुनाव से पहले कुछ पार्टियां चुनाव के बाद के अपने विकल्पों को छुपाने हेतु जोड़तोड़ करके एक ढीले ढाले गठबंधन की घोषणा कर सकती हैं लेकिन ये जिस तरह ये उभरेंगे उसी तरह गायब भी हो जायेंगे। केसीआर ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। अपनी राजनीतिक सफलता या अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए वे अपने राजनीतिक मिशन को ऊपर उठा रहे हैं। यह शुद्ध राजनीतिक लाभ पाने के लिए चलाया गया अभियान है। अभी तक इनका पूरा प्रयास एकतरफा मामला दिखता है। फेडरल फ्रंट अभी भी एक विचार ही बना हुआ है और यह संभव है कि यह एक असफल मोर्चे की परिणति को प्राप्त होगा।

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