#Family Planning Mission: सिर्फ़ महिलाओं पर नसबंदी का बोझ डालता भारत का परिवार नियोजन मिशन
1952 में जब भारत ने परिवार नियोजन के राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की, तो ऐसा करने वाला वो दुनिया का पहला देश बन गया था. उसके बाद के दशकों में ये कार्यक्रम अपने मक़सद हासिल करने में तब्दील हो गया और इसके लिए न केवल आबादी बढ़ने की रफ़्तार को स्थिर रखने बल्कि प्रजनन की सेहत को बढ़ावा देने और मां, नवजात बच्चों और छोटे बच्चों को मौत एवं बीमारी से बचाने के लक्ष्य भी तय कर दिए गए. परिवार नियोजन के लक्ष्य हासिल करने के लिए पहले के पारंपरिक और प्राकृतिक चक्र वाले उपायों की जगह अब कंडोम, डायफ्राम, गर्भनिरोधक गोलियों और इंजेक्शन ने ले ली है.
2020 की विश्व परिवार नियोजन रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले दो दशकों के दौरान गर्भ निरोधक और परिवार नियोजन के उपाय आज़माने की इच्छुक महिलाओं की तादाद में काफ़ी इज़ाफ़ा हो गया है. साल 2000 में ऐसी महिलाओं की संख्या 90 करोड़ थी, जो 2020 में बढ़कर 1.1 अरब हो गई. इसका नतीजा ये हुआ है कि गर्भ निरोधक के आधुनिक उपाय अपनाने वाली महिलाओं की तादाद 66.3 करोड़ से बढ़कर 85.1 करोड़ हो गई है. इसके अलावा गर्भ निरोधक के प्रचलन की दर 47.7 फ़ीसद से बढ़कर 49.0 प्रतिशत हो गई है. उम्मीद की जा रही है कि साल 2030 तक इसमें 70 करोड़ महिलाएं और जुड़ जाएंगी. बच्चे पैदा करने की उम्र (15 से 49 वर्ष) वाली महिलाओं द्वारा गर्भ निरोधक इस्तेमाल करने का टिकाऊ विकास के लक्ष्य वाला सूचकांक 3.7.1, साल 2015 से 2020 के दौरा 77 फ़ीसद पर ही स्थिर है.
अध्ययनों से पता चलता है कि गर्भ निरोधक के लिए नसबंदी के ऑपरेशन का विकल्प, ग़रीब आर्थिक और सामाजिक स्तर वाले समुदायों की महिलाओं के बीच आम है. हिंदू महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं को उनका मज़हब परिवार नियोजन के स्थायी उपायों की इजाज़त नहीं देता है.
महिलाओं और पुरुषों की नसबंदी के अनुपात में फर्क़
गर्भ निरोधक के लिए ऑपरेशन के तरीक़े का उपयोग लगातार बढ़ रहा है. भारत में गर्भ निरोधक के उपायों का चुनाव आज भी सामाजिक आर्थिक सूचकांकों, जैसे कि शिक्षा के स्तर, समृद्धि, धर्म, और जाति जैसी बातों से तय होता है. अध्ययनों से पता चलता है कि गर्भ निरोधक के लिए नसबंदी के ऑपरेशन का विकल्प, ग़रीब आर्थिक और सामाजिक स्तर वाले समुदायों की महिलाओं के बीच आम है. हिंदू महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं को उनका मज़हब परिवार नियोजन के स्थायी उपायों की इजाज़त नहीं देता है. हिंदू महिलाएं अक्सर अस्थायी विकल्पों के बजाय ऑपरेशन को तरज़ीह देती हैं. इसकी तुलना में, बेहतर आर्थिक सामाजिक तबक़े, शैक्षणिक और सशक्तिकरण के ऊंचे स्तर वाली महिलाओं के बीच कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियों जैसे परिवार नियोजन के आधुनिक उपायों का इस्तेमाल ज़्यादा होते देखा गया है. भारत, ब्राज़ील और बांग्लादेश में किए गए अध्ययनों में पता चलता है कि महिलाओं की नसबंदी के ऑपरेशन को ऊंची समानता दर के बीच तरज़ीह दी जाती है. मगर, यहां उल्लेखनीय बात ये है कि निचले दर्ज़े में ये आज भी बेटे को तरज़ीह देने वाला विकल्प है.
बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम और झारखंड के 145 ज़्यादा फर्टिलिटी वाले ज़िलों में गर्भ निरोधकों के उपायों तक पहुंच बेहतर बनाने के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2016 में ‘मिशन परिवार विकास’ शुरू किया था. इस कार्यक्रम में पलटे जा सकने वाले, बिना सर्जरी वाले और हॉरमोन पर आधारित गर्भ निरोधकों को अपनाने पर ज़ोर दिया गया. वर्ष 2021 में इस मिशन का दायरा बढ़ाकर इसमें उत्तर पूर्व के छह और राज्यों को शामिल कर लिया गया था. हाल के वर्षों में सरकार ने परिवार नियोजन के अन्य विकल्प भी अपनाए हैं. इसके अलावा ‘हम दो’ जैसी पहल का मक़सद उपयुक्त जोड़ों को परिवार नियोजन के उपायों और उपलब्ध सेवाओं की जानकारी देना है. इसके अलावा परिवार नियोजन की अन्य सरकारी योजनाओं में 360 डिग्री मीडिया प्रचार अभियान चलाना शामिल है, ताकि गर्भ निरोधकों की मांग बढ़े और इसके अलावा आशा वर्कर्स के ज़रिए लाभार्थियों के घर तक गर्भ निरोधक पहुंचाए जा रहे हैं.
भारत के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में गर्भ निरोधक के उपायों के चुनाव में भी काफ़ी फ़र्क़ दिखाई देता है. उत्तर और पश्चिमी इलाक़ों में जहां कंडोम का इस्तेमाल सबसे ज़्यादा होता है. वहीं, उत्तर पूर्व और पूर्वी इलाक़ों में गर्भ निरोधक के लिए गोलियों के इस्तेमाल को तरज़ीह दी जाती है.
वैसे नसबंदी ज़्यादा सुरक्षित होती है और इसमें ज़्यादा चीर-फाड़ भी नहीं होती है. इसके बावजूद, भारत में पिछले कई दशकों से गर्भ निरोधक के विकल्प के रूप में महिलाओं की नसबंदी को ही तरज़ीह दी जाती रही है. नसबंदी के कुल ऑपरेशनों में से 75 फ़ीसद सरकारी अस्पतालों में होते हैं और इनमें से मोटे तौर पर एक तिहाई ऑपरेशन बच्चे पैदा होने के बाद किए जाते हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS)-5 के मुताबिक़, अवांछित गर्भ से बचने के लिए 37.9 प्रतिशत महिलाएं नसबंदी के ऑपरेशन कराती हैं. ये तादाद गर्भ निरोधक के अन्य उपायों जैसे कि गोलियों (5.1 प्रतिशत), इंजेक्शन के उपाय (0.6 फ़ीसद), कंडोम (9.5 प्रतिशत), IUD (2.1 फ़ीसद) या फिर पुरुष नसबंदी (0.3) की तुलना में बहुत ज़्यादा है. भारत के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में गर्भ निरोधक के उपायों के चुनाव में भी काफ़ी फ़र्क़ दिखाई देता है. उत्तर और पश्चिमी इलाक़ों में जहां कंडोम का इस्तेमाल सबसे ज़्यादा होता है. वहीं, उत्तर पूर्व और पूर्वी इलाक़ों में गर्भ निरोधक के लिए गोलियों के इस्तेमाल को तरज़ीह दी जाती है.
भारत के तमाम राज्यों में नसबंदी के ट्रेंड 2019-2020.
स्रोत: NFHS-5
इस ग्राफ़ से साल 2021 में महिलाओं और पुरुषों की नसबंदी के ऑपरेशन के बीच बड़े अंतर का पता चलता है. दक्षिण के राज्य और केंद्र शासित प्रदेश जैसे कि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, पुडुचेरी और कर्नाटक में 50 फ़ीसद से ज़्यादा महिलाओं की नसबंदी के ऑपरेशन होते हैं. हालांकि, महिलाओं की तुलना में पुरुषों की नसबंदी के मामले बेहद कम देखने को मिलते हैं.
जानकारी का अभाव
1975 में इमरजेंसी के दौरान, एक साल के भीतर क़रीब 62 लाख मर्दों की ज़बरदस्ती नसबंदी कर दी गई थी. इस कांड को लेकर काफ़ी विवाद हुआ था. ऐसा लगता है कि उसके बाद से ही परिवार नियोजन के कार्यक्रमों से मर्दों की नसबंदी का विकल्प ओझल हो गया. 1996 में भारत सरकार ने परिवार नियोजन के कार्यक्रमों से ‘लक्ष्य तय करने का नज़रिया’ ख़त्म कर दिया और प्रजनन के अधिकार का उल्लंघन करने और गर्भ निरोधक के उपाय अपनाने को बढ़ावा देने के लिए स्वास्थ्य अधिकारियों के लक्ष्य निर्धारित करने समाप्त कर दिए गए. नसबंदी को लेकर लांछन, ऑपरेशन कराने के बाद के असर को लेक ग़लतफ़हमियों और सांस्कृतिक धार्मिक आस्थाओं के चलते मर्दों के बीच गर्भ निरोध का ये विकल्प अपनाने को लेकर बहुत हिचक है. साल 2008 से 2019 के बीच देश में गर्भ निरोध के लिए 5.16 करोड़ ऑपरेशन हुए. इनमें से महज़ तीन फ़ीसद मामले ही पुरुषों की नसबंदी के थे.
आज भी महिलाओं में सर्जिकल तकनीकों के दुष्प्रभावों और गर्भ निरोधक के अन्य विकल्पों की जानकारी और उनके साइड इफेक्ट के बारे मेंजागरूकता की कमी है. ग़रीब और कमज़ोर तबक़े की महिलाओं के बीच गर्भ निरोधक के आधुनिक उपायों की भारी कमी देखी गई है. इससे उनकी प्रजनन से जुड़ी सेहत भी ख़राब रहती है और अवांछित गर्भ भी ठहर जाता है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 में ये भी पाया गया है कि गर्भ निरोधक के मौजूदा उपायों के साइड इफेक्ट को समझने की कमी भी महिलाओं में बहुत ज़्यादा है. गर्भ निरोधक के मौजूदा उपायों की जानकारी की बात करें, तो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की महिलाएं सबसे कम जागरूक हैं. जबकि इन दोनों ही राज्यों में महिलाओं के गर्भ निरोध के ऑपरेशन कराने की तादाद देश में सबसे ज़्यादा है.
गर्भ निरोधक के मौजूदा उपायों की जानकारी की बात करें, तो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की महिलाएं सबसे कम जागरूक हैं. जबकि इन दोनों ही राज्यों में महिलाओं के गर्भ निरोध के ऑपरेशन कराने की तादाद देश में सबसे ज़्यादा है.
गर्भपात या प्रसव के बाद महिलाओं को लगाया जाने वाला कॉपर-टी उपकरण ही देश में लंबी अवधि के गर्भ निरोधक का ऐसा उपलब्ध साधन है, जिसे बाद में हटाया जा सकता है. इसके साइड इफेक्ट से महिलाओं को गर्भाशय से ख़ून बहने और पेट में दर्द रहने की शिकायतें बार-बार दर्ज की गई हैं. बिहार, जो कुल फर्टिलिटी रेट (TFR) के मामले में अव्वल है और देश में हर महिला के तीन बच्चों की औसत से कहीं आगे है. वहीं पर अवांछित गर्भ की तादाद बहुत ज़्यादा पायी गई है. इसकी वजह यही बताई जाती है कि महिलाओं को दो बच्चों के बीच में अंतर और गर्भ निरोधक के विकल्प की जानकारी नहीं मिल पाती है. भारत में परिवार नियोजन का कार्यक्रम 70 साल से चल रहा है. मगर आज भी ये पाया गया है कि साइड इफेक्ट के भय के चलते लोग, गर्भ निरोधक के दूसरे विकल्प आज़माने से भी हिचकते हैं. इसके अलावा जानकारी की कमी, सांस्कृतिक सोच, क़रीबी रिश्तों में फ़ैसले लेने के अधिकार की कमी और सेवा देने वालों के अनचाहे बर्ताव जैसे कई कारण हैं, जो महिलाओं के गर्भ निरोधक के दूसरे विकल्प आज़माने में बाधा बनते हैं.
सहमति का अभाव, अधूरी ज़रूरतें
गर्भ निरोधक के विकल्पों की जानकारी न होने के साथ-साथ महिलाओं की सहमति का मुद्दा भी परिवार नियोजन में बाधा बना हुआ है. बिन समझौते के महिलाओं द्वारा दी गई सहमति के उल्लंघन के कई मामले पहले सामने आ चुके हैं. अशिक्षित, दिव्यांग, आदिवासी और अल्पसंख्यक महिलाओं के बीच ऐसे मामले ख़ास तौर से देखने को मिलते हैं. कई महिलाओं की नसबंदी की सर्जरी या तो ज़बरदस्ती कर दी गई. या फिर उन्हें ऑपरेशन कराने के लिए मजबूर किया गया और कभी भी ये नहीं बताया गया कि ऐसी सर्जरी कराने से उनकी सेहत पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा. . इसके अलावा मिनी-लैपरोटॉमी या लैप्रोस्कोपिक ट्यूबेक्टोमी जैसे ऑपरेशन बड़ी आसानी से इस तरह किए जा सकते हैं कि महिलाओं को इसका पता तक नहीं चलता.
तमाम सबूत ये इशारा करते हैं कि अगर परिवार कल्याण के कार्यक्रमों में महिलाओं की नसबंदी के विकल्प पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता रहा, तो इससे गर्भ निरोधक के दूसरे उपायों को प्रोत्साहन नहीं मिल पाएगा. इसीलिए, दूर दराज़ के ग्रामीण इलाक़ों में महिलाओं को ज़्यादा से ज़्यादा विकल्प उपलब्ध कराना या फिर पर्याप्त मात्रा में सर्जन/डॉक्टर और अच्छी स्वास्थ्य सेवा का अभाव ही स्वीकार्य मानक बन जाता है. मिसाल के तौर पर, छत्तीसगढ़ राज्य ऐतिहासिक रूप से तय समय के भीतर बड़े पैमाने पर महिलाओं की नसबंदी के ऑपरेशन करने के लिए कुख्यात रहा है. वहां पर इसके लिए ख़ास शिविर लगाए जाते हैं, जहां पर कई बार ग़लत सर्जरी करने और साफ़ सफ़ाई के घटिया मानक अपनाने की ख़बरें सामने आ चुकी हैं. सरगुजा (2021) और बिलासपुर (2014) में महिलाओं की नसबंदी में हुई गड़बड़ियां, छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा नियमों और तय मानकों के खुले उल्लंघन की बदनाम मिसालें हैं.
देश में गर्भ निरोधक की ज़रूरतों को सही तरीक़े से समझने के अभाव की एक बड़ी वजह यह भी है कि इससे जुड़े ज़्यादातर अध्ययनों से आम तौर पर अविवाहित महिलाओं और किशोर उम्र लड़कियों को अलग रखा जाता है. इसी वजह से आबादी के एक बड़े हिस्से की बच्चे पैदा करने और गर्भ निरोधक की योजना की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं.
परिवार नियोजन के स्थायी उपायों का बोझ महिलाओं पर ज़्यादा पड़ने का सीधा संबंध कम उम्र में शादी और बच्चे पैदा करने से है. इसकी वजह से किशोर उम्र लड़कियों की सेहत की तमाम ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं. देश में गर्भ निरोधक की ज़रूरतों को सही तरीक़े से समझने के अभाव की एक बड़ी वजह यह भी है कि इससे जुड़े ज़्यादातर अध्ययनों से आम तौर पर अविवाहित महिलाओं और किशोर उम्र लड़कियों को अलग रखा जाता है. इसी वजह से आबादी के एक बड़े हिस्से की बच्चे पैदा करने और गर्भ निरोधक की योजना की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं. बिहार में किए गए सर्वेक्षणों से ये बात सामने आई है कि वहां पर 15-49 साल उम्र की शादी-शुदा औरतों की तुलना में अविवाहित मगर सक्रिय यौन संबंध वाली महिलाएं, गर्भ निरोधकों का ज़्यादा इस्तेमाल करती हैं.
साक्ष्य बताते हैं कि छोटे परिवार के आकार से नवजात बच्चों की मौत की दर कम की जा सकती है और मां की सेहत भी सुधारी जा सकती है. परिवार नियोजन के उपायों की उपलब्धता, स्वास्थ्य के मूलभूत ढांचे और महिलाओं की शिक्षा और उनके दर्जे में सुधार करके, नवजात बच्चों को बचाने की मुहिम को काफ़ी हद तक कामयाब बनाया जा सकता है.उत्तर प्रदेश , असम और गुजरात जैसे राज्यों में दो बच्चों की नीति को बढ़ावा देने के लिए नसबंदी को अधिक प्रोत्साहन और इनाम दिया जा रहा है. लेकिन, ज़ोर अनावश्यक लगता है क्योंकि देश के ज़्यादातर राज्य आज फर्टिलिटी रेट के मामले में लगभग उस स्तर पर पहुंच चुके हैं, जहां पर आबादी घटने और बढ़ने का अंतर पाटा जा चुका है. मिशन परिवार विकास में शामिल किए गए शुरुआती सात में से चार राज्यों में दो या इससे कम की फर्टिलिटी दर हासिल की जा चुकी है.
स्थायी विकास के लक्ष्य हासिल करने के लिए, ज़रूरी है कि सरकार परिवार नियोजन की सेवाओं और इनकी पहुंच में सुधार करे. परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को ये सुनिश्चित करना होगा कि ये स्वैच्छिक हों, इनकी पूरी जानकारी हो और ये महिलाओं के आत्मसम्मान का उल्लंघन न करें. तभी महिलाओं को अपने लिए विकल्प चुनने लायक़ बनाया जा सकेगा और वो चुनाव की इस प्रक्रिया में मर्दों को शामिल कर सकेंगी.
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यह लेख मूल रूप से न्यूज़ 18 में प्रकाशित हुआ था.
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