Author : Kriti M. Shah

Published on Nov 26, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत को “हजारों जख्म देकर लहुलुहान करने” की पाकिस्तानी रणनीति को धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाकर तथा साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर उन्माद भड़काकर लागू किया जाता रहा है।

आतंकवाद है पाकिस्तान का हथियार

26/11 के मुम्बई हमले पाकिस्तान के जेहादी गुटों तथा उसके सैन्य-खुफिया तंत्र की भारत पर चोट करने और उसे नुकसान पहुंचाने की रणनीतिक संस्कृति का स्पष्ट प्रदर्शन था। पाकिस्तान अपने सब नेशनल गुटों (सरकार की सहायता प्राप्त) द्वारा चलाए जा रहे जेहाद का इस्तेमाल एक हथियार के तौर पर करता है, जो उसे अपने भूराजनीतिक वजन से बढ़कर वार करने की इजाजत देते हैं। [1] पाकिस्तान के रणनीतिक चिंतन से जुड़ा एक वर्ग इस झूठे विचार पर यकीन करता है कि अपने देश की हिफाजत सिर्फ भारत को कमजोर बनाकर, पराजित कर या वहां लगातार अफरा-तफरी के हालात बनाकर की जा सकती है। पाकिस्तान सरकार का मानना है कि वह आतंकवादियों को सहायता देकर ऐसा कर पाना मुमकिन है। वह यह सुनिश्चित करती है कि जब भी कोई आतंकवादी गुट हमलों को अंजाम दें, पाकिस्तानी सरकार विश्वसनीय ढंग से उसे अस्वीकार करे।

भारत को “हजारों जख्म देकर लहुलुहान करने” की पाकिस्तानी रणनीति को धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाकर तथा साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर उन्माद भड़काकर लागू किया जाता रहा है। कश्मीर में 1989 में छद्म युद्ध छेड़ने से पहले, पाकिस्तान ने पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय इलाकों का फायदा उठाया और पंजाब के असंतुष्ट नौजवानों का फायदा उठाकर उन्हें एक नया सिख राष्ट्र — खालिस्तान बनाने के लिए युद्ध छेड़ने के लिए उकसाया। पंजाब में सिख आतंकवाद को समर्थन देकर उसे उम्मीद थी कि वह भारतीय सुरक्षा बलों को उलझाए रखेगा और कश्मीर की रक्षा से उनका ध्यान हट जाएगा। जब भारत ने खालिस्तानी आंदोलन को कुचल दिया, तो पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर ध्यान देना, राज्य में अस्थिरता पैदा कर भारत सरकार की ताकत की पड़ताल करना शुरु कर दिया।

पंजाब में सिख आतंकवाद को समर्थन देकर उसे उम्मीद थी कि भारतीय सुरक्षा बलों को उलझाए रखेगा और कश्मीर की रक्षा से उनका ध्यान हट जाएगा।

1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले के साथ ही, सीआईए और सऊदी अरब की सहायता प्राप्त इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस एजेंसी या आईएसआई ने सोवियत लोगों के खिलाफ जेहाद लड़ने के लिए अफगानिस्तान तथा सीमावर्ती पाकिस्तानी कबायली इलाकों में इस्लामी आतंकवादियों को प्रश्रय और समर्थन देना शुरु कर दिया। उस समय न सिर्फ 10 लाख से ज्यादा अफगान शर​णार्थियों को जंग से बचने के लिए पलायन करना पड़ा और डूरंड रेखा पार कर पड़ोसी देश पाकिस्तान में दाखिल होना पड़ा, बल्कि हजारों मुजाहिदीन लड़ाकों ने खुद को — हालांकि अस्थायी तौर पर ही सही — सोवियत लोगों पर फतह के बाद बेमकसद या शत्रु के बिना पाया। मादक पदार्थों और हथियारों की युद्धकालीन अर्थव्यवस्था इस क्षेत्र की बहुमूल्य मुद्रा बन गई और कबायली शरणार्थी शिविर सुगम भर्ती स्थल बन गए। [2] एक महाशक्ति की नियमित सेना पर अपनी फतह से उत्साहित होकर यह विचार बल प्राप्त करने लगा कि आतंकवादी अभियानों से मजबूत राष्ट्रों को हराया जा सकता है।

पाकिस्तान ने भारत और अफगानिस्तान के बारे में यही रणनीति अपनाई। जहां एक ओर उसने अफगान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को हथियार, खुफिया जानकारी तथा संरक्षण प्रदान कर अफगानिस्तान में अस्थिरता को हवा दी, वहीं दूसरी ओर, उसने भारत को कमजोर करने के लिए छद्म आतंकवादियों का इस्तेमाल किया। [3] कश्मीर में भारत के खिलाफ लड़ने के लिए लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी)और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे आतंकवादी संगठन पाकिस्तान सरकार के पसंदीदा हथियार रहे हैं। कश्मीर को भारत के नियंत्रण से छीनने का एलईटी का एजेंडा और पाकिस्तान के सा​थ उसका हाथ मिलाना, वहां की सरकार के अपने सामरिक हितों के अनुरूप था और उसने इस गुट को कई बरसों से व्यापक वित्तीय, लॉजिस्टिकल तथा सैन्य सहायता उपलब्ध करायी है। [4] 1990 के दशक के ज्यादातर अर्से के लिए, एलईटी के ऑपरेशन कश्मीर तक सीमित रहे। 2000 के बाद ही, एलईटी ने देश के अन्य हिस्सों में भी हमलों को अंजाम देना शुरू कर दिया गया। [5] फिदायीन हमले, भारी हथियारों से लैस आतंकवादियों के साथ बड़े पैमाने पर हमला करने, जैसे 2001 में भारतीय संसद तथा 2008 में मुम्बई पर किया गया हमला — इस आतंकी गुट मुख्य हथकंडा बन गए। आत्मघाती मिशन पर आए आतंकवादी बेरहमी से हत्याएं करते हुए और ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाते हुए तब तक लड़ाई जारी रखते, जब तक उन्हें मार नहीं दिया जाता।

पाकिस्तान ने भारत और अफगानिस्तान के बारे में यही रणनीति अपनाई। जहां एक ओर उसने अफगान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को हथियार, खुफिया जानकारी तथा संरक्षण प्रदान कर अफगानिस्तान में अस्थिरता को हवा दी, वहीं दूसरी ओर, उसने भारत को कमजोर करने के लिए छद्म आतंकवादियों का इस्तेमाल किया।

मुम्बई हमलों का प्राथमिक उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ाना था। हालांकि सीधे यद्ध कभी भी लश्कर के लिए बेहतरीन परिदृश्य नहीं रहा होगा, उसकी मंशा भारत-पाकिस्तान के बीच जारी शांति प्रक्रिया को निशाना बनाना रही होगी। [6] पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी भारत की यात्रा पर थे और उनकी इस यात्रा को संबंध सुधारने के संकेत के तौर पर देखा जा रहा था, उसी रात हमले शुरु हो गये। [7] इस हमले की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें ऐसे लोकप्रिय स्थानों को निशाना बनाया गया, जहां विदेशियों का अक्सर आना-जाना रहता था। नरिमन हाउस और ताज एवं ओबेरॉय होटलों का चुनाव यह दर्शाता है कि इन हमलों का एक मकसद पश्चिमी ना​गरिकों और यहूदियों को मारकर जेहादी बिरादरी में गुट की हैसियत बढ़ाना भी था। [8] आतंकवादियों को उम्मीद थी कि बड़ी तादाद में विदेशियों को निशाना बनाने से भारत की छवि “पश्चिम की नजरों में” खराब हो जाएगी और लोग उसे एक असुरक्षित देश के रूप में देखने लगेंगे।

भारत को “जेहादी-यहूदी-हिंदु” गठबंधन के भाग के तौर पर देखने वाला एलईटी उसे शत्रु समझता है और कई अवसरों पर उसने घो​षणा भी की है कि उसका मकसद केवल ‘मुस्लिम’ कश्मीर को ‘हिंदु’ भारत से आजादी दिलाना ही नहीं है, बल्कि भारत को पूरी तरह तोड़ना भी है। उसे उम्मीद थी कि इन हमलों से भारत के हिंदु और मुस्लिम समुदायों के बीच तनाव बढ़ जाएगा तथा बदले में हिंदुओं के भड़कने से देश को बांटने में मदद मिलेगी तथा इस्लामी आतंकवादी बड़े पैमाने पर रंगरूटों की भर्ती कर सकेंगे। [9]

यह दलील दी जा सकती है कि आतंकवादी बड़े पैमाने पर मौत का तांडव रचने और तबाही बरपाने, भारतीय सुरक्षा बलों और नागरिकों को नुकसान पहुंचाने, भारत को अपमानित करने और दुनिया भर के मीडिया का ध्यान खींचने में ‘कामयाब’ रहे।इस हमले ने भारत और पाकिस्तान, दोनों स्थानों पर कट्टरपंथियों को मजबूत किया, जिसकी आतंकवादियों को अपेक्षा और उम्मीद थी। केवल भारत और पाकिस्तान को एक-दूसरे से लड़ा कर ही एलईटी अपने वजूद को वाजिब ठहरा सकता है और ‘आईएसआई’ के लिए अपनी ‘उपयोगिता’ दर्शा ​सकता है।भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत के प्रयास अक्सर आतंकवादी हिंसा की बलि चढ़ जाते हैं — जिसे पाकिस्तान के सैन्य — खुफिया ढांचे का आशीर्वाद प्राप्त होता है। जिसके कारण वहां का राजनीतिक नेतृत्व हाशिए पर जाने को बाध्य हो जाता है तथा आपस में अविश्वास और कटुता उत्पन्न होती है। इस तरह की नीति लश्कर जैसे जेहादी गुटों को प्रासांगिक तथा उपयुक्त बनाए रखती है। शांति को मौका देना चाहिए और ऐसे गुट को अप्रासांगिक बनाया जाना चाहिए।

केवल भारत और पाकिस्तान को एक-दूसरे से लड़ा कर ही एलईटी अपने वजूद को वाजिब ठहरा सकता है और ‘आईएसआई’ के लिए अपनी ‘उपयोगिता’ दर्शा सकता है।

भारत की जवाबी कार्रवाई के जोखिमों को महसूस करते हुए अमेरिका ने संयम के महत्व पर बल दिया और हमलों की जांच में अमेरिकी खुफिया सहायता की पेशकश की। भारत सरकार के सामने चयन के अनेक सैन्य और असैन्य विकल्प मौजूद थे, लेकिन पाकिस्तान पर हमला न करने, हमले के दोषियों को सजा दिलाने, अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को एकजुट करने तथा पाकिस्तान को उसकी कारगुजारियों का अंजाम भुगतना पड़े यह सुनिश्चित करने के लिए अन्य कानूनी उपाय करने का फैसला किया गया। [10] जहां एक ओर पाकिस्तान ने एलईटी के सदस्यों को गिरफ्तार करने की अधूरे मन से कोशिशें कीं और छोटे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर कार्रवाई की, ऐसा लगता है कि उनका विचार केवल अंतर्राष्ट्रीय निंदा से बचना और भारत की ओर से बड़े पैमाने पर आतंकवाद विरोधी कार्रवाई से बचते हुए बहुत कम में छुटकारा पाना​ था। जहां एक ओर भारत उस समय खुली जंग का जोखिम नहीं उठाना चाहता था, वहीं दूसरी ओर यह समझ थी कि एलईटी या कोई अन्य पाकिस्तानी गुट इतने बड़े पैमाने पर नागरिकों पर हमला करे, कि भारत की लागत-लाभ की गिनती बदली जा सके। शायद इसीलिए, 26/11 के बाद से पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त आतंकवादी गुटों ने कश्मीर और पंजाब में सेना और वायुसेना के ठिकानों पर हमले करते हुए भारतीय सेना पर अपने हथियार आजमाएं हैं।


[1] Ashely Tellis et all, “The Lessons of Mumbai”, RAND Corporation, OP 249, 2009. (accessed on 18 October, 2018) 

[2] T.V. Paul, “The Warrior State: Pakistan in the Contemporary World”, Random House (2014), pp 58 

[3] Vanda Felbab-Brown, “Why Pakistan supports terrorist groups, and why the US finds it so hard to induce change”, Brookings, January 5, 2018. (accessed on 17 October, 2018) 

[4] S. Paul Kapur, “Jihad as Grand Strategy: Islamist Militancy, National Security and the Pakistani State” Oxford University Press (2017) pp 90 

[5] Daniel Byman, “The Foreign Policy Essay: C. Christine Fair on ‘Lashkar-e-Taiba: Pakistan’s Domesticated Terrorists”, Lawfare Blog, December 29, 2013. (accessed on 20 October, 2018) 

[6] Stephen Tankel, “Lashkar-e-Taiba: From 9/11 to Mumbai”, International Centre for the Study of Radicalisation and Political Violence, April/May 2009. pp 23 (accessed on 19 October, 2018) 

[7] D.K. Singh, “26/11 attacks: India asked Pak foreign minister to leave, reveals Pranab book”, The Hindustan Times, October 14, 2017. (accessed on 17 October, 2018) 

[8] Op. cit. Stephen Tankel, “Lashkar-e-Taiba: From 9/11 to Mumbai”, pp 24 

[9] Op. cit. Ashely Tellis et all, “The Lessons of Mumbai” 

[10] Shivshankar Menon, “Why India didn’t attack Pakistan after 26/11 Mumbai attacks”, Livemint, November 22, 2016. (accessed on 19 October, 2018)

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