Author : Ramanath Jha

Published on Mar 27, 2019 Updated 0 Hours ago

किसी भी अन्य उपाय की तुलना में ये तौर-तरीके सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से कहीं अधिक कारगर एवं मूल्यवान हैं।

शहरी यातायात भीड़ से निजात के लिए गैर-अवसंरचना समाधान

आधुनिक शहरी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा महानगरीय शहर है जहां यातायात की गंभीर समस्या न हो। यही कारण है कि विगत कुछ वर्षों के दौरान सड़कों पर निरंतर विकराल होती जा रही भीड़-भाड़ की समस्‍या को देखते हुए कई शब्द स्‍वत: ही लोगों की जुबान पर आ गए हैं। रश ऑवर, ट्रैफि‍क जाम, रेंगते वाहन (क्राउलिंग ट्रैफि‍क), ट्रैफि‍क स्‍नार्ल-अप, सड़कों पर थमे पहिए (मोटरवे होल्ड-अप), टाउन-सेंटर बॉटलनेक, बंपर टू बंपर ड्राइविंग और ग्रिडलॉक कुछ ऐसे शब्द हैं जो सड़कों पर ठीक इसी तरह या विभिन्न प्रकार के बदहाल ट्रैफि‍क परिदृश्य को बयां करते हैं। सर्वाधिक बेहाल ट्रैफि‍क जाम को ‘ग्रिडलॉक’ नाम दिया गया है। ‘ग्रिडलॉक’ उस स्थिति को कहते हैं जब सड़कों पर चारों ओर कई किलोमीटर तक वाहनों की अकल्‍पनीय लंबी-लंबी कतारें लग जाती हैं और लगातार कई घंटों तक वाहन रेंगने पर विवश हो जाते हैं। अब तक के इतिहास में ‘ग्रिडलॉक’ का सबसे भयावह नजारा चीन में बीजिंग-झांगजीकौ राजमार्ग पर देखने को मिला था। अगस्‍त 2010 में ‘ग्रिडलॉक’ के दौरान बड़ी संख्‍या में वाहन ग्यारह दिनों तक एक कतार में रेंगने पर विवश हो गए थे। यह कतार 100 किलोमीटर से भी अधिक लंबी थी। यही नहीं, कई वाहन चालकों को तो सड़क पर ही लगातार पांच दिन गुजारने पड़े थे, जो वाकई कल्‍पना से परे है।

शहरों की सड़कों पर वाहनों की तादाद काफी ज्‍यादा बढ़ जाने से आर्थिक, पर्यावरणीय, व्यक्तिगत और यांत्रिक दृष्टि से इसके कई प्रतिकूल नतीजे सामने आते हैं।

‘जितना बड़ा शहर, उतना ही अधिक समस्याग्रस्त प्रतीत होता है वहां का ट्रैफि‍क।’ सड़कों पर मोटर वाहनों की निरंतर बढ़ती संख्या के कारण ही यह नौबत आई है, जबकि शहरों की परिवहन संबंधी बुनियादी ढांचागत क्षमता उस हिसाब से नहीं बढ़ी है। दरअसल, तेजी से बढ़ता शहरीकरण और भी अधिक संख्‍या में लोगों को महानगरों में आने के लिए आकर्षित करता है; आर्थिक मोर्चे पर सफलता मिलने से परिवारों की आमदनी बढ़ जाती है और ऐसी स्थिति में कारों की खरीदारी भी नई रफ्तार पकड़ लेती है।

शहरों की सड़कों पर वाहनों की तादाद काफी ज्‍यादा बढ़ जाने से आर्थिक, पर्यावरणीय, व्यक्तिगत और यांत्रिक दृष्टि से इसके कई प्रतिकूल नतीजे सामने आते हैं। सड़कों पर वाहनों के धीरे-धीरे चलने पर लोगों की आवाजाही में ज्‍यादा समय लगता है। ऐसे में कामकाजी लोगों का आउटपुट घट जाता है। इसके अलावा, वस्‍तुओं और सेवाओं की ढुलाई लागत बढ़ जाती है। इन वजहों से शहर के साथ-साथ वहां रहने वाले लोगों यानी दोनों की ही आर्थिक उत्पादकता पर प्रतिकूल असर होता है। यही नहीं, कई बेशकीमती अवसरों को गंवा देने के कारण भी भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। जहां तक पर्यावरण का सवाल है, वाहन चालकों द्वारा बार-बार हॉर्न का इस्‍तेमाल करने और सड़कों पर लंबे समय तक चालू अवस्‍था में वाहनों के खड़े रहने के चलते वायु एवं ध्वनि प्रदूषण बढ़ जाता है। उधर, इस वजह से लोगों को होने वाला नुकसान बेवजह चिंता, मनोवैज्ञानिक तनाव, सड़कों पर मार-पीट की नौबत आने, सांस की गंभीर बीमारी और रीढ़ से संबंधित समस्याओं के रूप में सामने आता है। यही नहीं, टूट-फूट बढ़ जाने के कारण स्वयं वाहन भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते हैं।

जहां तक पर्यावरण का सवाल है, वाहन चालकों द्वारा बार-बार हॉर्न का इस्‍तेमाल करने और सड़कों पर लंबे समय तक चालू अवस्‍था में वाहनों के खड़े रहने के चलते वायु एवं ध्वनि प्रदूषण बढ़ जाता है। उधर, इस वजह से लोगों को होने वाला नुकसान बेवजह चिंता, मनोवैज्ञानिक तनाव, सड़कों पर मार-पीट की नौबत आने, सांस की गंभीर बीमारी और रीढ़ से संबंधित समस्याओं के रूप में सामने आता है।

विभिन्‍न शहरों ने ट्रैफिक की भीड़-भाड़ को कम करने के लिए कई तरह के ठोस प्रयास किए हैं। इनमें से कुछ प्रयास नकारात्मक नियमनों के दायरे में आते हैं, जैसे कि पार्किंग पर पाबंदी लगाना, लंबी अवधि तक पार्किंग के लिए ऊंची पार्किंग दरें तय करना, बड़ी कारों के लिए ज्‍यादा पार्किंग शुल्क वसूलना और भीड़-भाड़ से बचने के लिए विशेष प्रभार लगाना। जहां तक सकारात्‍मक नियमनों का सवाल है, उनमें विषम ट्रैफि‍क मांग को ध्‍यान में रखते हुए रिवर्सिबल लेन बनाना, जीपीएस के उपयोग के जरिए सक्रिय यातायात प्रबंधन करना और मोबाइल यातायात मार्गदर्शन शामिल हैं। कुछ अन्य उपाय विकासात्मक हैं जैसे कि यातायात और परिवहन संबंधी नई बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का निर्माण करना। इससे यह साफ जाहिर है कि इनमें से कोई भी उपाय ट्रैफि‍क से जुड़ी मुश्किलों को खत्म करने में सक्षम नहीं है। यहां तक कि इन सभी उपायों पर एक साथ अमल करने पर भी उनकी प्रभावकारिता सीमित या अल्पकालिक ही रही है। इसके मद्देनजर परिवहन से जुड़ी योजना अब एक प्राथमिकता वाली रणनीति बन गई है। इन दिनों इस योजना में जमीन के मिश्रित उपयोग के साथ-साथ वाहनों के उपयोग में कमी लाने को बढ़ावा देना शामिल हैं जो महत्वपूर्ण घटकों के रूप में भूमि उपयोग की योजना के साथ पूरी तरह से एकीकृत हो जाते हैं। इन रणनीतियों से किसी भी शहर को इस तरह से व्यवस्थित किया जाता है जिससे वाहनों का उपयोग करने की आवश्यकता अत्‍यंत कम हो जाती है। ऐसा इसलिए संभव है क्‍योंकि कम दूरी तय करने वाले ज्यादातर कार्यों को या तो पैदल ही अथवा साइकिल से पूरा किया जा सकता है।

विभिन्‍न शहरों द्वारा अमल में लाए गए इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी समाधानों या उपायों में सड़क-चौड़ीकरण, एकल या बहुस्तरीय फ्लाईओवर एवं अंडरपास, ग्रिड सेपरेटर, नई सड़कें बनाना, सिग्नलिंग सिस्टम लगाना, सिग्नलों में सामंजस्‍य स्‍थापित करना, अधिक पार्किंग स्थलों का इंतजाम करना और ट्रैफि‍क संबंधी ऐसे अन्य बुद्धिमान कदम उठाना शामिल हैं जिनके तहत उपयुक्‍त समाधान पेश करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाता है। कई परिवहन विशेषज्ञ व्यक्तिगत परिवहन के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर या बुनियादी ढांचागत सुविधाओं में वृद्धि किए जाने की आलोचना करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, सड़क-चौड़ीकरण की आलोचना की गई है क्योंकि इससे पैदल यात्रियों के लिए सड़क पार करना कठिन हो जाता है। यातायात को आसान बनाने के लिए अतिरिक्त लेन बनाए जाने की तुलना उन मोटे लोगों से की गई है जो बढ़े हुए मोटापे को समायोजित करने के लिए अपनी कमर की बेल्ट ढीली कर देते हैं। इन विशेषज्ञों ने यह बात भी रेखांकित की है कि इन अतिरिक्त बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के निर्माण से कई अन्‍य मुश्किलें भी उत्‍पन्‍न हो जाती हैं। इनमें से कई हैवी इंजीनियरिंग परियोजनाओं के तहत ऐसे अजीबोगरीब उपाय किए जाते हैं जिससे शहर के कुछ हिस्से अव्यवस्थि‍त हो जाते हैं, सहज स्‍ट्रीट परिदृश्‍य अनाकर्षक हो जाता है और ये अन्य व्यवहार्य सार्वजनिक परिवहन विकल्पों से मेल नहीं खाते हैं। अंततः, इनके अस्थायी नतीजे ही सामने आते हैं। दरअसल, उत्‍प्रेरित मांग का सिद्धांत फि‍र से अपना कमाल दिखाने लगता है क्‍योंकि ज्‍यादा कारों के चलते शहर में पुन: ट्रैफि‍क का वही हाल हो जाता है।

अत: यह स्पष्ट हो गया है कि यदि लोग निजी कारें खरीदते रहें और शहर की सड़कों पर उनसे आवागमन करते रहे तो यातायात एवं परिवहन संबंधी बुनियादी ढांचागत सुविधाओं को बढ़ा देने पर भी यह व्‍यवस्‍था लंबे समय तक कारगर साबित नहीं हो पाएगी। ऐसी स्थिति में इस बात पर आम सहमति हो गई है कि शहरों को व्यक्तिगत वाहनों से सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों को अपनाने की ओर उन्‍मुख होना पड़ेगा। कई बड़े शहरों ने मेट्रो रेल सिस्‍टम का निर्माण किया है, जबकि अन्‍य शहरों ने बीआरटीएस (बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम) को अपनाया है क्‍योंकि यह किफायती होता है और इसके साथ ही बसों के लिए एक समर्पित लेन का निर्माण करने में आसानी होती है।

दरअसल, उत्‍प्रेरित मांग का सिद्धांत फि‍र से अपना कमाल दिखाने लगता है क्‍योंकि ज्‍यादा कारों के चलते शहर में पुन: ट्रैफि‍क का वही हाल हो जाता है।

यहां पर यह रेखांकित करना आवश्‍यक है कि परिवहन संबंधी बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के निर्माण पर भारी-भरकम लागत आती है। शहरों की मौजूदा वित्तीय स्थिति को देखते हुए कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि शहरों के लिए नई बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का निर्माण करने एवं इनका संचालन करने के साथ-साथ लंबे समय तक इनका रखरखाव करना एक तरह से असंभव होगा। आगे चलकर इनमें से ज्‍यादातर बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के कमजोर पड़ जाने के लक्षण दिखने लगेंगे और वैसी स्थिति में उन्‍हें प्रतिस्थापित करना ही होगा। यही नहीं, शहरों को अपने यहां तेजी से फैलते विभिन्‍न इलाकों और बढ़ती आबादी के लिए भी बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के निर्माण में निवेश करना होगा।

उपर्युक्‍त परिदृश्‍य के मद्देनजर बढ़ते यातायात को नियंत्रण में रखने के लिए किफायती गैर-बुनियादी ढांचागत समाधानों या उपायों पर अमल करना सही साबित हो सकता है। ये उपाय अत्‍यंत सस्ते हैं और इन्हें अमल में लाना कोई खास मुश्किल नहीं है। इसके लिए शहर के वाशिंदों और निर्णयकर्ताओं को आपस में बैठकर उपयुक्‍त समाधान ढूंढ़ने होंगे। इनमें से कुछ उपाय निम्नलिखित पंक्तियों में सुझाए गए हैं। इन्हें यातायात की भीड़-भाड़ को कम करने के ‘सामाजिक उपाय’ कहा जा सकता है।

परिवारों या लोगों को तरह-तरह के सामान की जरूरत पड़ती है। इसके लिए दुकानदारों या कारोबारियों के साथ बातचीत करके विभिन्‍न वस्‍तुओं की होम डिलीवरी सुनिश्चित की जा सकती है। वैसे तो सामान की होम डिलीवरी पहले से ही हो रही है, लेकिन इसे कुछ इस तरह से व्यवस्थित किया जा सकता है जिससे कि लोगों का दुकानों पर जाना एवं सामान की होम डिलीवरी कम से कम हो और इसके साथ ही घरों पर सामान पहुंचने के लिए दुकानदारों के बीच कोई गलाकाट प्रतिस्‍पर्धा भी न हो। दरअसल, दुकानदारों के बीच इस तरह की अनचाही होड़ होने से लोगों द्वारा कार चलाए जाने में कमी से जो फायदा होगा वह डिलीवरी वैन की ट्रिप बढ़ जाने पर बेकार हो जाएगा। संघटित एवं पुनर्वितरण डिपो के उपयोग और शहर में ‘अंतिम छोर’ तक सामान की डिलीवरी तथा संग्रह के लिए कम-से-कम वाहनों का उपयोग करने से सामान की डिलीवरी को तर्कसंगत बनाना संभव हो सकता है। इसी तरह लोग इस बात से भी सहमत हो सकते हैं कि वे प्रौद्योगिकी का उपयोग करके अन्य उद्देश्यों या कार्यों के लिए वाहनों से आना-जाना कम करने का प्रयास करेंगे। यही नहीं, लोग ‘इलेक्ट्रॉनिक माध्‍यम’ से एक-दूसरे से मिलने-जुलने के साथ-साथ बैठकें और इसी तरह के अन्‍य कार्य भी आंशिक तौर पर ठीक इसी तरीके से कर सकते हैं। जाहिर है, ऐसे में वाहन चलाने की जरूरत कम हो जाएगी।

जहां तक ‘पीक ट्रैफिक’ का सवाल है, इसकी नौबत इसलिए आती है क्योंकि विभिन्‍न संगठनों, कार्यालयों, स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई अथवा कामकाज का समय कमोबेश एक जैसा ही है। यह संभव है कि शहर के वाशिंदे और निर्णयकर्ता आपस में चर्चाएं करके विभिन्‍न संगठनों, कार्यालयों इत्‍यादि में कामकाज का समय अलग-अलग तय करने पर सहमत हो जाएं। वैसे तो इससे कुछ असुविधा हो सकती है, लेकिन अलग-अलग महीनों में इस असुविधा को साझा करने पर सहमति‍ जता करके सभी संबंधित लोगों द्वारा इस असुविधा को साझा किया जा सकता है। इसी तरह अलग-अलग संगठनों के लिए सप्ताह के अलग-अलग दिनों को ‘साप्ताहिक अवकाश’ के रूप में तय करने पर भी सहमति जताई जा सकती है। जब भी सुविधाजनक हो, तो मित्र और पड़ोसी ‘कार-पूलिंग’ करने पर सहमत हो सकते हैं। इसी तरह स्कूलों और कार्यालयों की बसों का ज्‍यादा उपयोग किया जा सकता है। कई कार्य ऐसे हैं जिन्‍हें सप्ताह में कुछ दिनों तक अपने घर से ही किया जा सकता है। ऐसे में कार्यालय जाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। अत: इस संबंध में कोई ऐसा अत्‍यंत उपयोगी एवं कारगर मिला-जुला उपाय या तरीका ढूंढा जा सकता है जो ट्रैफि‍क जाम की गंभीर समस्या से राहत दिला सकता है।

जहां तक ‘पीक ट्रैफिक’ का सवाल है, इसकी नौबत इसलिए आती है क्योंकि विभिन्‍न संगठनों, कार्यालयों, स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई अथवा कामकाज का समय कमोबेश एक जैसा ही है। यह संभव है कि शहर के वाशिंदे और निर्णयकर्ता आपस में चर्चाएं करके विभिन्‍न संगठनों, कार्यालयों इत्‍यादि में कामकाज का समय अलग-अलग तय करने पर सहमत हो जाएं।

ऐसे कई और भी अभिनव आइडिया हो सकते हैं जो समाज के स्‍व-नियमन के दायरे में आते हैं। दरअसल, किसी भी अन्य उपाय की तुलना में ये तौर-तरीके सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से कहीं अधिक कारगर एवं मूल्यवान हैं। सार्वजनिक या सरकारी एजेंसियों द्वारा अनिवार्य किए गए तरह-तरह के नियमों के कारण इन पर अमल की लागत किसी न किसी रूप में बढ़ जाती है और इसके साथ ही आर्थिक उत्पादकता भी बुरी तरह प्रभावित होती है। वहीं, दूसरी ओर स्‍वयं द्वारा लागू सामाजिक नियम-कायदों का सकारात्मक असर पड़ता है और ये किसी भी शहर में यातायात को आसान एवं सुगम बनाने के साथ-साथ सामाजिक उत्थान करने में भी कमाल दिखा सकते हैं। कुल मिलाकर, कोई भी शहर और वहां की स्‍थानीय सरकार इस रास्‍ते पर चलकर बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के निर्माण पर एक तरह से कुछ भी खर्च किए बिना ही अपने यहां ट्रैफि‍क जाम की समस्‍या से निजात पा सकती है।

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