Author : Ami Pandya

Published on Aug 29, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत में उच्च शिक्षा के माध्यम से महिला-पुरुष असमानता को किस प्रकार दूर किया जा सकता है?

उच्च शिक्षा के जरिए महिला-पुरुष समानता संभव

बेशक आज की दुनिया में लोगों की सोच दिन-ब-दिन और ज्‍यादा संकुचित, स्‍वार्थी एवं संकीर्ण होती जा रही है, लेकिन ऐसे अनचाहे हालात में भी ‘सभी के लिए समान अवसरों’ की आवश्यकता को समझना और महज स्‍त्री होने के कारण भेदभाव का शिकार होने वाली महिलाओं को सशक्त बनाना विशेष मायने रखता है। सदियों से दुनिया भर में जिस तरह की सामाजिक सोच को बढ़ावा दिया जाता रहा है उससे पुरुष वाकई यह मानने लगे हैं कि वे महिलाओं से श्रेष्ठ हैं। हैरानी की बात तो यह है कि इस तरह की सामाजिक सोच ने बड़ी संख्‍या में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं के भी मन में यह बात सफलतापूर्वक बैठा दी है कि महिलाएं कुछ और नहीं, बल्कि ‘दोयम दर्जे’ की होती हैं। मतलब यह कि आज के जमाने में ज्‍यादातर लोग यही मानते हैं कि पुरुष तो ‘डिफॉल्ट या पहले से ही चयनित विकल्‍प या पसंद’ हैं, जबकि महिलाएं ‘अन्य या भिन्‍न’ हैं।

भारत में महिला-पुरुष असमानता किस हद तक है उसे इन दो महत्वपूर्ण आंकड़ों को ध्‍यान में रखते हुए मापा जा सकता है:

भारत में 422 मिलियन की विशाल युवा आबादी है और उच्च शिक्षा में कुल नामांकन सालाना 34.6 मिलियन युवाओं द्वारा कराए जाने का अनुमान लगाया गया है। इस परिदृश्य से यह साफ जाहिर होता है कि शिक्षण संस्थानों के जरिए बड़ी संख्या में युवाओं के दिलो-दिमाग को झकझोरा जा सकता है। जैसा कि UN Women की वैश्विक सद्भावना राजदूत एम्मा वाटसन ने कहा है, “विश्वविद्यालय छोटे आदर्शलोक हैं, जो इस नजरिए का एक अति सूक्ष्‍म मॉडल है कि पूरा समाज आखिरकार किस तरह दिख सकता है।”

उच्च शिक्षा में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता’ का उल्‍लेख महिलाओं के लिए मसौदा राष्ट्रीय नीति – 2016’ में किया गया है। इतना ही नहींवर्ष 2013 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा जारी सक्षम – महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपाय और कैंपस में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता के लिए कार्यक्रम’ नामक रिपोर्ट में भी इसका उल्‍लेख एक महत्वपूर्ण सिफारिश के रूप में किया गया है।

महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता सुनिश्चित होने से अनेक समस्‍याओं जैसे कि नागरिकता एवं अधिकार, यौन उत्पीड़न का सामना करने और समानता एवं स्वतंत्रता के मुद्दों तथा कामुकता से जुड़े प्रश्न को सुलझाना और पौरुष एवं स्त्रीत्व से संबंधित मानदंड और कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के परिसरों की विविध एवं विषम संरचना में योगदान देने वाले सभी लोगों के प्रति समुचित तालमेल एवं सम्मान का भाव पैदा करना संभव हो जाता है।

‘सक्षम’ से संबंधित दिशा-निर्देशों में बताया गया है कि ‘किसी पाठ्यक्रम को अनिवार्य बनाने से सभी विद्यार्थियों का महिलाओं से जुड़े मुद्दों के साथ-साथ उनसे जुड़ी असमानता के मसलों पर भी लंबा शैक्षणिक जुड़ाव सुनिश्चित होगा, लेकिन इससे प्रतिरोध एवं असंतोष भी उत्‍पन्‍न हो सकता है और ऐसे में जिस उद्देश्य के लिए यह सब कुछ किया जाएगा, उसकी पूर्ति‍ नहीं हो पाएगी।’ इन्‍हीं दिशा-निर्देशों में यह भी उल्लेख किया गया है कि ‘छात्रों ने इस ओर इंगित किया कि यदि ‘महिलाओं’ और महिला-पुरुष समानता जैसे शब्दों का उपयोग पूरी तरह से सोच-समझ कर नहीं किया गया तो वैसी स्थिति में एकरूपता का भाव उत्‍पन्‍न होगा और इससे समस्‍या पैदा हो सकती है।

अत: इस स्थि‍ति‍ से निपटने का सटीक उपाय यही है कि महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं और असमानताओं पर एक पूरा विषय शुरू करने के बजाय महिलाओं से संबंधित मसलों को मौजूदा पाठ्यक्रम के ही एक हिस्से के रूप में बड़ी चालाकी से शामिल कर लिया जाए। पितृसत्तात्‍मक व्‍यवस्‍था के खतरों, अवसरों में असंतुलन और महिला-पुरुष असमानता के चलते आजादी में कमी पर जबरन चर्चाएं करने के बजाय उन संदर्भ-विशिष्ट समस्याओं के बारे में बातचीत की जाए जिनसे महिलाओं का अहित होता है।

महिलाओं को कैरियर में एक हद तक ही आगे बढ़ने देने की प्रवृत्ति (ग्‍लास सीलिंग) अथवा कामकाजी माताओं को नौकरी देने में बाधाएं खड़ी करना (मैटर्नल वाल) जैसी समस्‍याओं पर यथार्थवादी एवं प्रासंगिक उदाहरणों को शामिल करते हुए इन परिस्थितियों में महिलाओं के व्यावसायिक (प्रोफेशनल) विकास में किस तरह से बाधाएं आती हैंउन पर मौजूदा विषयों के विभिन्न घटकों के जरिए विचार किया जाना चाहिए।

प्रबंधन शिक्षा में पुरुषों एवं महिलाओं के वेतन में अंतर पर केंद्रित केस-स्टडी शामिल की जा सकती हैं। इसी तरह होटल प्रबंधन एवं पत्रकारिता के छात्रों को देर रात की पाली (शिफ्ट) में महिलाओं के काम करने से उन पर पड़ने वाले असर और उससे जुड़ी सुरक्षा चिंताओं पर चर्चाएं करने की जिम्‍मेदारी सौंपी जा सकती है। उधर, इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में इस बात पर रोशनी डालनी चाहिए कि उनके बैच में छात्राओं का प्रतिशत अपेक्षा से कम क्‍यों है और इसके साथ ही इस विषय पर चर्चा करनी चाहिए कि युवतियों की संख्‍या की दृष्टि से विभिन्‍न पेशे आखिरकार कैसे घिसे-पिटे या रूढ़िवादी हो गए हैं।

महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता सुनिश्चित करने का एक और कारगर तरीका यह है कि महिलाओं और पुरुषों के व्यक्तिगत सर्वनामों का उपयोग समान अनुपात में करके हर तरह के संप्रेषण को कुछ ऐसा बना देना चाहिए जिससे यह पता ही न चले कि किसे संबो‍धित किया जा रहा है। शिक्षण संस्‍थानों में और उनके द्वारा महिला संवेदनशीलता संबंधी संप्रेषण पर एंटवर्प चार्टर में भी इसका उल्लेख किया गया है, जिस पर हस्ताक्षर करने वाले लोग या संस्‍थान अपनी ओर से यह प्रतिबद्धता व्‍यक्‍त करते हैं कि वे ‘महिलाओं के मामले में घिसे-पिटे नजरिए को छोड़कर और महिलाओं एवं पुरुषों के बहुआयामी प्रतिनिधित्वों का उपयोग करके महिला संवेदनशीलता से जुड़े संप्रेषण को बढ़ावा देंगे।”

इस चार्टर में इसके हस्ताक्षरकर्ताओं के लिए यह प्रतिबद्धता व्‍यक्‍त करना भी आवश्‍यक कर दिया गया है कि वे “संप्रेषण में संतुलित मौजूदगी सुनिश्चित करके महिलाओं और पुरुषों के निष्पक्ष चित्रण को बढ़ावा देंगे।” इसमें कहा गया है कि समाज के समस्‍त क्षेत्रों में सफल महिलाओं के साथ-साथ महिला अधिनायकों (लीडर) को भी समान महत्व देकर यह काम बखूबी किया जा सकता है। पितृसत्तात्‍मक व्‍यवस्‍था की शिकार के रूप में महिलाओं को दर्शाने के बजाय पाठ्यक्रम तैयार करने वाले विशेषज्ञों को पुरुष समकक्षों की सफलता की गाथाओं की भांति ही महिलाओं की सफलता की गाथाओं को भी एक-एक करके बताना चाहिए।

ज्‍यादातर प्रोफेशनल पाठ्यक्रमों में व्यक्तित्व विकास का भी एक अध्‍याय होता है। इसी तरह विभिन्न गतिविधियों जैसे कि समूह चर्चा, बहस, सार्वजनिक संबोधन, इत्‍यादि की थीम के रूप में भी महिलाओं से संबंधित विषयों को शामिल किया जाता है। हालांकि, ये सभी आधे-अधूरे मन से किए जाने वाले प्रयास हैं जिससे संबंधित सूचनाओं का प्रसार प्रभावशाली तरीके से नहीं हो पाता है। संकाय (फैकल्‍टी) के सदस्यों को इस तरह की चर्चाओं से उभरने वाले दृष्टिकोणों को शामिल करना चाहिए और इसके साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिला संवेदनशीलता से संबंधित बारीकियों एवं समानता की आवश्यकता का संप्रेषण बिल्‍कुल सही ढंग से हो।

अभिनव ढंग और संवादात्मक स्‍वरूप में आयोजित की जाने वाली कार्यशालाएं और संगोष्ठियां महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में मूल्यवान साबित हो सकती हैंबशर्ते कि इनका आयोजन बार-बार हो। प्रत्‍ये‍क तीन या छह माह में कार्यशालाएं आयोजित करने की सामान्य प्रणाली आवश्यक प्रभाव डालने में सक्षम साबित नहीं होगी।

विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अवस्थित महिला अध्ययन केंद्र या महिला विकास प्रकोष्‍ठ महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता के जरिए महिलाओं की समानता को प्रोत्साहित करने में प्रमुख रूप से सहायक साबित हो रहे हैं। मुख्य रूप से परिसर में यौन उत्पीड़न की रोकथाम पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय इन केंद्रों को महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीकों को बढ़ावा देने में मदद करनी चाहिए। इन विकास प्रकोष्‍ठों के मामले में एक अपरंपरागत दृष्टिकोण स्टोनी ब्रुक विश्वविद्यालय द्वारा अपने सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ मेन एंड मैस्‍क्‍यूलिनिटीज (सीएसएमएम) के माध्यम से अपनाया गया है जिसका लक्ष्‍य ऐसे अनुसंधान को समर्थन देकर पाठ्यक्रम में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता को शामिल करने में मदद के लिए होने वाली चर्चाओं में पुरुषों को शामिल करना है जो हितकारी पुरुषत्व और अपेक्षाकृत अधिक महिला-पुरुष समानता सुनिश्चित करने में युवाओं एवं पुरुषों दोनों ही के अहम योगदान को आगे बढ़ाता है।

हीफॉरशी इम्‍पैक्‍ट 10x10x10 – विश्वविद्यालय समतुल्‍यता रिपोर्ट 2016’ में व्‍यापक असर डालने संबंधी अपनी प्रतिबद्धताओं के एक हिस्से के रूप में कॉलेज परिसरों में महिलाओं के साथ भेदभाव की समस्‍या का मुकाबला करने के दो अत्‍यंत रोचक तरीकों को साझा किया गया है। पहला तरीका यह है कि वरिष्ठ नेतृत्व वाले पदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए क्‍योंकि उच्च शिक्षा प्रदान करने वालों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्‍या ज्‍यादा होने के बावजूद महज कुछ ही महिला शिक्षक वरिष्ठ पदों पर पहुंच पाती हैं। यह कदम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रशासन में महिला-पुरुष समानता सुनिश्चित होने से प्रमुख निर्णयकर्ताओं को मजबूत महिला-अनुकूल नीतियों को विकसित करने और प्रबंधन के सभी स्तरों पर इस प्राथमिकता को मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी।

दूसरा तरीका यह है कि लकीर के फकीर वाली व्‍यवस्‍था से अलग हटकर पढ़ाई में छात्रों एवं छात्राओं की संख्‍या में अंतर को समाप्‍त किया जाए और इसके साथ ही छात्राओं को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शिक्षा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। यह उनके भावी करियर पथ को निर्धारित करेगा और इसके साथ ही ‘एसटीईएम’ आधारित करियर में विषमता समाप्‍त होगी।

महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता सुनिश्चित करने का एक अत्‍यंत आवश्यक अवयव यह है कि महिलाओं के अधिकारों पर कानूनी साक्षरता के साथ-साथ उत्पीड़न की रोकथाम के लिए विभिन्न कानूनों जैसे कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम (पीओएसएच) संबंधी दिशा-निर्देशों, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम अधिनियम 2013, फौजदारी कानून संशोधन अधिनियम 2013, न्यायमूर्ति वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में महिलाओं के अधिकारों वाले विधेयक, इत्‍यादि का भी ज्ञान अनिवार्य किया जाना चाहिए। यह अत्‍यंत आवश्यक है कि इन्‍हें उच्च शिक्षा से जुड़े विभिन्न पाठ्यक्रमों का एक अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए।

विश्व बैंक के ग्यारहवें अध्‍यक्ष रॉबर्ट जोएलिक ने कहा, ‘समानता एक बिल्‍कुल सही उद्देश्‍य है। इसके साथ ही यह ‘स्मार्ट अर्थशास्त्र’ है। यदि कोई अर्थव्यवस्था अपनी आधी आबादी में निवेश की अनदेखी करती है, नजरअंदाज करती है या निवेश करने में विफल रहती है तो अर्थव्यवस्था अपनी पूरी क्षमता के साथ विकास कैसे कर सकती है?’ उच्च शिक्षा में महिला-पुरुष समानता का लाभ अंततः अर्थव्यवस्था को भी मिलता है जिसके विकास की गति कुशल और प्रतिभाशाली मानव संसाधनों की उपलब्धता बढ़ने से तेज हो जाती है।

विश्वविद्यालयों में केवल छात्र ही नहीं, बल्कि छात्राएं भी शिक्षा ग्रहण करती हैं जिनमें से सभी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना अत्‍यंत आवश्यक है। ऊपर वर्णित तरीकों पर अमल के लिए व्‍यापक बदलाव जरूरी नहीं है। ये सरल, लेकिन कारगर उपाय हैं और बड़ी आसानी से समस्‍त तरह के झुकाव या सोच को समायोजित करते हुए महिलाओं के प्रति तटस्थ नजरिया अपनाने के लिए इनमें फेरबदल किया जा सकता है। यही नहीं, इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि ‘सभी के लिए समानता’ के उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए हम केवल चर्चाएं करने के दौर से बाहर निकल कर इस पर अमल करने के दौर में प्रवेश कर जाएंगे।

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