Published on Nov 26, 2020 Updated 0 Hours ago

वैश्विक बेरोज़गारी में लगातार हो रही वृद्धि के कारण उपभोग की मांग में भारी कमी को कम करने के लिए, सरकारों को विस्तारवादी राजस्व नीतियों का उपयोग करना चाहिए.

श्रम बाज़ार में बढ़ती खाई को पाटने के लिए ज़रूरी आर्थिक क़दम और आगे की कार्रवाई

विश्वभर में फैली कोविड-19 की महामारी ने वैश्विक श्रम बाज़ारों में मौजूद दरार को और गहरा दिया है. ‘संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी)-8’, साल 2030 तक दुनिया भर के सभी पुरुषों और महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण और सतत रोज़गार का लक्ष्य रखता है. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, आर्थिक विकास के निरंतर और उच्च स्तर की आवश्यकता है, ख़ासकर विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में जहां, कामकाजी आबादी का एक बड़ा हिस्सा, इस तरह के रोज़गार में लिप्त है, जो स्थाई नहीं व निरंतरता की दृष्टि से असुरक्षित है. यह लोग पहले से ही अत्यधिक गरीबी में जी रहे हैं. महामारी ने सिकुड़ती अर्थव्यवस्था के विपरीत प्रभावों को और अधिक बढ़ाया है, जिसके चलते बेरोज़गारी का मुद्दा और भी जटिल हो गया है.

महामारी ने सिकुड़ती अर्थव्यवस्था के विपरीत प्रभावों को और अधिक बढ़ाया है, जिसके चलते बेरोज़गारी का मुद्दा और भी जटिल हो गया है. ऐसे में एसडीजी-8 की दिशा में होने वाली प्रगति भी अब आशंकाओं से घिरी है. 

ऐसे में एसडीजी-8 की दिशा में होने वाली प्रगति भी अब आशंकाओं से घिरी है. भारतीय संदर्भ में, जहां अगस्त 2020 तक औपचारिक कार्यबल का 9.83 प्रतिशत हिस्सा बेरोज़गार था, हर साल औपचारिक अर्थव्यवस्था में 8.5 प्रतिशत जीडीपी विकास दर ज़रूरी है, ताकि 10 से 12 मिलियन युवाओं को औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनाया जा सके.

महामारी के दौरान लागू किए गए सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंधों से बेरोज़गारी में गंभीर वृद्धि हुई है, जिसमें नौकरी देने वालों द्वारा नए श्रमिकों को काम पर न रखने और पुराने श्रमिकों को नौकरी से निकाला जाना शामिल है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने अनुमान लगाया है कि वैश्विक स्तर पर 2020 की दूसरी तिमाही तक 495 मिलियन लोग अपनी नौकरी खो चुके होंगे, जो कि पहली तिमाही में बेरोज़गारी के 160 मिलियन के आंकड़े से तीन गुना अधिक है. भले ही तीसरी तिमाही के लिए ये अनुमान 345 मिलियन हो, लेकिन साल 2020 की अंतिम तिमाही में नौकरियों को होने वाले नुकसान को 160 मिलियन से 515 मिलियन के बीच अनुमानित किया जा रहा है. पूरी दुनिया जिस तरह महामारी के चलते आर्थिक दबाव में है, ऐसे में कोविड-19 से होने वाले स्वास्थ्य व आर्थिक प्रभावों के बीच संतुलन बनाने के लिए, महत्वपूर्ण सुधारवादी नीतियों की ज़रूरत है.

महामारी के चलते दुनियाभर में लगाए गए लॉकडाउन से वस्तुओं और सेवाओं की मांग में उल्लेखनीय कमी आई है, इसका कारण आपूर्ति श्रृंखलाओं में पड़ा व्यवधान भी है और आर्थिक मंदी भी. वस्तुओं और सेवाओं की मांग में कमी ने स्थापित आपूर्ति श्रृंखलाओं को गैर ज़रूरी बनाने का काम भी किया है. इसके चलते यह अनुमान लगाया जा रहा है कि श्रम बाज़ारों पर कोविड-19 का प्रभाव तीन प्रमुख तरीकों से महसूस किया जाएगा- नौकरियों की गुणवत्ता, नौकरियों की मात्रा और कमज़ोर समूहों पर इससे संबंधित प्रभाव. मुख्य़ रूप से मार्च के अंत में भारत में लगाए गए लॉकडाउन के कारण, वित्त वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही में जीडीपी में 23.9 प्रतिशत की गिरावट आई है.

श्रम बाज़ारों पर कोविड-19 का प्रभाव तीन प्रमुख तरीकों से महसूस किया जाएगा- नौकरियों की गुणवत्ता, नौकरियों की मात्रा और कमज़ोर समूहों पर इससे संबंधित प्रभाव. 

इसी तरह की गिरावट, संयुक्त राज्य अमेरिका (31 प्रतिशत) और यूरोप (14 प्रतिशत) जैसी अन्य अर्थव्यवस्थाओं में भी देखी गई है. वायरस का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव, श्रम बाज़ार पर पड़ा है, जिससे नए लोगों की नियुक्ति पर रोक, अनौपचारिक श्रमिकों के लिए बाज़ार और अवसरों की कमी, कार्यस्थलों के बंद होने और कंपनियों में बड़े पैमाने पर छंटनी जैसे परिणाम सामने आए हैं.

आर्थिक प्रयास और काम करने के घंटों में कमी

भले ही समकालीन आर्थिक सिद्धांत, सकल मांग और सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि को लक्षित करके आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन यह कीनेसियन सिद्धांत (Keynesian theory) के विपरीत है, जहां मैक्रोइकोनॉमिक स्थिरता, जन कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से पैदा हुए रोज़गार से, महत्वपूर्ण रूप से जुड़ी हुई है.

अध्ययनों से पता चलता है कि उत्पादन में आई कमी या अंतराल के बजाय, श्रम की मांग में आई कमी को संबोधित करने वाली राजस्व नीतियां, बेरोज़गारी से निपटने, आय संबंधी असमानता प्राप्त करने और विवेकपूर्ण निवेश के निर्णयों को प्रेरित करने की दिशा में अधिक प्रभावी होती हैं. 

असल में, अध्ययनों से पता चलता है कि उत्पादन में आई कमी या अंतराल के बजाय, श्रम की मांग में आई कमी को संबोधित करने वाली राजस्व नीतियां, बेरोज़गारी से निपटने, आय संबंधी असमानता प्राप्त करने और विवेकपूर्ण निवेश के निर्णयों को प्रेरित करने की दिशा में अधिक प्रभावी होती हैं. भारत में, सरकार द्वारा प्रायोजित मनरेगा कार्यक्रम (Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Scheme) ने मज़दूरी के लिए एक न्यूनतम सीमा तय करते हुए, ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के निर्माण और श्रम बाज़ारों को प्रभावी ढंग से बहाल करने की दिशा में मदद की है. जैसा कि अर्थशास्त्री ज्य़ां द्रेज़ द्वारा प्रस्तावित किया गया था, मांग-संचालित शहरी रोज़गार कार्यक्रम लाखों शहरी गरीबों को रोज़गार प्रदान कर, शहरी बुनियादी ढांचे के कायाकल्प में मदद कर सकता है, ख़ासतौर पर उस वक्त जब उन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है.

वैश्विक बेरोज़गारी में वृद्धि के कारण उपभोग की मांग में भारी कमी को कम करने के लिए सरकारों को विस्तारवादी राजस्व नीतियों का उपयोग करने की आवश्यकता है. यह विभिन्न प्रकार के उपायों के ज़रिए किया जा सकता है, जिसमें सार्वजनिक कार्य से जुड़े कार्यक्रम (public works programme), मांग के स्तर पर कमी को कम करने के लिए, आय संबंधी सहयोग व समर्थन, निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए व्यवसायों को सब्सिडी प्रदान करना और सामाजिक व स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करना शामिल है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि विश्व भर में श्रमिक वर्ग और व्यवसाय मालिकों के एक बड़े हिस्से के लिए घर से काम करना या टेलिवर्किंग एक संभव विकल्प नहीं है. कोविड-19 पर विश्व श्रमिक संगठन (आईएलओ) मॉनिटर के छठे संस्करण के अनुसार, साल 2019 की अंतिम तिमाही की बेस-लाइन का इस्तेमाल करते हुए- कामकाजी घंटों (वर्किंग आवर) को लेकर, साल 2020 की दूसरी तिमाही के दौरान, पहली तिमाही के 5.6 प्रतिशत की तुलना में, 17.3 प्रतिशत की कमी आई है, (मुख्य़ रूप से कार्यस्थल बंद होने के कारण). तीसरी तिमाही के लिए अनुमान है कि यह कमी 12.1 प्रतिशत और 2020 की आखिरी तिमाही में 8.6 प्रतिशत की कमी रहेगी. काम के कम हुए इन घंटों के कारण, वैश्विक स्तर पर 2020 की पहली तीन तिमाहियों में श्रमिक आय में 10.7 प्रतिशत की कमी आई है.

साल 2020 की दूसरी तिमाही में (2019 की अंतिम तिमाही में कामकाजी घंटों की तुलना में) बड़ा राजकोषीय प्रोत्साहन देने वाले देशों (सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में) में काम के घंटों में हुए नुकसान और राहत पैकेज के बीच परस्पर नकारात्मक संबंध देखा जा सकता है. आईएलओ की विशेष रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि कम और मध्यम आय वाले देशों में नौकरियों का अधिक नुकसान, राजकोषीय प्रोत्साहन की कम मात्रा का परिणाम हो सकता है.

आय के आधार पर अंतर वाले अलग-अलग देशों में, राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेजों को लेकर संबंधित नौकरियों के नुकसान में व्यापक अंतर था. उच्च आय वाले देशों ने अपने सकल घरेलू उत्पाद के 10.1 प्रतिशत हिस्से को प्रोत्साहन पैकेज के रूप घोषित किया

आय के आधार पर अंतर वाले अलग-अलग देशों में, राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेजों को लेकर संबंधित नौकरियों के नुकसान में व्यापक अंतर था. उच्च आय वाले देशों ने अपने सकल घरेलू उत्पाद के 10.1 प्रतिशत हिस्से को प्रोत्साहन पैकेज के रूप घोषित किया, जहां काम के घंटों में आई कमी 9.4 प्रतिशत थी. जबकि कम आय वाले देशों में राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.2 प्रतिशत रहे.

फ़िगर 2: साल 2020 की दूसरी तिमाही में राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेजों और काम करने के घंटो में आई कमी के बीच संबंध

भारत में, हाल ही में राजकोषीय बजटीय सहयोग के ज़रिए, मांग में कमी को संबोधित करने के प्रयास, आर्थिक रूप से सकल घरेलू उत्पाद का 1.2 प्रतिशत थे. चूंकि राजकोषीय प्रोत्साहन, अर्थव्यवस्था में आई गिरावट की तुलना में कम है, इसलिए यह क़दम अकेले अपने स्तर पर, भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ज़रूरी, आय सहायता प्रदान करने में सक्षम नहीं हो सकता है. यह अनुमान लगाया गया है कि राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज के चलते, किसी देश के जीडीपी में हुई एक प्रतिशत की वृद्धि से, 2019 की अंतिम तिमाही में काम करने के घंटों की तुलना में, साल 2020 की दूसरी तिमाही में काम के घंटों के नुकसान को, 0.8 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है. यह दिलचस्प है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में सितंबर 2020 के अंत में, बेरोज़गारी भत्ते के लिए अर्ज़ी देने वालों की संख्य़ा तब बढ़ने लगी, जब सरकार की ओर से दिया गया प्रोत्साहन पैकेज (जिसका इस्तेमाल कारोबारियों ने कर्मचारियों और श्रमिकों को काम पर वापस रखने के लिए किया था) ख़त्म होने लगा.

आगे की राह

दुनियाभर में फैले आर्थिक संकट के विशाल पैमाने को देखते हुए, क्षेत्रीय आधार पर तय किए गए ऐसे स्थायी समाधान ढूंढना, जो समस्याओं के अनुपात में हल सुझाएं और स्वास्थ्य संबंधी रियायतों को ध्यान में रखें, क्षेत्रीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर बेहद ज़रूरी है. व्यवसायों को भी जीवित रहने के लिए, आपूर्ति के नए तरीके अपनाने होंगे, ताकि वह अपने कर्मचारियों को नौकरियों में बनाए रख सकें. कुछ कंपनियों ने भौतिक रूप से दुकानों को बंद करने के लिए मजबूर होने के बाद, अपने बिक्री स्टाफ को ऑनलाइन बिक्री का संचालन करने के लिए, यहां तक कि अपने संचालन का विस्तार करने के लिए इस्तेमाल किया है.

अन्य व्यवसायों ने अपने मौजूदा बुनियादी ढांचे और विशेषज्ञता को नए सिरे से परिभाषित कर, कोविड-19 के दौर में खुद को प्रासंगिक बनाने का काम किया है. जैसे, कॉस्मेटिक और अल्कोहल कंपनियों द्वारा सैनिटाइज़र बनाए जा रहे हैं, और कार कंपनियों ने वेंटिलेटर बनाने का काम किया है.

अन्य व्यवसायों ने अपने मौजूदा बुनियादी ढांचे और विशेषज्ञता को नए सिरे से परिभाषित कर, कोविड-19 के दौर में खुद को प्रासंगिक बनाने का काम किया है. जैसे, कॉस्मेटिक और अल्कोहल कंपनियों द्वारा सैनिटाइज़र बनाए जा रहे हैं, और कार कंपनियों ने वेंटिलेटर बनाने का काम किया है. कई कंपनियों ने अपने मौजूदा स्टाफ को नई ज़रूरतों और काम के अनुरूप ढलने में मदद की है- जैसे कि टैक्सी-एग्रीगेटर्स अब ई-कॉमर्स कंपनियों द्वारा की जाने वाली आपूर्ति (delivery services) से जुड़ गए हैं और सीपीआर जैसी चिकित्सीय तकनीकों में प्रशिक्षित एयरलाइन क्षेत्र से जुड़े लोग अस्पतालों के लिए काम कर रहे हैं.

इसके अतिरिक्त, उच्च और निम्न-आय वाले देशों के बीच, राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज को लेकर अंतर, को अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के माध्यम से, ऋण राहत और पुनर्गठन से निपटने के लिए, इस्तेमाल किया जाना चाहिए. यह अंतरराष्ट्रीय मदद आम लोगों के लिए बेहतर परिणाम लेकर आएगी. इस सबसे ऊपर, इन उपायों को सही समय पर, सही ढंग से लागू करने की आवश्यकता है, और इस प्रक्रिया के दौरान सरकार, नियोक्ताओं और श्रमिकों जैसे हितधारकों के साथ बातचीत पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. इन उपायों के उचित कार्यान्वयन से संस्थानों में विश्वास बहाल करने में मदद मिलेगी और इस वैश्विक महामारी के कारण होने वाले आर्थिक प्रभाव को रोकने, विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के लिए, इसके प्रभाव को कम करने की दिशा में, यह बेहद महत्वपूर्ण साबित होगा.

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