Published on Aug 29, 2020 Updated 0 Hours ago

ज़ाहिर है किसी भी देश की राजनीतिक शक्ति बढ़ाने के लिए उसकी आर्थिक तरक़्क़ी का महत्वपूर्ण योगदान होता है. लेकिन, अगर हम मध्यम अवधि के भविष्य के आकलन करें, तो भारत जो महत्वपूर्ण सामरिक फैसले लेगा, उनकी अहमियत कम नहीं होगी.

‘भारत की ग्रैंड स्ट्रैटेजी के लिए सिर्फ़ आर्थिक तरक्की ही काफ़ी नहीं’

भारत के सामरिक हलकों में ये बात अक्सर सुनने को मिल जाती है कि भारत को वैश्विक ताक़त बनाने की बड़ी रणनीति यही है कि वो अपने आर्थिक विकास की दर को सतत रूप से ऊंचे स्तर पर बनाए रखे. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति बनने में आर्थिक उपलब्धि का बड़ा योगदान होता है. किसी देश की आर्थिक प्रगति की रफ़्तार, जितनी बेहतर होगी, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी ताक़त उसी अनुपात में बढ़ती जाती है. क्योंकि, कोई भी देश अपने सैन्य व्यय को बढ़ाने, दूसरे देशों को मदद करने, कूटनीतिक संसाधनों में निवेश करने जैसे काम तभी कर सकता है, जब उसके पास आर्थिक संसाधन हों. अगर किसी देश के पास अधिक संसाधन होंगे, तो उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने हितों से समझौते भी कम करने पड़ेंगे. और अपने देश के सामाजिक विकास और सैन्य ताक़त के विकास (बंदूक ख़रीदे या रोटी) के बीच में किसी एक का चुनाव करने की चुनौती से भी निजात मिल जाएगी. उस देश को ये नहीं सोचना पड़ेगा कि वो अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने में पूंजी निवेश करे या नहीं. क्योंकि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बुनियादी संसाधनों से महरूम है. पिछले तीन दशकों में चीन की आर्थिक प्रगति और उसके मुक़ाबले भारत की थोड़ी कम आर्थिक प्रगति इन बातों की साफ़ मिसाल है कि आर्थिक प्रगति का सीधा संबंध राजनीतिक शक्ति से होता है.

हालांकि, ये मान लेना ख़तरनाक हो सकता है कि केवल आर्थिक प्रगति से ही कोई देश एक तार्किक और प्रभावशाली विदेश नीति पर चल सकता है.

सत्ता का बदलता संतुलन

नए कोरोना वायरस के कारण फैली महामारी का दुनिया की अर्थव्यवस्था पर बहुत भयानक प्रभाव पड़ने जा रहा है. लेकिन, कुछ देशों की अर्थव्यवस्थाएं, अन्य देशों की तुलना में इस झटके से अधिक तीव्र गति से उबर जाएंगी. 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट के कारण यूरोप और जापान में एक वक़्त के लिए आर्थिक प्रगति के पहिए थम गए थे. लेकिन, चीन, अमेरिका और एक हद तक भारत ने इस झटके से उबरने में कम वक़्त लिया था. वैश्विक वित्तीय संकट के बाद, इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं और मज़बूत होकर उभरी थीं.

नीचे के तीन चार्ट ये दर्शाते हैं कि G-20 देशों की अर्थव्यवस्थाओं (यूरोपीय देशों को मिलाकर) के बीच सकल घरेलू उत्पादन की भागीदारी किस तरह बदलती रही है. आज ये सभी देश मिलकर, विश्व अर्थव्यवस्था का 84 प्रतिशत बनाते हैं. 1995 में चीन की अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी जहां महज़ 3 प्रतिशत थी. वो वर्ष 2008 में 9 प्रतिशत के स्तर से बढ़कर 2019 में 20 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. वहीं इस दौरान, विश्व अर्थव्यवस्था में यूरोप का हिस्सा 27 फ़ीसद से घट कर 18 प्रतिशत रह गया. तो अमेरिका की हिस्सेदारी, आश्चर्यजनक रूप से 28 प्रतिशत से बढ़ कर 30 फ़ीसद हो गई. 1995 में विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा केवल एक फ़ीसद था और वित्तीय संकट के दौरान भारत की भागीदारी केवल दो प्रतिशत थी. लेकिन, वित्तीय संकट के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी बढ़ कर चार प्रतिशत हो गई. जहां तक अमेरिका का सवाल है, तो उसने विश्व की कुल जीडीपी में अपने हिस्से का स्तर कमोबेश वही बनाए रखा. लेकिन, अमेरिका के मुक़ाबले अन्य बड़ी आर्थिक शक्तियों जैसे कि जापान और यूरोप के हिस्से में काफ़ी गिरावट दर्ज की गई.

पहली संभावना: 2008-2019 के दौर की वापसी

आने वाले समय में विश्व अर्थव्यवस्था में किस देश की कितनी हिस्सेदारी होगी, इसका अंदाज़ा लगाने का मूल प्रश्न ये है कि महामारी के बाद सुस्ती की शिकार विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार के दौरान, बड़ी आर्थिक शक्तियां प्रगति के किस पथ पर चलेंगी. इस बात का विश्लेषण करने के लिए दो बुनियादी संभावनाओं के आधार पर चला जा सकता है.

पहली मूलभूत संभावना तो ये हो सकती है कि इन देशों की विकास दर लगातार बढ़ती रहेगी. मिसाल के तौर पर, अगर किसी देश की आर्थिक विकास की दर 2008 से 2019 के दौरा चार प्रतिशत रही थी, तो इस संभावना के अनुसार वो देश 2019 से 2030 के दौरान चार प्रतिशत सालाना विकास दर के हिसाब से प्रगति करेगा. ये पहली संभावना बहुत अधिक उम्मीद पर आधारित है. और, इसके लक्ष्य बेहद महत्वाकांक्षी हैं. अगर इस आकलन को हम दुनिया की सभी प्रमुख आर्थिक शक्तियों पर लागू करें, तो वर्ष 2030 में विश्व स्तर पर शक्ति का बंटवारा इसी के हिसाब से होगा.

चीन, अमेरिका से थोड़ा ही आगे सही, मगर दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त बन जाएगा. हालांकि, इस संभावना पर शक करने के कई कारण बनते हैं. पहला तो ये है कि कोरोना वायरस की महामारी का विश्व अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट से कहीं ज़्यादा होगा. दूसरी वजह ये है कि चीन की आर्थिक प्रगति में हम इस महामारी के प्रकोप से पहले ही संरचनात्मक रूप से कमी आते देख रहे थे. इसका अर्थ ये हुआ कि चीन मध्यम आमदनी वाले देश से अधिक आमदनी वाले देश की ओर भले बढ़ रहा हो, लेकिन, उसके विकास की दर धीमी हो गई है. इसके अलावा क़र्ज़ और अधिक आबादी जैसे कारण भी चीन के विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के विपरीत संकेत देते हैं.

इसके बावजूद, इस संभावना से हमें एक उम्मीद का आधार प्राप्त होता है. चीन, दुनिया की नंबर वन अर्थव्यवस्था तभी बन सकता है, जब कुछ विशिष्ट तकनीकी आविष्कारों के ज़रिए वो अपनी उत्पादकता बढ़ा ले. इससे विश्व के आर्थिक आयाम में एक नई तरंग उत्पन्न होगी. जिसके लिए चीन को वैश्विक बाज़ारों तक पहुंच बढ़ाने की ज़रूरत होगी. ये एक और पहलू है जिसके पूरे होने की संभावना बहुत कम है. क्योंकि, आज वैश्विक व्यापार वार्ताएं पूरी तरह से स्थगित हैं.

संभावना-2 :सीधी रेखा में विकास

भविष्य में विश्व के आर्थिक विकास की एक और संभावना जिस पर हम चर्चा कर सकते हैं, वो है सीधी रेखा के विकास वाला है. ये संभावना इस आकलन पर आधारित है कि अगर किसी देश की अर्थव्यवस्था ने वर्ष 2008-2019 के दौरान अपनी अर्थव्यवस्था में एक खरब डॉलर की वृद्धि की है, तो वर्ष 2019-2030 के दौरान भी ये अपनी अर्थव्यवस्था का इतना ही विकास करेगा. अगर हम इस संभावना के आधार पर वर्ष 2030 के वैश्विक परिदृश्य का आकलन करें, तो एक नया वैश्विक परिदृश्य उभरता दिखता है. इसमें अमेरिका दुनिया की नंबर वन अर्थव्यवस्था बना रहेगा, लेकिन, दूसरे स्थान पर चीन उससे ज़्यादा दूरी पर नहीं होगा.

पर, बड़ा सवाल ये है कि कोरोना वायरस की महामारी, इन संभावित समीकरणों पर कैसा असर डालेगी? ये तो किसी को नहीं पता. अगर हम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के वर्ष 2020 और 2021 के पूर्वानुमानों का इस्तेमाल करें, तो ये भी संभव है कि इस दूसरी संभावना के तीन अलग अलग आयाम हो सकते हैं. पहला तो ये की दुनिया की अर्थव्यवस्था V के आकार में पटरी पर लौटे. यानी एक साल तो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में नकारात्मक वृद्धि हो. मगर, अगले साल ये अर्थव्यवस्थाएं सीधी रेखा में प्रगति के पथ पर चलें. दूसरी, U के आकार की रिकवरी हो सकती है. जिसमें एक साल तो अर्थव्यवस्था का आकार सिकुड़ जाए. और दूसरे साल दोबारा पटली में लौटे. तीन साल तक इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं बेहद धीमी गति से आगे बढ़ें. और उसके बाद स्थायी तौर पर तेज़ी से विकास होंगे. और मुद्रा कोष के पूर्वानुमानों के अनुसार जो तीसरी संभावना हो सकती है, वो ये है कि केवल चीन की अर्थव्यवस्था सबसे तेज़ी से दोबारा प्रगति की पटरी पर लौटे. जबकि बाक़ी देश, बेहद धीमी गति से दोबारा विकास दर हासिल करें. ये सभी चार चार्ट ये संकेत देते हैं कि वर्ष 2030 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के शक्ति संतुलन में कोई ख़ास बदलाव नहीं आने वाला है.

मगर, जो बात इससे भी महत्वपूर्ण होगी, वो ये है कि क्या इन सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं, 2008-2019 के दौर की विकास दर हासिल करने में सफल रहेंगी? मतलब ये कि क्या ये सभी देश धीमी मगर स्थायी प्रगति के रास्ते पर चल सकेंगे? दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि के बीच जो अंतर होगा, उसके लिए उनकी आबादी, मानवीय पूंजी, निवेश की व्यवस्थाएं, तकनीकी आविष्कार, रोज़गार और बाज़ार तक अच्छी पहुंच जैसे कारण होंगे.

तीसरी संभावना: तेज़ी से शिखर पर पहुंचेगा चीन

कोविड-19 के बाद के दौर के वैश्विक परिदृश्य की एक तीसरी परिकल्पना ये हो सकती है कि चीन बेहद ताक़तवर देश बनकर उभरे. और ये तभी होगा जब चीन, अगले एक दशक तक अपने विकास की दर को, लगातार उच्च स्तर पर बनाए रखे. और इस दौरान, बाक़ी बड़े देशों की अर्थव्यवस्थाएं तरक़्क़ी की राह में लड़खड़ाती रहें. इस तीसरे संभावित परिदृश्य में चीन ख़ुद को सफलता पूर्वक उच्च आमदनी वाले देशों की श्रेणी में पहुंचा ले और विकास करते हुए अमेरिका की बराबरी तक ही नहीं, उससे आगे निकल जाए. तब चीन की अर्थव्यवस्था, भारत की अर्थव्यवस्था से दस गुना बड़ी होगी. ऐसी संभावना में जहां, चीन और भारत दोनों तेज़ी से प्रगति करें, वहां भी चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भारत से छह गुना बड़ा होगा.

परिदृश्य 4: भारतीय (और अमेरिकी) गतिशीलता

भारत के लिए सबसे अधिक उम्मीद भरी संभावना ये हो सकती है कि उसकी अर्थव्यवस्था, कोविड-19 के बाद एक समान गति से रिकवरी करे. ठीक वैसे ही, जैसे दुनिया के बाक़ी बड़े देशों में हो. इससे, भारत को विकास की वैश्विक गति से बहुत लाभ होगा. इससे वर्ष 2030 तक भारत की अर्थव्यवस्था 7 खरब डॉलर की हो जाएगी. लेकिन, जैसा कि चौथी संभावना के पूर्वानुमान जताते हैं, कि इतनी तेज़ी से प्रगति करने के बावजूद, भारत की अर्थव्यवस्था चीन के मुक़ाबले एक तिहाई आकार की ही होगी. हां, भारत अपने और चीन के बीच के फ़र्क़ को कम करने में ज़रूर सफल होगा. लेकिन, अगले एक दशक में ऐसा कोई महत्वपूर्ण फ़ासला भारत तय कर पाएगा, इसकी संभावनाएं बेहद कम हैं. इसी संभावना के एक और आयाम के तहत देखें तो, अगर भारत और अमेरिका अगले एक दशक में तीव्र आर्थिक विकास की दर को हासिल करते हैं, तो भी विश्व मंच पर शक्ति के संतुलन में बहुत बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलेगा. 

निष्कर्ष

विश्व अर्थव्यवस्था और शक्ति संतुलन को लेकर लगाए गए इन पूर्वानुमानों को हमें बहुत गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है. इन पूर्वानुमानों में ऐसे बेहद गंभीर हालात से बनने वाले समीकरणों को शामिल नहीं किया गया है. जिससे कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर प्रभाव पड़ सकता है. जैसे कि वित्तीय संकट, लंबी अवधि तक चलने वाली आर्थिक सुस्ती और मुद्रा अपस्फीति वग़ैरह. शायद, कई देश आगे चल कर ऐसे हालात का सामना करें, जिसमें उनकी अर्थव्यवस्थाओं को दोबारा प्रगति की पटरी पर लाना उतना आसान न हो, जिसका अंदाज़ा लगाया जा रहा है. या फिर, कुछ नई तकनीकों की मदद से वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के आयाम में वही तेज़ी देखने को मिले जैसी हमने 1990 और इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में देखी थी.

इस विश्लेषण से दो बड़े निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. पहला तो ये है कि मध्यम अवधि में कोरोना वायरस के झटके का बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर उतना विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा, जिससे कि वो भविष्य की आर्थिक वृद्धि निर्धारण कर सकें. कोविड-19 के बजाय भविष्य की आर्थिक वृद्धि को तय करने वाले कारक अन्य होंगे. आज जिस तरह से बड़े देश नई नई तकनीक के मालिक बनने की होड़ में जुटे हैं. जैसे कि-आर्टिफिशिलय इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, ऑटोमेशन, क्वांटम कम्प्यूटिंग, 5G दूरसंचार व्यवस्था, कई तरह की वित्तीय और स्वास्थ्य संबंधी तकनीकें, हरित ऊर्जा और अतिरिक्त निर्माण वगैरह. ये सभी चीज़ें भविष्य की विकास दर पर अधिक प्रभाव डालने वाली होंगी. इन विषयों की अधिक या अन्य देशों से पहले जानकारी होना ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई तरह की होड़ को जन्म दे रहा है.

इस विश्लेषण का जो दूसरा नतीजा है, वो भारत के दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण है. इसके अनुसार, विश्व की अर्थव्यवस्था आने वाले दशक में किसी भी दिशा में बढ़े, मगर भारत दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी अमेरिका और चीन से काफ़ी पीछे ही रहने वाला है. नीचे उल्लिखित चार्ट से ये बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है. अगर हम तार्किक दृष्टिकोण रखें और सावधानी भरी उम्मीद से भी देखें, तो भारत के लिए सबसे अच्छी संभावना यही हो सकती है कि वो वर्ष 2030 तक 7 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाए. इससे भले ही चीन और भारत के बीच का फ़र्क़ कम हो जाएगा. लेकिन, तब भी भारत अर्थव्यवस्था के मामले में चीन की ताक़त का एक तिहाई ही रहेगा. और अगर हम भारत के लिहाज़ से सबसे बुरे आकलन पर जाएं तो भारत के लिए चुनौती और भी मुश्किल होगी. इससे, चीन और भारत की अर्थव्यवस्थाओं में दस के मुक़ाबले एक का फ़ासला होगा. और इन परिस्थितियों में भारत की इकॉनमी, जर्मनी और जापान के ही बराबर होगी.

ज़ाहिर है किसी भी देश की राजनीतिक शक्ति बढ़ाने के लिए उसकी आर्थिक तरक़्क़ी का महत्वपूर्ण योगदान होता है. लेकिन, अगर हम मध्यम अवधि के भविष्य के आकलन करें, तो भारत जो महत्वपूर्ण सामरिक फैसले लेगा, उनकी अहमियत कम नहीं होगी. इन सभी अलग अलग परिदृश्यों के अनुसार, वर्ष 2030 तक विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी चार से सात प्रतिशत के बीच होगी. दो संभावनाओं के बीच का ये फ़ासला बेहद महत्वपूर्ण है. ये एक औसत भारतीय के कल्याण के लिए ही बेहद अहम है. साथ ही साथ ये देश के संसाधनों के कुल वितरण के लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है. लेकिन, विश्व स्तर पर शक्तियों के बंटवारे पर इसका कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है. भारत, आने वाले समय में विश्व सत्ता के अन्य बड़े केंद्रों जैसे कि, अमेरिका, चीन, यूरोप, जापान और रूस से कैसे संवाद करता है, उनसे कैसे संबंध बनाता है और उनकी पहल पर कैसी प्रतिक्रिया देता है, वो भी अहम बात होगी. इसके अलावा भारत को ये भी ध्यान देना होगा कि वो दक्षिणी पूर्वी एशिया, अफ्रीका, पश्चिमी एशिया और लैटिन अमेरिका से कैसे संबंध विकसित और प्रगाढ़ करता है. अब अगले दस वर्षों में भारत के आर्थिक विकास की दर कुछ भी रहे. मगर, ये कारक ही विश्व स्तर पर भारत की हैसियत तय करेंगे.

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