Author : John C. Hulsman

Published on Jan 18, 2021 Updated 0 Hours ago

अमेरिकी संसद के निचले सदन यानी हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स और सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी की ताक़त देखते हुए, जो बाइडेन के लिए अपने घरेलू एजेंडे को पूरी तरह से लागू कर पाना आसान नहीं होगा.

अमेरिका की पुरानी विदेश नीति को फिर से बहाल करने में आने वाली समस्याएं

‘क्रांतियों में सबसे ख़राब वो होती हैं, जो पुरानी व्यवस्था को दोबारा बहाल करती हैं’

-चार्ल्स जेम्स फॉक्स, उन्नीसवीं सदी के व्हिग पार्टी के नेता

पिछली बार के राजनीतिक जोखिम के विश्लेषण में ये बात बिल्कुल साफ हो गई थी कि भले ही जॉर्जिया की दोनों सीटें जीत लेने के बाद, अमेरिकी सीनेट में अब कमला हैरिस के वोट से डेमोक्रेटिक पार्टी को सामान्य बहुमत हासिल हो गया है. लेकिन, अमेरिकी संसद के निचले सदन यानी हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स और सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी की ताक़त देखते हुए, जो बाइडेन के लिए अपने घरेलू एजेंडे को पूरी तरह से लागू कर पाना आसान नहीं होगा. ऐसे में उनका ज़ोर विदेश नीति के मोर्चे पर अधिक रहेगा, क्योंकि ये नीतिगत विषय है. विदेश नीति के मोर्चे पर जो बाइडेन के लिए बहुत कुछ करने का मैदान खुला हुआ है.

विदेश नीति के मोर्चे पर जो बाइडेन की नीति, पुरानी अमेरिकी नीतियों को बहाल करने की होगी. ख़ास तौर से जो बाइडेन की ख़्वाहिश ये है कि वो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के विचारों के हिसाब से विश्व पर अमेरिका का प्रभुत्व दोबारा स्थापित करने की कोशिश करेंगे. ये वही विश्व दृष्टि है, जिसका ख़्वाब डेमोक्रेटिक पार्टी ने बराक ओबामा के शासन काल में देखा था और वो आज भी जिसकी याद में आंसू बहाते हैं. हालांकि, डेमोक्रेटिक पार्टी की इस दिली ख़्वाहिश को हक़ीक़त में तब्दील करने की राह में दुनिया की कई नई हक़ीक़तों वाली चुनौतियां खड़ी हैं.

विदेश नीति के मोर्चे पर जो बाइडेन की नीति, पुरानी अमेरिकी नीतियों को बहाल करने की होगी. ख़ास तौर से जो बाइडेन की ख़्वाहिश ये है कि वो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के विचारों के हिसाब से विश्व पर अमेरिका का प्रभुत्व दोबारा स्थापित करने की कोशिश करेंगे. 

पहली तो, जैसा कि पूर्व रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स ने अपनी जीवनी में लिखा है कि उनकी नज़र में जो बाइडेन ऐसे व्यक्ति हैं, ‘जो पिछले चार दशकों के दौरान विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हर प्रमुख़ मुद्दे पर ग़लत साबित हुए हैं.’

जो बाइडेन और उनके प्रमुख सहयोगी-जल्द ही अमेरिका के नए विदेश मंत्री बनने वाले टोनी ब्लिंकेन-इराक़ युद्ध को लेकर बेतरह ग़लत साबित हुए थे. वो अफ़ग़ानिस्तान में अनिश्चितकाल तक अमेरिका के सैनिक तैनात रखने पर ग़लत साबित हुए. रूस के साथ बराक ओबामा की बचकानी ‘रिसेट’ वाली नीति को लेकर भी उनका आकलन ग़लत साबित हुआ. लीबिया में अमेरिकी दख़ल का उनका आकलन भी तबाही लाने वाला साबित हुआ. बाइडेन और ब्लिंकेन की सबसे बड़ी ग़लती तो शायद वो थी कि वो पिछले दो दशकों के दौरान, अमेरिका की विदेश नीति के तंत्र के उस सामूहिक सोच वाले आकलन पर आंख मूंद कर भरोसा करते कि चीन का उभार बुनियादी तौर पर अमेरिका के हित में होगा. सच कहें तो, ठोस रूप में ये समझ पाना मुश्किल है कि आख़िर कोई भी ये क्यों चाहेगा कि ऐसे निराशाजनक रिकॉर्ड वाली नीति को दोबारा बहाल किया जाए.

दुनिया के देशों के साथ गठबंधन

अब अगर पुरानी नीतियों को बहाल करने का कोई एक पहलू है, जिसे हम जो बाइडेन की विदेश नीति की टीम के लिए सबसे अहम मान सकते हैं, तो वो निश्चित रूप से यही है कि विदेश नीति के विचार के केंद्र में दुनिया के तमाम देशों और क्षेत्रों के साथ अमेरिका के गठबंधनों को फिर से बहाल करना होना चाहिए. हमारी मौजूदा ढुलमुल दोध्रुवीय विश्व व्यवस्था में दो महाशक्तियां (अमेरिका और चीन) हैं. लेकिन, इनसे एक पायदान नीचे कई और बड़े शक्तिशाली देश जैसे कि भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देश, यूरोपीय संघ और रूस भी हैं. ये सभी वो देश हैं जो मोटे तौर पर अपनी विदेश नीति की दशा-दिशा स्वतंत्र रूप से तय करते हैं. इन देशों का किसी एक महाशक्ति की ओर झुकाव (या फिर नए शीत युद्ध के दौरान पूरी सख़्ती से निरपेक्ष बने रहने की नीति अपनाना) ही, अमेरिका और चीन के बीच चल रहे मुक़ाबले के सामरिक नतीजे का निर्धारण करने में अहम भूमिका निभाने वाला है.

पुरानी स्थिति बहाल करने की जो बाइडेन की विदेश नीति के साथ बुनियादी समस्या ये है कि व्यवहारिक तौर पर कोई विदेश नीति होने के बजाय एक शोशेबाज़ी अधिक है. असल में ये एक ऐसी ख़्वाहिश है, जिसे पूरा करने के लिए योजना की दरकार है.

इस मामले में चीन की तुलना मे अमेरिका को भारी बढ़त हासिल है, क्योंकि भारत, जापान, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ या तो अमेरिका के प्रति झुकाव रखेंगे या फिर निरपेक्ष बने रहेंगे. इनमें से केवल रूस ही ऐसा इकलौता देश है, जो या तो खुलकर चीन के साथ जाएगा या फिर इस सामरिक संघर्ष से ख़ुद को अलग रखेगा. लेकिन, पुरानी स्थिति बहाल करने की जो बाइडेन की विदेश नीति के साथ बुनियादी समस्या ये है कि व्यवहारिक तौर पर कोई विदेश नीति होने के बजाय एक शोशेबाज़ी अधिक है. असल में ये एक ऐसी ख़्वाहिश है, जिसे पूरा करने के लिए योजना की दरकार है.

उदाहरण के लिए, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के आक्रामक रुख़ का मुक़ाबला करने के लिए, अक्सर जापान ने ही जियो-स्ट्रैटेजिक सहयोग और गठबंधन (क्वाड्रिलैटेरल इनिशिएटिव या क्वाड QUAD) वाली संस्थाओं के गठन की पहल की है. इसका श्रेय हमें जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे को देना चाहिए, जिन्होंने अपने कूटनीतिक कौशल का बख़ूबी इस्तेमाल किया, पर इसकी कभी वैसी चर्चा नहीं हुई, जितनी असल में होनी चाहिए. इससे उत्साहित होकर जो बाइडेन ने एशिया में चीन की बढ़ती दादागीरी के ख़िलाफ़ बन रहे ऐसे गठबंधनों के सिलसिले को और आगे बढ़ाने का वादा किया है.

ये सच है कि अपने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में लगातार अड़ियल रुख़ अपनाने वाले चीन ने कई गंभीर सामरिक ग़लतियां की हैं. इनसे एशिया में अमेरिका के पास कई जियोपॉलिटिकल दांव चलने के सुनहरे अवसर बन गए हैं. आज अमेरिका, भारत जैसे ताक़तवर देश के अधिक क़रीब है. वो अपने पुराने दुश्मन वियतनाम का भी इतना नज़दीकी बन चुका है, जैसा पहले कभी नहीं था. इसके अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया और आसियान (ASEAN) देशों जैसे पुराने साथियों के साथ भी आज अमेरिका के संबंध पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं.

ये ऐसी उपलब्धियां नहीं हैं जो अमेरिका ने अपनी चालाक कूटनीतिक चालों के ज़रिए हासिल की हैं. बल्कि ऐसा, पूर्वी चीन सागर और साउथ चाइना सी में चीन के आक्रामक, अड़ियल और दूसरे देशों को डराने वाली हरकतों के कारण हुआ है; इसके अलावा तिब्बत, हॉन्ग कॉन्ग और पश्चिमी सूबे शिंजिनांग में चीन के ज़ुल्म-ओ-सितम; भारत के साथ सीमा पर सैनिक संघर्ष; और ऑस्ट्रेलिया व ताइवान के ख़िलाफ़ चीन की ज़ुबानी जंग भी ऐसे हालात बनाने के लिए ज़िम्मेदार हैं. अपने आक्रामक रवैये से चीन ने इस पूरे क्षेत्र में भय का ऐसा माहौल बना दिया है, जो सामरिक दृष्टि से अमेरिका के लिए फ़ायदेमंद है.

गलत आकलन

तो इस ज़बरदस्त जियोस्ट्रैटिजक अवसर, और नए प्रशासन की उस सामान्य इच्छा, जिसके तहत वो अमेरिका के गठबंधनों का निर्माण करना चाहता है, को देखते हुए ये सवाल उठ सकता है कि आख़िर ग़लत ही क्या हो सकता है? अफ़सोस की बात है कि इनमें से बहुत से आकलन ग़लत साबित हो सकते हैं. जहां तक Quad (भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के गठबंधन) की बात है, तो जो बाइडेन ने अपने पूरे प्रचार अभियान के दौरान इस बारे में एक शब्द नहीं कहा. जबकि, आज चार देशों का ये नया समूह, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की आक्रामकता का मुक़ाबला करने के एक बड़े सामरिक गठबंधन में तब्दील हो चुका है.

सवाल ये है कि जो गठजोड़ पहले ही बन चुका है, उसमें नया निर्माण क्या होगा? कौन से नए सदस्य शामिल किए जगे और एक संगठन के रूप में Quad अपनी गतिविधियों को कैसे संचालित करेगा? 

सवाल ये है कि जो गठजोड़ पहले ही बन चुका है, उसमें नया निर्माण क्या होगा? कौन से नए सदस्य शामिल किए जाएंगे और एक संगठन के रूप में Quad अपनी गतिविधियों को कैसे संचालित करेगा? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब हमें पहले ही मिल जाने चाहिए थे. लेकिन, जो बाइडेन ने इन सवालों के जवाब तो दिए ही नहीं. बल्कि उन्होंने ये सवाल ये उठाया कि एशिया में बन रहे ऐसे गठबंधनों की व्यवहारिक अहमियत क्या है?

इस बात पर तो कोई भी सवाल नहीं उठा रहा है कि आज दुनिया की तमाम ताक़तों के साथ गठबंधन बनाना, अब अमेरिकी विदेश नीति की प्राथमिकता होनी चाहिए. हालांकि, आज ज़रूरत उम्मीदों के नारे लगाने की नहीं, बल्कि एक ठोस सामरिक योजना की है.

इसके बाद, नए प्रशासन की ओबामा के शासनकाल की विदेश नीति को दोबारा लागू करने की कोशिशों की राह में एक और समस्या है, जो सबसे बड़ी है. ऐतिहासिक रूप से ही ओबामा की विदेश नीतियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की आलोचना होती रही है. ठीक उसी तरह, जैसे कि पूर्व राष्ट्रपति ओबामा के जोशीले बयान, जो सुनने में तो बहुत अच्छे लगते हैं. लेकिन, वो होते महत्वहीन हैं. अब ऐसी विदेश नीति का हम क्या करेंगे, जो आज की अपेक्षाओं को न पूरा कर सके.

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