Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी विस्तार पा रही है और अपने लिए नए आयाम गढ़ रही है लोकतंत्र के साथ इसका परस्पर संबंध बढ़ रहा है. ऐसे में क्या डिजिटल लोकतंत्र को लेकर नियम बनाने का समय आ गया है?

डिजिटल प्रजातंत्र: रेत में खिंचती संभावनाएं और टकराव का लकीरें
डिजिटल प्रजातंत्र: रेत में खिंचती संभावनाएं और टकराव का लकीरें

यह लेख प्रौद्योगिकी और शासन: प्रतिस्पर्धी रुचियां नामक हमारी श्रृंखला का हिस्सा है.


2000 के दशक की शुरुआत में, ‘डिजिटल लोकतंत्र’ या ‘ई-लोकतंत्र’ जैसी अवधारणाएं ये संकेत दे रही थीं कि डिजिटल प्रौद्योगिकियां किस तरह से लोकतंत्र को प्रभावित कर सकती हैं, और परिणामस्वरूप इसके भीतर शासन-प्रक्रिया से नागरिकों को जोड़ने की भरपूर संभावना है. यह विचार अरब क्रांति के दौरान साकार रूप में दिखाई पड़ा, जहां सोशल मीडिया नागरिकों को संगठित करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया. उदाहरण के लिए, वॉशिंगटन टाइम्स ने ईरान में 2009 के राष्ट्रपति चुनावों के बाद बड़े पैमाने पर हुए विरोध प्रदर्शन के लिए “ट्विटर क्रांति” जैसे जुमलों का प्रयोग करते हुए अपने संपादकीय में लिखा, “आखिरकार स्वतंत्रता की भावना तेहरान के फ्रीडम स्क्वायर पहुंची.”

डिजिटल अधिनायकवाद इंटरनेट का एक ऐसा मॉडल है, जो राज्यों को राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव जैसे अस्पष्ट कारणों के बहाने मनमाने ढंग से किसी भी ऑनलाइन सामग्री को हटाने का अधिकार देता है. यह नागरिकों की व्यापक निगरानी के साथ-साथ “साइबर सेनाओं”, संगठित और राज्य-प्रायोजित समूहों जैसे तंत्रों को सक्षम बनाता है, जो कुछ और नहीं सेंसरशिप के नए तरीके हैं.

यह तकनीकी आशावाद अब फीका पड़ चुका है. जैसा कि ईरान के सर्वोच्च नेतृत्व ने आंदोलन को बुरी तरह कुचल डाला. वहीं जिन डिजिटल उपकरणों के माध्यम से यह आंदोलन संगठित हुआ था, उसका उपयोग लोकतांत्रिक मूल्यों को दबाने के लिए तानाशाहों और लोकतांत्रिक नेताओं द्वारा समान रूप से किया जाने लगा.

2021 में डिजिटल लोकतंत्र एक नए अवतार में सामने आया, जिसने ‘डिजिटल अधिनायकवाद’ के विरुद्ध लोकतांत्रिक देशों को एक दूसरे के विरोध में खड़ा कर दिया. डिजिटल अधिनायकवाद इंटरनेट का एक ऐसा मॉडल है, जो राज्यों को राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव जैसे अस्पष्ट कारणों के बहाने मनमाने ढंग से किसी भी ऑनलाइन सामग्री को हटाने का अधिकार देता है. यह नागरिकों की व्यापक निगरानी के साथ-साथ “साइबर सेनाओं“, संगठित और राज्य-प्रायोजित समूहों जैसे तंत्रों को सक्षम बनाता है, जो कुछ और नहीं सेंसरशिप के नए तरीके हैं. इनके ज़रिए सोशल मीडिया खातों यानी किसी की डिजिटल उपस्थिति पर सामूहिक हमला किया जाता है, और व्यक्तियों और समुदायों को परेशान किया जाता है. इस मॉडल की आंतरिक संरचना के मुकाबले इसका एक बाहरी ढांचा भी है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कमज़ोर करना चाहता है. डिजिटल तानाशाही कथित रूप से बड़ी तेज़ी से ऑनलाइन दुनिया से आगे बढ़कर बुनियादी भौतिक आधारभूत संरचनाओं को अपने घेरे में ले रही है, जिसके माध्यम से इंटरनेट संचालित होता है. उदाहरण के लिए, 5जी के मामले में, समान विचारधारा वाले देशों के विश्वसनीय दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के साथ साझेदारी करने की मांगें बढ़ रही हैं. ट्रंप प्रशासन द्वारा घोषित 5जी क्लीन नेटवर्क और भरोसेमंद आपूर्ति श्रृंखलाओं के लिए पीएम मोदी का आह्वान इस बदलाव के उदाहरण हैं.

दक्षिण कोरिया का सर्वोच्च न्यायालय भी चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर आक्रामक या भ्रामक जानकारियों से भरे वक्तव्यों को जारी करने को अपराध घोषित करता है.

डिजिटल तानाशाही के ख़तरे

पिछले एक साल में, राष्ट्रपति बाइडेन की अध्यक्षता में लोकतंत्र के लिए शिखर सम्मेलन (समिट फॉर डेमोक्रेसीज), जी7, क्वॉड जैसे मौजूदा समूहों और कोपेनहेगन डेमोक्रेसी समिट, फोरम 2000, फ्रीडम ऑनलाइन कांफ्रेंस एवं अन्य मंचों पर हमने देखा कि लोकतांत्रिक देशों को डिजिटल तानाशाही के उभरते ख़तरे से लोकतंत्र को “बचाने” के लिए एकजुट होने का आह्वान किया जा रहा है. इन बहसों में डेटा सुरक्षा और गोपनीयता, मीडिया स्वतंत्रता, डिजिटल साक्षरता, और इंटरनेट कनेक्टिविटी से जुड़े बुनियादी ढांचे को सुरक्षित करने सहित कई मुद्दे शामिल थे.

इन सबके बावजूद, लोकतांत्रिक परंपराएं ऐतिहासिक कारणों और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों के अनुसार एक दूसरे से भिन्न होती हैं. उदाहरण के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर बात करें तो दक्षिण कोरिया का सार्वजनिक आधिकारिक चुनाव अधिनियम 1994 (공직선거법) में हुए लोकतांत्रिक संक्रमण और उस दौरान अशांत राजनीतिक वातावरण का अवशेष है. उसके बाद के दशकों में इस अधिनियम में ऑनलाइन चुनावी कवरेज को लेकर बने दिशा-निर्देशों को जोड़ा गया और ऐसी सामग्रियों को प्रतिबंधित किया गया, जो चुनाव नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं. दक्षिण कोरिया का सर्वोच्च न्यायालय भी चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर आक्रामक या भ्रामक जानकारियों से भरे वक्तव्यों को जारी करने को अपराध घोषित करता है.

डेटा अपने मूल रूप में प्रवाहित होता है, जिसका लाभ सत्तासीन उठाते हैं. डेटा प्रवाह और संग्रहण का सबसे बड़ा फ़ायदा कुछ मुट्ठी भर शक्तिशाली लोग उठाते हैं, ख़ासकर अमेरिका और चीन के बड़ी टेक कंपनियां.

इसके अलावा, जैसा कि राष्ट्रपति बाइडेन ने शिखर सम्मेलन में अपने उद्घाटन वक्तव्य में बड़े ही सरल अंदाज़ में कहा, “प्रत्येक राज्य अलग-अलग तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है और इनमें से हर एक परिस्थितियां एक दूसरे से अलग हैं.” इससे एक नई उलझन खड़ी होती है: डिजिटल तानाशाही का सिद्धांत बिल्कुल स्पष्ट है, लेकिन यह डिजिटल लोकतंत्रों को एकजुट करने के लिहाज़ से एक कमज़ोर कड़ी है. यह इस बात से और भी ज्य़ादा जटिल हो जाता है कि आख़िर कितने लोकतांत्रिक देश ऑनलाइन उपस्थिति रखते हैं और उसे विनियमित करते हैं. कब “युक्तियुक्त प्रतिबंध” अलोकतांत्रिक बन जाते हैं? कब “आत्म-निर्भरता” अलगाववाद के रूप में सामने आती है?

चार्ट: देशों द्वारा फेसबुक और ट्विटर खाता हटाने के अनुरोध, स्रोत: ऑक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टिट्यूट

उपर्युक्त चार्ट में जनवरी 2019 और नवंबर 2020 के बीच  ट्विटर और फेसबुक द्वारा हटाए गए संगठित खातों से जुड़े देशों और उन खातों के निशाने पर आने वाले देशों की रूपरेखा दर्शायी गई है. रूस, ईरान, सऊदी अरब और चीन जैसे ग़ैर-लोकतांत्रिक देशों ने बड़े पैमाने पर दूसरे देशों पर साइबर हमले किए हैं, यानी बाह्य साइबर गतिविधियों में संलग्न रहे हैं. जबकि स्पेन और भारत जैसे कई देशों में घरेलू स्तर पर साइबर सेनाओं की टुकड़ियां तैयार की गई हैं.

विभिन्न स्तर पर कमज़ोर प्रतिनिधित्व

हालांकि, इन मतभेदों के कारण, कम से कम आने वाले कुछ सालों में, आपसी सहयोग के बाधित होने की संभावना नहीं है, क्योंकि लोकतांत्रिक सहयोग की ये मांग केवल सामान्य विश्वासों और मूल्यों पर आधारित नहीं है. यह एक रणनीतिक उपकरण भी है. बाइडेन के लोकतंत्र पर शिखर सम्मेलन में आमंत्रित मेहमानों की सूची अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक और रणनीतिक हितों को देखते हुए तैयार की गई थी.  वहीं पाकिस्तानी सरकार ने चीन के साथ अपने भू-राजनीतिक हितों को देखते हुए इस आमंत्रण को ठुकरा दिया. 2022 में आगे बढ़ते हए, डिजिटल क्षेत्र में लोकतांत्रिक सहयोग के मंचों को ऐसे बहुपक्षीय मुद्दों और प्रश्नों से निपटना होगा.

सबसे पहले तो इनमें से कई लोकतांत्रिक पहल से जुड़े मंचों पर नागरिक समाज की भागीदारी जैसे विभिन्न मोर्चों पर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है. जबकि इन मुद्दों के समाधान के कुछ प्रयास किए गए हैं लेकिन सबसे पहला कदम तो प्रतिनिधित्व का है. कम प्रतिनिधित्व वाले इन देशों में डिजिटल लोकतंत्र की स्थापना और उससे जुड़ी चुनौतियों पर अनुसंधान और उसके लिए निवेश के विविध स्रोत महत्त्वपूर्ण हैं.

आने वाले सालों में, अगर इन गतिविधियों और उत्पादों पर उचित नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया तो क्वॉन्टम और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) जैसी उभरती प्रौद्योगिकियां इन्हें बढ़ावा देंगी.  

दूसरा, डिजिटल क्षेत्र की प्रकृति ऐसी है कि उसकी कार्यप्रणाली, प्रभाव और ताकत पर केवल राज्यों का नियंत्रण नहीं है. डेटा अपने मूल रूप में प्रवाहित होता है, जिसका लाभ सत्तासीन उठाते हैं. डेटा प्रवाह और संग्रहण का सबसे बड़ा फ़ायदा कुछ मुट्ठी भर शक्तिशाली लोग उठाते हैं, ख़ासकर अमेरिका और चीन के बड़ी टेक कंपनियां. इसके कारण एक जायज़ डर ये उठता है कि विकासशील और अविकसित देश अतीत में हुई औद्योगिक क्रांतियों की तर्ज पर डेटा प्रदाता और उपभोक्ता के रूप में सीमित हो जायेंगे. इसलिए सार्वजनिक हित में प्रौद्योगिकियों के निर्माण, जो विभिन्न देशों और समुदायों के विशिष्ट हितों के अनुकूल हैं, के लिए स्थानीय डेटा पर स्वामित्व सुनिश्चित करने वाले तंत्रों को अपनाए जाने की आवश्यकता है.

तीसरा, डिजिटल प्लेटफॉर्म के संचालन (या उसकी अनुपस्थिति) से जुड़ी दो प्रकार की चिंताएं भी हैं. चिंता का पहला बिंदु ये है कि कई प्लेटफ़ॉर्म स्थानीय भाषा (चाहे वह स्वचालित हो या व्यक्तियों की सहायता से अनूदित हो) में संचालन के लिए संसाधनों का आवंटन इस प्रकार करते हैं, जो सांस्कृतिक बारीकियों का ध्यान रखने में असमर्थ सिद्ध होता है. दूसरी चिंता ये है कि सामग्रियों को ऐसे मानकों के अनुरूप संचालित किया जाता है, जो उपयोगकर्ता की भौगोलिक स्थिति यानी उसके देश के कानूनों से संगत नहीं होता. जिसके कारण संप्रभुता और अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता से जुड़े कठिन सवाल उठने लगते हैं. क्या दिग्गज टेक कंपनियों के पास ऐसे फ़ैसलों की स्वतंत्रता होनी चाहिए जो संप्रभु कानूनों को चुनौती दें? उन्हें क्या करना चाहिए जब उक्त कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उनकी अपनी नीतियों के विरोध में हों? क्या बड़ी टेक कंपनियां प्रतिबंधात्मक ऑनलाइन व्यवस्थाओं के उदय को बढ़ावा देने में शामिल हैं? इसलिए, डिजिटल लोकतंत्र के संबंध में होने वाली किसी भी बहस या उसके नीतिगत विकल्पों में बड़ी टेक कंपनियां अनिवार्य रूप से शामिल हैं.

आखिर में, डिजिटल लोकतंत्र की स्थापना के मूल आधारबिंदु क्या हैं? लोकतांत्रिक देशों द्वारा पेगासस स्पाइवेयर के बड़े पैमाने पर उपयोग से एक बात स्पष्ट है कि निगरानी से जुड़ी गतिविधियों के लिए स्पष्ट मापदंडों की आवश्यकता है लेकिन इसके साथ ही निजी कंपनियों द्वारा उत्पादित इन निगरानी उपकरणों को भी निरीक्षण की आवश्यकता है. आने वाले सालों में, अगर इन गतिविधियों और उत्पादों पर उचित नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया तो क्वॉन्टम और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) जैसी उभरती प्रौद्योगिकियां इन्हें बढ़ावा देंगी. उदाहरण के लिए, क्या वो समय नहीं आ गया है कि डिजिटल निगरानी के नैतिकपूर्ण उपयोग के लिए वैश्विक आचार संहिता स्थापित की जाए?

ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप FacebookTwitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.


The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.