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हालांकि ज़िंदगियां बचाने का मक़सद नेक है. लेकिन केवल अच्छे से गाड़ी चलाने की आदतों से ही सड़क हादसों में मरने वालों की संख्या कम नहीं होगी. इसके लिए अच्छी सड़कों, क़ाबिल और ताज़ादम ड्राइवरों, रोड इंजीनियरिंग में बदलाव और ट्रैफ़िक के संकेत साफ़ और चटख करने जैसे दूसरे पहलुओं का भी अहम रोल है.
2019 के मोटर व्हीकल (संशोधन) एक्ट के पास होने के बाद से ही इस पर हंगामा मचा हुआ है. पूरे देश में इस पर चर्चा हो रही है. इक क़ानून में अन्य बदलावों के अलावा ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने पर भारी जुर्माने का प्रावधान किया गया है. ये जुर्माने इससे पहले 1988 में तय किए गए थे. एक्ट में संशोधन की वजह से जिन जुर्मानों में सबसे अहम बदलाव किया गया है, वो हैं शराब पी कर गाड़ी चलाने का जुर्माना जिसे दो हज़ार रुपए से बढ़ा कर 10 हज़ार कर दिया गया है. रैश ड्राइविंग का जुर्माना एक हज़ार से बढ़ कर 5 हज़ार हो गया है. बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाने का जुर्माना 500 से बढ़ कर 5 हज़ार हो गया है. ओवर स्पीडिंग का जुर्माना 400 रुपए से बढ़ कर 2,000 हो गया है. वहीं बिना सीट बेल्ट या हेलमेट के गाड़ी चलाने का जुर्माना 100 रुपए से बढ़ कर एक हज़ार कर दिया गया है.
केंद्रीय सड़क परिवहन और हाइवे मंत्री नितिन गडकरी के मुताबिक़ इस बदलाव का सबसे बड़ा लक्ष्य सरकार की कमाई बढ़ाना नहीं. बल्कि लोगों में अनुशासन पैदा करना और सफ़र को सुरक्षित बनाना है. नितिन गडकरी के मुताबिक़, क्योंकि रोज़ाना हज़ारों भारतीय ट्रैफ़िक नियमों का खुला उल्लंघन करते हुए गाड़ी चलाते हैं. भारत में हर साल पांच लाख सड़क हादसे होते हैं. इन में 1.5 लाख लोग जान गवां देते हैं. ये दुनिया में सड़क हादसों में मरने वालों की सबसे ज़्यादा संख्या है. ट्रैफ़िक नियम तोड़ने के जुर्मानों को बढ़ाने को जायज़ ठहराते हुए गडकरी कहते हैं कि, “30 साल पहले जो जुर्माना 100 रुपए था, वो आज क्या होना चाहिए? मुझे, आप को ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि रुपए का कितना अवमूल्यन हो चुका है.”
जिस तरह कई राज्य मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन का विरोध कर रहे हैं. उससे ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस क़ानून को जल्दबाज़ी में बिना किसी सलाह-मशवरे के पास कर दिया गया?
जिस तरह कई राज्य मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन का विरोध कर रहे हैं. उससे ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस क़ानून को जल्दबाज़ी में बिना किसी सलाह-मशवरे के पास कर दिया गया? हालांकि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी इस आरोप ग़लत ठहरा चुके हैं. उन्होंने सफ़ाई दी है कि क़ानून में संशोधन का असल ड्राफ़्ट तो 20 परिवहन मंत्रियों ने तैयार किया था. इस के बाद ये ड्राफ्ट संसद की ज्वाइंट सेलेक्ट कमेटी के पास गया. फिर संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी इस पर विचार किया. क़ानून बनने से पहले इस बिल पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा हुई थी.
इस लेख का मक़सद मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन के उन पहलुओं पर ग़ौर करने का है, जिन की अब तक अनदेखी की गई है. इस बात का तर्क रखने वाले मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि क़ानून में बदलाव का मक़सद लोगों की जान बचाने का है और लोगों के गाड़ी चलाने के तौर-तरीक़े में भी वो इस क़ानून के ज़रिए अनुशासन लाना चाहते हैं. गडकरी का ये भी कहना है कि क़ानून में बदलाव कर के 1988 में तय किए गए जुर्मानों को रुपए की आज की क़ीमत की दरों पर लाया गया है.
हम इन सभी तर्कों पर एक एक कर के विचार करते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2018 की ग्लोबल रिपोर्ट ऑन रोड सेफ्टी के मुताबिक़, 2017 में भारत में सड़क हादसों में एक लाख, पचास हज़ार, 785 लोगों ने अपनी जान गंवाई. ये दुनिया भर में सड़क हादसों में मरने वालों की सबसे ज़्यादा संख्या थी. लेकिन हम इसी रिपोर्ट से अगर दूसरे तुलनात्मक आंकड़े निकालें, तो जो औसत निकलता है. वो हर एक लाख आबादी पर 22.6 लोगों की सड़क हादसों में मौत का है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के 54 ऐसे देश हैं, जहां सड़क हादसों में मरने वालों की औसत तादाद भारत से ज़्यादा है. इस आंकड़े को बताने का सिर्फ़ एक मक़सद है कि मंत्री के दावों को आंकड़ों की कसौटी पर कसना. इस का ये मक़सद इस बात से इनकार करना नहीं था कि देश में सड़क हादसों में बड़ी संख्या में लोगों की मौत होती है. अहम बात तो ये है कि केंद्र सरकार के सड़क और परिवहन मंत्रालय ने 2020 तक सड़क हादसों में जान गंवाने वालों की संख्या में 50 फ़ीसद तक की कमी लाने का लक्ष्य रखा है. 2017 में सड़क दुर्घटना में जान गंवाने वालों की संख्या में 2016 के मुक़ाबले मामूली यानी 1.9 प्रतिशत की कमी आई थी. तब हादसों में जान गंवाने वालों की संख्या 1 लाख 50 हज़ार 785 से घट कर 1 लाख 47 हज़ार 193 हो गई थी. अब हमें ये देखना होगा कि मोटर व्हीकल एक्ट में बदलाव के बाद इस तादाद में कितनी कमी आने वाले वक़्त में आती है. पर अभी सरकार ने जो लक्ष्य रखा है, वो दूर की कौड़ी ही मालूम होता है.
1988 में 100 रुपए में जितना सामान ख़रीदा जा सकता था. उतना ही सामान ख़रीदने के लिए आज 911.76 रुपए की ज़रूरत पड़ेगी. ऐसे में यातायात के नियम तोड़ने के जुर्मानों में 10 गुना इज़ाफा वाजिब लगता है.
एक बात पर तो मंत्री बिल्कुल सही हैं. और वो ये कि रुपए के अवमूल्यन की वजह से जुर्मानों की रक़म बढ़ाने की सख़्त ज़रूरत थी. आज 100 रुपए की जो क़ीमत है, वो 1988 में रुपए के मूल्य से तुलना करने पर 911.63 रुपए बैठती है. यानी आज रुपये का मूल्, 1988 के मुक़ाबले केवल दसवां हिस्सा रह गया है. दूसरे शब्दों में कहें, तो, 1988 में 100 रुपए में जितना सामान ख़रीदा जा सकता था. उतना ही सामान ख़रीदने के लिए आज 911.76 रुपए की ज़रूरत पड़ेगी. ऐसे में यातायात के नियम तोड़ने के जुर्मानों में 10 गुना इज़ाफा वाजिब लगता है. पर, बदक़िस्मती से ये तर्क जुर्माने की रक़म बढ़ाने में बराबरी से लागू नहीं किया गया है. ख़ास तौर से तब जब जुर्माना बढ़ाने का मक़सद लोगों की ज़िंदगियां बचाना है. मसलन, हेलमेट न पहनने या सीट बेल्ट न लगाने जैसे मामूली जुर्म पर अब एक हज़ार रुपए यानी 1998 के 100 रुपए का दस गुना जुर्माना तय किया गया है. वहीं, तय स्पीड से ज़्यादा तेज़ गाड़ी चलाने या शराब पी कर गाड़ी चलाने का जुर्माना 1,000 से 2,000 और 10 हज़ार रुपए ही है. जबकि सड़क हादसों की ये दो सबसे बड़ी वजहें हैं. लेकिन, इन के जुर्माने केवल पांच गुना बढ़ाए गए हैं. यानी 400 रुपए और 2,000 रुपए. साफ़ है कि जुर्माना बढ़ाने का उसके मक़सद से कोई ताल्लुक नहीं नज़र आता है.
इसके अलावा जुर्माने की रक़म देख कर ये साफ़ हो जाता है कि मक़सद तय करने के साथ इस बात पर ग़ौर नहीं किया गया कि लोग जुर्माना भर भी पाएंगे या नहीं. भले ही रुपए की क़ीमत दस गुना कम हो गई है. लेकिन, देश के ग़रीबों की आमदनी इसी अनुपात में नहीं बढ़ी है. ऐसे में क़ानून बनाने वालों को दो विकल्पों पर ग़ौर करना चाहिए था. ट्रैफ़िक नियम तोड़ने के मामूली अपराधों पर जुर्माने के बजाय सामाजिक सेवा के विकल्प देने चाहिए थे. वहीं, ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने के बड़े अपराधों में स्कैंडिनेवियाई देशों की मिसाल से सबक़ लेते हुए आमदनी से जुर्माने को जोड़ना चाहिए था. मतलब ये कि पैसे वाले लोगों से ज़्यादा जुर्माना वसूला जाए और ग़रीबों से कम. इससे ट्रैफ़िक नियम का पालन करने की ज़िम्मेदारी अमीरों पर ज़्यादा होती, ताकि वो अच्छे नागरिक का बर्ताव करें. इसी हिसाब से कार, तिपहिया वाहनों और दोपहिया गाड़ियों के बीच भी जुर्माने का फ़र्क़ होना चाहिए था.
क़ानून बनाने वालों को दो विकल्पों पर ग़ौर करना चाहिए था. ट्रैफ़िक नियम तोड़ने के मामूली अपराधों पर जुर्माने के बजाय सामाजिक सेवा के विकल्प देने चाहिए थे.
इस में कोई दो राय नहीं कि ज़िंदगियां बचाना एक नेक मक़सद है. लेकिन, हमें सड़कों की हालत, ड्राइवरों की क़ाबिलियत और ताज़गी, गाड़ियों की कंडीशन, रोड इंजीनियरिंग, नागरिकों की जागरूकता के लिए सड़क पर साफ़ और बड़े ट्रैफ़िक संकेतों जैसे अहम पहलुओं पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. इसके अलावा सड़क सुरक्षा की नियमित समीक्षा और सड़कें बनाने के दौरान उन रुकावटों को दूर करना जिन से हादसे हो सकते हैं, भी ज़रूरी है. सुरक्षित सड़को की डिज़ाइन बनाने पर भी अच्छी मात्रा में रक़म ख़र्च किए जाने की ज़रूरत होती है. तेज़ रफ़्तार ट्रैफ़िक वाली सड़कों पर सुरक्षित क्रॉसिंग, अंडरपास, निकलने के रास्ते बनाने ज़रूरी हैं. इसके अलावा ऐसी सड़कों पर चटख और समझ में आने वाले सड़क संकेत लगाए जाने से सड़क सुरक्षा की गुणवत्ता बढ़ जाती है. लेकिन, ज़्यादा से ज़्यादा सड़कें बनाने की होड़ में ऐसे अहम पहलुओं की अनदेखी होती है. इन से भी सड़क हादसों की संख्या में इज़ाफा होता है.
और आख़िर में, मीडिया में इस एक्ट को लागू करने की ज़्यादातर ख़बरें शहरों और कस्बों से ही जुड़ी रही हैं. चूंकि ज़्यादातर गाड़ियां शहरी इलाक़ों में ही होती हैं. तो ज़ाहिर है कि एक्ट को लेकर चर्चा भी शहरी इलाक़ों तक सीमित रही है. लेकिन, देश की कुल सड़कों में शहरी इलाक़ों की सड़कों की हिस्सेदारी महज़ 8.93 फ़ीसद ही है. लेकिन, अगर हम सड़क हादसों के आंकड़े देखें, तो 2017 में 62.9 फ़ीसद लोगों की जान राष्ट्रीय और राज्यों के हाइवे पर हुए हादसों में गई थी. जबकि बाक़ी सड़कों पर हुई दुर्घटनाओं में 37.1 प्रतिशत लोगों की जान गई थी. तेज़ रफ़्तार से गाड़ी चलाना और ओवरटेकिंग की वजह से सबसे ज़्यादा यानी सड़क हादसे के शिकार 66.7 फ़ीसद लोगों की जान गई. इन आंकड़ों से साफ़ है कि भले ही शहरों में गाड़ियों की संख्या ज़्यादा हो. लेकिन, सड़क हादसे ज़्यादातर शहरों के बाहर होते हैं. दिक़्क़त ये है कि हाइवे पर पुलिस की निगरानी बहुत ही कम होती है, क्योंकि वो दूसरी ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबे होते हैं. ऐसे हालात में, ट्रैफ़िक नियमों को ज़्यादा ही उत्साह से लागू करने की वजह से शहरों में पहले ही उथल-पुथल और अराजकता का माहौल है. ऐसे में मोटर व्हीकल एक्ट में बदलाव कर के सड़क परिवहन मंत्री जिस अनुशासन को लाने की बातें कर रहे हैं, वो शायद ही आ पाए. ऐसे में ज़िंदगियां बचाने के बड़े मक़सद को पाने में भी शायद ही क़ामयाबी हासिल हो. कुल मिलाकर हमें ये मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत में क़ानून बनते ज़्यादा हैं और लागू बहुत कम ही होते हैं.
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Dr. Ramanath Jha is Distinguished Fellow at Observer Research Foundation, Mumbai. He works on urbanisation — urban sustainability, urban governance and urban planning. Dr. Jha belongs ...
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