Author : Sunjoy Joshi

Published on Aug 31, 2020 Updated 0 Hours ago

एक कमजोर लचर और लाचार हो चुकी तंत्र व्यवस्था की पतंगबाज़ी धीरे-धीरे ट्वीटर पर शुरू होने लगी और यह खेल कई रूपों में खेली जा रही है — कहीं सीरियल के माध्यम से, तो कहीं झंडा-डंडा को लेकर, तो कहीं ‘राष्ट्र पहले’ के नाम पर.

कमज़ोर होते राष्ट्र और आक्रामक राष्ट्रवाद की अंतरराष्ट्रीय लहर

अर्थ का खेल सबसे बड़ा खेल होता हैं. आज के समय में अक्सर लोग कहते है कि तेल का ज़माना चला गया, पर वास्तव में ऐसा नहीं है. पश्चिम एशिया में तेल और गैस को लेकर वही पुराने झगड़े अमेरिका, सऊदी अरब और रूस के बीच बने हुए हैं. और इनके बीच तेल बेचने को लेकर प्रतिस्पर्धा बना हुआ है. हम जानते हैं कि अप्रैल माह में तेल की कीमतों में बुरी तरह से गिरावट देखी गई थी, जो $16 के आसपास पहुंच गया था. ऐसा नहीं है कि सऊदी अरब और अमेरिका के बीच तेल को लेकर सब कुछ सामान्य है क्योंकि परिस्थितियां बदल चुकी हैं. अब अमेरिका, सऊदी अरब से तेल खरीदने के बजाय तेल का निर्यात करता है. भारत और चीन तेल के सबसे बड़े उपभोक्ता राष्ट्र हैं. इसलिए सऊदी अरब का इनके साथ नज़दीकियां बनाना महत्वपूर्ण हो जाता है. इस वजह से इस क्षेत्र में काफी जटिलताएं देखने को मिल रही है.

ऐसा नहीं है कि सऊदी अरब और अमेरिका के बीच तेल को लेकर सब कुछ सामान्य है क्योंकि परिस्थितियां बदल चुकी हैं. अब अमेरिका, सऊदी अरब से तेल खरीदने के बजाय तेल का निर्यात करता है.

लीबिया में जो तमाशा हो रहा है वह इस वजह से हो रहा है कि एक इटालियन कंपनी ENI ने पूर्वी भू-मध्य सागर में भारी मात्रा में गैस की खोज की थी. यह प्राकृतिक संसाधन साइप्रस के है. साइप्रस और तुर्की का सीमा को लेकर के पुराना झगड़ा तो चल ही रहा था. मगर इन झगड़ों में ज़्यादा ज़ोर तब आया जब ये प्राकृतिक संसाधन मिल गए. अगर हम इनके जड़ में जाएं तो यह पता चलता है कि जो भी देश लड़ रहे हैं या एक दूसरे के साथ खड़े हुए हैं, उन सबका लेना-देना इसी तेल के खेल से है.

अमेरिका का पश्चिम एशिया में हित क्यों सिकुड़ता चला गया?

राष्ट्रपति ओबामा के समय में अमेरिका में शेल गैस का रिवॉल्यूशन हुआ. तब से अमेरिका तेल के मामले में आत्मनिर्भर हो गया और वह खुद तेल का निर्यात करने लगा. आज अमेरिका चाहता है कि वह खुद भारत, यूरोप और अन्य दूसरे देशों में जाकर के तेल को बेचे. यही वजह है कि अप्रैल माह में जब तेल की कीमतों को लेकर सऊदी अरब और उसके बीच में झगड़े हुए, जिसके बाद से तेल की कीमत में भारी गिरावट आने लगी, जिससे अमेरिका को बड़ी क्षति हुई. इस बात को लेकर अमेरिकी सीनेट ने प्रश्न उठाया कि हम सऊदी अरब की सुरक्षा के लिए सेनाएं भेजते हैं और वो हमारा ही नुकसान कर रहा है. इसी वजह से तेल के मामले में सऊदी अरब और अमेरिका के बीच में जो पहले संबंध थे, आज वह बिल्कुल भिन्न है.

रूस यह कभी नहीं चाहेगा कि तुर्की रीजनल ट्रेडिंग गैस हब बने क्योंकि रूस, यूरोप के ऊपर अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहता है. यूरोप की पूरी एनर्जी लाइफ लाइन रूस से जुड़ी हुई है.

यदि हम इस पूरे मामले का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि ENI ने 2015 में जब यहां तेल और गैस को ढूंढा तो उसने सभी से (साइप्रस, ग्रीस और इजराइल) यह समझौता कर लिया कि कैसे वह तेल और गैस निकालकर यूरोप के देशों को बेचेगा. इससे तुर्की पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया क्योंकि जब भू-मध्य सागर का बंटवारा किया गया था तो इसमें तुर्की के हितों की अनदेखी की गई थी और यह बंटवारा यूरोपियन यूनियन ने किया था. जिस तरह से दक्षिण चीन सागर में छोटे-छोटे द्वीपों को लेकर चीन अपनी बाउंड्री बनाता जाता है वही काम यूरोपीय यूनियन ने इस क्षेत्र में किया. और जैसे ही यह झगड़ा शुरू हुआ वैसे ही तुर्की ने ENI के साथ समझौता कर लिया. अगर यह मैरिटाइम बाउंड्री डिफाइन हो जाती हैं तो इससे रूस का हित प्रभावित होगा. और रूस यह कभी नहीं चाहेगा कि तुर्की रीजनल ट्रेडिंग गैस हब बने क्योंकि रूस, यूरोप के ऊपर अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहता है. यूरोप की पूरी एनर्जी लाइफ लाइन रूस से जुड़ी हुई है. यह रिश्ता रूस, यूरोप से बिल्कुल नहीं तोड़ना चाहेगा और इसीलिए ईस्ट और वेस्ट की लड़ाई में रूस, तुर्की को सपोर्ट न करके फ्रांस, इटली और अमेरिका के साथ हफ्त़ार का समर्थन करता है.

महामारी से भी भयंकर राष्ट्रवाद

आज के समय में राष्ट्र का स्वरूप जितना कमज़ोर होता जा रहा है उतना ज़्यादा राष्ट्रवाद बढता जा रहा है. राष्ट्र शक्ति का बहुत बड़ा स्रोत होता है जिसकी चार प्रमुख़ दीवारें होती हैं — साम, दाम, दंड और भेद. और यह इन्हीं के बूते पर अब तक खड़ा हुआ था. ये चार दीवारें धीरे-धीरे ढहती जा रही है और राष्ट्र का इन पर से नियंत्रण धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा है. वैश्वीकरण के नाते राष्ट्र का अर्थ पर से नियंत्रण सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है. और पैसे का प्रवाह काफी बढ़ा है. इस तरह से तंत्र व्यवस्था के जो ढहते स्तंभ थे इनसे राष्ट्रवाद वास्तव में कमज़ोर हुआ है और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ने ज़ोर पकड़ा है.

और आखिर में मूल रूप से एक कमज़ोर लचर और लाचार हो चुकी तंत्र व्यवस्था की पतंगबाज़ी धीरे-धीरे ट्वीटर पर शुरू होने लगी और यह खेल कई रूपों में खेली जा रही है — कहीं सीरियल के माध्यम से, तो कहीं झंडा-डंडा को लेकर, तो कहीं ‘राष्ट्र पहले’ के नाम पर. यह राष्ट्रवाद जो हमें देखने को मिल रहा है, वो वास्तव में एक कमज़ोर होते हुए राष्ट्र की निशानी है.

वैश्वीकरण के नाते राष्ट्र का अर्थ पर से नियंत्रण सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है. और पैसे का प्रवाह काफी बढ़ा है. इस तरह से तंत्र व्यवस्था के जो ढहते स्तंभ थे इनसे राष्ट्रवाद वास्तव में कमज़ोर हुआ है और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ने ज़ोर पकड़ा है.

लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण

अमेरिकी राष्ट्रवाद का पहले जो स्वरूप था उसमें दोनों पार्टियों की आपस में सहमति थी कि अमेरिका कैसा देश है? अमेरिका अपने इंस्टिट्यूशन का देश है. अमेरिका रूल ऑफ लॉ का देश है. अमेरिका की शक्ति अमेरिका के डेमोक्रेटिक इंस्टिट्यूशन है. और आज उन्हीं पर बार-बार सवाल खड़े होते दिख रहे हैं.

जिन स्तंभों पर राष्ट्र खड़ा है अगर वह कमजोर होता है, तो कैसे राष्ट्र, कैसी राज्यव्यवस्था और कैसी व्यवस्था. यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है जिसका सामना 21वीं सदी में पूरी दुनिया को करना पड़ेगा. आने वाले देशों का स्वरूप क्या होगा? उनमें कैसे इंस्टीट्यूशंस रहेंगे? किस तरह से ये आपस में इंटरेक्ट करेंगे? यह पूरी चीजें इस सदी में फिर से परिभाषित होंगी और किस तरह से परिभाषित होंगी यह देखना अभी बाकी है.

सत्ता में बने रहने के लिए जो एक शार्ट टर्म समाधान दिए जाते हैं कि अगले कुछ साल निकल जाए, समय बीत जाए, आगे आकर के अगली लड़ाई फिर से लड़ेंगे. यह जो शॉर्टटर्मनिज्म़ चल रहा है इसके परिणाम क्या होंगे. वास्तव में अलग-अलग ढंग के राष्ट्रवाद आपस में दुनिया का भिन्न-भिन्न नक्शा लेकर चलते हैं. तो इन राष्ट्रवादों में आगे चलकर आपस में टकराव होना निश्चित है. और इन टकराव से कैसे बचा जाए क्योंकि यह टकराव बहुत भयावह होते हैं. और इसमें किसी की भी जीत नहीं होती है. सभी लोग इसमें हारते हैं. इन टकरावों की कैसे अनदेखी की जाए, क्या ऐसी परिपक्वता लीडरशिप में आएगी, यह आगे अभी देखने की बात है.

कोविड-19 ने पूरी दुनिया में जो एक चरमराती हुई विश्व व्यवस्था चल रही थी उसको और भी छिन्न-भिन्न कर दिया. जिस विश्व को एक साथ होकर इस महामारी से लड़ना था, वह देश अलग-थलग होकर के हर दिशा में, अपने-अपने ढंग से, हर जगह कार्य करने की कोशिश कर रहे है. एक देश जो कर रहा है उससे दूसरे देश को कोई मतलब नहीं है. हर देश अपनी सीमाएं बंद करके, एक बड़ी ही संकीर्ण सोच लेकर चल रहा हैं. आज के समय में इस पूरी व्यवस्था के बारे में एक लॉन्ग टर्म थिकिंग लेकर चलने वाला कोई भी देश नहीं दिखता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.