Author : Atul Bhardwaj

Published on Aug 21, 2020 Updated 0 Hours ago

अगर जो बिडेन, अमेरिका में नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में जीत जाते हैं, तो अमेरिका की चीन संबंधी नीति में बदलाव आना तय है.

चीन को दार्शनिक बनाने के लिए डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो कि डेमोक्रेट के पास युद्ध से अलग क्या विकल्प है?

जैसे-जैसे नई विश्व व्यवस्था उभर रही है, दुनिया में अमेरिका का आर्थिक और तकनीकी प्रभाव कम होता जा रहा है. ऐसे हालात में अमेरिका शांतिपूर्वक अपने पतन को स्वीकार कर ले, इसकी संभावना कम ही है. वो आख़िरी दम तक अपनी बादशाहत क़ायम रखने की ज़िद पर अड़ा हुआ है. ऐसे हालात में, अमेरिका के नए राष्ट्रपति के लिए विकल्पों का चुनाव बेहद मुश्किल हो जाएगा. फिर नवंबर में चाहे जो बाइडेन चुनाव जीतें, या फिर डोनाल्ड ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बनें. दोनों में से किसी भी नेता के लिए चीन के प्रति अमेरिका का रवैया बदलकर अमन की बात कर पाना बेहद मुश्किल होगा. हालांकि, अगर जो बाइडेन, नवंबर में चुनाव जीत जाते हैं, तो चीन को लेकर अमेरिका की नीति में बदलाव आने तय हैं.

चीन के ख़िलाफ़ सबसे आक्रामक कौन है?

आज, चीन के ख़िलाफ अमेरिका में प्रचार का माहौल अपने शिखर पर है. चीन के ख़िलाफ़ आज के अमेरिका में वैसा ही माहौल है, जैसा हमने पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में देखा था. जब जर्मनी की बर्बरता को लेकर जनता के बीच ज़बरदस्त प्रचार अभियान चलाया गया था. तब के ब्रिटेन के नेताओं ने जर्मनी को एक ऐसे राष्ट्र के तौर पर प्रस्तुत किया था, जो किसी भी तरह का समझौता करने के लिए तैयार ही नहीं है. जो अमानवीय बर्ताव करता है. और जिसके साथ युद्ध करना और कुछ बलिदान करना वाजिब क़दम होगा. जर्मनी के ख़िलाफ़ ब्रिटेन के इस दुष्प्रचार के एक बड़े शिकार हुए थे लॉर्ड रिचर्ड बर्डन हाल्डेन, जो उस वक़्त ब्रिटेन के युद्ध मंत्री थे. रिचर्ड हाल्डेन को अपना मंत्री पद इसलिए गंवाना पड़ गया था, क्योंकि कभी हाल्डेन ने कहा था कि जर्मनी को वो अपना आध्यात्मिक घर मानते हैं.

इस बार अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में चीन एक बड़ा मुद्दा है. ऐसे में रिपब्लिकन पार्टी हो या डेमोक्रेटिक पार्टी, दोनों ही दल अपने अपने राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार अभियान में चीन के ख़िलाफ़ कड़े से कड़ा रुख़ अख़्तियार करते दिखना चाहते हैं. इसके लिए दोनों ही पार्टियों के नेता चीन को एक विलेन के तौर पर पेश करने में पूरी ताक़त से जुटे हुए हैं. ऐसे माहौल में तार्किक बात कहने को देशद्रोह की संज्ञा दी जा सकती है. इसलिए बाइडेन हों या डोनाल्ड ट्रंप, कोई भी 21वीं सदी का रिचर्ड हाल्डेन नहीं बनना चाहता. अमेरिकी राजनीति के रूढ़िवादी लोगों ने ट्विटर पर #BeijingBiden नाम के हैशटैग के ज़रिए जो बाइडेन के ख़िलाफ़ माहौल बनाने की कोशिशें तेज़ कर दी हैं. इसके ज़रिए, रूढ़िवादी नेता ये बताना चाहते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी जो बाइडेन, चीन के प्रति नरम रवैया रखते हैं. डोनाल्ड ट्रंप की टीम ने एक विज्ञापन अभियान भी शुरू किया है. इसमें जो बाइडेन को उनके बेटे हंटर के ज़रिए निशाना बनाया जा रहा है. क्योंकि, हंटर चीन के साथ कारोबार करते रहे हैं.

हालांकि, जो बाइडेन ने चीन के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी तेज़ करने में ज़रा भी देर नहीं की. शिन्जियांग के वीगर मुसलमान अल्पसंख्यकों पर चीन के ज़ुल्मों और हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता में बदलाव करने का हवाला देते हुए, जो बाइडेन ने कहा कि, ‘शी जिनपिंग एक दुष्ट व्यक्ति हैं. उनके अंदर लोकतंत्र का एक रेशा तक नहीं.’ बाइडेन का प्रचार अभियान चला रही टीम ने भी एक विज्ञापन अभियान शुरू करते हुए, चीन को लेकर ट्रंप की कभी हां-कभी ना वाली नीति की कमियों को उजागर करना शुरू किया, जो कोविड-19 महामारी के दौरान तो अक्सर देखने को मिली थी.

इन सबसे इतर, चीन को लेकर अमेरिका की नीति कोरोना वायरस के प्रकोप के दौरान तेज़ी से बदली है. हालांकि, ये बदलाव सिर्फ़ चुनावी झंझावात नहीं है.

चीन से निपटने को लेकर अमेरिका का बदलता रवैया

अमेरिका में तमाम लोगों के बीच अब ये आम सहमति है कि चीन को ढेर सारी रियायतें देकर उसमें बदलाव लाने की नीति पूरी तरह नाकाम रही है. अमेरिका के नीति नियंता ये मानते हैं कि, अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने चीन को लेकर जो नीति बनाई थी, उससे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और ताक़तवर होती चली गई. और आज वो अमेरिका की कट्टर शत्रु बन चुकी है. अमेरिकी विशेषज्ञों को इस बात की आशंका है कि अगर अब भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाम नहीं लगाई गई, तो चीन अंतरराष्ट्रीय मामलों में अमेरिका को दोयम दर्जे की हस्ती बना देगा.

बराक ओबामा ने चीन के प्रति नरम रवैया अपनाया था और तमाम विवादों का समाधान बातचीत से निकालने की कोशिश की थी. लेकिन, डोनाल्ड ट्रंप ने 2017 में सत्ता में आने के साथ ही चीन के ख़िलाफ़ बेहद आक्रामक रुख़ अख़्तियार कर लिया था. ट्रंप ने दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके चीन के साथ व्यापार युद्ध की शुरुआत की थी. उन्होंने इससे पहले ये हिसाब भी नहीं लगाया था कि इससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था को कितनी क्षति होगी. डोनाल्ड ट्रंप ने कूटनीतिक नियमों और परंपराओं को ताक पर रखते हुए चीन के ख़िलाफ़ केवल इस हाथ ले और उस हाथ दे वाली नीति पर अमल किया.

ट्रंप का एक सूत्रीय एजेंडा था कि अपने घरेलू समर्थकों को हर हाल में अपने पाले में बनाए रखा जाए. इसके ज़रिए ट्रंप ने चीन और यहां तक कि अमेरिका के साथी देशों को भी यही संदेश दिया कि उनके लिए अमेरिका के हित ही सर्वोपरि हैं. हालांकि, डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से अमेरिका बमुश्किल ही फिर से महान बन सका है. बल्कि, इसके उलट सच्चाई ये है कि ट्रंप ने जिस तरह से कोरोना वायरस से निपटने की कोशिश की, उससे अमेरिका के पूंजीवाद का खोखलापन ही और उजागर हो गया है. वहीं, चीन ने अमेरिका के ख़िलाफ़ और भी आक्रामक रुख़ अपनाया हुआ है. सच तो ये है कि आज अगर चीन की आर्थिक तरक़्क़ी की रफ़्तार धीमी हुई है. तो, इसकी वजह ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए व्यापार कर नहीं, बल्कि कोविड-19 की महामारी है.

उठा-पटक भरे कई वर्षों के बाद आज अमेरिका की विदेश नीति की सांसें लड़खड़ा रही हैं. सवाल ये है कि क्या राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी जो बाइडेन, अमेरिका का पतन रोक पाने में सफल हो सकेंगे? अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर इंद्रजीत परमार के मुताबिक़, डेमोक्रेटिक पार्टी की विदेश नीति वाली टीम में जो बाइडेन को क्वार्टरबैक के नाम से जाना जाता है. वो इराक़ युद्ध के दौरान जॉर्ज डब्ल्यू. बुश प्रशासन से सख़्त सवाल पूछने के लिए मशहूर थे.

डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से अमेरिका बमुश्किल ही फिर से महान बन सका है. बल्कि, इसके उलट सच्चाई ये है कि ट्रंप ने जिस तरह से कोरोना वायरस से निपटने की कोशिश की, उससे अमेरिका के पूंजीवाद का खोखलापन ही और उजागर हो गया है.

अगर हम ये मान लें कि 2021 में अमेरिका की कमान जो बाइडेन के हाथों में होगी, तो वो अमेरिका के प्रभुत्व वाली व्यवस्था को ही आगे बढ़ाने में यक़ीन रखेंगे. जिसके तहत अमेरिका पिछले कई दशकों से उदारवादी विश्व व्यवस्था को चलाता आया है. इस नीति में सहयोग और मुक़ाबले के माध्यम से अमेरिका की विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने की कोशिश की जाती है. जो बाइडेन, पारंपरिक कूटनीतिक रास्ते पर चलने को ही प्राथमिकता देंगे. वो अपने साथी देशों और दुश्मनों के साथ असभ्यता से पेश आने वाले डोनाल्ड ट्रंप की नीति पर नहीं चलेंगे. इस बात की पूरी संभावना है कि वो लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाकर, मानवाधिकारों का शोर मचाकर चीन की कमियों को उजागर करेंगे. फिर चाहे वो हॉन्गकॉन्ग हो या शिन्जियांग. जो बाइडेन इस बात की पूरी कोशिश करेंगे कि वो दक्षिणी चीन सागर में चीन को पीछे हटने को मजबूर करें. इसके लिए वो क्वाड (QUAD) यानी भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ सहयोग को बढ़ावा देंगे. हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के नौसैनिक प्रभुत्व को और मज़बूत करेंगे. और, ट्रंप प्रशासन के दौरा जिस तरह से समुद्री व्यापार को अबाध गति से चलने देने के लिए अमेरिकी नौसेना ने अहम समुद्री रास्तों पर गश्त बढ़ाई है, उसे बाइडेन आगे भी जारी रखेंगे.

हालांकि, जहां तक आर्थिक मोर्चे की बात है, तो यहां पर जो बाइडेन, ट्रंप की चीन नीति से बिल्कुल अलग रास्ता अख़्तियार करेंगे. इस बात की संभावना कम ही है कि जो बाइडेन, चीन और अमेरिका के संबंधों को पूरी तरह से अलग करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे. जो बाइडेन ने पहले ही ये घोषणा कर दी है कि वो चीन पर ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए व्यापार कर की नए सिरे से समीक्षा करेंगे. क्योंकि, बाइडेन का ये मानना है कि व्यापार युद्ध से चीन के साथ साथ अमेरिका को भी भारी नुक़सान हुआ है. अमेरिका का निर्माण क्षेत्र सुस्त हो गया है. कृषि क्षेत्र को अरबों डॉलर का नुक़सान हुआ है. और इसकी भरपाई अमेरिकी टैक्स दाताओं को करनी पड़ी है.

जो बाइडेन, पारंपरिक कूटनीतिक रास्ते पर चलने को ही प्राथमिकता देंगे. वो अपने साथी देशों और दुश्मनों के साथ असभ्यता से पेश आने वाले डोनाल्ड ट्रंप की नीति पर नहीं चलेंगे.

घरेलू हालात पर अधिक ध्यान

अभी भी बड़ा सवाल यही बचता है कि: क्या चीन से मुक़ाबले और संघर्ष की बाइडेन की नीति से अमेरिका और चीन के बीच युद्ध छिड़ जाएगा? जो बाइडेन, चीन से हर मुद्दे पर अधिक पारदर्शिता की मांग करेंगे. लेकिन, वो ऐसी परिस्थितियां पैदा करने से बचेंगे जिनसे दोनों देशों में युद्ध छिड़ जाए. क्योंकि, अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति के सामने घरेलू मोर्चे पर ज़्यादा गंभीर चुनौतियां होंगी. देश में बेरोज़गारी बढ़ रही है. आर्थिक सुस्ती आ गई है. और अमेरिकी समाज आज पूरी तरह से ध्रुवीकृत हो चुका है.

चीन और अमेरिका के संबंधों में तनाव और उठा पटक का दौर बना रहेगा. लेकिन, दोनों देशों की एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता, और दोनों देशों के पूंजीपतियों के हित एक दूसरे पर आश्रित होने के कारण, चीन और अमेरिका के बीच टकराव की कोई बड़ी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी. जैसा कि प्रोफ़ेसर इंद्रजीत परमार कहते हैं, ‘आज के हालात उस अत्यधिक साम्राज्यवाद की ओर झुके हुए हैं, जिसकी कल्पना कार्ल कौटस्की ने की थी. न कि दो साम्राज्यवादियों के बीच संघर्ष की वो परिस्थितियां हैं, जिनकी कल्पना व्लादिमीर लेनिन ने की थी.’ आज अमेरिका युद्धों से थका हारा लग रहा है. और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अति साम्राज्यवाद की नीति के तहत, अमेरिका तेज़ी से विकसित हो रहे चीन के साम्राज्य के साथ गठबंधन कर लेगा. न कि उससे युद्ध छेड़ेगा.

चीन और अमेरिका के बीच युद्ध इसलिए भी नहीं होगा क्योंकि आज अमेरिका पर क़र्ज़ बहुत बढ़ गया है. दस जून 2020 तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था 26 ख़रब डॉलर के क़र्ज़ के बोझ तले दबी हुई थी. 12 साल के भीतर अमेरिकी फेडरल रिज़र्व को दो बड़े आर्थिक राहत के पैकेज देने पड़े हैं. 2008 में फेडरल रिज़र्व ने 800 अरब डॉलर का राहत पैकेज अमेरिकी कंपनियों और वित्तीय संस्थानों को दिया था. और 2020  में कोविड-19 से पैदा हुए आर्थिक संकट से निपटने के लिए जो केयर्स एक्ट अमेरिका ने पास किया है, उसके तहत फेडरल रिज़र्व ने 877 अरब डॉलर के स्टिमुलस पैकेज का एलान किया है. ताकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को एक और संकट के दलदल में फंसने से बचाया जा सके.

कम से कम अगले दस वर्षों तक अमेरिका के केंद्रीय बैंक के पास ऐसी ताक़त नहीं होगी कि वो डॉलर के नए नोट छाप सके और एक युद्ध का बोझ उठा सके. और ये वित्तीय कारण ही अगले एक दशक तक चीन और अमेरिका के बीच युद्ध होने से रोकने के लिए काफ़ी है

कम से कम अगले दस वर्षों तक अमेरिका के केंद्रीय बैंक के पास ऐसी ताक़त नहीं होगी कि वो डॉलर के नए नोट छाप सके और एक युद्ध का बोझ उठा सके. और ये वित्तीय कारण ही अगले एक दशक तक चीन और अमेरिका के बीच युद्ध होने से रोकने के लिए काफ़ी है. चूंकि, चीन सैन्य ताक़त के मामले में अमेरिका से बहुत पीछे है. इसलिए वो अपनी ओर से अमेरिका से युद्ध की शुरुआत नहीं करेगा. हालांकि, दोनों ही बड़ी शक्तियां आपस में मुक़ाबला करती रहेंगी. चीन ख़ुद को मध्यम दर्जे की अर्थव्यवस्था के दलदल से निकालने की पूरी कोशिश करता रहेगा. इसी तरह अमेरिका भी अपने सभी साझेदार देशों के साथ सहयोग की भावना से काम करता रहेगा, ताकि वो चीन पर दबाव बनाए रख सके. जैसा कि ख़ुद जो बाइडेन ने कहा है कि, वो चीन पर ज़्यादा असरदार तरीक़े से दबाव बनाने का अभियान शुरू करेंगे. और अमेरिका के सहयोगी देशों के साथ मिलकर चीन के ख़िलाफ़ आक्रामक नीति पर चलते रहेंगे.

इसीलिए, अगर जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं तो चीन के साथ सीधे तौर पर युद्ध करने से बचना चाहेंगे. लेकिन, इस बात की पूरी संभावना है कि बाइडेन, अमेरिका के सहयोगी और साझेदार देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करेंगे कि वो चीन के ख़िलाफ़ संघर्ष के मोर्चे खोलें. इस बात की पूरी संभावना है कि बाइडेन की नीति भारत जैसे देशों पर ये दबाव बनाने की होगी कि वो चीन के ख़िलाफ़ और आक्रामक रुख़ अपनाएं. भारत और अमेरिका के बीच रक्षा संबंध और मज़बूत होंगे. और भारत को अमेरिका से और उन्नत हथियार मिलने की संभावना है. लेकिन, इससे इस बात की आशंका और बढ़ जाएगी कि अगले कुछ वर्षों में एक बार फिर से चीन और भारत के बीच नया संघर्ष छिड़ेगा. क्योंकि, चीन को उसकी औक़ात में रखने के लिए बाइडेन, भारत की पूरी ताक़त का इस्तेमाल करेंगे.

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