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अपने ही डिजिटल टूल से लोकतंत्र को बचाने के लिए हमें डिजिटल तरीक़े से शासन के नये मॉडल को अपनाने की ज़रूरत है. इन समस्याओं को लेकर राजनेताओं को संपूर्ण दृष्टिकोण दिखाना चाहिए और इनका सामना करने के लिए व्यापक और असरदार साझेदारी करनी चाहिए.
लोकतंत्र की बुनियाद भरोसा है. नागरिकों को ये भरोसा होना चाहिए कि उनके पास सही जानकारी है, उनकी सरकार उनकी हिफ़ाज़त करेगी और उनका वोट मायने रखता है. लेकिन डिजिटल टेक्नोलॉजी इस भरोसे को खोखला कर रही है. अगर हम इन तकनीकों को बेहतर करने का काम नहीं करेंगे तो भरोसा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा और इसके साथ ही लोकतंत्र का वादा टूट जाएगा.
एक दूसरे से जुड़ी और इन्फॉर्मेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी (ICT) पर निर्भर दुनिया में आर्थिक और सामाजिक लेन-देन के लिए डिजिटल टेक्नोलॉजी पर असरदार नियंत्रण की सख़्त ज़रूरत है. फिलहाल साइबर सुरक्षा, प्राइवेसी, उपभोक्ता संरक्षण, एंटी ट्रस्ट और दूसरे क़ानूनी और नियामक उपायों में शासन की अनगिनत नाकामी ने दुनिया भर में संस्थाओं को काफ़ी हद तक अस्थिर किया है. इससे भी महत्वपूर्ण ये है कि संस्थाओं की क्षमता और विश्वसनीयता में गिरावट से लोकतंत्र का काम-काज अस्थिर होने का ख़तरा है. अपने ही डिजिटल टूल से लोकतंत्र को बचाने के लिए हमें डिजिटल तरीक़े से शासन के नये मॉडल को अपनाने की ज़रूरत है. इन समस्याओं को लेकर राजनेताओं को संपूर्ण दृष्टिकोण दिखाना चाहिए और इनका सामना करने के लिए व्यापक और असरदार साझेदारी करनी चाहिए.
एक दूसरे से जुड़ी और इन्फॉर्मेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी (ICT) पर निर्भर दुनिया में आर्थिक और सामाजिक लेन-देन के लिए डिजिटल टेक्नोलॉजी पर असरदार नियंत्रण की सख़्त ज़रूरत है.
तीन क्षेत्र हैं जिनमें अस्थिरता लोकतंत्र को सही ढंग से चलाने की हमारी क्षमता पर असर डालती है: डिजिटल सार्वजनिक क्षेत्र, हमारा व्यक्तिगत क्षेत्र और वो संस्थाएं जिन पर हम निष्पक्ष चुनाव और अच्छी शासन प्रणाली के लिए भरोसा करते हैं.
स्वस्थ लोकतंत्र के काम-काज के लिए सार्वजनिक क्षेत्र ज़रूरी हैं. ये देखते हुए कि डिजिटल स्पेस महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक चर्चा के लिए हमारे समय पर एकाधिकार जमा रहा है (ख़ास तौर से उस वक़्त जब वैश्विक महामारी की वजह से व्यक्तिगत मेल-जोल जोख़िम भरा हो गया है), ये एक बड़ी समस्या है कि वास्तविकता में सार्वजनिक क्षेत्र के डिजिटल एनालॉग पर प्राइवेट नियंत्रण है और उसे मुनाफ़े के लिए चलाया जाता है. ये डिजिटल सार्वजनिक स्थान विचारों के खुले आदान-प्रदान की जगह विज्ञापन या ज़्यादा हिट हासिल करने के मक़सद से संवाद को और भी रोकते है.
इन बुनियादी वजहों को देखते हुए लोकतंत्र विरोधी विचारों को फैलाने वाले दुष्प्रचार अभियान और उनका मुक़ाबला करने के लिए गंभीर कार्रवाई में कमी- दोनों का पूरी तरह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. ये अभियान इस तरह से डिज़ाइन किए जाते हैं कि वायरल हो जाएं और लोग उन्हें लाइक करें. ये अभियान सोशल मीडिया कंपनियों और डिजिटल सार्वजनिक क्षेत्र पर नियंत्रण रखने वालों के बिज़नेस मॉडल के लिए दुरुस्त हैं. डिजिटल प्लेटफॉर्म के मालिकों और दुष्प्रचार फैलाने वालों के बीच सहजीवी रिश्ता है और ये रिश्ता इन कंपनियों द्वारा एकतरफ़ा कार्रवाई को लगभग नामुमकिन कर देती हैं भले ही वो लोकतांत्रिक नियमों और परंपराओं को मज़बूत करने के लिए समर्पित क्यों न हों.
इन बुनियादी वजहों को देखते हुए लोकतंत्र विरोधी विचारों को फैलाने वाले दुष्प्रचार अभियान और उनका मुक़ाबला करने के लिए गंभीर कार्रवाई में कमी- दोनों का पूरी तरह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. ये अभियान इस तरह से डिज़ाइन किए जाते हैं कि वायरल हो जाएं और लोग उन्हें लाइक करें.
ये समस्या ठीक होने से पहले महत्वपूर्ण रूप से और खराब होने की आशंका है. लोकतंत्र विरोधी लोग अपने तौर-तरीक़ों को और सुधारने वाले हैं, ऐसे में और बेहतर अभियान चलाने की संभावना है. वीडियो के मामले में नये प्रयोग जैसे डीप फेक एक नई चुनौती है. ये साफ़ है कि यहां बाज़ार की नाकामी है. खुला बाज़ार सच को बढ़ावा नहीं देता है. मौजूदा और भविष्य के दुष्प्रचार के रुझानों का मुक़ाबला करने के लिए सभी उम्र के लोगों के लिए एक मज़बूत शैक्षणिक कार्यक्रम चलाना होगा ताकि लोग डिजिटल तकनीक के सहारे बनाए जाने वाले लोकतंत्र विरोधी झूठ को पहचान कर उनका मुक़ाबला कर सकें.
निजी स्थान को लंबे वक़्त से विचारशील दूरी मुहैया कराने और सार्वजनिक क्षेत्र की सोच-समझ में योगदान को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी समझा जाता है लेकिन उन पर भी उतना ही ख़तरा है जितना सार्वजनिक स्थान पर. यहां डिजिटल स्पेस पर नियंत्रण में नाकामी, ख़ास तौर पर साइबर सुरक्षा सुनिश्चित करने और उपभोक्ता संरक्षण के तौर-तरीक़ों को अपडेट करने में नाकामी शक्ति का संतुलन नागरिकों से मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियों और उनके मालिकों के साथियों की तरफ़ मोड़ देती है. खुली अभिव्यक्ति से लेकर निजता तक व्यक्तिगत अधिकारों के लिए बुनियादी उम्मीद भी नहीं पूरी की जा सकती. जहां खुली अभिव्यक्ति को कथित तटस्थ एल्गोरिदम या फिर मुनाफ़े या राष्ट्रवाद से प्रेरित व्यक्ति द्वारा दबाया जाता है, वहां लोगों की सोच को प्रभावित करने की व्यक्तिगत क्षमता कमज़ोर होती है. इसी तरह जहां व्यक्तिगत निजता पर ख़तरा होता है तो लोग नुक़सान से परहेज के लिए डिजिटल दुनिया से दूर जाने लगते हैं, ख़ुद पर पाबंदी लगाते हैं और ख़ुद को अलग-थलग कर लेते हैं. निजता और खुली अभिव्यक्ति के लिए मज़बूत सुरक्षा इन मुद्दों के समाधान के लिए ज़रूरी है. ये मूल रूप से सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो इन मूल्यों की रक्षा करे. लेकिन इसमें जो चीज़ ग़ायब है वो है ऐसा करने के लिए ज्ञान और राजनीतिक इच्छाशक्ति जिनके बारे में विस्तार से नीचे बताया गया है.
सार्वजनिक और निजी स्थानों को नुक़सान कुछ देर के लिए है लेकिन चुनावी तौर-तरीक़ों और सरकारी संस्थानों की अखंडता पर साइबर सुरक्षा का ख़तरा बड़ी हक़ीक़त है. अभी इस बात की आशंका कम है कि किसी लोकतांत्रिक चुनाव में वोटों की गिनती के दौरान सुरक्षा में सेंध लगी हो. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वोट को बदलने की घटना नामुमकिन है. जहां हम वोट डालने या वोट की गिनती के लिए इलेक्ट्रॉनिक ज़रिया अपनाते हैं, वहां हैकिंग की जा सकती है. सवाल ये नहीं है कि हैक करके वोटर की लिस्ट या वोट को बदला जाएगा बल्कि सवाल ये है कि क्या जब ऐसी घटना नहीं होती तब तक हम चुपचाप बैठे रहेंगे.
खुली अभिव्यक्ति से लेकर निजता तक व्यक्तिगत अधिकारों के लिए बुनियादी उम्मीद भी नहीं पूरी की जा सकती. जहां खुली अभिव्यक्ति को कथित तटस्थ एल्गोरिदम या फिर मुनाफ़े या राष्ट्रवाद से प्रेरित व्यक्ति द्वारा दबाया जाता है, वहां लोगों की सोच को प्रभावित करने की व्यक्तिगत क्षमता कमज़ोर होती है.
ये बताना मुश्किल है कि कोई महत्वपूर्ण सरकारी संस्था सुरक्षा में सेंध का शिकार न हुई हो. सुरक्षा में सेंध की हर घटना, चाहे वो व्यक्तिगत डाटा का लीक होना हो या महत्वपूर्ण सरकारी सेवा में देरी हो, सरकार और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अविश्वास को बढ़ाती है. मूलभूत काम जैसे वोटिंग के लिए जवाब यही है कि जहां संभव हो नई तकनीक को छोड़ दिया जाए. इस काम के लिए अभी भी मतपत्र सर्वश्रेष्ठ है. जहांमत पत्र नामुमकिन है वहां इलेक्ट्रॉनिक तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल होने पर जोख़िम की समीक्षा हो. संस्थाओं के लिए जवाब है कि वो साइबर सुरक्षा के संसाधन बढ़ाएं. ये साफ़ करने की ज़रूरत है कि संस्थाओं की सुरक्षा हर किसी का कर्तव्य है.
तकनीकों पर नियंत्रण के लिए नियम-क़ानून को बनाना और ज़्यादा मुश्किल है. कोई भी कठिनाई दुर्गम नहीं है लेकिन तकनीकी उथल-पुथल के दौर में लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए नेताओं को महत्वपूर्ण काम करना होगा.
सबसे पहले सरकार में शामिल नेताओं को ये मानना होगा कि ये सिर्फ़ एक तकनीकी चुनौती नहीं बल्कि सिस्टम को भी चुनौती है. ऊपर जिन मुद्दों की चर्चा की गई है वो किसी और जगह पर नाकामी से बढ़ती हैं. दुष्प्रचार इसलिए फल-फूल रहा है क्योंकि सरकारी संस्थाएं अपना क़ानूनी काम करने में नाकाम रही हैं. संस्थागत और चुनावी अखंडता उस वक़्त सवालों के घेरे में आती है जब लोगों को लगता है कि उनकी व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा भी सरकार नहीं कर सकती. सिस्टम की नाकामी को रोकने के लिए हमें लोकतंत्र को लेकर अपने नज़रिए में व्यापक बदलाव करने की ज़रूरत है. साथ ही हमें उन संस्थाओं को सुरक्षित भी रखना होगा जिन पर लोग भरोसा करते हैं. इसका मतलब ये हुआ कि हमें अपने नियम-क़ानूनों की समीक्षा का कठिन काम करना होगा ताकि वो ज़्यादा मुस्तैद हों और डिजिटल तकनीक में तेज़ी से बदलाव के मुताबिक हों.
ये बताना मुश्किल है कि कोई महत्वपूर्ण सरकारी संस्था सुरक्षा में सेंध का शिकार न हुई हो. सुरक्षा में सेंध की हर घटना, चाहे वो व्यक्तिगत डाटा का लीक होना हो या महत्वपूर्ण सरकारी सेवा में देरी हो, सरकार और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अविश्वास को बढ़ाती है.
इसके बाद सरकारों को ये समझने की ज़रूरत है कि वो इस काम को अकेले नहीं कर सकती हैं. नये उद्योग, अकादमिक संस्थान और इस क्षेत्र में काम करने वाले संगठन लोकतंत्र में ख़लल डालने वाली तकनीक को गहराई से समझते हैं. सरकार इन संगठनों को आगे का रास्ता तय करने के लिए अपने साथ ले. सरकार उनसे इस बात की जानकारी नहीं ले कि कैसे नियम बनाएं बल्कि उनको तकनीक के गाइड समझकर बातचीत करें ताकि इन तकनीकों को लोकतंत्र विरोधी इस्तेमाल की जगह लोकतंत्र के समर्थन में इस्तेमाल करने पर सही फ़ैसला लिया जा सके. कई कंपनियां और उद्योग पहले से डिजिटल ख़लल का सामना कर चुकी हैं और वो साइबर सुरक्षा के महत्व को लेकर सबक़ सीख चुके हैं. सरकार से जुड़े नेता इस जानकारी का इस्तेमाल लोगों और लोकतंत्र की नींव की सुरक्षा में कर सकते हैं.
सरकारों को ये समझने की ज़रूरत है कि वो इस काम को अकेले नहीं कर सकती हैं. नये उद्योग, अकादमिक संस्थान और इस क्षेत्र में काम करने वाले संगठन लोकतंत्र में ख़लल डालने वाली तकनीक को गहराई से समझते हैं. सरकार इन संगठनों को आगे का रास्ता तय करने के लिए अपने साथ ले.
अंत में, किस तरह ये तकनीकी काम-काज सही ढंग से सरकार चलाने के लिए ज़रूरी होंगे, उसकी थोड़ी-बहुत जानकारी. हालांकि, हमारा नेतृत्व, हमारे सिस्टम का एक-दूसरे से जुड़ा होना और मिलकर काम करने की हमारी क्षमता मौजूदा चुनौतियां का सामना करने और लोकतंत्र में डिजिटल ख़लल से परहेज करने में हमारी मदद करेंगी.
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Daniel Dobrygowski is an attorney who serves as Head of Corporate Governance and Digital Trust at the World Economic Forum the international organization for public-private ...
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