Author : Samir Saran

Published on Jul 10, 2019 Updated 0 Hours ago

हमें चीन के साथ कर्ज की शर्तों पर फिर से बातचीत करनी होगी, उसे समझना होगा कि यह कमर्शियल लोन नहीं है.

बहुत कम देशों को लोकतंत्र का दूसरा मौका मिलता हैः मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद

मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति और संसद के मौजूदा अध्यक्ष मोहम्मद नशीद ने रवांडा में ‘किगाली ग्लोबल डायलॉग’ के दौरान अनौपचारिक बातचीत में अपने देश के विकास में भारत की भागीदारी की तारीफ़ की. चीन से महंगे कर्ज़ पर ऐतराज़ जताया और रिन्यूएबल एनर्जी (अक्षय ऊर्जा) के लिए राजनीतिक और संस्थागत नेतृत्व की अपील की. नशीद क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन ) लीडरशिप की मज़बूत आवाज़ रहे हैं. वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय से इसके असर का पता लगाने की अपील कर रहे हैं. उनका कहना है कि क्लाइमेट चेंज नैतिकता या आदर्श से जुड़ा मुद्दा नहीं है बल्कि इससे दुनिया को बड़ा आर्थिक नुकसान भी हो रहा है. एक विवादास्पद मुद्दे पर बातचीत करने हुए नशीद ने जानकारी दी कि भारतीय कंपनी जीएमआर ने माले-हुलहुमाले पुल के लिए 7.7 करोड़ डॉलर की बोली लगाई थी, लेकिन परियोजना चीन की सीसीसीसी कंपनी को दे दी गई. इसका नतीजा यह हुआ कि सिर्फ़ इस प्रोजेक्ट की वजह से मालदीव पर 30 करोड़ डॉलर का कर्ज़ बढ़ गया. ‘चीन की कई कंपनियों’ का मालदीव पर 3.4 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज़ है. नशीद ने कहा कि उनका देश इन कर्ज़ की शर्तों में बदलाव के लिए पूरा ज़ोर लगाएगा. उन्होंने ऑब्ज़र्वर रिसर्च के प्रेसिडेंट डॉ समीर सरन से बातचीत की. हम इस इंटरव्यू के ख़ास अंश यहां पेश कर रहे हैं:

डॉ समीर सरन: मालदीव की मौजूदा राजनीति को आप किस तरह से देखते हैं? क्या आपको फिर से हालात के बिगड़ने का डर है?  

राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद: बहुत कम देश हैं, जिन्हें लोकतंत्र का दूसरा मौका मिलता है. 2008 में हम अपना संविधान बदलने में सफल रहे और देश में पहली बार ऐसा चुनाव हुआ, जिसमें कई पार्टियां शामिल हुईं, लेकिन 2012 में तख्त़ापलट हो गया. इसके बाद मालदीव में 5-7 साल तक तानाशाही रही. 2013 में फिर से चुनाव हुए, लेकिन उसमें खूब धांधली हुई. इसके बावजूद हमने हार मान ली क्योंकि हम विवाद और असंतोष को और नहीं बढ़ाना चाहते थे. हमें डर था कि अगर विवाद लंबा खिंचा तो मालदीव में अशांति बढ़ेगी. हम दोबारा चुनाव के हक़ में थे. सरकार के इजाज़त नहीं देने की वजह से मैं वह चुनाव नहीं लड़ सका था. हमारे संसदीय नेता इब्राहिम मोहम्मद सोलिह चुनाव लड़े और हमें भारी जनादेश मिला. इसके बाद देश में संसदीय चुनाव हुए. आपका सवाल है कि क्या मालदीव में फिर से चुनाव होंगे? क्या वहां स्थिरता लौटेगी? मुझे लगता है कि स्थिरता ज़रूर लौटेगी. मेरा यह भी मानना है कि हमारे डेवेलपमेंट पार्टनर्स, ख़ासतौर पर भारत को पता है कि मालदीव में क्या चल रहा है और वह हालात पर नज़र बनाए रखेगा. इधर, भारत ने हमारे विकास में काफी मदद की है. हाल में जब हमारे राष्ट्रपति आपके देश गए थे, तब भारत ने 1.4 अरब डॉलर की मदद का वादा किया था. इसका काफी असर होगा. हम समझते हैं कि भविष्य उज्जवल है.

हाल में जब हमारे राष्ट्रपति आपके देश गए थे, तब भारत ने 1.4 अरब डॉलर की मदद का वादा किया था. इसका काफी असर होगा. हम समझते हैं कि भविष्य उज्जवल है.

सरन: चीन भी आपका बड़ा पार्टनर है. मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उसने भी मालदीव के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में भारी निवेश किया है. मालदीव में उसने दूसरे निवेश भी किए हैं और चीन दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकत है. उसके पास कर्ज़ बांटने, वित्तीय मदद और राहत कार्यों के लिए काफ़ी पैसा है. आप मालदीव के विकास के एजेंडा के मद्देनजर इन दोनों देशों के साथ अपने रिश्ते को किस तरह से देखते हैं?

नशीद: हर किसी को यह बात समझनी होगी कि मालदीव हिंद महासागर क्षेत्र का देश है. उत्तर में हमारे आख़िरी द्वीप से भारत की दूरी कुछ मील की ही है. हम दोनों देश के लोग एक जैसी किताबें पढ़ते हैं, एक जैसी फिल्में देखते हैं और एक ही खाना खाते हैं. हम एक ही संगीत सुनते हैं. हम एक जैसे लोग हैं. भारत और मालदीव के लोगों के बीच काफी पुराना संपर्क और संवाद रहा है. दूसरा कोई देश इसकी बराबरी नहीं कर सकता. साथ ही, भौगोलिक स्थिति की वजह से हम आपके बिल्कुल पड़ोस में हैं. ऐसे में हर किसी को समझना होगा कि हम भारत के साथ अपने रिश्तों की शर्त पर दूसरों से दोस्ती नहीं करने जा रहे. हम सबको बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हम आपसे दोस्ती करना चाहते हैं, अच्छे रिश्ते चाहते हैं, लेकिन आप हमसे इसकी कोई कीमत नहीं मांग सकते. एक बार जब चीन इस बात को समझ लेगा, और मुझे लगता है कि वह इसे जरूर समझेगा, उसके बाद हिंद महासागर में स्थिरता कहीं ज्य़ादा बढ़ेगी. मालदीव किन्हीं दो देशों की दुश्मनी के बीच नहीं पिसना चाहता. चीन से जो सहयोग मिला है, उसमें से ज्य़ादातर वहां के बैंकों की तरफ से कमर्शियल लोन के रूप में है और ज्य़ादातर प्रोजेक्ट्स की लागत बहुत है. वे आए, उन्होंने काम किया और हमें बिल भेज दिया. ऐसा नहीं है कि वहां से बहुत महंगा कर्ज़ मिला है, दिक्कत परियोजनाओं की लागत को लेकर है. मिसाल के लिए, पुल (माले-हुलहुमाले) के लिए जीएमआर ने हमें 7.7 करोड़ डॉलर की बोली सौंपी थी, लेकिन चीन ने हमें 30 करोड़ डॉलर का बिल थमा दिया. हम देख रहे हैं कि चीन दूसरे देशों में परियोजनाओं में हिस्सेदारी मांग रहा है और उससे आप अपनी ज़मीन और संप्रभुता दोनों ही गंवा बैठते हैं.

पुल (माले-हुलहुमाले) के लिए जीएमआर ने हमें 7.7 करोड़ डॉलर की बोली सौंपी थी, लेकिन चीन ने हमें 30 करोड़ डॉलर का बिल थमा दिया. हम देख रहे हैं कि चीन दूसरे देशों में परियोजनाओं में हिस्सेदारी मांग रहा है और उससे आप जमीन और संप्रभुता दोनों ही गंवा देते हैं.

सरन: मालदीव की प्रति व्यक्ति आय भारत से कई गुना अधिक है, लेकिन आपकी अर्थव्यवस्था छोटी है. फिर आप ‘चीन की कर्ज़ डिप्लोमेसी’ में कैसे फंस गए. क्या आपको इससे बाहर निकलने के लिए दूसरों की मदद चाहिए? आखिर प्लान क्या है?

नशीद: पहले तो हमें बचत करनी होगी. हम पर चीन की कई कंपनियों का 3.4 अरब डॉलर का कर्ज़ है. साल 2020 तक हमें बजट का 15 प्रतिशत इसे चुकाने, 15 प्रतिशत शिक्षा और 15 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करना होगा. मुझे समझ नहीं आ रहा कि इतना पैसा बचाने के लिए जितनी ग्रोथ की ज़रूरत है, वह कहां से आएगी. इसलिए हमें इस कर्ज़ पर मोलभाव करना होगा. चीन को यह बात समझनी होगी कि यह कमर्शियल लोन नहीं है.

सरन: क्या मालदीव की नई सरकार ने इसे लेकर चीन से संपर्क किया है?

नशीद: हां, हमारे विदेश मंत्री चीन की यात्रा पर गए थे. यह व्यावसायिक कर्ज़ नहीं है. चीन के एग्जिम बैंक और चीन सरकार की कंपनियों के साथ जो समझौता हुआ, वह कमर्शियल नहीं है. इसलिए इस पर कमर्शियल आर्बिट्रेशन (व्यावसायिक मध्यस्थता) में जाने की जरूरत नहीं है. मुझे लगता है कि चीन इस बात को समझेगा कि मालदीव इस कर्ज़ का बोझ बर्दाश्त नहीं कर सकता है.

हर किसी को यह बात समझनी होगी कि मालदीव हिंद महासागर क्षेत्र का देश है. उत्तर में हमारे आखिरी द्वीप से भारत की दूरी कुछ मील की ही है. हम एक जैसी किताबें पढ़ते हैं, एक जैसी फिल्में देखते हैं और एक ही खाना खाते हैं. हम एक ही संगीत सुनते हैं. हम एक जैसे लोग हैं.

सरन: भारत और मालदीव के रिश्तों पर आपकी क्या राय है? क्या आपको लगता है कि भारत को कहीं ज्य़ादा मदद करनी चाहिए थी या आपको यह लगता है कि उसका रुख़ संतुलित रहा है?

नशीद: भारत का रुख़ संतुलित रहा है. मैंने भारत की आलोचना की है, लेकिन सब कुछ देखने के बाद मुझे लगता है कि उसकी अप्रोच सही है. भारत के राजनयिक समझदार हैं और उन्होंने शानदार काम किया है. मैं उन्हें सलाम करता हूं.

सरन: मैं अब आपसे बिना राजनीति को बीच में लाए हुए क्लाइमेट चेंज पर बात करना चाहूंगा. ये सच है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, दुनिया के कुछ इलाकों में तापमान बढ़ रहा है तो कुछ में घट रहा है. बायो-डायवर्सिटी (जैविक-विविधता) घट रही है, पौधे मर रहे हैं और धरती की प्यास बढ़ रही है. क्लाइमेट चेंज लीडरशिप में आप दुनिया से कहीं आगे रहे हैं. आपने अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग पानी के अंदर की थी ताकि दुनिया क्लाइमेट चेंज की चुनौतियों को तुरंत समझे. इस घटना को 10 साल हो चुके हैं. क्या वैश्विक व्यवस्था इससे निपटने में असफ़ल रही है, जो शायद हमारे युग की सबसे बड़ी चुनौती है?

नशीद: क्या संयुक्त राष्ट्र संघ इस मामले में फेल हो चुका है? अगर हम क्लाइमेट चेंज को नैतिक या मानवाधिकार का मामला मानेंगे तो हम इस मामले में प्रगति नहीं कर सकते. हालांकि, जब हम इसे आर्थिक मसले के तौर पर देखते हैं तो हालात बिल्कुल अलग नजर आते हैं. रिन्यूएबल एनर्जी (अक्षय ऊर्जा) और कम कार्बन फुटप्रिंट के साथ विकास की वजह UNFCCC नहीं है. जर्मनी में पॉवर परचेज़ एग्रीमेंट से प्रेरणा ली जा सकती है और चीन के सोलर पैनल को कोई भी खरीद सकता है. आप किसी भी तरह से देखें, कोयले की तुलना में सौर ऊर्जा सस्ती है. यह आर्थिक तौर पर फायदेमंद है. पिछले साल भारत में सौर ऊर्जा की क्षमता दुनिया में सबसे अधिक हो गई. हालांकि, उसने कोयला आधारित उद्योगों में काफी निवेश किया है और हमने डीज़ल आधारित इंडस्ट्री में. कई देश आज इस द्वंद्व का सामना कर रहे हैं. बिजली विभाग रिन्यूएबल एनर्जी के लिए पॉवर परचेज़ एग्रीमेंट (उसे खरीदने का समझौता) नहीं कर रहे क्योंकि, वे पहले ही दूसरे ज़रियों से बनने वाली बिजली खरीदने का करार कर चुके हैं. हमें पुराने प्लांट्स को खरीदने या उन्हें बंद करने की कोई व्यवस्था करनी होगी. अगर विश्व बैंक और वित्तीय संस्थान हमारे कोयला और डीज़ल आधारित मौजूदा कारखानों को खरीदने और उन्हें बंद करने का कोई तरीका ढूंढ सकें तो यह अच्छा होगा.

विश्व बैंक और आईएमएफ को अभी तक यह बात समझ नहीं आई है. उन्होंने कोयले से चलने वाले कारखानों को बंद करने पर गौर नहीं किया है.

सरन: चलिए, फिर से अंतराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था की बात करते हैं. भारत, मालदीव और कुछ अन्य देश बड़े मार्केट हैं और वे अपनी बात रख रहे हैं, लेकिन फैसले अभी भी न्यूयॉर्क और लंदन में हो रहे हैं…

नशीद: विश्व बैंक और आईएमएफ को अभी तक यह बात समझ नहीं आई है. उन्होंने कोयले से चलने वाले कारखानों को बंद करने पर गौर नहीं किया है. उन्हें नए कारखानों पर पैसा खर्च करने (भले ही वह अक्षय ऊर्जा से चले) के बजाय उन्हें मौजूदा प्लांट्स को खरीदकर उन्हें बंद करना चाहिए. इसके बाद वे बाज़ार को इसका आर्थिक हल ढूंढने दें.

सरन: दुनिया के कई देशों में आपके कहे के मुताबिक कदम उठाए जा सकते हैं, लेकिन कई ऐसे देश भी हैं, जहां अभी तक लोगों को बिजली नहीं मिल पा रही है. वहां इसे मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी सरकार की है. अगर आप किसी देश से 10 करोड़ डॉलर का कर्ज़ लेते हैं तो आपकी मौद्रिक नीति किसी काम की नहीं रहेगी क्योंकि आपका जीडीपी बहुत कम है. ऐसे देशों के लिए कम ब्याज पर अंतरराष्ट्रीय कर्ज़ हासिल करना भी बहुत मुश्किल है.

नशीद: अफ्रीका में प्लांट्स नहीं हैं. उनके पास फोन भी नहीं है. आज नई तकनीक के जरिये कम्युनिकेशन हो रहा है. अच्छी बात यह है कि अफ्रीका के ज्यादातर क्षेत्रों में कोयले से चलने वाले कारखाने नहीं हैं क्योंकि वहां बहुत कम बिजली पैदा हो रही है. इसलिए जब भी उन देशों में नए कारखाने बनें, वे रिन्यूएबल एनर्जी पर आधारित होने चाहिए. अगर वे इस पर विचार करते हैं और इस तरह की कोई शपथ लेते हैं तो वे उसके मुताबिक नीतियां बना सकते हैं और उन्हीं मुद्दों पर चुनाव भी लड़ सकते हैं… 

पेट्रोल-डीजल आदिम जमाने की तकनीक है. यह बोझिल, पुरानी तकनीक है और उसका जमाना गुजर चुका है. आपको इसे हाथ भी नहीं लगाना चाहिए क्योंकि यह आर्थिक तौर पर भी फायदेमंद नहीं है.

सरन: क्या आपके लिए दुनिया के राजनेताओं को एकजुट करने और क्लाइमेट मेनिफेस्टो (घोषणापत्र) जारी करने का वक्त़ आ गया है?

नशीद: यह प्लेनेट बी मेनिफेस्टो है. साल 2018 के चुनाव में पहाड़ी क्षेत्रों में हमने यही किया था. जब लोग चुनाव हारते हैं तो हारने वाला अगले चुनाव के घोषणापत्र के बारे में सोचने लगता है. उसी वक्त उसे बताना चाहिए कि आप एक पुराने विचार को भुनाने की कोशिश कर रहे थे, जिसके अब खरीदार ही नहीं बचे हैं. अगर आप नए आइडिया लेकर आते हैं तो रोज़गार, स्वास्थ्य केंद्र, ट्रांसपोर्ट, शिक्षा, स्कूल का वादा कर सकते हैं, लेकिन यह सब रिन्यूएबल एनर्जी पर आधारित होना चाहिए. पेट्रोल-डीजल आदिम जमाने की तकनीक है. यह बोझिल, पुरानी तकनीक है और उसका जमाना गुजर चुका है. आपको इसे हाथ भी नहीं लगाना चाहिए क्योंकि यह आर्थिक तौर पर भी फायदेमंद नहीं है.

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