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समस्या ऋण की मांग है, क़र्ज़ की सुविधा की कमी नहीं
भारतीय रिज़र्व ने अक्टूबर में अपनी मौद्रिक नीति संबंधी बयान में घोषणा की थी कि भारत की अर्थव्यवस्था रिकवरी की राह पर चल पड़ी है. अपने इस बयान के माध्यम से रिज़र्व बैंक ने उम्मीदों के दिए रौशन करके, शेयर बाज़ार और अर्थव्यवस्था को लेकर जताई जा रही आशंकाओं को शांत करने की पूरी कोशिश की. रिज़र्व बैंक को ये आशंका है कि इस वित्तीय वर्ष (2020-21) में देश की जीडीपी में 9.5 प्रतिशत की गिरावट आएगी. हालांकि आरबीआई ने ये भी कहा कि जीडीपी में ये ‘गिरावट और अधिक’ भी हो सकती है.
अर्थव्यवस्था में सुस्ती को देखते हुए रिज़र्व बैंक ने रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को क्रमश: 4 प्रतिशत और 3.35 फ़ीसद पर स्थिर रखा है. इसके अलावा बैंक की दरें व मार्जिनल स्टैंडिंग फैसिलिटी (MSF) भी 3.35 प्रतिशत के दर पर ही स्थिर रखा गया है. हाल के महीनों थोक मूल्य सूचकांक (WPI) में थोड़ी बढ़ोत्तरी देखी जा रही है. इसकी बड़ी वजह बुनियादी चीज़ों के दाम में हो रही वृद्धि को माना जा रहा है. इसे देखते हुए रिज़र्व बैंक से यही अपेक्षा की जा रही थी कि वो ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं करेगा. इसकी एक वजह ये भी है कि आगे चल अगर महंगाई दर बढ़ती है, तो रिज़र्व बैंक के पास इस बात की गुंजाइश रहे कि वो ब्याज दर बढ़ा कर मुद्रास्फीति पर क़ाबू पाने की कोशिश करे. हालांकि, रिज़र्व बैंक को अपेक्षा इस बात की है कि ख़रीफ़ की अच्छी पैदावार से खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में गिरावट आएगा.
रिज़र्व बैंक ने शेयर बाज़ार और सरकार दोनों को ये भरोसा दिया कि वो पूंजी के बाज़ार में इतना सुगम माहौल बना देगा जिससे कि निजी क्षेत्र और सरकार को क़र्ज़ लेने में कोई दिक़्क़त न हो.
रिज़र्व बैंक ने शेयर बाज़ार और सरकार दोनों को ये भरोसा दिया कि वो पूंजी के बाज़ार में इतना सुगम माहौल बना देगा जिससे कि निजी क्षेत्र और सरकार को क़र्ज़ लेने में कोई दिक़्क़त न हो. बाज़ार में पूंजी की उपलब्धता बढ़ाने के लिए निम्नलिखित घोषणाए रिज़र्व बैंक की ओर से की गईं:
हालांकि, रेपो गतिविधियों के लिए कोई अधिकतम समय सीमा तो नहीं निर्धारित की गई है. लेकिन, अक्सर रेपो ऑपरेशन्स को एक सप्ताह के लिए ही चलाया जाता रहा है. इस सीमा को बढ़ाकर तीन साल करने के पीछे रिज़र्व बैंक का मक़सद है कि वो बैंकों को प्रासंगिक सेक्टर्स को आसानी से क़र्ज़ उपलब्ध करा सकेंगे.
सरल शब्दों में कहें तो, पहले कारोबारी बैंक रिज़र्व बैंक से बहुत कम अवधि के लिए पैसे उधार लेते थे, जिससे कि वो फौरी तौर पर पूंजी की कमी को पूरा कर सकें. पर अब रिज़र्व बैंक कारोबारी बैंकों को अपने रेपो रेट पर अधिक पूंजी ज़्यादा समय के लिए उपलब्ध करा रहा है. इसलिए, ग्रोथ ओरिएंटेड सेक्टर्स के लिए सस्ती ब्याज दर पर क़र्ज़ ज़्यादा दिनों तक उपलब्ध कराया जा सकेगा. हालांकि यहां शर्त ये है कि रेपो रेट आगे भी कम ही रहेंगे.
हालांकि, जहां तक राज्य के विकास संबंधी क़र्ज़ की बात है, तो उधार लेने का सौदा और महंगा होने की आशंका है. क्योंकि अब ये पूंजी खुले बाज़ार से हासिल की जाएगी. अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि, इन सबसे आर्थिक वृद्धि को कैसे रफ़्तार मिलेगी?
इस विचार को काफ़ी लंबे समय से आगे बढ़ाया जा रहा है कि पूंजी उपलब्ध कराने से, क़र्ज़ को सस्ती दरों पर मुहैया कराने से आर्थिक वृद्धि की तेज़ दर को दोबारा हासिल किया जा सकता है. महामारी के कारण देश की GDP में जो भारी गिरावट आई है, उससे ये शोर और भी बढ़ गया है कि पूंजी की उपलब्धता बढ़ाई जाए. इसके पीछे का सामान्य सा तर्क ये है कि सस्ती दरों पर लोन उपलब्ध कराने से लोग क़र्ज़ लेने में हिचकिचाएंगे नहीं और इस लोन की मदद से औद्योगिक, निजी और अन्य तरह के व्यय के माध्यम से आर्थिक गतिविधियां संचालित की जाएंगी. जिससे आख़िर में सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में नई जान आएगी. देश की विकास दर बढ़ेगी. लेकिन अगर हम पिछले कुछ महीनों के दौरान रेपो रेट और क़र्ज़ के जमा दर के अनुपात को देखें, तो इस तर्क को लेकर शक गहरा हो जाता है.
हम क्रेडिट डिपॉजिट रेशियो को देखें, तो ये बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर होती है कि कैसे हर एक रुपए के निवेश को वास्तविक तौर पर क़र्ज़ देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. मोटे तौर पर ये क़र्ज़ के बाज़ार के विकास का बुनियादी सूचकांक होता है. हालांकि, पॉलिसी रेपो रेट पिछले कुछ वर्षों से लगातार घटता जा रहा है. लेकिन, इसके क्रेडिट-डिपॉज़िट रेशियो इसके समानुपात में नहीं बढ़ता दिख रहा है. बल्कि वो लगातार घटता जा रहा है. और इस साल अप्रैल महीने से महामारी के दौर में तो इसमें और गिरावट आती देखी जा रही है. (Figure-1) हालांकि क़र्ज़ लेने की लागत में लगातार कमी आती जा रही है. और अर्थव्यवस्था में लोन के लिए पूंजी की उपलब्धता लगातार बढ़ाई जा रही है. लेकिन, ऐसे क़र्ज़ लेने वाले बाज़ार में कहीं नहीं दिख रहे हैं.
अगर हम क्रेडिट डिपॉजिट रेशियो को देखें, तो ये बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर होती है कि कैसे हर एक रुपए के निवेश को वास्तविक तौर पर क़र्ज़ देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. मोटे तौर पर ये क़र्ज़ के बाज़ार के विकास का बुनियादी सूचकांक होता है.
, जब हम इसे लोन की मांग के विकास दर के अनुपात में देखते हैं. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस अनुपात से ये पता चलता है कि बैंकों में जमा होने वाले धन की कितनी मात्रा अर्थव्यवस्था में क़र्ज़ के तौर पर वितरित की जाती है. पिछले साल जुलाई से लेकर सितंबर के दौरान, इस मद में नकारात्मक वृद्धि देखी गई थी, यानी गिरावट दर्ज की गई थी. इस साल मार्च महीने तक इसमें 60 प्रतिशत की वृद्धि होते देखी गई थी. लेकिन, इसके बाद जमा के अनुपात में क़र्ज़ वितरण की ये वृद्धि एक बार फिर नेगेटिव हो गई (Figure-2). इसका एक तुलनात्मक दृष्टिकोण देखें, तो इस अनुपात का मूल्य, 21 दिसंबर 2018 को जहां 169.870 प्रतिशत था, वहीं 18 जनवरी 2019 को ये अनुपात 126.29 फ़ीसद और 15 मार्च 2019 को और भी गिरवट 116.01 प्रतिशत हो गया था.
महामारी के दौरान भी पैसे जमा होने की विकास दर लगातार बढ़ती रही है. लेकिन, इसके मुक़ाबले में क़र्ज़ वितरण में कोई वृद्धि दर्ज नहीं की गई. वृद्धि दर के लिहाज़ से जमा के अनुपात में क़र्ज़ वितरण को देखें, तो ज़ाहिर है कि देश की अर्थव्यवस्था में क़र्ज़ की मांग बढ़ नहीं रही है.
जबकि, महामारी के दौरान भी पैसे जमा होने की विकास दर लगातार बढ़ती रही है. लेकिन, इसके मुक़ाबले में क़र्ज़ वितरण में कोई वृद्धि दर्ज नहीं की गई. वृद्धि दर के लिहाज़ से जमा के अनुपात में क़र्ज़ वितरण को देखें, तो ज़ाहिर है कि देश की अर्थव्यवस्था में क़र्ज़ की मांग बढ़ नहीं रही है. जबकि, पूंजी की उपलब्धता बाज़ार में लगातार बढ़ रही है. जैसा कि हम Figure-2 से साफ़ तौर से देख सकते हैं कि अर्थव्यवस्था में जमा के अनुपात में क़र्ज़ की मांग न बढ़ने का ये ट्रेंड महामारी से पहले से ही चला आ रहा है.
इसीलिए, क़र्ज़ की मांग असली समस्या है, न कि पूंजी की उपलब्धता. अगर आज देश की अर्थव्यवस्था में क़र्ज़ लेने में दिलचस्पी रखने वालों की भारी कमी है. जो बाज़ार से उधार लेकर, उससे उत्पादकता और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दें. तो फिर बाज़ार में चाहे जितनी अधिक पूंजी उपलब्ध करा दी जाए, उससे समस्या का समाधान नहीं होने वाला है.
अगर, समस्या मांग के स्तर पर है, तो मौद्रिक उपायों के ज़रिए मांग बढ़ाना मुश्किल होता है. ऐसे में मांग संबंधी चुनौतियों को दूर करने के लिए वित्तीय समाधान ही कारगर साबित होते हैं. अब समय आ गया है कि हम वित्तीय समाधानों के माध्यम से अर्थव्यवस्था में पूंजी की घटती मांग को रोकें और इसमें वृद्धि के वित्तीय विकल्पों को आज़माएं.
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Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...
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