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Published on Jul 12, 2023 Updated 0 Hours ago

कमज़ोर देशों पर क़र्ज़ का दबाव कम करना

 

तुरंत डेट स्ट्रक्चरिंग की ज़रूरत

कई विकासशील और कमज़ोर देश, विशेष रूप से छोटे द्वीपीय विकासशील देश (SIDS) इस वक़्त एक साथ कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. इनमें क़र्ज़ का न उठाया जा सकने वाला बोझ, विदेशी मुद्रा का कम भंडार, आसमान छूती महंगाई, ज़रूरी सामानों की क़िल्लत और सिकुड़ती अर्थव्यवस्था जैसी समस्याएं शामिल हैं. एक तरफ़ तो इन देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर भारी रक़म ख़र्च करने की ज़रूरत है, ताकि वो ख़ुद को जलवायु परिवर्तन से भारी तबाही लाने वाली प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि चक्रवातों, तूफ़ानों, सूखा, हीट वेव, बाढ़ और समुद्र के जल स्तर में बढ़ोत्तरी से निपट सकें. वहीं दूसरी तरफ़ इन देशों ने हरित अर्थव्यवस्था बनने के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रखी हैं. बदक़िस्मती से इन देशों के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो जलवायु परिवर्तन से जुड़े उपाय करने के लिए आवश्यक पूंजी जुटा सकें. इन हालात में जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने के लिए क़र्ज़ में नई रियायतों के विकल्प को अपनाया जा सकता है. इससे कमज़ोर देशों को ख़ुद को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए लचीला बनाने और जलवायु का जोखिम कम करने के वैश्विक प्रयासों में योगदान देने में मदद मिल सकेगी.

जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने के लिए क़र्ज़ में नई रियायतों के विकल्प को अपनाया जा सकता है. इससे कमज़ोर देशों को ख़ुद को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए लचीला बनाने और जलवायु का जोखिम कम करने के वैश्विक प्रयासों में योगदान देने में मदद मिल सकेगी.

जहां अर्थव्यवस्था में नई जान डालना ज़रूरी है. वहीं, पर्यावरण के बारे में सोच-विचार किए बिना ऐसा किया गया, तो पर्यावरण की तबाही और उसके कारण व्यापक आर्थिक स्थिरता पर बुरा असर पड़ेगा. बदक़िस्मती से इस वक़्त सरकारों पर लदे क़र्ज़ के बोझ में नई रियायतें देने मौजूदा कार्यक्रमों में जलवायु परिवर्तन के जोखिम और जैव विविधता के नुक़सान को शामिल नहीं किया जाता, भले ही ये दोनों बातें व्यापक आर्थिक और वित्तीय स्थिरता के लिए एक बड़ा जोखिम क्यों न हों. जलवायु परिवर्तन से जूझने की क्षमता रखने वाली अर्थव्यवस्था किसी भी देश की व्यापक आर्थिक स्थिरता क़ायम करने के प्रयासों में मदद ही करेगी. क़र्ज़ के बोझ को कम करने के लिए उनकी शर्तें बदलने और रियायतें देने (Debt Restructuring)के कार्यक्रमों के ज़रिए व्यापक आर्थिक स्थिरता लाने और अर्थव्यवस्था को तेज़ी से बहाल करने के लिए पूंजी उपलब्ध कराई जाती है. हालांकि, क़र्ज़ में रियायतों के इन कार्यक्रमों में कुछ ख़ास तरह के बदलाव करके पर्यावरण के दूरगामी लाभ इस तरह मुहैया कराए जा सकते हैं, जिससे क़र्ज़ में रियायतों के कार्यक्रम अपने मूल लक्ष्य से भटकें नहीं. ये दोनों ही मक़सद एक दूसरे से होड़ लगाने के बजाय, एक दूसरे के पूरक हैं. भले ही क़र्ज़ में रियायतों का प्राथमिक लक्ष्य फ़ौरी और मध्यम अवधि में फ़ायदे पहुंचाना क्यों न हो, और जलवायु परिवर्तन से जुड़े क़दमों के लाभ लंबे समय बाद ही क्यों न मिलें.

क़ुदरत के लिए काम करने के एवज में क़र्ज़ देना या फिर टिकाऊ विकास के लिए क़र्ज़ देने केदोहरे लाभ होंगे

किसी भी देश पर क़र्ज़ का दबाव कम करने के कार्यक्रम, क़र्ज़ देने वालों को राहत देने के लिए बनाए जाते हैं. क़र्ज़ में राहत कई तरह से दी जा सकती है. जैसे कि क़र्ज़ को घटाकर, पूरी होने की मियाद बढ़ाकर और ब्याज दरों में बदलाव करके, रियायती दरों पर पूंजी उपलब्ध कराकर, किसी चीज़ के बदले में क़र्ज़ देकर, वग़ैरह. क़र्ज़ में रियायतें देने का एक तरीक़ा ‘डेट स्वैप’(Debt Swap) का होता है, जहां पुराने बॉन्ड की जगह नए बॉन्ड जारी किए जाते हैं और उनकी शर्तों में बदलाव किया जाता है. इससे क़र्ज़ के बोझ से जूझ रहे किसी भी देश को कई तरह के फ़ायदे मिलते हैं; उसकी अर्थव्यवस्था में पूंजी की सख़्त ज़रूरत पूरी होती है; क़र्ज़ लौटाने का दबाव कम होता है और बाहरी अस्थिरता को लेकर उसकी कमज़ोरी कम होती है;  मौजूदा ऋण को रियायती दर पर ख़रीदने का मौक़ा मिलता है और एक वित्तीय संकट पैदा होने से रोका जाता है. क़र्ज़ के बोझ को कम करना या उसे लौटाने में रियायतें देने से अर्थव्यवस्था में स्थिरता आती है और उस देश के आर्थिक विकास और निवेश में बढ़ावा मिलता है. ‘DFC swaps’ या ‘टिकाऊ विकास के बदले में क़र्ज़ की अदला-बदली’ किसी देश के ऊपर लदे क़र्ज़ के बोझ से रियायत देने का एक तरीक़ा है. DFC स्वैप में क़र्ज़ देने वालों और क़र्ज़ लेने वाले देश के बीच एक समझौता होता है, जिसके तहत वो देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों और प्राकृतिक संरक्षण के क्षेत्र में निवेश का वादा करता है.

क़र्ज़ के बोझ को कम करना या उसे लौटाने में रियायतें देने से अर्थव्यवस्था में स्थिरता आती है और उस देश के आर्थिक विकास और निवेश में बढ़ावा मिलता है.

DFC स्वैप के ज़रिए क़र्ज़ में रियायत के पारंपरिक लाभ भी मिलते हैं. इससे कमज़ोर देशों को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और तकनीकी सहायता से अपनी अर्थव्यवस्था को जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीला बनाने में भी मदद मिलती है. प्रकृति के बदले में क़र्ज़ की अदला बदली कोई नई बात नहीं है; पहले भी कई देशों को क़र्ज़ के बोझ से राहत देने के लिए ऐसी अदला-बदली की जा चुकी है. इनमें बोलीविया, इक्वाडोर, इंडोनेशिया और सेशेल्स शामिल हैं. हालांकि इन देशों के साथ हुए लेन-देन की रक़म काफ़ी कम थी. कंज़रवेशन इंटरनेशनल ने बोलीविया के 650,000 डॉलर के बैंक क़र्ज़ को 85प्रतिशत रियायत के साथ ख़रीद लिया था. इसके बदले में बोलीविया को वर्षा वनों की ज़मीन को क़ानूनी तौर पर संरक्षित करने और 27 लाख एकड़ ज़मीन के संरक्षण की लागत में पैसे लगाने थे. DFC की संरचना में क़र्ज़ लेने वाली सरकारों के लिए इस बात के पर्याप्त प्रोत्साहन शामिल होते हैं, जिससे वो तुरंत आर्थिक बहाली के लिए वित्तीय मदद हासिल कर सकें और देश के पर्यावरण के संरक्षण की सख़्त ज़रूरतें भी पूरी कर सकें.

व्यवस्था, क़दम और साझीदार

इस तरह के लेनदेन को कई तरह से लागू किया जा सकता है. इनमें से एक विकल्प तो ये हो सकता है कि संबंधित देश मौजूदा विदेशी क़र्ज़ को स्थानीय मुद्रा के क़र्ज़ में तब्दील कर ले. फिर इससे बची रक़म को जलवायु के लिए मुफ़ीद परियोजनाओं में लगाया जाए. एक दूसरा तरीक़ा ये हो सकता है कि मौजूदा क़र्ज़ को रियायती शर्तों वाले नए क़र्ज़ से बदल लिया जाए और उस देश को जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय करने के लिए और मदद दी जाए. क़र्ज़ में इस तरह की रियायतें देने से देशों को बाहरी क़र्ज़ के बोझ से कुछ राहत मिलेगी और जलवायु परिवर्तन से निपटने की उसकी क्षमता में इज़ाफ़ा होगा. ज़ाहिर है, इस तरह के लेनदेन में कुछ शर्तें भी जुड़ी होंगी. अगर वो देश क़र्ज़ में मिली रियायतों को जलवायु के लिए उचित परियोजनाओं में लगाता है और जलवायु के मामले में पहले से तयशुदा या अपेक्षित नतीजे हासिल करता है, तो उसके और भी क़र्ज़ माफ़ किए जा सकते हैं. जलवायु के लिए मुफ़ीद परियोजनाओं में, जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीली और कम उत्सर्जन करने वाली खेती, मिट्टी और पानी का संरक्षण और प्रबंधन, टिकाऊ हरित पट्टी और जैव विविधता और हरित ऊर्जा को अपनाना शामिल हो सकता है. एक ऐसी संरचना बनाई जा सकती है, जो सरकार को जलवायु संबंधी परियोजनाओं में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे. दोनों ही मामलों में कामकाज के प्रमुख सूचकांक (KPIs)पहले से निर्धारित होते हैं.

[pullquote]एक ऐसी संरचना बनाई जा सकती है, जो सरकार को जलवायु संबंधी परियोजनाओं में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे. दोनों ही मामलों में कामकाज के प्रमुख सूचकांक (KPIs)पहले से निर्धारित होते हैं.[/pullquote]

इस संरचना के एक तरफ़ तो कुछ क़र्ज़दाताओं ने देश को कुछ दिया है, वहीं दूसरी तरफ़ कई बहुपक्षीय संस्थाएं, द्विपक्षीय संस्थान (दूसरे देश), दानदाता, विकास वित्त संस्थान (DFIs), और पर्यावरण, सामाजिक और कॉरपोरेट प्रशासन (ESG) के निवेश हैं, जो जलवायु परिवर्तन के उपाय करने के बदले में क़र्ज़ की अदला-बदली करते हैं. जहां तक DFIs और बहुपक्षीय संस्थानों की बात है, तो इस तरह के लेनदेन में शामिल होने से उनका विकास का एजेंडा पूरा होता है. इस तरह के लेनदेन में द्विपक्षीय संस्थान इसलिए शामिल होते हैं, क्योंकि इससे उन्हें सामरिक रूप से संबंधित देश के साथ संबंध बेहतर बनाने का मौक़ा मिलता है. सरकारें, और ख़ास तौर से पड़ोसी देशों की सरकारों के लिए इन देशों की मदद करने में सामरिक और आर्थिक लाभ निहित होता है. क्योंकि, पड़ोसी देश में आर्थिक स्थिरता से उनके इलाक़े में शांति और स्थिरता में फिर से बाधा पड़ सकती है. ESG निवेशक ऐसी अदला-बदली में इसलिए दिलचस्पी ले सकते हैं, क्योंकि अगर को व्यवस्था वित्तीय पूंजी उपलब्ध कराने वालों (बहुपक्षीय संस्थाओं और सरकारों वग़ैरह) की मदद से बनाई जाती है तो इससे उन्हें वित्तीय लाभ मिल सकते हैं.

DFC स्वैप से जलवायु परिवर्तन से निपटने के क़दमों को बढ़ावा मिल सकता है और इनमें व्यापक आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देने की काफ़ी संभावनाएं होती हैं. इनमें अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त के क्षेत्र में एक असाधारण औज़ार बनने की संभावना है, क्योंकि वो विकास के लक्ष्य पूरे करने के साथ साथ पर्यावरण के लाभ वाले दूरगामी लक्ष्य हासिल करने में भी मदद करते हैं.

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