Author : Ramanath Jha

Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

संघवाद का मुखौटा बिल्कुल स्पष्ट है, जहां प्रशासन के किसी भी स्तर के लोग अपने अधिकार से अलग नहीं होना चाहते हैं.

स्थानीय शहरी निकायों के विकेंद्रीकरण (decentralisation) की पहेली!
स्थानीय शहरी निकायों के विकेंद्रीकरण (decentralisation) की पहेली!

प्रजातंत्र में यह सर्वविदित है कि किसी भी अच्छे प्रशासनिक व्यवस्था के लिए विकेंद्रीकरण एक अति प्रभावशाली और विश्वसनीय हथियार है. ये निर्णय लेने वालों को, आम लोगों के और भी नज़दीक लाता है और अधिकारियों को स्थानीय परिस्थिति की बेहतर जानकारी प्रदान करके और भी बेहतर और सूचित निर्णय लेने मे मदद करता है. दुर्भाग्यवश, सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए, विकेन्द्रीकरण के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कों का, सरकार के हर स्तर पर डटकर विरोध किया जाता है. इसके परिणामस्वरूप, शहरी स्थानीय निकाय स्तर पर, चंद सफल परिणामों के बावजूद, विकेन्द्रीकरण की तलाश, एक टाइटैनिक समान असाधारण समस्या और लंबे समय तक चलने वाला संघर्ष ही है.

स्वतंत्रता के बाद, स्थानीय शहरी निकायों को कार्यात्मक, वित्तीय और प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण द्वारा सशक्त करने की बात, पिछले 45 वर्षों में किसी भी भारतीय सरकार की नीति का हिस्सा नहीं रही है. इस वक्त के दरम्यान, राज्यों नें बहुमत से जीती हुई वसीयत और नियुक्त किये गये प्रशासकों को हटा दिया और इन शहरी स्थानीय निकायों को भी भंग कर दिया था. 

स्वतंत्रता के बाद, स्थानीय शहरी निकायों को कार्यात्मक, वित्तीय और प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण द्वारा सशक्त करने की बात, पिछले 45 वर्षों में किसी भी भारतीय सरकार की नीति का हिस्सा नहीं रही है. इस वक्त के दरम्यान, राज्यों नें बहुमत से जीती हुई वसीयत और नियुक्त किये गये प्रशासकों को हटा दिया और इन शहरी स्थानीय निकायों को भी भंग कर दिया था. इसने राज्यों को स्थानीय स्तर पर अपने ही एजेंडे को चलाते रहने को प्रेरित किया है. सन 1992 में, सर्वप्रथम पहली बार भारत सरकार (जीओआई) ने स्थानीय निकायों के सशक्तिकरण के प्रति दिलचस्पी दिखायी थी. स्थानीय सशक्तिकरण और विकेंद्रीकरण के स्वीकृत उद्देश्य के साथ, 74वीं संशोधन बिल को पारित किया गया. हालांकि, सशक्तिकरण और विकेंद्रीकरण का उद्देश्य हासिल करने के दौरान, यूएलबी- को पूरी तरह से राज्य सरकार के हाथों में सौंप दिया गया. उसने 18 कार्यों की लिस्टिंग करके शेड्यूल 12 को संविधान में शामिल किया. हालांकि, ये विचारोत्तेजक है. आख़िरी विश्लेषण में, ये राज्य ही थे, जो ये तय कर सकते थे कि कौन से कार्य यूएलबी को दिए जाएंगे और कौन से नहीं? ना ही संशोधन बिल ने सुधार किये गये प्रशासनिक ढांचा को लागू करने का कोई प्रयास किया, जो की सबसे प्रसिद्ध कंट्रोल यूएलबी के हाथों में सौंपेगी. म्युनिसिपल नेतृत्व जैसे विषय को तो उल्लेख किए जाने योग्य विचार भी नहीं समझा गया.

भारत सरकार (जीओआई) दशकों से यूएलबी के स्थानीय स्तर पर चलने और भारत सरकार के वित्तीय वितरण हेतु ख़ुद के स्कीम को क्राफ्ट करने को लेकर मजबूर रही है. ऐसे सारे स्कीम जैसे जवाहर लाल नेहरू शहरी रिन्यूअल मिशन (जेएनएनयूआरएम) या फिर पहले वाले, जिनमें स्मार्ट सिटी मिशन आदि शामिल थे, उन्होंने राज्यों पर से यूएलबी और नागरिक मशविरा के विकेन्द्रीकरण के पक्ष में अपनी राय रखने की भरपूर कोशिश की है. हालांकि, ये योजनाएं चुस्त दुरुस्त प्रशासन एवं वित्तीय कंट्रोल की मदद से शहरी विकास मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे हैं, जहां वे यूएलबी से भारत सरकार की इच्छाओं को मूर्तरूप देने की दिशा में कार्य करने को कह रहे हैं.

राज्य- सदैव ही केंद्र के ऊपर लगातार ये आरोप लगाते आ रहे है कि वे लगातार संघवाद का अपमान कर रहे हैं और राज्यों को अपने तलवे के नीचे दबा कर रख रहे हैं. और ये सब किसी ख़ास वजह के कारण हुआ हैं और इनमे से कुछ वजह, कोविड 19 महामारी के दौरान भी देखने को भी मिली हैं. 

वहीं दूसरी तरफ, राज्य- सदैव ही केंद्र के ऊपर लगातार ये आरोप लगाते आ रहे है कि वे लगातार संघवाद का अपमान कर रहे हैं और राज्यों को अपने तलवे के नीचे दबा कर रख रहे हैं. और ये सब किसी ख़ास वजह के कारण हुआ हैं और इनमे से कुछ वजह, कोविड 19 महामारी के दौरान भी देखने को भी मिली हैं. हालांकि, ख़ुद राज्य भी स्थानीय प्रशासन में, यूएलबी को किसी भी प्रकार की हिस्सेदारी नहीं देना चाहते हैं. राज्य द्वारा नियुक्त किये गये ज़िला स्तर के अधिकारी यूएलबी पर पूरा अधिकार रखते हैं. उनके मुख्य अधिकारी राज्यों द्वारा नियुक्त किये जाते हैं. उनके बजट का अप्रूवल भी कुछ अपवादों को छोड़कर राज्य द्वारा किया जाता है, और अधिकतर मामलों में शहरों के मेयर को बहुत ही सीमित अधिकार के साथ प्रमुख के तौर पर नियुक्त कर दिया जाता है. इनके पास नाममात्र की प्रशासनिक, वित्तीय और व्यवहारिक शक्तियां होती हैं. यूएलबी के सारे विकास कार्यक्रम, राज्य प्रशासन की रज़ामंदी पर निर्भर करती है और यूएलबी की इच्छा के अनुरूप, उनके द्वारा पेश की गई योजनाओं में छोटे बड़े बदलाव के साथ इसे लागू किए जाने जैसे कई उदाहरण नज़र आते हैं.

राज्यों के पास बदलाव के पर्याप्त अधिकार

शहरी विकास चूंकि राज्यों का विषय है, इसलिए राज्यों के पास प्रमुख बदलाव के पर्याप्त अधिकार हैं जो यूएलबी में बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था की बयार ला सके. हालांकि, इन कई दशकों में भी राज्यों ने किसी भी तरह का प्रयास यूएलबी को नियंत्रित करने के लिये बनाये जाने वाले वैद्यानिक फ्रेमवर्क विकसित करने की परवाह नहीं की हैं. चूंकि टेक्नॉलजी, प्रबंधन और नये प्रयोग के लिए शहर ही शुरुआती प्रतिभागी रहे हैं, इसलिए उनका प्रशासन नई स्थितियों की प्रतिक्रिया देने के लिए सजग रहता है. हालांकि, सदियों पुराने, राज्य-केंद्रित फ्रेमवर्क के साथ, ज़्यादातर शहरें, नई चुनौतियों के साथ तालमेल बनाए रखने को जूझ रही हैं, इन बदली हुई स्थिति और गंभीरता पर विचार करने और परिवर्तनों पर ध्यान रखनें के लिए, हमें राज्यों का आभारी रहना चाहिए. बदले में यूएलबी, स्थानीय संचालन में केंद्र के अनावश्यक दखलंदाज़ी को लेकर हमेशा अपना ही राग अलापती रहती हैं. हालांकि, स्थानीय निर्णयों के आलोक में, किसी भी ग्रुप अथवा गुट को अपनी बात रखने अथवा निर्देशित करने देने को लेकर ये स्वयं ख़ुद भी काफी संकोची भाव रखते है. 300,000 जनसंख्या वाली सारी यूएलबी के वर्ड कमेटी में, 74वें सुधार व्यवस्था प्रदान की गई. इसका उद्देश्य, स्थानीय निर्णय लेने वाले लोगों को कार्यस्थल के और भी नज़दीक लाने की है, ताकि और भी बेहतर प्रतिभागिता के साथ बेहतर सूचना वाला निर्णय लिया जा सके. हालांकि, 2006 में किये गए एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि 74वें संसोधन बिल के अस्तित्व में आये एक दशक होने के बावजूद, मात्र 08 राज्यों ने वार्ड कमिटी की स्थापना की है.

यूएलबी के अंतर्गत, अथॉरिटी किसी भी तरह की आधिकारिक शक्तियों को इन कमिटियों के साथ बांटने को लेकर परहेज़ करते थे. ज़्यादातर राज्यों में, कमेटी को किसी भी प्रकार के शिकायतों के निपटारण के अधिकार नहीं दिए गए थे

यूएलबी के अंतर्गत, अथॉरिटी किसी भी तरह की आधिकारिक शक्तियों को इन कमिटियों के साथ बांटने को लेकर परहेज़ करते थे. ज़्यादातर राज्यों में, कमेटी को किसी भी प्रकार के शिकायतों के निपटारण के अधिकार नहीं दिए गए थे; उनके क्षेत्र में, किसी भी प्रकार के कार्य संबंधी प्रस्तावना के अधिकार की शक्ति और उन्हें ज़रूरी वित्तीय सुविधा प्रदान करने के प्रस्ताव या तो मना कर दिए गए अथवा उन्हें पूरी तरह से सिफ़ारिशी बना दिया गया; उनकी प्रशासनिक क्षमता पूरी तरह से सीमित कर दी गई. चूंकि, वार्ड कमेटी के कार्य संबंधी क्षेत्रों संबंधी विषयक में, ये संशोधन बिल बिल्कुल ही मूक रही, तो इस वजह से यूएलबी, हस्तांतरण के माध्यम से किसी भी चीज़ अथवा विषय को ख़ुद से अलग करने के लिए किसी भी प्रकार के दबाव में नहीं रहे हैं.

लोकतांत्रिक हितैषी के लिए ज़रूरी नागरिक सशक्तिकरण की महत्ता 

लोकतांत्रिक स्वास्थय के लिए नागरिक सशक्तिकरण की महत्ता की ज़रूरत को लंबे समय से महसूस किया गया है. हालांकि, भारत में, यूएलबी में नागरिक सहभागिता को संस्थागत रूप से स्थापित करने को लेकर चल रही लड़ाई, अब तक तो फिलहाल असफ़ल ही रही है. नागरिक शासन में, नागरिकों के सीधे-सीधे अर्थपूर्ण सहभागिता की अनुमति को लेकर भारतीय यूएलबी, शुरू से ही तैयार नहीं रही है.

पश्चिमी दुनिया में, टेक्नोलॉजी, सोशल मीडिया और नागरिकों संग संवाद के लिए बनाए गए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की स्थापना ने, इस क्षेत्र में, यथोचित विकास अर्जित की है. चूंकि, वर्तमान समय में, सूचना का प्रसार तेज़ी से होता है, भारतीय शहरों में, नागरिकों नें विभिन्न गुट अथवा एसोसिएशन की स्थापना इस उद्देश्य से की है ताकि अपनी आवासीय क्षेत्र, मोहल्ले आदि में, व्याप्त समस्याओं के लिए आवाज़ उठायी जा सके. भारत सरकार ने ख़ुद ही से नागरिकों की सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी मॉडल नगर राज बिल की शुरुआत की है. इस मॉडेल राज बिल में, प्रस्तावित प्रमुख विचार का मुद्दा, क्षेत्र सभा अहम मुद्दा रही है, जिसे “ म्युनिसिपल एरिया के सभी पोलिंग बूथ के इलेक्टोरल पोल में पंजीकृत नागरिकों की सभा” के तौर पर परिभाषित की गई है. सभी राज्यों द्वारा इस बिल को पास करवाए जाने के लिए, जेएनएनयूआरएम के अंतर्गत राज्यों के लिए ज़रूरी धन के वितरण को इस बिल को पास किए जाने के शर्तों पर आधारित कर दिया गया था.हालांकि, भारत सरकार के इन निर्देशों के बावजूद, राज्य सरकार के कानों मे जूं तक नहीं रेंगी. मात्र दर्जन भर राज्यों ने इस नागरिक सहभागिता बिल को पास किया. यहाँ पर भी, राज्य सरकार ने, नागरिकों को स्थानीय निर्णय लेने की प्रक्रिया से दूर रखने के मकसद से, इस बिल में, आमूल-चूल संशोधन प्रस्तुत किए. ये सब इस सच्चाई के बावजूद हुआ, जब ‘एरिया सभा’ स्वभाव के अनुसार मात्र एक सलाहकार की भूमिका अदा कर रही थी और नगरपालिका के किसी भी निर्णय लेने की प्रक्रिया पर बाध्यकारी नहीं थी. महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित, पारदर्शी कमेटी द्वारा प्रस्तावित ‘जन सभा’ जैसे नवीन विचार को राज्य स्तर पर कोई ज़मीन प्राप्त नहीं हुई है.

केंद्र अपनी समस्त पॉवर अथवा शक्ति को अपने तक रखने के लिए प्रयासरत रहती है और अपने कार्यक्षेत्र के विस्तारण के हर अवसर की तलाश में रहती है. राज्य भी अपने शहरी स्थानीय निकायों के प्रति ऐसा ही दृष्टिकोण रखती है

उपरोक्त कथन का सारांश ये है कि किसी भी प्रकार की सरकार अपने नीचे के स्तर के प्रशासन को, कैसा भी अधिकार देने से गुरेज़ करती है. केंद्र अपनी समस्त पॉवर अथवा शक्ति को अपने तक रखने के लिए प्रयासरत रहती है और अपने कार्यक्षेत्र के विस्तारण के हर अवसर की तलाश में रहती है. राज्य भी अपने शहरी स्थानीय निकायों के प्रति ऐसा ही दृष्टिकोण रखती है. बदले में, यूएलबी वार्ड कमेटी को किसी भी प्रकार के प्रशासनिक अधिकार देने से परहेज़ करती है. और वार्ड कमेटी भी नागरिकों और उनकी संस्थाओं के लिए कुछ नहीं करना चाहती है. विकेन्द्रीकरण के लिए ज़रूरी हर प्रकार की वार्ता, महज़ एक पहेली ही साबित होती है, बग़ैर कुछ किए, बहुत कुछ करते रहने के लिए.

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