Author : Satish Misra

Published on Jan 19, 2017 Updated 0 Hours ago

कोरेगांव-भीमा को लेकर दलितों की तीखी प्रतिक्रिया क्या सतारूढ़ दल की हिंदुत्व की राजनीति के लिए नई चुनौती है?

दलित आंदोलन और हिंदुत्व: नई चुनौतियां, उभरते सवाल

2018 के पहले ही दिन दलितों और दक्षिणपंथी संगठनों के बीच महाराष्ट्र के कोरेगांव-भीमा में हुई झड़पें कई मामलों में बहुत अहम हैं, क्योंकि इसने आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की हिंदुत्व के जरिए राष्ट्र निर्माण की परियोजना की बुनिदायी गड़बड़ी और गहरे जमे सामाजिक विवाद को सामने ला दिया है।

एक जनवरी को कोरेगांव-भीमा में 200 साल पुराने ब्रिटिशों के पेशवा के साथ हुए युद्ध की याद में बुलाए गए कार्यक्रम में लगभग दस लाख दलित पहुंच गए। यह युद्ध तीसरे अंग्रेज-मराठा युद्ध के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें दलितों की एक उपजाति महार ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़ रही थी।

इस प्रकरण के 200 साल पूरे होने के मौके पर आयोजित हुआ यह कार्यक्रम महाराष्ट्र में जारी जातीय संघर्ष को तेज करने वाला साबित हुआ। इस राज्य में दलितों की ओर से अपनी पहचान के लिए और अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े होने और संघर्ष करने का एक लंबा इतिहास है। दलित पहचान के कुछ सबसे बड़े नाम, जिनमें ज्योतिराव गोविंदराव फुले, डॉ. बी आर अंबेडकर और उनकी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) भी शामिल हैं, इस राज्य के मूल्यों और इतिहास में गहरे रचे-बसे हैं।

दलितों की ओर से हिंसक विरोध न सिर्फ पूरे महाराष्ट्र में फैल गया, बल्कि यह आंदोलन गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे दूसरे राज्यों में भी फैल रहा है। इन राज्यों में भी दलित संगठनों की ओर से विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और बिहार जैसे राज्यों में हाल के समय में दलितों के उत्पीड़न के मामले बढ़ रहे हैं।

ये घटनाएं दरअसल भाजपा नेतृत्व वाले राजग गठबंधन के साढ़े तीन साल के शासन काल के दौरान दलितों के बढ़ते आंदोलन का ही हिस्सा हैं। आरएसएस की राष्ट्र निर्माण की जो परियोजना है, उसके खिलाफ दलित वर्ग का गुस्सा साफ दिखाई दे रहा है। क्योंकि यह राष्ट्र निर्माण परियोजना कभी इतिहास के पुनर्लेखन में, कभी कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को अपने खास चश्मे से देखने में, कभी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में तो कभी गौ रक्षा, गौमांस पर प्रतिबंध और ‘लव जेहाद’ जैसे मुद्दों में प्रदर्शित होती रहती है। ये मुद्दे सांस्कृतिक विविधता को ध्वस्त कर हिंदू बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने वाले होते हैं। ऐसे में जातियों में जकड़े हिंदू समाज की पुरानी बीमारियां सामने आ रही हैं।

नया राष्ट्र बनाने की संघ की पुरानी और मूर्खता भरी परियोजना स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी की ओर से बनाई गई और बाद में 1947 के बाद की सत्ता, जिनमें भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भी शामिल है, की ओर से आगे बढ़ाई गई अवधारणा को खत्म करने के विचार पर आधारित है। यह खास कर मुस्लिम शासन के दौरान हुई ऐतिहासिक गलतियों और अभिमान मर्दन पर आधारित है। हालांकि यह परियोजना हिंदू समाज के अंदर गहरी जड़ जमाए बैठी जाति व्यवस्था को समझने में नाकाम रही है। संभवतः आरएसएस को लगता था कि मुस्लिम विरोध का नारा इतना मजबूत होगा कि उसमें जातियों के विभाजन और निचले तबके के लोगों पर शताब्दियों पुराना ऊंची जाति का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा।

ये पुराने रोग अब फिर तेजी से उभर रहे हैं, खास कर जब देश की अर्थव्यवस्था भी धीमी हो रही है और रोजगार के मौके सिमट रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुज्जर, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में जाट आरक्षण की मांग को ले कर सड़कों पर हैं, जिसकी वजह से दलितों, अन्य पिछड़ी जातियों और समाज के कमजोर तबकों में भय का माहौल है।

आरएसएस-भाजपा की गौ रक्षा की राजनीति के तहत चल रहे गौमांस पर प्रतिबंध का मुसलमानों के साथ ही दलित भी शिकार हुए हैं। दलित पारंपरिक कृषि व्यवस्था के अभिन्न अंग रहे हैं, जहां वे पशुओं का चमड़ा निकालने का अहम काम करते थे। गौ हत्या पर शब्दशः और सख्त पाबंदी लगाने की कोशिश ने दलितों की आजीविका को प्रभावित किया है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और दूसरे राज्यों में हिंसक घटनाएं हुई हैं, जिनमें गौ रक्षकों के दलों की हिंसा का दलित शिकार हुए हैं।

सामान्य समय में, इसका ज्यादा राजनीतिक महत्व नहीं था, लेकिन 2014 में केंद्र में और फिर उसके बाद 19 राज्यों में भाजपा के आने के बाद हुई ये हिंसक घटनाएं चर्चा के केंद्र में आ गई हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें जीत कर सत्ता हासिल की। यहां की सभी 17 दलितों के लिए आरक्षित सीटें भाजपा को गईं। इसका स्पष्ट मतलब है कि दलित आबादी का भी एक अहम हिस्सा भाजपा के साथ गया और साथ ही दलित वोटों में विभाजन हुआ।

महाराष्ट्र में जहां एक ओर दलितों और कुछ अन्य पिछड़ी जातियों और दूसरी ओर मराठा और कुछ ऊंची जातियों (खास कर चितपावन ब्राह्मणों) के बीच जारी जातीय तनाव से ऐतिहासिक जख्म हरे हो गए हैं, वहीं उत्तर भारत के राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्यों में यह संघर्ष दलित बनाम ऊंची जाति है। उनमें भी खास तौर पर राजपूत और ब्राह्मण।

दलितों और समाज के दूसरे पिछड़े वर्गों के जख्मों पर नमक का काम कर रहा है भाजपा शासित राज्यों की ओर से इनके प्रदर्शनों और विरोधों से निपटने का तरीका। इन राज्यों में ऐसे प्रदर्शनों और आंदोलनों में शामिल नेताओं को राष्ट्र विरोधी साबित किया जा रहा है और उनसे अपराधियों की तरह का व्यवहार किया जा रहा है। पहले की तरह उन्हें अब उभरते हुए राजनेता के तौर पर नहीं देखा जा रहा। गुजरात में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी या उत्तर प्रदेश में भीम सेना भारत एकता मिशन के संस्थापक और युवा वकील चंद्रशेखर आजाद के साथ जैसा व्यवहार किया गया है, वह सत्तारुढ़ समूह की मानसकिता को प्रदर्शित करता है। आरएसएस और भाजपा के नेताओं की ओर से इन युवा और महत्वाकांक्षी नेताओं को राष्ट्र-विरोधी या जातिवादी का तमगा दिया जा रहा है, जैसा कि गुजरात में किया गया।

दलितों और दूसरे पिछड़े वर्गों में लगातार जागरुकता आ रही है। इसके साथ ही ये वर्ग अपने अधिकार को ले कर ज्यादा सचेत हो गए हैं। अब वह समय नहीं रह गया है जब प्रशासन उनकी आवाज को आसानी से दबा देता था या फिर उनकी जायज मांगों को भी उनके आंदोलन और प्रदर्शन के नेताओं पर सख्ती दिखा कर कुचल देता था।

ऐसे नेताओं के साथ राजनीतिक तौर पर संवाद कायम करने की बजाय भाजपा नेता राज्य की कानून और प्रशासन व्यवस्था के जरिए निपटना चाहते हैं और हर बार ऐसे आंदोलन प्रदर्शनों से निपटने के लिए पुलिस को पूरी आजादी दे देते हैं।

ऐसे में इन समुदाय के बीच यह मानसिकता घर करती जा रही है कि उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की जाति आधारित राज्य प्रशासन की ओर से ठीक से जांच नहीं होगी। धीरे-धीरे इस समुदाय के लोगों को लगने लगा है कि दोषियों को पूरी सजा नहीं मिलेगी या फिर वे पूरी तरह बच निकलेंगे।

2014 के आम चुनाव के नतीजे और उसके बाद के विधानसभाओं के नतीजे साफ तौर पर बताते हैं कि दलित राजनीति करवट ले रही है। यह बदलाव के दौर में है। देश के सबसे ऊंचे संवैधानिक पद पर एक दलित व्यक्ति को बिठा देने के प्रतीकात्मक कदम भर से भाजपा का काम नहीं चलने वाला और ऐसा लगता है कि इससे भाजपा को दलित समुदाय के बीच अपना राजनीतिक आधार बनाने और बढ़ाने में मदद नहीं मिल रही। आरएसएस-भाजपा चुनावी हितों को देखते हुए दलित और दूसरे गैर-मुस्लिम पिछड़े तबकों को साथ लेने को मजबूर होते हैं, लेकिन नए राष्ट्र के निर्माण की उनकी अवधारणा जिसमें ‘भारत वर्ष’ का पुराना गौरव हासिल करना है, इस राह में रोड़े अटकाने लगता है।

आने वाले महीनों में, जब भाजपा कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनावी मैदान में होगी, तो दलित और दूसरे कमजोर तबके के वोट बहुत अहम होंगे। भाजपा की ओर से इस समुदाय में पैठ बनाने की हाल के वर्षों की रणनीति इस समय गंभीर खतरे में है।

अगर आरएसएस-भाजपा अपने चुनावी अंकगणित और नए राष्ट्र की अवधारणा के बीच उठ रहे गंभीर विरोध को घटा कर इनके बीच संतुलन बनाने में कामयाब नहीं हुए तो एक नए राजनीतिक कथ्य को उभरने से कोई नहीं रोक सकेगा, जिसमें आरएसएस-भाजपा के देश पर बढ़ रहे प्रभुत्व को चुनौती देने वाला नया राजनीतिक समीकरण सामने आएगा।

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