केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (सीएबीई) उप समिति की रिपोर्ट के अनुसार, “नो डिटेंशन पॉलिसी यानी फेल न करने की नीति केवल आदर्श व्यवस्था में ही लागू की जा सकती है।” 18 जुलाई को लोकसभा में पारित बच्चों का निःशुल्क औऱ अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार (दूसरा संशोधन) विधेयक 2017 (राज्यसभा की मंजूरी के लिए लम्बित) एक अनकही और गुमराह करने वाली स्वीकारोक्ति है कि भारत उस ‘आदर्श’ स्थान से कितना दूर है।
यह विधेयक शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून की धारा 16 को संशोधित करता है और राज्यों को कक्षा 5 और/या 8 के अंत में परीक्षा लेने का विकल्प देता है। इन परीक्षाओं को पास करने में विफल रहने वाले छात्रों को अतिरिक्त मदद दी जायेगी और 2 महीने के भीतर उन्हें दोबारा परीक्षा देनी होगी। अगर वे तब भी पास नहीं हो सकेंगे तो स्कूल को उन्हें उसी कक्षा में रोकने की इजाजत होगी। हालांकि यह उत्साहजनक है कि केंद्र ने इस मामले में अंतिम निर्णय संबंधित राज्य सरकारों पर छोड़ दिया है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि ज्यादातर राज्य नो डिटेंशन पॉलिसी की मजबूती की सराहना करेंगे,और दीर्घावधि तक इसे रद्द नही करेंगे। हालांकि छात्रों को उसी कक्षा में रोके रखने यानी फेल करने के बारे में राज्यों की अलग⎯अलग नीतियां होने के निहितार्थ एक समान प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था के सिद्धांतों के विपरीत हैं।
यह शिक्षा का अधिकार कानून के मौलिक प्रावधानों से से काफी हद तक अलग है, जो प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1 से 8 तक) के दौरान किसी भी छात्र को उसी कक्षा में रोके रखने को प्रतिबंधित करता है। इसके पक्ष में कई तर्क हैं जिनमें ‘बिना शर्त अगली कक्षा में भेजने से शिक्षा संबंधी प्रोत्साहन कम होना,’ ‘कक्षा 8 के बाद फेल होने वाले छात्रों की संख्या बहुत अधिक होना,’ ‘शिक्षा संबंधी उपलब्धियों में कमी,’ ‘तैयारी में कमी’ आदि शामिल हैं। वैसे ये तर्क कुछ हद तक तो विश्वसनीय हैं, लेकिन बहुत आवश्यक है कि इस मामले का विश्लेषण अदूरदर्शितापूर्ण तरीके से छात्रों को उसी कक्षा में रोके जाने को हां/या के नजरिये से परे जाकर किया जाए।
यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि ‘कक्षा में रोकने यानी नो डिटेन्शन’ और आकलन नहीं करने यानी ‘नो अस्सेमेंट’ में अंतर है।
प्रारंभिक तौर पर, राज्यों के लिए यह आवश्यक है कि अनेक अध्ययनों से निणार्यक रूप से यह साबित हुआ है कि छात्र को कक्षा में रोकने और शिक्षण के बेहतर स्तरों या पढ़ाई अधूरी छोड़ने वालों की घटती संख्या के बीच कोई सहसंबंध नहीं है। इसके विपरीत, कक्षा में फेल होने वाले छात्रों को अपने दोस्तों और कुल मिलाकर समाज में सामाजिक लांछन जैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है और यह बात अच्छे से साबित हो चुकी है। साथ ही मेनस्ट्रीम और सोशल मीडिया के हंगामे के बीच, यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि ‘कक्षा में रोकने यानी नो डिटेन्शन’ और आकलन नहीं करने यानी नो ‘अस्सेमेंट’ में अंतर है।
यहां तक कि आरटीई अपने मौलिक स्वरूप में समग्र रूप से नो⎯डिटेंशन नीति का समर्थन करता है। इस कानून की धारा 29 निरंतर समग्र आकलन (सीसीई) के माध्यम से ऐसी व्यवस्था तैयार करने का आह्वान करती है, जो छात्रों के ज्ञान की समझ और उस समझ को व्यवहार में लागू करने की योग्यता का आकलन कर सके। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद(एनसीईआरटी) के दिशानिर्देशों के अनुसार, सीसीई को ‘शिक्षण के लिए आकलन’ , ‘आकलन के रूप में शिक्षण’ और ‘शिक्षण का आकलन’ को शामिल करना चाहिए। ‘शिक्षण के आकलन’ में मौजूदा परीक्षा प्रणालियों को शामिल किया जाना अपने आप मे रट कर पढ़ने पर बहुत ज्यादा बल देने और समझ के स्तरों के कमजोर परीक्षण जैसे कई मसलों से घिरा हुआ है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मौजूदा बहस के दायरे से आकलन के दो अन्य स्वरूपों को बाहर कर दिया गया है।
स्कूली शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों की किसी तरह कोई सुदृढ़ जवाबदेही का प्रारूप नहीं है, ऐसे में परीक्षाएं आकलन का एकमात्र पैमाना रह जाती हैं। विभिन्न राज्यों ने जानकारी दी है कि बडी तादाद में छात्र 9वीं में फेल हो गये और उन्होंने सीधे तौर पर इसके लिए नो डिटेंशन पॉलिसी को जिम्मेदार ठहराया। हल्के फुल्के ढंग से कहा जाए तो इस तरह से सम्बंध जोड़ना दोषपूर्ण है। सीसीई का अपर्याप्त और विफल कार्यान्वयन नो डिटेंशन अवधारणा की विफलता के मुख्य कारणों में से एक है। जैसा कि सीएबीई की रिपोर्ट में कहा गया है कि नो डिटेंशन और सीसीई के कारण क्लॉस रूम में शिक्षकों के सामने चुनोतियाँ बढेंगी। यह काफी हद तक मानसिकता की समस्या है। वास्तव में प्रेक्टिशनर लगातार यह कहते आये हैं कि अगर सीसीई के समान गुणों वाले मॉडल सही ढंग से समझे और लागू किए जाएं, तो वे आकलन सम्बन्धी उत्तरदायित्वों में ज्यादा दक्षता के साथ योगदान दे सकते हैं और शिक्षकों को लघु अवधि वाले शिक्षण के नतीजों पर आधारित विषयों के बारे में नजरिया बदलने की इजाजत दे सकते हैं।
सीसीई का अपर्याप्त और विफल कार्यान्वयन नो डिटेंशन अवधारणा की विफलता के मुख्य कारणों में से एक है।
उदाहरण के लिए,शिक्षा के विभिन्न स्तरों के छात्रों की ग्रुपिंग और टीचिंग पर ध्यान केंद्रित करने वाले प्रथम के लर्निंग एन्हेंसमेंट प्रोग्राम (एलईपी) ने हरियाणा के सरकारी स्कूलों में स्पष्ट नतीजे दर्शाए हैं। हालांकि इस बात पर गौर करना महत्वपूर्ण होगा कि सीसीई मॉडल ने इन छात्रों में सुधार के कोई चिन्ह नहीं दर्शाए। आईआईएम अहमदाबाद द्वारा कराए गए इसी तरह के अध्ययन में सीसीई के परिणामस्वरूप शिक्षण के स्तरों में कोई अंतर नहीं पाया गया। इसलिए, देश में जल्दबाजी में लागू किए गए सीसीई के खिलाफ यह तर्क रखा जाना वाजिब है। देश के विभिन्न भागों में कमियों को दूर करने के लिए ज्यादा बारीक नजरिए वाले प्रायोगिक परीक्षणों को शामिल करते हुए आकलन के अन्य मॉडलों, शिक्षकों की लगातार ट्रेनिंग तथा अभिभावकों के बीच इस तरह के आकलन के मॉडल के बारे में जागरूकता फैलाए जाने से संभवत: बेहतर नतीजे सामने आए होते।
‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ को समाप्त करने के पक्ष में दी जाने वाली शिक्षण की घटती उपलब्धियों’ की दलील भी अनेक स्तरों पर गुमराह करने वाली है।
पहला, आरटीई केवल 6⎯14 साल की आयुवर्ग के छात्रों पर लागू होता है। आरंभिक बाल शिक्षा (ईसीई) पर ध्यान केंद्रित करने वाला कोई भी सतत नीतिगत हस्तक्षेप नहीं है। महिला और बाल विकास मंत्रालय पर ‘महिलाओं और बच्चों के सम्पूर्ण विकास’ का दायित्व है, ऐसे में ईसीई पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना मुश्किल हो जाता है। दरअसल ऐसे बच्चों की तादाद काफी ज्यादा हैं, जो अपने परिवार में शिक्षा प्राप्त करने वाली पीढ़ी हैं, ऐसे में जब बच्चा औपचारिक शिक्षा प्रणाली में दाखिल होता है, तो ईसीई का अभाव स्कूल के लिए पूरी तरह तैयारी न होने का कारण बनता है। यहां तक कि ब्लैकबोर्ड पर हिदायतें देने जैसे बुनियादी कौशल भी चुनौतीपूर्ण बन जाते हैं। इसलिए खामी बुनियादी स्तर पर ही मौजूद है, जिसका बाद के वर्षों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
दूसरा, बड़ी तादाद में स्कूली बच्चे अपनी शिक्षा प्राप्ति के शुरूआती दिनों में निर्देश के माध्यम से बहुत कम परिचित होते हैं/या बिल्कुल भी परिचित नहीं होते हैं। महानगरीय शहरी छात्रों के प्रोफाइल, अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों के प्रति आकर्षण और भाषा संबंधी नीति का वर्तमान आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुकूल न होना आदि कुछ ऐसी चुनौतियां हैं, जिनका सामना सरकार को इस क्षेत्र में करना पड़ रहा है। भाषा से संबंधित संघर्ष जारी रहने के कारण शिक्षा संबंधी उपलब्धियों पर असर पड़ता है।
तीसरा, जैसा पहले कहा जा चुका है, शिक्षकों की जवाबदेही को आंकने का कोई पैमाना उपलब्ध नहीं है। इसलिए, जहां एक ओर हर साल शिक्षा रिपोर्ट्स की वार्षिक स्थिति लगातार शिक्षा संबंधी उपलब्धियों के बारे में भयावह तस्वीर प्रस्तुत कर रही है, वहीं यह समझने की कोई व्यवस्था नहीं है कि आखिर शिक्षक छात्रों को बुनियादी स्तर के गुण तक सिखा पाने में क्यों नाकाम रहे। ऊपर जिन मामलों का जिक्र किया गया है, उन सभी का नो⎯डिटेंशन पॉलिसी के होने या न होने से कोई लेना⎯देना नहीं है। ये सभी पूरी व्यवस्था को प्रभावित करने वाले मामले हैं, जिनसे स्कूली शिक्षा आरटीई कानून लागू होने से पहले भी ग्रसित थी।
अंत में, नेकनीयत वाले इस नीतिगत उपाय को उचित ढंग से लागू नहीं किए जाने के कारण अब तक मनवांछित नतीजे प्राप्त नहीं किए जा सके। इसे परिवर्तित करने से, अनेक छात्रों को एक बार फिर व्यवस्थागत कमियों के कारण ‘फेल’ होने का दंश झेलना होगा। उपलब्धियों पर आधारित आकलन का खाका तैयार करने और उन्हें चरणबद्ध ढंग से लागू करने पर ध्यान केंद्रित करने की बजाए, दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से इस प्रतिगामी कानून को पारित किया जाना ज्यादा दूरदर्शितापूर्ण दिखाई दे रहा है। आखिरकार किसी भी प्रगतिशील स्कूली शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य परम्परागत परीक्षा प्रणाली को समाप्त करने और उसके स्थान पर एकीकृत आकलन और शिक्षण मॉडल का अनुसरण करने वाली प्रणाली को स्थापित करना होना चाहिए। छात्रों के लिए नो⎯डिटेंशन पॉलिसी एक प्रगतिशील पहल है। जल्दबाजी और अकुशल ढंग से लागू किए जाने के कारण इसे खत्म नहीं किया जाना चाहिए।
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