इस साल रायसीना संवाद की थीम थी ‘विघटनकारी बदलावों का समुचित प्रबंधन करना’। वैसे तो पिछले सप्ताह अनेक विघटनकारी बदलावों पर चर्चा हुई थी, लेकिन भारत के विदेश सचिव एस. जयशंकर ने स्पष्ट रूप से इन चार प्रमुख विघटनकारी बदलावों या चुनौतियों का उल्लेख किया: चीन का अभ्युदय, संयुक्त राज्य अमेरिका के वैश्विक दृष्टिकोण एवं एशियाई रणनीति में मौजूदा फेरबदल, ‘गैर-बाजार’ अर्थव्यवस्था और किसी देश द्वारा आतंकवाद को प्रश्रय देना या उसे प्रायोजित करना।
जहां एक ओर भारत के शीर्ष राजनयिक ने प्रथागत ढंग से किसी का भी नाम लेने से परहेज किया, वहीं दूसरी ओर जनरल डेविड पेट्राउस उपर्युक्त अंतिम दो रुझानों के बारे में अपने आकलन को लेकर कहीं ज्यादा बेबाक थे। उन्होंने कहा कि हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि हम किसी और के बारे में नहीं, बल्कि चीन के ही बारे में बात कर रहे हैं।
भारत के विदेश सचिव एस. जयशंकर ने स्पष्ट रूप से इन चार प्रमुख विघटनकारी बदलावों का उल्लेख किया: चीन का अभ्युदय, संयुक्त राज्य अमेरिका के वैश्विक दृष्टिकोण एवं एशियाई रणनीति में मौजूदा फेरबदल, ‘गैर-बाजार’ अर्थव्यवस्था और किसी देश द्वारा आतंकवाद को प्रश्रय देना या उसे प्रायोजित करना।
सबसे पहले, सरकार-निर्देशित पूंजीवाद को सामान्य मान लिए जाने और गैर-बाजार अर्थव्यवस्थाओं के उभरने से आर्थिक संबंधों की पारंपरिक समझ के समाप्त हो जाने का अंदेशा है। पार्टी-सरकार द्वारा उद्योग पर अपना पूरा नियंत्रण रखने के साथ-साथ कंपनियों को अपने कामकाज में आजादी देने की उपेक्षा करते हुए सरकार की सत्ता एवं वैधता को अधिकतम सीमा तक बढ़ाने के लिए बाजारों का उपयोग किया जाना ‘चीन की विशिष्टताओं वाले पूंजीवाद’ का अभिन्न अंग है।
विगत महीनों के दौरान चीन ने छोटे राष्ट्रों के साथ निर्भरता का रिश्ता कायम करने के लिए इस मॉडल से लाभ उठाने की कोशिश की है। वहीं, दूसरी ओर चीन ने बड़े राष्ट्रों के मामले में बाध्यकारी अर्थनीति का इस्तेमाल किया है। वर्ष 2017 इस नई सामान्य स्थिति का साक्षी था : एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और यहां तक कि यूरोप के कुछ हिस्सों में अवस्थित छोटी अर्थव्यवस्थाएं भी अब भारी-भरकम ऋणों से जूझ रही हैं जो चीन के सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों को देय हैं। वहीं, दूसरी ओर संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी और जापान जैसे देशों को अब उच्च प्रौद्योगिकी वाले संवेदनशील क्षेत्रों में चीन के लक्षित और सरकारी नेतृत्व वाले या उसके द्वारा प्रोत्साहित निवेश का मुकाबला करना चाहिए।
गैर-बाजार अर्थव्यवस्था के आगमन और चीन की आम सहमति के उदय से उद्यमशीलता और विचारों एवं प्रौद्योगिकी के मुक्त प्रवाह के उस स्वर्ण युग का अंत हो सकता है, जो लगभग तीन दशकों तक पारदर्शी मुक्त बाजारों के तहत विकसित हुआ था। बाजार शक्ति के प्रति चीन के अपारदर्शी एवं विकृत संपूर्ण-सरकार दृष्टिकोण से निरंतर व्यापक असर पड़ने की संभावना है क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था वर्ष 2030 तक लगभग 20 लाख करोड़ (ट्रिलियन) अमेरिकी डॉलर की ओर अपनी राह अग्रसर कर रही है। इसके साथ ही यह बदलाव नि:संदेह उन छोटे देशों के आर्थिक विकल्पों को काफी प्रभावित करेगा जो चीन पर काफी हद तक निर्भर हैं। वहीं, इसके ऐसे नतीजे भी सामने आएंगे जो विश्व अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर देंगे।
दूसरा, कुछ देशों द्वारा आतंकवाद को प्रश्रय एवं संरक्षण दिए जाने के कारण वैश्विक शांति और सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। उधर, पारंपरिक सैन्य शक्ति और कूटनीति कुछ हद तक गैर-सरकारी प्रश्रय से बढ़ने वाले आतंकवादी खतरों से निपट सकती है। वहीं, जब कुछ देशों की सरकारें विशेषकर एक परमाणु छत्र या परिष्कृत मारक क्षमता की सुरक्षा के तहत सरकारी नीति के एक साधन के रूप में आतंकवाद का उपयोग करती हैं तो क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा की दिशा में कोई भी व्यापक दृष्टिकोण अपनाना कठिन हो जाता है।
जब कुछ देशों की सरकारें विशेषकर एक परमाणु छत्र या परिष्कृत मारक क्षमता की सुरक्षा के तहत सरकारी नीति के एक साधन के रूप में आतंकवाद का उपयोग करती हैं तो क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा की दिशा में कोई भी व्यापक दृष्टिकोण अपनाना कठिन हो जाता है।
एक तथ्य यह भी है कि चीन इस तरह के देशों के साथ सहयोग करने की कोशिश करता है, जैसा कि पाकिस्तान के साथ है और इसके साथ ही वह इस तरह के लोगों या संगठनों के साथ संकीर्ण संबंध बनाने का इरादा रखता है जिससे पूरा मसला ही काफी भ्रमित हो जाता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन का मानना है कि कुछ जटिल राजनीतिक ढांचों के जरिए वह संबंधित गैर-सरकारी समूहों के साथ कोई समझौता करने में सक्षम हो जाएगा। दरअसल, जहां एक ओर जिम्मेदार ताकतों को इसमें मुसीबत और जोखिम नजर आते हैं, वहीं दूसरी ओर चीन को इसमें अवसर दिखता है। असल में बात यह है कि चीन की कनेक्टिविटी परियोजनाएं दुनिया के कुछ सबसे अस्थिर क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं।
समर्पित और लक्षित पुलिस या चौकसी व्यवस्था के बिना, जिसके पक्ष में चीन नहीं है, ऐसी परियोजनाएं अंतत: आतंकवादियों एवं अन्य आपराधिक समूहों के लिए अपनी पहुंच का विस्तार करने, आर्थिक लाभ पाने के नए रास्ते ढूंढने, कपटी साझेदारियां करने और अतिरिक्त सदस्यों की भर्ती करने में मददगार साबित होंगी। क्षुद्र स्व-हितकारी भू-राजनीतिक लाभ के लिए चीन द्वारा नैतिकता को ताक पर रख देने से कट्टरता और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एक नई संचालक ताकत का सृजन होगा जो संभवत: दुष्ट ही होगी।
इस तरह के तनावपूर्ण एवं अराजक हालात में इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा रायसीना संवाद के दौरान दिया गया यह बयान कि समस्त देशों को दादागिरी करने वाली ताकत (हार्ड पावर) और सहयोग करने वाली ताकत (सॉफ्ट पावर) में से किसी एक का अवश्य ही चयन करना चाहिए, वह इरादतन के बजाय भविष्यवाणी प्रतीत होता है। वैसे तो नेतन्याहू स्पष्ट रूप से हार्ड पावर के पक्ष में थे, लेकिन दुनिया के कई देशों को इन दोनों के बीच उपयुक्त संतुलन सुनिश्चित करने के लिए काफी मशक्कत करनी होगी। इसके साथ ही समस्त देशों को शक्ति के एक अन्य पहलू की हिमायत करनी होगी जिसकी पहचान प्रधानमंत्री ने इस रूप में की है कि यह ताकत भारत और इज़रायल को एक-दूसरे से मजबूती की डोर में बांधती है और उनके सबसे मजबूत सहयोगी ‘लोकतांत्रिक मूल्य’ हैं।
क्षुद्र स्व-हितकारी भू-राजनीतिक लाभ के लिए चीन द्वारा नैतिकता को ताक पर रख देने से कट्टरता और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एक नई संचालक ताकत का सृजन होगा जो संभवत: दुष्ट ही होगी।
समस्त देशों एवं समुदायों ने जिन राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर हामी भरी है उनमें एक बड़ा बदलाव अंतर्निहित होगा जिसकी पहचान विदेश सचिव ने इस रूप में की है कि नियम आधारित व्यवस्था अब केवल विकसित दुनिया तक ही सीमित नहीं रह गई है। अटलांटिक प्रणाली से हिंद-प्रशांत की ओर अग्रसर हो चुका शक्ति संतुलन 21वीं सदी के भविष्य का निर्धारण करेगा। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस क्रमिक विकास के सार को रेखांकित करते हुए कहा, ‘पुरानी व्यवस्था नीति और नजरिए दोनों के माध्यम से अपनी सीमाएं व्यक्त कर रही है।’ इसके साथ ही उन्होंने आगाह करते हुए कहा कि ‘नई व्यवस्था, हालांकि, अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है।’
उन आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलावों की शुरुआत हिंद-प्रशांत क्षेत्र से ही होगी जो एक नई विश्व व्यवस्था को स्वरूप प्रदान कर रहे हैं और वे ही यह निर्धारित करेंगे कि क्या इसे लोकतंत्र या तानाशाही द्वारा परिभाषित किया जाएगा। विदेश नीति के स्वरूप और अनजान भू-राजनीतिक रुझानों की दृष्टि से भारत इस बदलाव में अत्यंत अहम होगा।
इसने हमें संभवत: उस सबसे पूर्वद्रष्टा अवलोकन के बिल्कुल करीब ला दिया है जिसका उल्लेख विदेश सचिव ने कुछ इस तरह किया है: इनमें से कई बदलावों से जुड़े जवाब का एक हिस्सा भारत में निहित है। एक जीवंत लोकतंत्र, एक समृद्ध बहुसांस्कृतिक समाज, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और वैश्विक स्तर पर विश्वास से लबरेज भारत जिन विकल्पों को अपनाएगा वे हमारी दुनिया के भविष्य में अंतर्निहित होंगे। शेष उत्तर उसके द्वारा चयन की जाने वाली साझेदारियों, उसकी आर्थिक यात्रा की सफलता और अपने अभ्युदय के बारे में उसके द्वारा अंतत: तैयार की जाने वाली गाथा में पाए जाएंगे।
दरअसल, स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री कार्ल बिल्ट के इस ट्वीट ने विदेश मंत्रालय और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा आयोजित रायसीना संवाद की मूल भावना के सार को बिल्कुट सटीक ढंग से कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है: ‘दुनिया भर में हो रहे वाद-विवादों से भारत को अवगत कराना और भारत के दृष्टिकोण से दुनिया को वाकिफ कराना।’ रायसीना संवाद के दौरान होने वाली चर्चाएं भारत की गाथा को स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और जैसा कि विदेश सचिव का यह सही मानना है कि ये चर्चाएं अंतत: उन कई मुश्किलों का जवाब मुकम्मल कर देंगी जिनसे दुनिया त्रस्त है।
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