Published on Dec 18, 2019 Updated 0 Hours ago

देश का खनिज क्षेत्र अभी अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रहा है, लेकिन इन हालात में उसने के लिए खनन के टिकाऊ मानकों पर अमल भी मुश्किल हो सकता है.

खनिज की बनावटी कमी के कारण पुरानी माइंस को खरीदने की होड़

देश के मौजूदा खनिज कानून, MMDR 2015 (अमेंडमेंट) के तहत लौह अयस्क (आयरन ओर), क्रोमाइट और मैंगनीज जैसी 329 कमोडिटीज के लिए खनन के अधिकार 50 साल पहले दिए गए थे. राज्य सरकार इससे ख़ुश हैं कि नीलामी के ज़रिये ये लाइसेंस फिर से दिए जाने पर खनिजों की बिक्री में होने वाली आमदनी का उन्हें पहले से बड़ा हिस्सा मिलेगा. इनके लिए बोली लगाने वालों को कृत्रिम ढंग से कमोडिटी की पैदा की गई कमी के चलते ऊंची बोली लगानी पड़ेगी. इसी वजह से कैप्टिव एंड यूजर्स (स्टील जैसे प्लांट्स, जिन्हें लौह अयस्क के खान की ज़रूरत है) में मार्च 2020 के बाद संभावित उथल-पुथल मचने की आशंका को देखते हुए कच्चे माल की सप्लाई सुनिश्चित करने की आपाधापी मची है. 50 साल पहले जो माइनिंग लाइसेंस दिए गए थे, उन्हें मार्च 2020 में लैप्स मान लिया जाएगा. ओडिशा ने हाल ही में दो क्रोमाइट माइंस की नीलामी की है. अगले महीने वह लौह अयस्क और मैंगनीज के 20 माइंस की नीलामी करने जा रहा है. उसे इससे अगले 50 साल तक सरकारी खज़ाने में औसतन 2,000 करोड़ रुपये सालाना की बढ़ोतरी का अनुमान है. इन आगामी माइन रिसाइक्लिंग प्रोसेस के तहत अतिरिक्त रॉयल्टी के रूप में उसे यह रक़म मिलने की उम्मीद है.

इन नीलामियों में क्या होगा, इसकी एक झलक दो छोटे क्रोमाइट एसेट्स के हालिया एक्शन में दिखी थी. इनके नाम सारुआबिल और कामबारदा हैं. इनमें क्रमश: 1 करोड़ टन और 23 लाख टन का रिज़र्व है. टाटा ग्रुप की इकाई टीएस अलॉयज ने आक्रामक बोली लगाकर ये खान हासिल किए. इसमें फेरो अलॉय मिल मालिकों की भी दिलचस्पी थी. टाटा ग्रुप की इकाई ने इन माइंस के अयस्क की बिक्री से मिलने वाली रक़म में से क्रमश: 88.5 और 98.6 प्रतिशत साझा करने की पेशकश की थी. ओडिशा सरकार टाटा ग्रुप को समय के साथ 18 किलोमीटर के क्षेत्र में सारे क्रोमाइट एसेट्स (सुकिंदा क्रोमाइट बेल्ट) दे चुकी है, लेकिन ग्रुप इस क्षेत्र में अपने ऑपरेशनल फेरो अलॉय मिल्स के लिए क्रोमाइट की सप्लाई सुनिश्चित करना चाहता था. सुकिंदा बेल्ट में पहले से खनन इंफ्रास्ट्रक्चर होने से भी टाटा ग्रुप को फायदा होगा. वह नई माइंस से इसकी मदद से आराम से खनन कर सकता है.

कैप्टिव यूजर्स को लग रहा है कि मार्च 2020 के बाद कच्चे माल की भारी कमी हो सकती है. इसलिए जो भी संपत्तियां दिख रही हैं, वे उसे हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.

दिसंबर 2019 में ओडिशा 18 माइंस की नीलामी कर रहा है, उनमें से 16 मौजूदा माइंस हैं. इन माइंस के पास लंबी अवधि से काम कर रहे कर्मचारी हैं और आसपास के समुदायों के साथ भी उनके रिश्ते हैं. वे यहां के पर्यावरण की संवेदनशीलता को समझते हैं. उन्हें माइंस की जियोलॉजिकल और स्ट्रक्चरल पहलू की जानकारी है. उनके पास खनन के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर भी है. हालांकि, इनकी नीलामी के कारण वे या तो इन संसाधनों का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे या उन्हें नए सिरे से इनका निर्माण करना होगा, बशर्ते इन माइंस को नए मालिक मिलें. इससे किसी माइंस के कामकाज को लेकर काफी उथल-पुथल मच सकती है, जिसे स्थापित करने में काफी मेहनत और पैसा लगा है. बोली से पहले हुई बैठकों में स्टील मिलों, पेलेट मिल मालिकों, स्पॉन्ज आयरन मिल मालिकों ने इन्हें खरीदने में दिलचस्पी दिखाई थी क्योंकि इनमें से कइयों को शॉर्ट और मीडियम टर्म में अयस्क की सप्लाई बाधित होने की आशंका है. इस मामले में देश के 300 MTPA स्टील प्रोडक्शन के लक्ष्य की ओर बढ़ने से भी परेशानी खड़ी हो सकती है. कैप्टिव एंड यूजर्स के लौह अयस्क की आपूर्ति सुनिश्चित करने में इतनी अधिक दिलचस्पी दिखाने की एक और वजह है. खनिज संपदा से भरपूर कई क्षेत्रों में संसाधनों की कमी की अवधारणा बनाई जा रही है. इस संदर्भ में ओडिशा और कर्नाटक के लौह अयस्क क्षेत्रों की मिसाल दी जा सकती है. कैप्टिव यूजर्स को लग रहा है कि मार्च 2020 के बाद कच्चे माल की भारी कमी हो सकती है. इसलिए जो भी संपत्तियां दिख रही हैं, वे उसे हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए वे सरकार के साथ अधिक आमदनी साझा करने का वादा कर रहे हैं. कुछ मामलों में तो उन्होंने सौ प्रतिशत से अधिक आमदनी राज्य सरकार को देने का वादा किया है. कच्चे माल को लेकर वे अपने मुनाफ़े की कुर्बानी देने के लिए भी तैयार हैं.

लौह अयस्क स्पेशलिस्ट जियोलॉजिस्ट का मानना है कि IBM ने जितने संसाधन की जानकारी दी है, उससे दोगुने की संभावना देश में है. इस संभावना का तुरंत इवैल्यूएशन होना चाहिए और उसे रिज़र्व यानी भंडार में जोड़ा जाना चाहिए.

लौह अयस्क, मैंगनीज और क्रोमाइट जैसी बल्क कमोडिटी की कमी की आशंका बनाई जा रही है, जबकि देश में इनका पर्याप्त भंडार है. इसकी एक वजह यह है कि नई खोज के ज़रिये रिज़र्व बेस को बढ़ाने की कोशिश नहीं हुई है. इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस के 2017-18 के ईयर बुक डेटा के मुताबिक, देश के पास उच्च कोटि के लौह अयस्क का भंडार 22 अरब टन है, जिससे 5.5 अरब टन का अयस्क निकाला जा सकता है और इससे 225 MTPA का प्रोडक्शन संभव है. इसी तरह, मैंगनीज पर IBM के डेटा से पता चलता है कि देश में इसका 65 करोड़ टन का भंडार है, जिसमें से 24 करोड़ का खनन किया जा सकता है और इसकी सालाना उत्पादन क्षमता 25 लाख टन है. IBM के डेटा के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने 2.5 अरब टन के संसाधन की जानकारी दी थी और कंपनी ने इसके अलावा किसी अन्य संसाधन की ऑडिटिंग नहीं की है. 1960 के दशक के बाद सिर्फ़ नई सिरे से मामूली एक्सप्लोरेशन हुआ है. लौह अयस्क स्पेशलिस्ट जियोलॉजिस्ट का मानना है कि IBM ने जितने संसाधन की जानकारी दी है, उससे दोगुने की संभावना देश में है. इस संभावना का तुरंत इवैल्यूएशन होना चाहिए और उसे रिज़र्व यानी भंडार में जोड़ा जाना चाहिए. प्राइवेट सेक्टर के मिल मालिकों का यह भी कहना है कि देश के आयरन ओर संसाधन का बड़ा हिस्सा (30 से 40 प्रतिशत) सेल, NMDC, OMC और अन्य सरकारी कंपनियों के पास दशकों से यूं ही पड़ा हुआ है. मैंगनीज का 80 प्रतिशत रिज़र्व मॉयल के पास पड़ा हुआ है. प्राइवेट सेक्टर के ये मिल मालिक सरकारी कंपनियों के बराबरी की प्रतिस्पर्धा का मौका मांग रहे हैं और कैप्टिव रिसोर्स के लिए अतिरिक्त रकम चुकाने को भी तैयार हैं.

संसाधनों की कृत्रिम कमी की सोच से मिल मालिकों की किसी भी कीमत पर बोली जीतने की होड़ से देश के खनिज क्षेत्र को लंबी अवधि में लाभ नहीं होने वाला. इसकी कीमत आखिरकार आम लोगों को चुकानी पड़ेगी क्योंकि इससे भारतीय मेटल प्रोडक्शन की लागत बढ़ेगी. खनन कंपनियां रेगुलेटरी प्रोसेस की कमियों का भी बेजा फायदा उठाने की कोशिश करेंगी, जिसका रोज़गार पर बुरा असर पड़ सकता है. इससे कर्मचारियों की स्वास्थ्य और सुरक्षा, पर्यावरण और कम्युनिटी मैनेजमेंट प्रोसेस भी प्रभावित होगा. देश का खनिज क्षेत्र अभी अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रहा है, लेकिन इन हालात में उसके लिए खनन के टिकाऊ मानकों पर अमल भी मुश्किल हो सकता है.

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