Author : Sushant Sareen

Published on Sep 25, 2019 Updated 0 Hours ago

स्पष्ट है कि दहशतगर्दी ही वह नीति बच गई है, जिस पर पाकिस्तान अभी भरोसा कर सकता है.

सिमटते विकल्प में आतंक का सहारा

पाकिस्तान ने बालाकोट में आतंकी शिविर को फिर से सक्रिय कर दिया है. भारतीय थल सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत के इस बयान के संकेत साफ हैं. वह पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम इमरान खान को बेपरदा कर रहे हैं, जिन्होंने चंद दिनों पहले कहा था कि पाकिस्तानी फिलहाल जेहाद के लिए कश्मीर न जाएं, क्योंकि इससे कश्मीरियों को नुकसान होगा, और उनकी मुहिम कमजोर होगी. इमरान खान ने अपने तईं यही दिखाने की कोशिश की थी कि घाटी में जो कुछ हो रहा है, वह स्वत:स्फूर्त है और उसमें किसी बाहरी ताकत (पाकिस्तान) का हस्तक्षेप नहीं है. साफ है, वह 1990 और 2000 के दशकों का वही झूठ दोहरा रहे थे, जिसकी कलई पूरी दुनिया के सामने पहले ही खुल चुकी है. फिर भी, एक अमेरिकी अधिकारी ने उनके इस बयान की सराहना की और यह उम्मीद जताई कि पाकिस्तान वाकई में ऐसा करेगा. मगर अब साफ हो गया है कि पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम झूठ बोल रहे हैं और आतंक की अपनी फैक्टरियों की अब भी परदेदारी कर रहे हैं.

जनरल रावत के बयान को संजीदगी से लेने की जरूरत है. दरअसल, कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के विकल्प लगातार सिमट रहे हैं. हमारे घरेलू मामलों में दखल देने का उसे कोई हक तो नहीं, लेकिन यदि वह ऐसा कर भी रहा है, तो उसके तरकश में गिनती के तीर हैं. वह कश्मीरियों के मानवाधिकार हनन का आरोप भारत पर लगाता है. मगर उसके इस आरोप की सच्चाई घाटी से आती तस्वीरें जाहिर कर रही हैं. पाकिस्तान के मुंह से मानवाधिकार की बातें सुनना ठीक वैसा ही है, जैसे इस्लामिक स्टेट (आईएस) द्वारा धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देना. उसका यह आरोप कानूनी तौर पर भी नहीं टिकता, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव यहां लागू नहीं हो सकते. यह प्रस्ताव तभी लागू होता, जब पाकिस्तान अपने हिस्से का वादा निभाता. उल्टे उसने कश्मीर का एक हिस्सा चीन को सौंप दिया है.

स्थिति यह है कि भारतीय संसद द्वारा कश्मीर की सांविधानिक स्थिति बदलने के बाद इस्लामी देशों ने भी पाकिस्तान का साथ नहीं दिया. बीजिंग का समर्थन जरूर उसे हासिल है, लेकिन वह भी एक सीमा तक ही भारत की मुखालफत कर सकता है.

कूटनीतिक तौर पर भी पाकिस्तान को सफलता मिलती नहीं दिख रही. स्थिति यह है कि भारतीय संसद द्वारा कश्मीर की सांविधानिक स्थिति बदलने के बाद इस्लामी देशों ने भी पाकिस्तान का साथ नहीं दिया. बीजिंग का समर्थन जरूर उसे हासिल है, लेकिन वह भी एक सीमा तक ही भारत की मुखालफत कर सकता है. हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों कश्मीर मामले में मध्यस्थता करने की अपनी मंशा जताकर इमरान खान के लिए उम्मीदें बंधा दी थी, लेकिन अब वह भी खुलकर यह कहने लगे हैं कि जब तक दोनों देश राजी नहीं होंगे, वह ऐसी कोई पहल नहीं कर सकते. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका में मिली तवज्जो से भी इमरान खान के लिए राष्ट्रपति ट्रंप अब भरोसेमंद साथी नहीं रहे.

पाकिस्तान के पास तीसरा विकल्प फौजी कार्रवाई का है. इसके तहत वह सीमित जंग भी लड़ सकता है और पूर्ण युद्ध भी. सीमित जंग वह कारगिल में लड़ चुका है, जिसमें उसे तमाम तरह के नुकसान उठाने पड़े थे. रही बात पूर्ण युद्ध की, तो इस तरह की जंग आर्थिक संसाधनों के बिना लड़ी नहीं जा सकती, और पाकिस्तान का खजाना फिलहाल पूरी तरह से खाली है. यही वजह है कि इमरान खान जंग होने का शोर तो मचा रहे हैं, लेकिन दुनिया जानती है कि तनाव इस स्तर तक नहीं बढ़ेगा, क्योंकि पाकिस्तान अभी इस हैसियत में नहीं है.

स्पष्ट है कि दहशतगर्दी ही वह नीति बच गई है, जिस पर पाकिस्तान अभी भरोसा कर सकता है. लेकिन इसके भी कई पहलू हैं. दरअसल, पाकिस्तान पर फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की तलवार लटक रही है. ऐसे में, यदि इमरान खान फिर से आतंकवाद को अपनी विदेश नीति के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, तो यह संस्था उन्हें काली सूची में डाल सकता है. इससे उसकी माली हालत और खास्ता हो जाएगी. फिर, भारत को भी जवाबी कार्रवाई करने का अधिकार मिल जाएगा. जनरल रावत इस ओर इशारा कर भी चुके हैं कि दहशतगर्दों के माध्यम से यदि पाकिस्तान हम पर परोक्ष युद्ध थोपता है, तो उस पर सर्जिकल या एयर स्ट्राइक ही नहीं, ऐसी कुछ नई कार्रवाई भी की जा सकती है, जिसके बारे में उसने सोचा तक न होगा.

यदि इमरान खान सिर्फ जुबानी समर्थन करते हैं — जैसा कि उन्होंने कहा कि वह कश्मीरियों के राजदूत बनकर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिस्सा लेंगे — तो अलगाववादियों का हित सधेगा नहीं.

फिर भी, यदि पाकिस्तान इस दिशा में आगे बढ़ना चाहता है और कश्मीर में अलगाववादियों से मिलने वाले समर्थन पर भरोसा करता है, तब भी उसे कई मुश्किलों से गुजरना पड़ेगा. कश्मीर में जो अलगाववादी ताकतें हैं, उन्हें भारतीय हुकूमत से लड़ने के लिए न सिर्फ पैसे व हथियारों की जरूरत है, बल्कि जेहादियों की भी दरकार है. ऐसे में, यदि इमरान खान सिर्फ जुबानी समर्थन करते हैं — जैसा कि उन्होंने कहा कि वह कश्मीरियों के राजदूत बनकर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिस्सा लेंगे — तो अलगाववादियों का हित सधेगा नहीं. और अगर वह जुबानी समर्थन भी नहीं देते, और न अलगाववादियों की हथियार व पैसों की जरूरतें पूरी करते हैं, तो कश्मीर खुद-ब-खुद दहशतगर्दी के दौर से बाहर निकल आएगा. इस मामले में उनका तीसरा रुख यह हो सकता है कि वह अलगाववादियों को कूटनीतिक समर्थन भी दें और उनकी जरूरतें भी पूरी करें. लेकिन ऐसा करने पर भी पाकिस्तान को फायदा मिलता नहीं दिख रहा, क्योंकि पिछले एक-डेढ़ दशकों से वह यही कर रहा है. अब तो उसकी लड़ाई ‘मोदी फैक्टर’ से भी है, जिसमें किसी जवाबी कार्रवाई के लिए पश्चिमी देशों की सहमति का इंतजार नहीं किया जाता, बल्कि ‘आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहिष्णुता’ की शैली में जवाब दिया जाता है. यह पाकिस्तान के लिए कहीं अधिक घातक स्थिति होगी.

सच यही है कि पाकिस्तान अब बुरी तरह घिर चुका है. वह अपने एकमात्र विकल्प ‘दहशतगर्दी को शह’ देने पर ही आगे बढ़ सकता है, लेकिन यह कदम भी उसके मुफीद नहीं दिख रहा. अब उसे समझ जाना चाहिए कि कश्मीर में हालात इस ओर बढ़ चले हैं, जहां उसके लिए करने को कुछ नहीं है. बेहतर होगा कि इमरान खान अपने घरेलू मसलों को सुलझाने में अपनी ऊर्जा खर्च करें.


ये लेख मूल रूप से LIVE हिंदुस्तान में छपी थी.

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