हाल के दिनों में भारत के टेलीकॉम सेक्टर से वैसी ही बुरी ख़बरें आईं, जिनकी उम्मीद की जा रही थी. एक बड़ी संचार कंपनी को छोड़ दें तो संचार क्षेत्र के ज़्यादातर खिलाड़ियों के सामने तबाही का ब्लैक होल खड़ा दिखाई दे रहा है, जो उन्हें अपने अंदर समा लेगा. और जैसा कि इन कंपनियों ने ख़ुद ही कहा कि, ‘बर्बादी उनके सामने दिख रही है.’ वोडाफ़ोन-आइडिया और भारती एयरटेल ने इस वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में ज़बरदस्त घाटा उठाया है. इस दौरान, वोडाफ़ोन-आइडिया को 50 हज़ार 921.9 करोड़ रुपए का नुक़सान हुआ है. वहीं, भारती एयरटेल को 23 हज़ार 45 करोड़ रुपए का घाटा दूसरी तिमाही में हुआ है. इन दोनों कंपनियों का कारोबारी रिकॉर्ड ऐसा रहा है कि उन्हें भले ही कामयाब भारतीय कंपनियों की फ़ेहरिस्त (सूची) में जगह न मिली हो. लेकिन, उन्हें घाटे का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाने वाली कंपनियों में जगह ज़रूर मिल गई है. आज इन कंपनियों पर इस बात का भरोसा नहीं किया जा सकता है कि वो फ़ीस के एवज़ में जो सुविधाएं देने का वादा कर रही हैं, वो सेवाएं देंगी भी.
दोनों ही कंपनियों ने अपनी मौजूदा बुरी स्थिति के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले को ज़िम्मेदार ठहराया है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इन कंपनियों को आदेश दिया था कि वो एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू के तहत, सरकार को रक़म का भुगतान करें, जिसे देने में वो लंबे समय से हीला-हवाली कर रही हैं. सर्वोच्च अदालत ने टेलीकॉम नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई (TRAI) के उस तर्क को सही माना कि एजीआर (AGR) के तहत इन कंपनियों को कोर और नॉन-कोर बिज़नेस के हिसाब से ही सरकार को भुगतान करना होगा. इसी के आधार पर सरकार इन कंपनियों को दिए गए स्पेक्ट्रम की लाइसेंस फीस और स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल के चार्ज का हिसाब-किताब लगाएगी. ये संचार कंपनियां, ट्राई के इस नियम को चुनौती देते हुए 2005 में अदालत गई थीं. अब इतने साल लंबी क़ानूनी लड़ाई का पटाक्षेप हुआ है और सुप्रीम कोर्ट ने टेलीकॉम कंपनियों से कहा है कि वो ट्राई के आकलन के हिसाब से सरकार को बकाया रक़म का भुगतान करें. इन कंपनियों को बकाया रक़म पर ब्याज के साथ-साथ हर्ज़ाना भी देना होगा. सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार, वोडाफ़ोन-आइडिया को 25 हज़ार 680 करोड़ रुपए सरकार को देने होंगे. तो, भारती एयरटेल को 28 हज़ार 450 करोड़ रुपए का भुगतान करना होगा. ये रक़म और भी बढ़ सकती है, अगर ट्राई ने भुगतान की रक़म का हिसाब करने के इन कंपनियों के तरीक़े को चुनौती दी. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से प्रभावित एक और कंपनी आरकॉम (RCom) पहले ही क़र्ज़ के बोझ से बर्बाद हो चुकी है और अब वो संचार क्षेत्र की खिलाड़ियों में शुमार भी नहीं की जाती है.
ये माहौल बनाया जा रहा है कि अगर टेलीकॉम कंपनियां बर्बाद हुईं, तो भारत में निवेश और निवेशकों के ऊपर भी बुरा असर पड़ना तय है
मीडिया ने इन दो बड़ी टेलीकॉम कंपनियों की मौजूदा वित्तीय स्थिति को, ‘घायल और ख़ून से लथपथ होने’ की संज्ञा दी है. लेकिन, इन्हीं कंपनियों में से एक के अधिकारी का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस रक़म का भुगतान करने का फ़ैसला सुनाया है, वो उनके घाटे का नाममात्र का हिस्सा है और उनके कारोबारी घाटे का हिस्सा है भी नहीं. फिर भी, इस हक़ीक़त ने वोडाफ़ोन-आइडिया और भारती एयरटेल को अपने भविष्य की भयावाह तस्वीर पेश करने और भारत में टेलीकॉम उद्योग के भविष्य पर सवाल उठाने का मौक़ा दे दिया है. ये कंपनियां जो अपने ऊपर आने वाली तबाही और क़र्ज़ व सरकार को बकाया रक़म चुकाने में नाकामी का अंदेशा जता रही हैं, उसे बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है. साथ ही ये माहौल बनाया जा रहा है कि अगर टेलीकॉम कंपनियां बर्बाद हुईं, तो भारत में निवेश और निवेशकों के ऊपर भी बुरा असर पड़ना तय है.
फिलहाल ये कंपनियां लड़खड़ाते हुए किसी तरह ख़ुद को संभालने की स्थिति होने की बात कह रही हैं. और वो चाहती हैं कि सरकार उनके ऊपर बकाया रक़म को या तो पूरी तरह माफ़ कर दे, या फिलहाल अदा करने से रियायत दे या फिर उन्हें आर्थिक मदद दे. इन कंपनियों का इरादा है कि सरकार उन्हें बचाने के लिए इन तीनों ही विकल्पों को आज़माए. इन कंपनियों का आकलन है कि इन के पापों का भुगतान ग्राहक, यानी इस देश की जनता करे. भले ही देश का हर नागरिक इन की सेवाएं लेता हो या न लेता हो. आज इन कंपनियों ने ऐसा माहौल बना दिया है, मानो उन्होंने सरकार की कनपटी पर बंदूक तान दी है. इन कंपनियों के हिसाब से अगर सरकार टेलीकॉम के बाज़ार में इन दोनों कंपनियों के दबदबे को बनाए रखने में मदद नहीं करती, तो इससे जो हालात पैदा होंगे, वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया के ख़्वाब को चकनाचूर कर देंगे.
इस हक़ीक़त से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि वोडाफ़ोन आइडिया और भारतीय एयरटेल को इस हालात तक लाने के लिए उनके प्रबंधकों की जवाबदेही भी बनती है
भले ही ये संचार कंपनियां सरकार से मदद की गुहार लगा रही हैं. लेकिन, वो अपने गुनाहों का पछतावा तो दूर, पहले किए हुए अपने पापों को मानने तक से इनकार कर रही हैं. वो ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि आज वो जिन हालात में हैं, उसके लिए उनकी अपनी ग़लतियां और नाकामियां ही ज़िम्मेदार हैं. वो अपने घाटे के लिए अपने ग़लत कारोबारी नीतियों और दूरंदेशी की कमी को उत्तरदायी मानती ही नहीं. बस, ये कंपनियां लगातार इस बात का दबाव बना रही हैं कि सरकार किसी तरह उन्हें बचा ले. भले ही ये कंपनियां कितना भी शोर मचाएं. लेकिन, इस हक़ीक़त से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि वोडाफ़ोन आइडिया और भारतीय एयरटेल को इस हालात तक लाने के लिए उनके प्रबंधकों की जवाबदेही भी बनती है. क्योंकि ये दोनों ही कंपनियां कारोबारी संगठनों के तौर भी ऐसी जवाबदेही से नहीं बच सकतीं और यहां ये भी याद रखने की ज़रूरत है कि एक दौर में यही कंपनियां उदार टेलीकॉम नीतियों का जमकर फ़ायदा उठा रही थीं. इसके पांच अहम तथ्य हैं, जिनसे इनकार नहीं किया जा सकता है.
-पहली बात, ये कंपनियां संचयात्मक एजीआर देने में नाकाम रहीं, जबकि 2015 से ही ये स्पष्ट था कि उन्हें ये रक़म देनी होगी. जब TDSAT यानी टेलीकॉम विवाद पंचाट ने शुरुआत में ट्राई की परिभाषा को तो इनकार किया था. लेकिन, बाद में वो एजीआर की रक़म तय करने के ट्राई के फ़ॉर्मूले पर राज़ी हो गई थी. आज ये दावा करना धूर्तता के सिवा कुछ नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद इन कंपनियों पर देनदारी का जो बोझ पड़ा है, वो अचानक उठ खड़ा हुआ है. इन कंपनियों को सरकार को कितना राजस्व देना होगा, इसका आदेश डिपार्टमेंट ऑफ़ टेलीकॉम (DoT) ने 2003 में दिया था. यानी इन कंपनियों को पिछले 16 बरस से ये मालूम था कि उन्हें ये रक़म सरकार को चुकानी ही होगी.
-दूसरी बात, ये कंपनियां दूरदर्शिता दिखाने में पूरी तरह आलस से घिरी रहीं. उन्होंने ये आकलन ही नहीं लगाया कि टेलीकॉम उद्योग का भविष्य वॉयस कॉल में नहीं बल्कि डेटा में है. इन कंपनियों ने 2G से 3G और फिर 4G की सेवाएं देने में ज़बरदस्त हीलाहवाली और देरी की. अपनी सेवाएं बेहतर बनाने का काम लटकाया. इन कंपनियों ने ग्राहकों को अच्छी सेवाएं देने की कोई कोशिश नहीं की. वहीं, दूसरी तरफ़ ये कंपनियां अपने ग्राहकों से मोटी रक़म वसूलती रहीं और इसके बदले में अच्छी सेवाओं की उनकी उम्मीदें तोड़ती रहीं.
-तीसरी बात, इन कंपनियों ने अपनी तकनीक और हार्डवेयर को बेहतर बनाने में कोई दूरंदेशी भरा निवेश नहीं किया. उन्होंने बाज़ार में अपनी पूरी हिस्सेदारी का बोझ पुराने यंत्रों और तकनीक पर ही लादे रखा. जबकि पूरा का पूरा बाज़ार इन के ही क़ब्ज़े में था. ये कंपनियां नई तकनीक लाने को तब मजबूर हुईं, जब बाज़ार में रिलायंस जियो की एंट्री हुई. जब जियों ने अपनी आक्रामक और मौलिक मार्केटिंग से इन कंपनियों को झटके देने शुरू किए.
-चौथी बात, इन टेलीकॉम कंपनियों ने इनोवेशन यानी अभिनव प्रयोग को भुला ही दिया था. फिर चाहे वो इनकी सेवाएं हों, तकनीक हो या फिर इनकी मार्केटिंग ही क्यों न हो. जबकि इसकी ज़रूरत साफ़ तौर पर दिखाई देती थी. पूरी दुनिया में टेलीकॉम कंपनियाएं नए उत्पाद, नई सेवाएं और नई मार्केटिंग को आज़मा रही थीं. यहां तक कि वोडाफ़ोन ने विश्व के अन्य बाज़ारों में यही तरीक़ा आज़माया.
-पांचवीं बात, इनमें से एक कंपनी ने भारतीय बाज़ार में ग्राहकों को बेहतर सुविधाएं देने के बजाय, दूसरे देशों में अपने कारोबार के विस्तार को प्राथमिकता दी. अगर ये कंपनियां अपने कोर बिज़नेस पर ध्यान देतीं, तो आज जो एजीआर की रक़म इन्हें बहुत भारी लग रही है, ये बहुत कम होती.
एक और अहम तथ्य जो इस फ़ेहरिस्त में जोड़ा जा सकता है, वो ये है कि, इन कंपनियों के संगठन सेलुलर ऑपरेटर एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया (COAI) की सदस्यता. इन कंपनियों को चाहिए था कि वो COAI के सदस्यों की संख्या बढ़ाएं. लेकिन, हुआ इस के उलट. इन कंपनियों ने इसे कुछ गिनी चुनी कंपनियों का क्लब बना दिया. नतीजा ये हुआ कि इन्होंने भारत के टेलीकॉम बाज़ार में रिलायंस जियो के प्रवेश को अगर असंभव नहीं, तो मुश्किल ज़रूर बनाया. इन कंपनियों का मानना था कि भारत का टेलीकॉम बाज़ार बस इन्हीं की बपौती है. वो ही इसका मुनाफ़ा उठाने के हक़दार हैं, और कोई नहीं. अपने इस मक़सद को हासिल करने के लिए COAI ने सदस्यों को वोटिंग के अधिकार उनके राजस्व के हिसाब से बांटे. किसी भी औद्योगिक संगठन के लिए ये अजीब बात थी, कि उस के कुछ सदस्यों को विशेषाधिकार दिए जाएं. एक स्थिर टेलीकॉम नीति और नियमों पर आधारित नियामक संगठन की मांग उठाने के बजाय COAI ने हमेशा ही कुछ ख़ास कंपनियों के टेलीकॉम उद्योग के हितों के संरक्षण के लिए काम किया. इन कंपनियों का दबदबा वॉयस मार्केट में था. इसके अलावा COAI ने 3G नेटवर्क के रोमिंग चार्ज के संरक्षण के बहुतेरे प्रयास किए. इस के लिए COAI ने हमेशा ही ट्राई के नेट न्यूट्रैलिटी के प्रयासों का विरोध किया. लेकिन, इन कंपनियों को रिलायंस जियो के मुक़ाबले की शक्ति का अंदाज़ा नहीं था. न ही इन्हें रिलायंस जियो के बिल्कुल मौलिक और चतुर मार्केटिंग नीति का ही अंदाज़ा था.
आज जो संचार कंपनियां दुखड़ा रो रही हैं, वो लंबे समय तक अपने इस यक़ीन को लेकर आंख मूंदे रहीं कि संचार उद्योग में कभी ऐसा वक़्त आएगा ही नहीं जब डेटा, वॉयस कॉलिंग से ज़्यादा अहम होगा. ऐसा कर के वो हक़ीक़त से ही इनकार करती रहीं. रिलायंस जियो ने जब बाज़ार में एंट्री की, तो इस भरोसे के साथ कि डेटा ही संचार उद्योग का भविष्य है. वॉयस कॉलिंग का दौर बीत चुका है. ऐसा लगता है कि बाक़ी की दूरसंचार कंपनियां इस बात का अंदाज़ा ही नहीं लगा सकीं कि माइक्रोचिप के आकार के सिम कार्ड से चलने वाले स्मार्टफ़ोन में संचार उद्योग को बदल डालने की कितनी ज़बरदस्त क्षमता है. लेकिन, रिलायंस जियो ने स्मार्टफ़ोन में छुपी इसी संभावना को तलाशने की दिशा में पहला क़दम बढ़ाया और डेटा आधारित सेवाओं पर ही अपना ज़ोर बनाए रखा. कुल मिलाकर, पुराने टेलीकॉम खिलाड़ियों को रिलायंस जियो ने अपने नए आइडिया से पटखनी दे दी. इस नए खिलाड़ी ने ग्राहकों की अपेक्षाओं को समझा और उन्हें पूरा करने की कोशिश की, जबकि पुरानी कंपनियां अहंकार में आंखें मूंदे बैठी रहीं.
भारत में दूरसंचार के क्षेत्र में उदारीकरण के बाद उतरे शुरुआती कारोबारियों में से एक, राजीव चंद्रशेखर कहते हैं कि, ‘तकनीक आधारित उद्योग में कारोबार करने की सब से बड़ी चुनौती और ख़तरा यही है कि आप की ताक़त को हमेशा ही नई तकनीक, नए खिलाड़ी से चुनौती मिलने की संभावना बनी रहती है. किसी भी तकनीक आधारित उद्योग में अगर मौजूदा कामयाब कंपनियों को अपनी बादशाहत बनाए रखनी है, तो उन्हें हमेशा नई तकनीक और नई सेवाओं में निवेश करते रहना होगा. वरना कोई भी सरकारी नीति या कारोबारी मॉडल आप को तेज़ी से बदलती तकनीक के वार से नहीं बचा सकेगा. अगर आप नई तकनीक और नए प्रयोग करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो तय है कि नया खिलाड़ी आप को मात दे देगा. अगर आज रिलायंस जियो जिन नई सेवाओं और तकनीक के साथ बाज़ार में उतरा है, उन्हीं पर हमेशा निर्भर रहा, तो कल को कोई और नया खिलाड़ी नई तकनीक और नई सुविधाओं से उसे मात दे देगा.’
1970 और 1980 के दशक में, भारतीय उद्योगपति आर्थिक सुधारों की कमी का रोना रोते थे. वो आक्रामक तरीक़े से ये तर्क दिया करते थे कि देश में तेज़ी से आर्थिक उदारीकरण की ज़रूरत है. वैश्विक स्तर पर भूमंडलीकरण के बाद से शुरुआत में व्यापार वार्ताओं से इसकी हल्की-फुल्की शुरुआत भी हुई. लेकिन, जब 1990 के दशक में आख़िरकार सरकार को देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए उदारीकरण की दिशा में क़दम आगे बढ़ाने ही पड़े, तो यही उद्योगपति अचंभे में आ गए कि उन्हें अब ऐसे बाज़ार में कारोबार करने के लिए कहा जा रहा है, जहां मुक़ाबले से हिफ़ाज़त की कोई गारंटी नहीं है. केवल बेहतर उत्पाद की बदौलत ही वो इस उदारीकरण के दौर में ख़ुद को बचा पाएंगे. जिस उदारीकरण के लिए हमारे देश के उद्योगपति लालायित थे, वो अचानक ही उनकी नज़र में विलेन हो गया, उन्हें उसी कोटा-परमिट राज की याद आने लगी, जिसे कभी वो जी भर के कोसा करते थे. उद्योगपतियों के इस ‘बॉम्बे क्लब’ ने सरकार ने खुले बाज़ार में बाक़ी कंपनियों से मुक़ाबले के लिए सहयोग मांगना शुरू कर दिया. कुल मिलाकर अब वो ये चाह रहे थे कि उनकी अपनी अक्षमताओं का बोझ सरकार उठाए और विदेशी कंपनियों से मुक़ाबले में उनके हितों की रक्षा करे.
हम संचार क्षेत्र में एक बार फिर वही हालात बनते देख रहे हैं. आज ‘जख़्मी, थकी और ख़ून से लथपथ’ टेलीकॉम कंपनियां, एक वक़्त में वो अपने ही अहंकार के आसमान पर विराजमान थीं. जब उन से मुक़ाबले में थक कर कई टेलीकॉम कंपनियां तबाह हो रही थीं, इतिहास बन रही थीं, तब यही टेलीकॉम कंपनियां उन्हें हेय दृष्टि से देखा करती थीं, उनका परिहास करती थीं. जो लोग मोबाइल फ़ोन के दौर में पैदा हुए हैं और जिनके हाथों में वायरलेस हैंडसेट के बजाय आज स्मार्टफ़ोन हैं, उन्हें शायद याद नहीं होगा कि एक दौर में एक यंत्र होता था, जिसे पेजर कहते थे. एक वक़्त ऐसा भी था, जब टेलीकॉम बाज़ार में पेजर का जलवा हुआ करता था. पेजिंग की सेवाएं देने वाली कंपनियों को अपने अजेय होने पर पूरा विश्वास था. उन्हें ये अंदाज़ा ही नहीं था कि तकनीक कभी उनकी बीप के बाद मैसेज पहुंचाने वाली सेवा से आगे भी बढ़ेगी.
लेकिन, आज न किसी को पेजर की याद है और न ही उनकी सेवा देने वाली कंपनियों की. आज लोगों को तो ये भी याद नहीं होगा कि जो टेलीकॉम कंपनियां घाटे का रोना रो रही हैं, वो कभी इनकमिंग कॉल्स की सेवाएं देने के लिए भी पैसे वसूला करती थीं. ये तो भला हो आरकॉम (RCom) का, जिस ने बाज़ार में दाख़िला ही मुफ़्त इनकमिंग कॉल्स की सेवाएं देने के साथ लिया था. इससे मज़े से मुनाफ़ा कमाती टेलीकॉम कंपनियों की रातों की नींद उड़ गई थी. इसी तरह, एक दौर में वोडाफ़ोन ने मोबाइल सेक्टर में मुफ़्त टेक्स्ट मैसेज की सेवा शुरू कर के हड़कंप मचाया था. फिर भी, जिन लोगों ने बदलाव के नए प्रयोग से अपने प्रतिद्वंदियों को मात दी थी, वो आज रिलायंस जियो की उस मांग को मानने के लिए राज़ी नहीं हैं कि मोबाइल फ़ोन पर कॉल के इंटरकनेक्ट यूसेज चार्ज को ख़त्म किया जाना चाहिए और इसका फ़ायदा ग्राहकों को दिया जाना चाहिए.
अगर सरकार इन दो टेलीकॉम कंपनियों को फिलहाल एजीआर अदा करने से रियायत दे भी देती है. या फिर इनके रक़म अदा करने की अवधि ही बढ़ा देती है, या फिर इस राजस्व को माफ़ ही कर देती है, तो भी हालात में बहुत ज़्यादा बदलाव होने की उम्मीद नहीं है
तकनीकी और टेलीकॉम सेक्टर में निश्चितता जैसा कोई शब्द नहीं है. अगर सरकार इन दो टेलीकॉम कंपनियों को फिलहाल एजीआर अदा करने से रियायत दे भी देती है. या फिर इनके रक़म अदा करने की अवधि ही बढ़ा देती है, या फिर इस राजस्व को माफ़ ही कर देती है, तो भी हालात में बहुत ज़्यादा बदलाव होने की उम्मीद नहीं है. क्योंकि ये कंपनियां फिलहाल अपने कारोबार के बेहतर प्रबंधन और नए प्रयोग करने को राज़ी नहीं हैं. राजीव चंद्रशेखर के शब्दों में कहें, तो, ‘वायरलेस तकनीक के क्षेत्र में आज, कोई स्थायी विजेता नहीं है, कोई स्थायी तौर पर पराजित खिलाड़ी नहीं है…तकनीक के सेक्टर में हमेशा ही एक नए खिलाड़ी की आमद का अंदेशा बना रहेगा, जो नई तकनीक के साथ बाज़ार में उथल-पुथल मचा सकता है. सस्ती दरों र नई सेवाएं दे सकता है. ये ऐसे ऑफ़र होंगे, जिन से मौजूदा महारथियों को तगड़ी चुनौती मिलेगी. ऐसी चुनौती से पार पाना इन महारथियों के लिए तब तक मुश्किल होगा, जब तक वो अभिनव प्रयोग, सेवाओं, तकनीक और काम काज के अपने तौर तरीक़े को नहीं बदलेंगे.’
तकनीक नाम के ख़तरनाक जानवर की यही प्रकृति है. ये सिर्फ़ उन्हीं की ख़िदमत करता है, जो नित नए प्रयोग के लिए राज़ी होते हैं. जो किसी एक तकनीक को ही अंतिम सत्य मान कर नहीं बैठते. वोडाफ़ोन आइडिया और भारती एयरटेल ने ख़ुद को इस बात का यक़ीन दिलाया है कि न तो उनके आगे कोई दुनिया है, न ही उनकी सेवाओं से बेहतर कोई तकनीक है. लेकिन, रिलायंस जियो ने व्यवहारिक तरीक़ा अपनाया और इस बेयक़ीनी के तथ्य पर भरोसा करने के बजाय अपने सोच में नयापन दिखाया.
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