लगभग एक दशक पहले वर्ष 2005 में किए गए वैश्विक मिलेनियम पारिस्थितिकीय आकलन ने मानव कल्याण की दृष्टि से ‘प्राकृतिक पूंजी’ और पारिस्थितिकीय संबंधी सेवाओं की विशेष अहमियत की ओर पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया। ‘प्राकृतिक पूंजी’ में दरअसल प्रकृति के वे तत्व शामिल हैं जो मानव जाति यानी हम सभी को मूल्यवान वस्तुएं और सेवाएं जैसे कि जंगल, भोजन, स्वच्छ हवा, पानी, भूमि, खनिज इत्यादि अपार मात्रा में मुहैया कराते हैं। यही कारण है कि मूल्य ही प्राकृतिक पूंजी की अवधारणा का असली आधार है। अत: प्राकृतिक पूंजी और उसके द्वारा मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं में होने वाले परिवर्तनों के सटीक मूल्य का आकलन करना प्राकृतिक परिवेश को बनाए रखने, बहाल करने और प्रबंधित करने की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है। हालांकि, लोगों द्वारा प्रकृति से प्राप्त की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं (या लाभों) में अक्सर बाजार या सुस्पष्ट मूल्य (‘सार्वजनिक वस्तु’ होने के कारण) का उल्लेख नहीं होता है जिसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक पूंजी से होने वाले फायदों के कुल मूल्य को विकास नियोजन और आर्थिक विकास में निरंतर नजरअंदाज या अनदेखा किया जा रहा है (समिति, 2017)।
वर्तमान में विश्व के ज्यादातर हिस्सों में उपयोग की जाने वाली राष्ट्रीय लेखा प्रणाली दरअसल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में प्राकृतिक संसाधनों के योगदान का उल्लेख न किए जाने के चलते अक्सर अपूर्ण या अधूरी ही रहती है। यहां तक कि आय सृजित करने की वजह से घटते प्राकृतिक संसाधनों की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है उसे भी राष्ट्रीय लेखा में दर्शाया नहीं जाता है।
राष्ट्रीय लेखा प्रणाली (एसएनए) का अनुसरण करने वाले पारंपरिक जीडीपी अनुमानों में बाह्य या अप्रत्यक्ष प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा जाता है। इसके तहत केवल उस आय पर आधारित आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाता है जो दीर्घावधि में अस्थिर या गैर-टिकाऊ हो सकती है। इसमें उस धन और परिसंपत्तियों (प्राकृतिक पूंजी सहित) के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया जाता है जो इस आय को सुस्पष्ट कर सकती हैं। बाह्य प्रभावों में वे ज्यादातर भौतिक और अनचाहे परिवर्तन शामिल हैं जो बढ़ती आर्थिक गतिविधियों के चलते प्राकृतिक, मानव और सामाजिक पूंजी में देखने को मिलते हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) एक वृहद आर्थिक संकेतक है, जो किसी निश्चित अवधि के दौरान किसी देश के भीतर सभी तैयार वस्तुओं और सेवाओं के कुल बाजार मूल्य को दर्शाता है।
वैसे तो जीडीपी से संबंधित अर्थव्यवस्था के आकार के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन इसमें उस मानव और प्राकृतिक पूंजी में हुई उल्लेखनीय बढ़त/नुकसान को नहीं दर्शाया जा सकता है जो किसी भी देश की वास्तविक संपत्ति को निर्धारित करती हैं। दरअसल, उपभोग किए जा चुके प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण में हुए क्षरण के कुल मूल्य को जीडीपी अनुमानों में समायोजित नहीं किया जाता है। अत: पारंपरिक राष्ट्रीय लेखा प्रणाली का विस्तार कर प्राकृतिक पूंजी में होने वाली बढ़त एवं नुकसान को भी विकास नियोजन में समायोजित करने की जरूरत है। दूसरे शब्दों में, जीडीपी के ऐसे आंकड़े (तथाकथित ‘ग्रीन या हरित जीडीपी’) पेश करने की आवश्यकता है जिनमें पर्यावरणीय सेवाओं और आर्थिक विकास के परिणामों को भी समायोजित किया गया हो।
वैसे तो ‘ग्रीन जीडीपी’ को कुछ इस तरह से निर्धारित किया जाता है कि उसमें प्रकृति से प्राप्त पारिस्थितिकीय या पर्यावरणीय सेवाओं के मूल्य का भी अंदाजा लगाया जा सके और इसके साथ ही किसी देश के आर्थिक विकास के कारण हुई पर्यावरणीय क्षति की मौद्रिक लागत को भी मापा जा सके, लेकिन ग्रीन एकाउंटिंग (या प्राकृतिक संसाधनों का लेखांकन) प्राकृतिक पूंजी और बाह्य प्रभावों की कुल मात्रा अथवा शुद्ध परिसंपत्ति मूल्यों का अनुमान लगाकर उनकी कुल कीमत को दर्ज करने की एक पद्धति है, ताकि वे संबंधित देश के लिए मूल्य लेखांकन की सामान्य रूपरेखा के भीतर ही निहित हों। ग्रीन एकाउंटिंग, इसके अलावा, आय स्थिरता (कमजोर स्थिरता) की ओर अग्रसर कर सकती है और फिर यह अंतत: पारिस्थितिकीय (या मजबूत) स्थिरता की ओर अग्रसर कर सकती है।
अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से ही ग्रीन एकाउंटिंग के लिए स्थिरता से जुड़ा तर्क पेश किया जाता रहा है। अभी हाल ही में जीडीपी, पॉट्सडैम 2007, ‘जी8+5’ पहल, पारिस्थितिक तंत्र एवं जैव विविधता का अर्थशास्त्र (टीईईबी), संपत्ति लेखांकन एवं पारिस्थितिकीय सेवाओं का मूल्यांकन (वेव्स) और समावेशी हरित अर्थव्यवस्था पहल के साथ स्टिग्लिट्ज/सेन/फिटौसी रिपोर्ट से परे जाकर मानव कल्याण में होने वाले बदलावों का बेहतर माप सुनिश्चित करने पर विशेष जोर दिया गया है। प्राकृतिक पूंजी का आकलन एवं मूल्यांकन और समय के साथ प्रति व्यक्ति समावेशी/व्यापक संपत्ति में परिवर्तन भी ज्यादातर सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की प्राप्ति की दिशा में हो रही प्रगति पर करीबी नजर रखने में मददगार हैं।
भारत में न केवल प्राकृतिक पूंजी को जीडीपी में मामूली अहमियत दी जाती है, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों को पर्याप्त रूप से आर्थिक परिसंपत्तियों के तौर पर नहीं माना जाता है और इसके साथ ही आर्थिक विकास दर का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधनों में कमी और उनके क्षरण की पर्यावरणीय लागत को उसमें समायोजित नहीं किया जाता है। पारंपरिक जीडीपी अनुमानों में समायोजित नहीं किए जाने वाले आर्थिक विकास के बाह्य प्रभावों का मौद्रिक मूल्य कभी-कभी बहुत ज्यादा भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, विश्व बैंक के एक अध्ययन से पता चला है कि वर्ष 2013 में भारत को महज वायु प्रदूषण के चलते 550 अरब डॉलर से भी अधिक राशि या जीडीपी के 8.5 प्रतिशत का भारी नुकसान उठाना पड़ा था। इसी तरह जल प्रदूषण, भूमि क्षरण इत्यादि के रूप में पड़ने वाले अन्य प्रभावों की आर्थिक लागत या नुकसान, जो अभी ज्ञात नहीं है, भी संभवत: बहुत अधिक बैठेगा।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की ‘लिविंग प्लैनेट’ रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल भूमि का लगभग 25 प्रतिशत मरुस्थलीकरण से प्रभावित या त्रस्त है, जबकि 32 प्रतिशत भूमि को क्षरण का सामना करना पड़ रहा है। इस तरह के पर्यावरणीय परिवर्तनों का भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की भावी खाद्य उत्पादन क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में सदी के अंत तक फसल पैदावार में 10 से 40 फीसदी तक का भारी नुकसान होने का अंदेशा है (दत्ता और सुरभि, 2016)। वर्ष 1947 से लेकर वर्ष 1997 तक की अवधि के दौरान भारत में आर्थिक विकास के साथ-साथ हुए पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण समाज की बिगड़ी दशा पर टिप्पणी करते हुए ऊर्जा और संसाधन संस्थान (टेरी) ने अपने द्वारा तैयार की गई एवं वर्ष 2009 में जारी की गई ‘ग्रीन इंडिया 2047’ नामक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि अशुद्ध हवा एवं जल के कारण भारत में रुग्णता लागत हर साल जीडीपी के लगभग 3.6 प्रतिशत तक बढ़ती जा रही है। इस रिपोर्ट में अशुद्ध हवा और जल की वजह से देश में हर साल आठ लाख लोगों की मौत होने की आशंका पर भी चर्चा की गई। एक अन्य अनुमान के तहत ‘ब्रिटेन में जलवायु परिवर्तन के अर्थशास्त्र पर स्टर्न समीक्षा’ में वर्ष 2007 में इस बात का उल्लेख किया गया था कि जलवायु परिवर्तन वर्ष 2100 तक भारत में जीडीपी के 9 से 13 प्रतिशत तक का लागत बोझ थोपेगा।
‘दहाई अंकों वाली जीडीपी वृद्धि दर’ हासिल करने का जुनून भारत की जैव विविधता और इसके दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए एक बड़ा खतरा है। उदाहरण के लिए, भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 4.9 प्रतिशत को कवर करने वाला ‘संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क’ होने के बावजूद उसे प्राकृतिक वास और जैव विविधता के नुकसान से मिल रही कड़ी चुनौती का निरंतर सामना करना पड़ रहा है। इसका सीधे जैव विविधता पर आधारित आजीविकाओं पर गंभीर असर पड़ता है (सुखदेव और बेल, 2012)। भारत में 380 मिलियन गरीबों में से लगभग आधे लोग अपनी दैनिक आजीविका के लिए इन्हीं प्राकृतिक वास या परिवेश पर निर्भर हैं। भारत के ग्रामीण गरीबों की जीडीपी का लगभग 47 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों जैसे कि वन उपज की कटाई, जंगल से औषधीय जड़ी-बूटी इकट्ठा करने और मत्स्य पालन से ही हासिल होता है (चौहान, 2012)। ये लोग आजीविका के हाशिए पर टिक कर किसी तरह से गुजर-बसर कर रहे हैं और जैव विविधता में कमी होने पर ये लोग ही सबसे अधिक प्रभावित होंगे। अत: ‘गरीबों की जीडीपी’ के जरिए ग्रामीण आजीविकाओं में प्राकृतिक संसाधनों एवं पारिस्थितिकीय सेवाओं के योगदान को पहचानना और उन्हें समुचित अहमियत देना अत्यंत जरूरी है। इस विशेष धारणा में उन सभी क्षेत्रों (सेक्टर) को शामिल किया गया है, जिनसे गरीब अपनी आजीविका और रोजगार सीधे तौर पर हासिल करते हैं। यदि भारत समावेशी विकास प्रक्रिया या ‘गरीब-अनुकूल’ विकास का लक्ष्य हासिल करना चाहता है तो इस तरह का आकलन और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।
वैकल्पिक राष्ट्रीय ग्रीन एकाउंटिंग प्रणालियां
पुराने ‘एसएनए’ को संशोधित कर उसका दायरा बढ़ा दिया गया है, ताकि आर्थिक विकास के अवांछित परिणामों के रूप में संसाधनों में हो रही कमी और प्राकृतिक पर्यावरण के क्षरण को उसमें शामिल किया जा सके। प्राकृतिक पूंजी लेखांकन (एनसीए) एक ऐसी पद्धति है जिसका इस्तेमाल प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से जुड़ी आय और लागत को समायोजित करने के लिए किया जाता है। यह पद्धति वर्ष 2012 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुमोदित की गई एक रूपरेखा पर आधारित है और जिसे ‘पर्यावरणीय आर्थिक लेखा प्रणाली (एसईईए)’ कहा जाता है। अन्य लेखांकन (एकाउंटिंग) विकल्प ये हैं: संपत्ति लेखांकन एवं पारिस्थितिकीय सेवाओं का मूल्यांकन (वेव्स); विश्व बैंक का एक कार्यक्रम जिस पर दुनिया भर के आठ देशों के साथ मिलकर काम किया जा रहा है, ताकि किसी राष्ट्र के धन में प्राकृतिक संसाधनों द्वारा किए जाने वाले योगदान को भी समायोजित किया जा सके, और समावेशी संपत्ति लेखांकन (आईडब्ल्यू)।
कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे कुछ देशों ने अपने-अपने ‘एसएनए’ के अलावा ‘एसईईए’ को भी अपना लिया है, जबकि बोत्सवाना, कोलंबिया, कोस्टा रिका, रवांडा और फिलीपींस ने ‘वेव्स’ को अपनाया है। ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, चीन और फ्रांस ने आईडब्ल्यू एकाउंटिंग को अपनाया है। चीन ने वर्ष 2004 के लिए अपना प्रथम ग्रीन जीडीपी डेटा वर्ष 2006 में प्रकाशित किया था जिसके बाद इस कवायद को वर्ष 2007 में अचानक बंद कर दिया गया था। चीन में ‘ग्रीन जीडीपी’ पर अनुसंधान अब फिर से शुरू हो गया है।
आगे की राह
कई साल पहले वर्ष 1999-2000 में प्राकृतिक संसाधनों के लेखांकन पर भारत का पहला पायलट अध्ययन गोवा राज्य में कराया गया था। प्रथम अध्ययन की सफलता के बाद इसी तरह की लेखांकन कवायद 8 भारतीय राज्यों में दोहराई गई। इन लेखांकन पद्धतियों के कामकाज के निष्कर्ष डॉ. किरीट पारिख की अध्यक्षता में वर्ष 2010 में गठित तकनीकी सलाहकार समिति द्वारा प्रस्तुत किए गए थे। इस समिति ने एक ‘राष्ट्रीय लेखांकन मैट्रिक्स’ विकसित करने की सिफारिश की। इसके बाद सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने वर्ष 2011 में प्रोफेसर पार्थ दासगुप्ता की अगुवाई में एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया जिसे भारत में ‘हरित राष्ट्रीय लेखा’ के लिए एक रूपरेखा तैयार करने का जिम्मा सौंपा गया। भारत में हरित जीडीपी लेखांकन को इसके ‘एसएनए’ की एक सहायक प्रणाली के रूप में एक एकीकृत पर्यावरणीय एवं आर्थिक लेखांकन प्रणाली पर आधारित करने का प्रस्ताव है।
वैसे तो एक संशोधित कार्यात्मक लेखांकन प्रणाली को वर्ष 2015 तक अमल में लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था, लेकिन यह प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हो पाई है। राज्यों से आवश्यक जानकारियां (इनपुट) हासिल कर एक प्राकृतिक संसाधन लेखांकन (एनआरए) डेटाबेस तैयार करने के लिए भारत में निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं। गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और मेघालय सहित कई राज्यों के लिए पायलट अध्ययन कराए गए हैं। यही नहीं, सरकार इसी साल से देश की पर्यावरणीय संपदा के जिला स्तरीय आंकड़ों की गणना करने के लिए पंचवर्षीय कवायद शुरू करने की योजना बना रही है। इन आंकड़ों का उपयोग प्रत्येक राज्य की ‘ग्रीन’ जीडीपी की गणना के लिए किया जाएगा। यह पहली बार है कि सरकार ने भारत में एक ‘राष्ट्रीय पर्यावरण सर्वेक्षण’ शुरू किया है। ‘ग्रिड’ के रूप में भूमि का सीमांकन करके इसी साल सितम्बर में 54 जिलों में एक पायलट परियोजना शुरू किए जाने की उम्मीद है जिसके तहत प्रत्येक जिले में लगभग 15-20 ग्रिड होंगे। इस कवायद का उद्देश्य एक विशेष मान (वैल्यू) प्रदान करके प्रत्येक राज्य के भौगोलिक क्षेत्र, कृषि भूमि, वन्य जीवन और उत्सर्जन के स्वरूप (पैटर्न) में निहित विविधता का पता लगाना है (कोशी, 2018)।
यदि भारत वास्तविक आर्थिक विकास के साथ-साथ इसमें अपनी समग्र संपदा के योगदान का भी लेखा-जोखा रखना चाहता है तो ‘ग्रीन जीडीपी’ निश्चित तौर पर भारत के लिए एक तार्किक अग्रगामी कदम है। जीडीपी के मौजूदा अनुमानों में बढ़ती आर्थिक गतिविधियों के साथ प्राकृतिक पूंजी में होने वाली बढ़त/नुकसान को समायोजित नहीं किया जाता है। वैसे तो आर्थिक गतिविधियां बढ़ने पर जीडीपी के आंकड़े बेहतर हो जाएंगे, लेकिन इसके साथ ही आगे चलकर मानव कल्याण के साथ-साथ प्रकृति पर भी इसका असर जरूर पड़ेगा। अत: ‘व्यापक आर्थिक विकास की व्यवस्था’ के बजाय ‘प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग एवं संरक्षण करने वाली आर्थिक विकास प्रणाली’ को अपनाने से भारत को सतत विकास और लोगों की ज्यादा भलाई सुनिश्चित करने के साथ-साथ समावेशी विकास करने के भी लक्ष्य को पाने में मदद मिल सकती है।
References
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