Published on Jun 29, 2018 Updated 0 Hours ago

हाल ही में हुई दो घटनाओं की वजह से चीन में अमेरिका की नीयत को लेकर कुछ शक और घबराहट है। अमेरिकी संसद में ताइवान को हथियार बेचने को लेकर फिर से बातचीत शुरू हो गयी है।

चीन ताइवान और अमेरिका: रिश्तों में नया तनाव

जब पूरी दुनिया सिंगापुर में हो रही ट्रम्प और किम की हाई प्रोफाइल मुलाक़ात में उलझी हुई थी, पास ही में एक नयी कूटनीतिक समस्या सर उठा रही थी जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया सिवाए उनके जो ताइवान पर पैनी नज़र रखते हैं। 11 जून को अमेरिका ने अपना नया अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ़ ताइवान खोला जिसे ज़्यादातर लोग अमेरिकी दूतावास ही मानते है। हालाँकि ये क़दम अचानक नहीं उठाया गया। इसपर दस सालों से काम चल रहा था और इसकी कुल लागत 255 मिलियन अमेरिकी डॉलर आयी। दिलचस्प है इसके उद्घाटन का वक़्त।

अमेरिकी हिस्सेदारी

पहले लगाये जा रहे कयास के उलट अमेरिका ने इस कार्यक्रम के लिए ज्यादा हाई प्रोफाइल डेलीगेशन नहीं भेजा। ऐसे अधिकारी आये जो ओहदे में नीचे हैं। हो सकता है कि ट्रम्प और किम का शिखर सम्मलेन या फिर अमेरिका और चीन के बीच चल रहा व्यापर युद्ध इसकी वजह रहा हो। शिक्षा और सांस्कृतिक मामलों की जूनियर मंत्री मैरी रोयस ने इस दल का नेतृत्व किया। इसमें शामिल थे विलियम मोसर, अमेरिकी ओवरसीज ऑफिस के सह निदेशक और अमेरिकी सांसद ग्रेग हार्पर जो अमेरिका ताइवान दल के सहायक अध्यक्ष भी हैं।

ताइवान की तरफ से राष्ट्रपति साईं इंग वेन और पूर्व राष्ट्रपति मा यिंग जेऊ मौजूद थे। जिस से ये एक बार फिर साफ़ हुआ कि ताइवान एक स्वतंत्र देश के तौर पर अमेरिका से अपने रिश्ते रखना चाहता है। चर्चा है कि अमेरिका के वरिष्ठ पदाधिकारी जैसे कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन जल्दी ही इस संस्था का दौरा करने वाले हैं। चीन को ये भी डर है कि संस्था के मौजूदा निदेशक किन मोय जब पद छोड़ेंगे तो उनकी जगह कोई अमेरिकी राजनयिक ले सकता है।

ट्रम्प के राष्ट्रपति पद सँभालने के बाद ताइवान का सवाल बार बार उठा है। बल्कि राष्ट्रपति पद कि शपथ लेने के पहले ही ट्रम्प का ताइवान के राष्ट्रोपति को फ़ोन करना एक नया विवाद खड़ा कर गया। और फिर ट्रम्प ने अमेरिका की वन चाइना पालिसी पर ही सवाल खड़ा कर दिया जो कि 1979 से चीन और अमेरिका के रिश्ते का मूल आधार रहा है। हलांकि इसके बाद ताइवान के मामले में ट्रम्प अपने विचार कई बार बदलते रहे लेकीन कुछ उच्च सलाहकारों के सवाल चीन को चिढाते रहे हैं।

हाल ही में हुई दो घटनाओं की वजह से चीन में अमेरिका की नीयत को लेकर कुछ शक और घबराहट है। अमेरिकी संसद में ताइवान को हथियार बेचने को लेकर फिर से बातचीत शुरू हो गयी है। क्यूंकि अमेरिकी हथियार बेचने वालों पर ताइवान को हथियार बेचने पर कुछ पाबंदियां थीं जिस में अब ढिलाई दे दी गई है। दुसरे ट्रम्प ने ताइवान ट्रेवल एक्ट पर दस्तखत किया है जिसे सीनेट ने पहले ही मंज़ूरी दी थी जिसके तहत दोनों देशों के अधिकारीयों के बीच आना जाना बढेगा।

चीन और ताइवान के ख़राब होते सम्बन्ध

KMT पार्टी के माँ यिंग जेओ के कार्यकाल में ८ सालों तक सम्बन्ध स्थाई बने रहे, लेकिन डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साईं इंग वेन के चुने जाने के बाद २०१६ से रिश्ते बिगड़ने लगे।माँ यिंग का चीन की तरफ रुख नर्म था। माँ यिंग और शी जिनपिंग के बीच २०१५ में एक ऐतिहासिक शिखर सम्मलेन भी हुआ लेकिन इंग वेन ने १९९२ की चीन और ताइवान के बीच हुए उस आम सहमति को नकार दिया जिसे पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना ताइवान के साथ रिश्ते में बुनियादी स्तम्भ मानता है। चाइना का ये दावा है कि ताइवान के साथ आक्रामक रुख अपनाना अभी भी उसके पास एक विकल्प है।

पिछले दो सालों में ताइवान पर चीन का राजनितिक और कूटनीतिक दबाव बढ़ा है। ८ महीने पहले कम्युनिस्ट पार्टी के उन्नीसवें राष्ट्रीय कांग्रेस में शी जिनपिंग ने ताइवान को चेतावनी दी थी। कहा था कि हम इतने सक्षम हैं कि ताइवान की आजादी कि किसी भी कोशिश को कुचल दे। पिछले 18 महीनो में कई अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों ने ताइवान को छोड़ अपने कूटनीतिक रिश्ते चीन से मज़बूत कर लिए हैं। इसमें सो टोम और प्रिंसिप और पनामा शामिल है। ताइवान को छोड़ने वाले देशों में नया नाम है बुर्किना फासो का, अब सिर्फ स्वाज़ीलैंड ही एक ऐसा अफ्रीकी देश है जिसके ताइवान के साथ सम्बन्ध हैं। बेशक ये बदलाव पैसों के लालच और दबाव में हुआ है। चीन चाहता है कि सितम्बर में होने वाली चाइना अफ्रीका कोऑपरेशन की अगली बैठक के पहले सारे ५४ अफ्रीकी देश उसके साथ हों। दुनिया भर में अब सिर्फ 18 ऐसे देश हैं जो ज़्यादातर लैटिन अमेरिका और दक्षिण प्रशांत सागर के द्वीप हैं,जो ताइवान के साथ अब भी कूटनीतिक रिश्ते बनाये हुए हैं।

चीन ने अंतर्राष्ट्रीय संगठनो में ताइवान की मौजूदगी को भी रोका है। चीन के आक्रामक रवैय्ये की वजह से ताइवान के दल को अंततराष्ट्रीय सिविल एविएशन आर्गेनाईजेशन में २०१६ में रोका गया, इंटरपोल की २०१६ की जनरल असेंबली में भी हिस्सा नहीं लेने दिया गया। हीरे के व्यापर पर पर्थ में हो रहे सम्मलेन किम्बर्ले प्रोसेस कांफ्रेंस और विश्व स्वास्थ सभा की २०१७ में हो रही सालाना मीटिंग में भी शामिल नहीं किया गया। हैरानी इस बात पर है कि ताइवान के दल ने पहले इन सभी जगहों पर हिस्सा लिया है। चीन की जोर ज़बरदस्ती कि एक और मिसाल है। चीन ने नाइजेरिया को मजबूर किया कि वो ताईवानी कारोबार से जुड़े अपने कार्यालय को राजधानी अबुजा से लागोस ले जाए।

चीन के नक़्शे में भी ये आक्रामक रुख नज़र आया। एक साल पहले तक चीन के आधिकारिक नक़्शे में ताइवान को ज्होंगुआ ताइवान की जगह ज्होंगुओ ताइवान लिखा जाने लगा। हालाँकि दोनों का मतलब चीन ही है लेकिन ज्होंगुओ १९४८ के बाद के चीन के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

जब इस साल जनवरी में मैरिअट इंटरनेशनल नाम की कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर चीन को एक अलग देश के तौर पर दिखाया तो चीन ने उसकी वेबसाइट बंद कर दी। जापान की कंपनी मुजी और अमेरिका की कपड़ों की कंपनी गैप को अपने नक्शे में टिवं को ग़लत दिखने के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी। इस साल मई में सभी एयरलाइन को ये निर्देश दिया गया कि ताइवान को चीन का हिस्सा ही बताया जाए। जादातर एयरलाइन ने PRC यानी चीनी गणतंत्र की बात मान ली है।

ताइवान के चुनाव पर नज़र

पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को ये उम्मीद है कि ताइवान पर लगातार दबाव वोटरों पर भी असर डालेगा और वो अगले चुनाव में ज्यादा नर्म रुख वाली पार्टी KMT को चुनेंगे। लेकिन इन उम्मीदों पर पानी फिर सकता है और ये दाव उल्टा पड़ सकता है अगर ताइवान के युवा एक राष्ट्रवादी रुख अपनाएं। ये याद रखना ज़रूरी है कि २०१६ में साईं इंग वेन PRC के मुकाबले ज्यादा सख्त रुख अपना कर ही सत्ता में आये थे। दुसरे डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी यानी DPP के ज़्यादातर सदस्य मूलतः ताइवान के ही हैं जिन्हें मेनलैंड चाइना से कोई लगाव नहीं है। आने वाले दिनों में संभावना है कि चीन और ताइवान के रिश्तों में तनाव बना रहेगा जो अमरीकी प्रशासन के लिए एक मुश्किल स्थिति कड़ी कर देता है क्यूंकि उसको दोनों के बीच संतुलन बना कर चलना है।

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